October 7, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-045 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ पैंतालीसवाँ अध्याय शंकरजी का सभी देवताओं को लेकर मन्दरगिरि पर जाना, राजा दिवोदास का काशी में राज्य करना, भगवान् शिव का दिवोदास के विकार देखने के लिये देवताओं तथा ऋषियों को काशी भेजना, किंतु दिवोदास को निर्विकार देखकर उन सभी का काशी में स्थित हो जाना, फलस्वरूप शिव का काशीदर्शन के लिये चिन्तित होना अथः पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः बालचरिते दिवोदासोपाख्याने शिवचिन्तावर्णनं कीर्ति बोली — हे मुने ! सभी देवता मन्दराचल पर्वत पर क्यों चले गये और भगवान् शिव ने उस रमणीय पुरी वाराणसी का क्यों परित्याग किया? हे महामुने! हे देवर्षे! मुझे इस विषय में संशय है, इसे आप दूर करने की कृपा करें ॥ ११/२॥ मुनि गृत्समद बोले — एक बार जब बारह वर्षों तक लगातार वृष्टि नहीं हुई, तो सम्पूर्ण चराचर जगत् विनष्ट होने लगा, पृथ्वी पर स्वाहाकार-स्वधाकार तथा वषट्कार होना बन्द हो गया । तब उस समय ब्रह्माजी के वचनों से प्रेरित होकर देवताओं ने भगवान् शंकर की प्रार्थना की ॥ २-३ ॥ देवता बोले — हे महादेव ! हे जगन्नाथ ! हे करुणानिधान! हे शंकर! महर्षि मरीचि मन्दराचल पर स्थित होकर दस वर्षों से तपस्या कर रहे हैं । हे देव ! आप उन्हें वर प्रदान करने के लिये वहाँ जायँ ॥ ४१/२ ॥ मुनि गृत्समद बोले — [हे कीर्ते!] इस प्रकार से देवताओं द्वारा प्रार्थना किये गये करुणासागर भगवान् महेश्वर अग्नि, चन्द्रमा, अर्यमा (सूर्य), आदि सभी देवताओं के साथ उन महामुनि मरीचिजी को वर प्रदान करने के लिये मन्दरगिरि पर गये ॥ ५-६ ॥ भगवान् शिव ने देखा कि वे अस्थिमात्र शेष रह गये हैं, कदाचित् वे उस समय वहाँ न पहुँचते तो महर्षि मरीचि अपने प्राणों का परित्याग कर देते ॥ ७ ॥ उनके उत्कट तप से पार्वतीपति भगवान् शंकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने अपना पद प्रदान किया तथा विमान में बैठकर वाद्यों की ध्वनि करते हुए अपने गणों के साथ शीघ्र ही अपने लोक में पहुँचाया। तभी से सभी देवगणों के साथ भगवान् शम्भु अत्यन्त कल्याणकारी पर्वतश्रेष्ठ मन्दराचल में रहने लगे ॥ ८-९ ॥ जब भगवान् सदाशिव ने राजा दिवोदास में कोई भी दोष नहीं देखा तो उन्होंने बड़ी ही उत्सुकतापूर्वक उनके दोषों को देखने के लिये देवताओं को वाराणसी पुरी में भेजा। जो-जो देवता काशी जाते और राजा दिवोदास में कोई भी दोष नहीं देख पाते, तो वे अपने नाम से वहाँ काशी में शिवलिंग स्थापित करके वहीं स्थित हो जाते ॥ १०-११ ॥ राजा दिवोदास के राज्य में ब्राह्मण आदि सभी चारों वर्णों के लोग अपने-अपने वर्ण एवं आश्रम – धर्मों का परिपालन करते थे। सभी द्विजाति अपने आश्रम में स्थित होकर शास्त्रों में बताये गये आचार का पालन करते थे। शिष्य गुरुजनों की सेवा करते थे, स्त्रियाँ पतिव्रताएँ थीं और [सम्पूर्ण प्रजा] धर्माचरण करने वाली, दानपरायण और व्रत-उपवास आदि के नियमों का पालन करने में तत्पर रहती थी ॥ १२-१३ ॥ संन्यासी तीनों समय (प्रातः, मध्याह्न तथा सायं) स्नानादि [ संन्यासोचित] आचारों का पालन करते थे, वानप्रस्थाश्रमी होम, मौनादि का आचरण करने वाले थे। सभी गृहस्थाश्रम-धर्म का पालन करने वाले, स्नान, सन्ध्या, जप, होम, स्वाध्याय, देवपूजन, अतिथिसत्कार, बलिवैश्वदेव – इन आठ कर्मों को निष्पाप रहकर बड़े ही श्रद्धा-भक्तिपूर्वक स्वयं ही करते थे ॥ १४-१५ ॥ इसी कारण वहाँ धर्म की बड़ी वृद्धि हुई और उत्तम वृष्टि हुई। उस समय स्वर्गस्थित देवता अत्यन्त आनन्दित रहते थे और पितरों को स्वधाकार (श्राद्ध-तर्पण आदि) प्राप्त होता था ॥ १६ ॥ उस समय काशी में न तो कोई स्त्री वन्ध्या थी, न कोई मासिकधर्म से विहीन, न कोई स्त्री विधवा थी और न कोई स्त्री ऐसी थी, जिसके बच्चे पैदा होते ही मर जाते हों। न तो अवर्षण होता था, न अतिवृष्टि होती थी, न तो कोई राजद्रोह था और न किसी शत्रु का भय तोतों, टिड्डियों तथा चूहों से खेती को कहीं कोई भय नहीं था और भलीभाँति कृषि की उपज निर्विघ्न सम्पन्न होती थी ॥ १७-१८ ॥ नृपश्रेष्ठ दिवोदास यह डिण्डिम घोष नित्य ही करवाते थे कि जो कोई भी व्यक्ति विश्वेश्वर, विन्दुमाधव, ढुण्डिराज गणेश, भैरव, दण्डपाणि, कार्तिकेय, मणिकर्णिका एवं भवानी (अन्नपूर्णा ) -का दर्शन किये बिना तथा मणिकर्णिका एवं गंगा में बिना स्नान किये भोजन करेगा, वह निश्चित ही दण्डनीय होगा ॥ १९-२० ॥ ऐसे राजश्रेष्ठ दिवोदास के राज्य करते समय वहाँ लेशमात्र भी पाप नहीं था। बिना किसी दोष के रहते भगवान् सदाशिव उस काशी के राज्य को लेना नहीं चाहते थे। उस समय वाराणसी से दूर मन्दरगिरि में रहने के कारण वहाँ (काशी) – के वियोग से भगवान् शिव अत्यन्त दुखी हो गये थे। तब उन्होंने विघ्न उपस्थित करने के लिये आठ भैरवों (असितांग, रुरु, चण्ड, क्रोध, उन्मत्त, कपाल, भीषण और संहारभैरव) – को काशी में भेजा ॥ २१-२२ ॥ भगवान् शिव ने उनसे कहा — आप लोग राजा दिवोदास के राज्य काशी में अणुमात्र (यत्किंचित्) पाप करायें। ऐसा होने पर मैं दिवोदास से काशी का राज्य ले लूँगा। इसमें कोई संशय नहीं है। हे भद्रे ! भगवान् सदाशिव से आज्ञा प्राप्तकर उन सभी भैरवों ने शीघ्र ही काशी के लिये प्रस्थान किया। वाराणसी का दर्शनकर, स्नान करने के अनन्तर वे विश्राम करने लगे ॥ २३-२४ ॥ उन काशीराज दिवोदास का कोई भी पापकर्म न देखकर वे अष्ट भैरव वहीं काशी में निवास करने लगे। उन भैरवों के वहाँ से वापस न आने पर शिवजी अत्यन्त चिन्तित हो उठे ॥ २५ ॥ तदनन्तर भगवान् शिव ने उन राजा दिवोदास के छिद्रों को देखने के लिये द्वादश आदित्यों को काशी में भेजा, किंतु वे भी राजा दिवोदास के पुण्यकर्मों को देखकर अत्यन्त आनन्दित हो काशी में ही स्थित हो गये। वे द्वादश आदित्य कहने लगे — ‘हमने भगवान् शिव का कार्य तो किया नहीं और यह पुरी भी त्याज्य नहीं है ।’ तदनन्तर भगवान् शिव ने चौंसठ योगिनियों को राजा का छिद्र ज्ञात करने के लिये काशीपुरी में प्रेषित किया ॥ २६-२७ ॥ उन योगिनियों ने [जब] दिवोदास का अणुमात्र भी दोष नहीं देखा तो वे भी उन अविनाशी महेश्वर का यजन-पूजन करते हुए वहीं वाराणसीपुरी में निवास करने लगीं। तदनन्तर महेश्वर ने दुःख का विनाश करने वाली भगवती दुर्गा को काशी भेजा, किंतु राजा का कोई भी पाप न देखकर वे दुर्गाजी भी काशी ग्राम (पुरी) – से बाहर स्थित हो गयीं। उन्होंने ध्यानयोग के द्वारा भगवान् शिव को प्रसन्न किया और सम्पूर्ण अभिलाषाओं को पूर्णकर मानवों को सन्तुष्ट किया ॥ २८-२९१/२ ॥ इसके पश्चात् भगवान् शम्भु ने शीघ्र ही आठों दिक्पालों को काशी भेजा, वाराणसी में गये हुए उन दिक्पालों ने भी राजा दिवोदास के रंचमात्र भी पापकर्म को नहीं देखा। तब वे आठों दिक्पाल अपने-अपने नाम से वहाँ लिंग स्थापितकर प्रसन्नतापूर्वक वहीं काशी में निवास करने लगे ॥ ३०-३११/२ ॥ तदनन्तर शंकरजी ने अत्यन्त उत्सुकतापूर्वक ऋषियों को वहाँ भेजा। भगवान् शिव के द्वारा विशेष रूप से प्रेरित किये जाने पर वे प्रसन्न मन से त्वरापूर्वक वहाँ गये ॥ ३२ ॥ वाराणसी में जाकर वे तीर्थस्नान आदि की विधि सम्पन्न करके राजा दिवोदास को आशीर्वाद देने के लिये उनके पास जा-जाकर उनकी चेष्टाओं को ध्यान से देखने लगे । राजा दिवोदास ने भक्तिपूर्वक उन सभी को धन तथा वस्त्र आदि प्रदानकर पूजा की, किंतु उन्होंने उस धन को राजप्रतिग्रह समझकर ग्रहण नहीं किया। परंतु ऋषियों को भी राजा दिवोदास में स्वल्प भी दोष दिखायी नहीं दिया ॥ ३३-३४ ॥ वे ऋषिगण भी वहाँ काशी में अपने-अपने नाम से शिवलिंग स्थापित करके परम तप करने लगे । तदनन्तर शिवजी ने अपने कार्य को सिद्ध करने के लिये सभी देवताओं को काशी भेजा ॥ ३५ ॥ उन्होंने भी धर्माचरण करने वाले उन दिवोदास का कोई भी दुष्कर्म नहीं देखा। जब वे देवता भी नहीं लौटे तो भगवान् शिव सोचने लगे कि जिस-जिसको भी मैंने काशी भेजा, वहाँ से कोई भी लौटकर नहीं आया ॥ ३६ ॥ तब चिन्तापरायण भगवान् रुद्र कुछ भी निश्चय नहीं कर सके। वे मन-ही-मन सोचने लगे कि कब मैं उस काशीपुरी को देखूँगा ॥ ३७ ॥ राजा दिवोदास के राज्य में जब कोई पापकर्म होगा, तभी मेरे द्वारा काशी में जाना होगा, ऐसा न होने पर मुझे काशी कभी प्राप्त नहीं हो सकेगी ॥ ३८ ॥ ढुण्डिराज तथा माधव को छोड़कर सभी देवता विफल हो गये हैं । वे देवता वापस नहीं लौट रहे हैं और ध्यानपरायण होकर वहीं स्थित हो गये हैं ॥ ३९ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराणके क्रीडाखण्ड में दिवोदास के उपाख्यान में पैंतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४५ ॥ Content is available only for registered users. 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