श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-047
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
सैंतालीसवाँ अध्याय
भगवान् विष्णु द्वारा बौद्धरूप धारणकर काशीनिवासियों को उपदेश प्रदान करना, काशी में अधर्माचरण की वृद्धि, भगवान् विष्णु का अपने चतुर्भुजरूप में दिवोदास को दर्शन देना और अनेक वर प्रदान करना तथा शिव के काशी-आगमन के लिये दूत द्वारा सन्देश भेजना, दिवोदास द्वारा काशी का राज्य त्यागकर तपस्या में निरत होना
अथः सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः
दिवोदासस्य राजपरित्यागः

राजा दिवोदास बोले — हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं आपके वचन का अवश्य पालन करूँगा। मैं भगवान् शिव की शपथ लेकर कहता हूँ कि जैसा आपने कहा है, मैं वैसा ही करूँगा। उससे अन्यथा कुछ नहीं करूँगा ॥ १ ॥

गृत्समद बोले — इस प्रकार ज्योतिषी का वेश धारण किये उन ढुण्डिराज ने भूत, भविष्य, वर्तमान तथा दूर की बातों की सत्य-सत्य भविष्यवाणियाँ करते हुए काशी में निवास करने वाले सभी जनों को अपने वश में कर लिया। वे लोग अपने सभी कर्मों को छोड़कर उन्हीं की सेवामें लग गये। तदनन्तर काशी के पंचक्रोशीक्षेत्र से बाहर स्थित होकर भगवान् विष्णु बौद्ध का अवतार धारणकर काशी में आकर सभी लोगों को अपनी माया से मोहित करने लगे। उन्होंने सनातनधर्मरूपी वृष से द्वेष करते हुए श्रुति – स्मृति के विरुद्ध मत का वहाँ के निवासियों को पाठ पढ़ाया ॥ २–४ ॥

उन्होंने भी अपने वचनों के द्वारा काशी के सभी बड़े-बड़े लोगों को अपने वश में कर लिया। उन्होंने भगवान् के साकार भजन अर्थात् मूर्तिपूजा को सर्वांश में बड़े ही समारोहपूर्वक दूषित बताया ॥ ५ ॥ उन्होंने कहा कि सभी लोग मूर्ख बुद्धि वाले हैं; क्योंकि परमात्मा के हृदय में स्थित होने पर भी न जाने क्यों वे मिट्टी तथा धातु आदि से निर्मित मूर्तियों की पूजा करते हैं। यज्ञ-यागादि में हवन करने के लिये वृक्षों का काटना तथा यज्ञ में पशुओं की हिंसा करना व्यर्थ ही है । दूसरे को दान देना अथवा दक्षिणा देना अपने धन को नष्ट करना है ॥ ६-७ ॥ शरीर के नष्ट हो जाने पर पृथ्वी आदि पाँचों भूत पाँचों भूतों में लीन हो जाते हैं। अतः प्रसन्नता के साथ घृतसहित पक्वान्न अकेले ही खाना चाहिये । नाना प्रकार के भोगों के द्वारा तथा विविध सुखों का आनन्द लेते हुए इस शरीररूपी आत्मा की ही सेवा करना चाहिये । ऐसा उपदेश सुनकर वहाँ के सभी लोग अपने-अपने आचार-विचार का परित्यागकर जैसा बुद्ध ने कहा था, उसी प्रकार का आचरण करने लगे ॥ ८-९ ॥

वे ब्राह्मणों तक को भोजन न कराकर स्वयं ही उत्तम भोगों का उपभोग करने लगे। उन (बौद्ध)-की पत्नी का नाम कमला था। उसने भी वाराणसी में स्थित होकर वहाँ निवास करने वाली सभी स्त्रियों के मनोरथों को पूर्ण करते हुए उन सभी को व्यामोह में डाल दिया। वह उन्हें प्रतिदिन कुमार्ग में चलने को प्रेरित करती थी ॥ १०-११ ॥ इस प्रकार उन दोनों के वचनों से काशीपुरी तथा वहाँ के ग्रामों में निवास करने वालों की बुद्धियाँ नष्ट-भ्रष्ट हो गयीं। जो परमात्मा अपने शरीर में तथा पति के शरीर में स्थित है, वही दूसरे के शरीर में भी स्थित है ॥ १२ ॥ जिस प्रकार से व्यक्ति मुख, नाक, हाथ आदि विभिन्न अंगों के भिन्न होने पर भिन्न नहीं होता। उसी प्रकार से यह आत्मा भी जरायुज, स्वेदज आदि चार प्रकार के प्राणियों में अलग-अलग नहीं होता अर्थात् एक समान रूप से स्थित रहता है। इस प्रकार से प्रलोभन में डाली गयी वे स्त्रियाँ परपुरुषों के साथ भी सम्पर्क करने लगीं। ब्राह्मणों का अग्निहोत्र तथा अन्य यज्ञों के प्रति आदर शिथिल हो गया ॥ १३-१४ ॥

व्रत में, दान में, होम में, देवताओं तथा ब्राह्मणों के पूजन में और यज्ञीय पशुओं के आलभन में लोग संशय करने लगे। [ब्राह्मणों को न बुलाकर] लोग परस्पर एक-दूसरे के घरों में जाकर श्राद्ध-सम्बन्धी तथा व्रतोपवास-सम्बन्धी उत्तम भोजन को स्वयमेव ही करने लगे ॥ १५-१६ ॥ इस प्रकार वहाँ [वैदिक] धर्म का लोप होने लगा और पाप की वृद्धि हो गयी। तदनन्तर बौद्धरूप विष्णु शीघ्र ही राजा दिवोदास के भवन में गये । राजा दिवोदास ने अपने शुभ आसन पर बैठाकर परम भक्तिभाव से उनका पूजन किया । तदनन्तर बोलने में अत्यन्त कुशल बौद्ध ने दिवोदास से यह वचन कहा — ॥ १७-१८ ॥

बौद्ध बोले — हे राजन् ! सुनिये, मैं आपके हित की बात बताता हूँ, उसे सुनकर आप आदरपूर्वक उसका पालन करें। इस वाराणसी नगरी का त्रिशूलधारी भगवान् शंकर ने अपने तेज से निर्माण किया है । प्रलयकाल में भी वे सभी प्राणियों के साथ इस वाराणसीपुरी को अपने त्रिशूल के अग्रभाग में धारण किये रहते हैं। इस नगरी में पुण्यात्माजनों तथा मरने के अनन्तर मोक्ष चाहने वाले लोगों के द्वारा ही निवास किया जाना चाहिये ॥ १९-२० ॥ पापात्मा जनों को भैरव द्वारा इस नगरी से बाहर कर दिया जाता है और पुण्यात्मा जनों की रक्षा भगवान् शिव तथा भैरव यहाँ करते रहते हैं। आपका पुण्य जबतकं था, तबतक तो आप काशी में राज्य करते हुए यहाँ स्थित रहे, किंतु अब आप वैसे पुण्यात्मा नहीं रहे। हे राजन् ! आपके राज्य में नरक को प्राप्त कराने वाला पाप प्रवृत्त हो चुका है ॥ २१-२२१/२

राजा दिवोदास बोले — आपने मुझसे ठीक ही कहा है, मैं आपके वचनों का पालन करूंगा । ज्योतिर्विद् दुण्ढिराज ने पहले जो कहा, वह सत्य ही हो रहा है। हे पुरुषोत्तम ! यदि मैं आपके यथार्थ स्वरूप को जान सकूँ तो आप मुझे बतायें कि आप कौन हैं ? जो मेरा हित करने के लिये यहाँ आये हैं ॥ २३-२४१/२

ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर दया के वशीभूत होकर उन्होंने राजा दिवोदास को अपना शंख, चक्र एवं गदाधारी चतुर्भुजरूप दिखाया। उन्होंने अपना विराट् एवं व्यष्टिरूपात्मक चित्स्वरूप उन्हें दिखलाया ॥ २५-२६ ॥ तदनन्तर राजा दिवोदास ने अत्यन्त हर्षपूर्वक उन्हें नमस्कार करके उनका पूजन किया। उनके दर्शनों से आह्लादित हुए राजा परम भक्तिपूर्वक नृत्य करने लगे ॥ २७ ॥

वे उनसे बोले — हे अनघ ! आज मैं अपने पितरोंसहित धन्य हो गया। पहले मैंने राज्य का त्यागकर बहुत-सा तप किया था। ब्रह्माजी ने जबरदस्ती यह काशी का उत्तम राज्य मुझे सौंपा था। आज आपका दर्शन कर लेने से मेरे जन्म तथा मरण – दोनों का बन्धन छूट गया है, इसमें कोई संशय नहीं है। मैं आपके शरणागत हूँ और आपसे यही वरदान माँगता हूँ ॥ २८-२९१/२

मुनि (गृत्समद ) बोले — ऐसा कहे जाने पर वे परमात्मा उन नृपश्रेष्ठ दिवोदास से बोले — हे श्रेष्ठ राजन् ! भगवान् विश्वेश्वर की कृपा से आपको भी परम मुक्ति प्राप्त होगी, इस समय आप काशी के राज्य का परित्यागकर सुखी हो जायँ ॥ ३०-३१ ॥ यदि आप ऐसा नहीं करेंगे, तो भैरव और दण्डपाणि आपको काशी से बाहर कर देंगे। उनका इस प्रकार का वचन सुनकर राजा दिवोदास अत्यन्त चिन्तित हो उठे । तदनन्तर उनके कथन के कारण पर ध्यान लगाकर तथा विचार करके राजा ने वह सब कुछ जान लिया कि ज्योतिषी के रूप में वे ढुण्डिराज गणेश थे। बौद्ध बनकर ये मायावी विष्णु ही यहाँ आये हुए हैं ॥ ३२-३३ ॥

तदनन्तर उन्होंने सिर झुकाकर भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया और उनसे कहा — आप कौन हैं ? तब वे महाविष्णु भी उनकी भावना को समझ करके अपने वास्तविक रूप में [पुनः] प्रकट हो गये। उस समय वे प्रभु चतुर्भुजरूप में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये थे। उन्होंने पीताम्बर धारण कर रखा था और वे सभी लोकों के परम आश्रयस्वरूप थे ॥ ३४-३५ ॥

तब राजा दिवोदास उनसे बोले — हे पूज्य ! आज मैं धन्य हो गया तथा मेरे पूर्वज भी धन्य हो गये, जो कि मैंने अपने पुण्य के प्रभाव से मोक्ष प्रदान करनेवाले आपके चरणयुगल का दर्शन किया है। आप मुझे परम मोक्ष प्रदान करें और इस मुद्रा को ग्रहण करें, जिसे कि ब्रह्माजी ने मुझे हठात् प्रदान किया था। अब आज से यहाँ भगवान् शिव अपना राज्य शासन करें। तब भगवान् विष्णु ने उनसे कहा — भगवान् शिव आपको मुक्ति प्रदान करेंगे ॥ ३६–३७१/२

ब्रह्माजी बोले — राजा दिवोदास से ऐसा कहकर महायोगेश्वर भगवान् विष्णु अन्तर्धान हो गये और पुनः बौद्धरूप धारणकर अपने आश्रम को चले गये । तत्पश्चात् उन्होंने भगवान् शिव के वहाँ आगमन के लिये दूत को भेजा । [दूत ने भगवान् शिव से कहा —] ‘ज्योतिर्विद् ढुण्डिराज गणेश ने और मैंने राजा दिवोदास के राज्य में बहुत प्रकार से अधर्म की वृद्धि की है और राजा दिवोदास ने आपके लिये काशी के राज्य का परित्याग कर दिया है। अतः हे विश्वेश्वर ! आप शीघ्र ही अपनी वाराणसीपुरी में आयें’॥ ३८–४०१/२

इधर राजा दिवोदास ने राजा के चिह्नों का परित्याग करके महान् तप किया। उन्होंने एक अत्यन्त सुन्दर मन्दिर में अपने नाम से एक अत्यन्त विख्यात शिवलिंग (दिवोदासेश्वर ) – की स्थापना की, वह लिंग सकाम उपासना करने वालों की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाला है और मोक्षार्थियों को मोक्ष प्रदान करने वाला है। वे राजा दिवोदास सभी प्रकार के पुरुषार्थों (धर्म- अर्थ- काम तथा मोक्ष) – को प्रदान करने वाले भगवान् शंकर के दर्शन की प्रतीक्षा करने लगे ॥ ४१-४२ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘[दिवोदास के] राज्य-त्याग का वर्णन’ नामक सैंतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४७ ॥

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