October 7, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-044 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ चौवालीसवाँ अध्याय मुनि गृत्समद द्वारा रानी कीर्ति से विनायकदेव की महिमा का कथन, काशी में राजा दिवोदास के राज्य-शासन का वर्णन अथः चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः बालचरिते दिवोदासोपाख्यानं कीर्ति बोली — [हे मुने!] आपने दैत्य दुरासद के वध के लिये तथा तीनों लोकों के पालन के लिये अवतरित हुए शक्तिपुत्र दुण्ढिराज की कथा का वर्णन किया। मैंने आपसे यह सुना कि वे विनायक एक पैर से तुण्ड[न] नगर में स्थित हुए और दूसरे पैर से दैत्य दुरासद के मस्तक को आक्रान्तकर वाराणसी में स्थित हुए; तो दो पैरों से एक बार में दो अलग-अलग स्थानों पर रहना कैसे सम्भव है? हे ब्रह्मन्! आप सब कुछ जानने वाले हैं, अतः मेरे इस संशय का निवारण करें ॥ १-३ ॥ मुनि गृत्समद बोले — [हे कीर्ते !] विश्वरूप, विश्व के कर्ता, समस्त विश्व की रक्षा करने वाले तथा समस्त विश्व में व्याप्त रहने वाले विश्वेश्वर ढुण्डिराज गणेश के शासन में क्या असम्भव है ! ॥ ४ ॥ जो जगत् के अन्तर्यामी हैं, पर हैं, विश्व का संहार करने वाले हैं, सातों पाताल ही जिनके चरण हैं, स्वर्गलोक तक जिनके केश व्याप्त हैं, जिनके हाथ-पैर सब ओर हैं, सभी ओर जिनके कान और नेत्र हैं, जो मन से, वेदों से, ब्रह्मा आदि देवताओं से तथा योगियों के लिये भी यथार्थरूप से अगम्य हैं। जो वायु, पृथिवी तथा जलस्वरूप हैं, जो हजारों सूर्यों के सदृश तेजोमय हैं, सूर्य, चन्द्रमा, आकाश आदि जिनका ही स्वरूप हैं, जो चराचर जगत् के गुरु हैं और स्वयं चराचरात्मा भी हैं। जिनके रोमकूपों में करोड़ों-करोड़ों ब्रह्माण्ड उसी प्रकार भ्रमण करते रहते हैं, जिस प्रकार कि हवा के द्वारा लाये गये पतिंगे आकाश में घूमते रहते हैं, अतः हे मातः ! ऐसे उन देव विनायक के विषय में कोई भी संशय अथवा तर्क-वितर्क नहीं किया जा सकता ॥ ५–९ ॥ वे प्रभु विनायक अनेक स्वरूप वाले हैं और चराचर विश्व की सृष्टि करने में समर्थ हैं । हे राज्ञि ! उनकी इच्छा से अमृत भी विषरूप तथा विष भी अमृतरूप हो जाता है, अतः उनके लिये कुछ भी असम्भव नहीं है। उन भगवान् गजानन के अवतार की विचित्र गति कही गयी है ॥ १०-११ ॥ उन विनायक के कितने अवतार हुए, कब हुए और कहाँ हुए, इसे जानने में शेषनागसहित समस्त देवता भी कभी भी समर्थ नहीं हुए ॥ १२ ॥ अतः सभी धर्मों को जानने वाली हे कीर्ते! इस प्रकार के संदेहों का परित्यागकर मेरे द्वारा कही जाने वाली कथा को सुनो, जिसे सुनकर मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है ॥ १३ ॥ प्राचीन काल की बात है, सूर्यवंश में दिवोदास नाम के एक राजा हुए, जो बहुत बड़े दानी, स्वाभिमान से भरे हुए, सम्पूर्ण भूमण्डल में मान-सम्मान को प्राप्त, देवगुरु बृहस्पति के समान वक्ता, सर्वज्ञ, सर्वदा सभी का कल्याण करने वाले, वेद-शास्त्रों तथा पुराणों के ज्ञाता, और विद्वज्जनों के अत्यन्त प्रिय थे ॥ १४-१५ ॥ वे अपनी सुन्दर आकृति से स्त्रियों को मोहित करने वाले होने पर भी जितेन्द्रिय थे । वे निरन्तर उपकार-परायण, दूसरे से द्रोह करने से दूर रहने वाले, पराये धन की तनिक भी अभिलाषा न रखने वाले, दूरदृष्टि रखने वाले और अत्यन्त पराक्रमसम्पन्न थे ॥ १६१/२ ॥ उन राजा दिवोदास की तपस्या से सन्तुष्ट होकर लोकों पर उपकार करने वाले ब्रह्माजी ने वृष्टि न होने के कारण अकालग्रस्त काशीपुरी का उत्तम राज्य उन्हें प्रदान किया। सभी देवताओं को बहिष्कृत करने पर ही उन बुद्धिमान् राजा दिवोदास ने काशी का राज्य स्वीकार किया था ॥ १७–१९ ॥ तदनन्तर राजा दिवोदास स्वयं ही सूर्य, इन्द्र, अग्नि, वायु तथा चन्द्रमा बनकर धर्मपूर्वक उस काशीपुरी का परिपालन करने लगे। उनकी सुशीला नाम की पत्नी थी, जो पतिव्रता, धर्माचरणपरायण, दानशील तथा पति की आज्ञा का पालन करने वाली थी ॥ २०-२१ ॥ राजा दिवोदास आचार, व्यवहार अथवा प्रायश्चित्त- सम्बन्धी बातों का निर्णय पण्डितजनों से करवाते थे, वे किसी को भी राजदण्ड नहीं देते थे। उस समय सभी देवता शंकरजी के साथ मन्दराचल पर्वत पर चले गये थे। राजा दिवोदास के काशी में शासन करने पर न तो किसी की अपमृत्यु होती थी, न किसी को कोई शोक ही होता था और न किसी प्रकार का दुःख ही था ॥ २२-२३ ॥ उनके द्वारा शासित राज्य में तीनों प्रकार के उत्पात (दिव्य, आन्तरिक्ष और भौम) नहीं होते थे । वर्षा न होने के कारण पशु-पक्षी तथा मनुष्यों में जो महान् हाहाकार हो रहा था, वह अब शान्त हो गया था । वर्षा हो जाने के कारण खेतों में बहुत प्रकार के सस्य (धान्यादि) उत्पन्न होने लगे। उन्हीं धान्यादि पर प्राणिमात्र का जीवन आधारित रहता है ॥ २४-२५ ॥ पूर्व समय में जिस प्रकार से स्वाहाकार, स्वधाकार तथा वषट्कार (अर्थात् देवपूजन, यज्ञ-यागादि, श्राद्ध तथा तर्पण आदि) होता था, वह सब फिर से होने लगा । जिन देवताओं ने पूर्व में उन राजा की प्रार्थना की थी, वे सुखी हो गये। ब्रह्माजी के कथनानुसार सभी देवताओं ने राजा दिवोदास की स्तुति की, उन राजा दिवोदास ने भी देवों का दर्शन प्राप्तकर विविध प्रकार से उनकी बहुत स्तुति की ॥ २६-२७ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘दिवोदास के उपाख्यान में’ चौवालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४४ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe