October 9, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-048 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ अड़तालीसवाँ अध्याय ढुण्ढिराज का शिव को काशी में आने के लिये सन्देश भेजना, भगवान् शिव का काशी में आकर दुण्ढिराज की स्तुति करना तथा ढुण्डिराज की महिमा का प्रतिपादन करना, रानी कीर्ति का काशी आकर दुण्ढिराज की भक्ति करना, ढुण्डिराज का प्रत्यक्ष दर्शन देकर उसे तथा उसके पुत्र को अनेक वर प्रदानकर कीर्तिपुत्र का ‘पर्शुबाहु’ नामकरण करना अथः अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः कीर्तेवरप्रदानं मुनि गृत्समद बोले — राजा दिवोदास ने काशी का राज्य छोड़ दिया है — ऐसा जानकर ढुण्डिराज गणेश ज्योतिषी का रूप छोड़कर पुनः अपने वास्तविक स्वरूप में आ गये और सभी लोगों को सब प्रकार का अभिलषित पदार्थ देने वाले बनकर दुण्ढिविनायक नाम से काशी में स्थित हो गये ॥ १ ॥ तदनन्तर आनन्द में निमग्न हुए महाबुद्धिमान् ढुण्डिराज ने भगवान् शिव के पास यह सन्देश कहकर दूत भेजा कि आप शीघ्र ही काशी में चले आयें ॥ २ ॥ भगवान् शिव वृषभ पर आरूढ़ होकर दिव्य वाद्यों के घोष के साथ अपने गणों से घिरे हुए रहकर वाराणसी की ओर चल पड़े। वहाँ निराहार रहकर महर्षि जैगीषव्य, जो तपस्या करते-करते दीमक की बाँबी के समान हो गये थे, उनपर कृपा करके भगवान् शिव ढुण्ढिविनायक को प्रणाम करके उनसे बोले — ॥ ३-४ ॥ भगवान् शिव बोले — हे विश्वेश्वर ! आप ही विश्वरूप हैं, हे देव! आप ही इस विश्व की सृष्टि करते हैं। आप ही इसकी रक्षा करते हैं और आप ही इसका संहार करते हैं । हे गणेश! आप जीवों के शुभ एवं अशुभ कर्मों के द्रष्टा हैं और उन्हें तदनुरूप विविध प्रकार का सुख-भोग प्रदान करने वाले हैं ॥ ५ ॥ इस चराचर जीव-जगत् का आप संहार करने वाले हैं और आप ही सत्त्वादि तीन गुणों में विभेद करने वाले हैं। आपके ही कृपाप्रसाद से भगवान् विष्णु, पद्मयोनि ब्रह्मा और भगवान् शिव अपने-अपने कर्मों को करने में समर्थ होते हैं। आपके बिना वेदों का विधि-विधान व्यर्थ हो जाता है और आपकी ही कृपाशक्ति से देवताओं के शत्रु असुरों का विनाश होता है ॥ ६-७ ॥ पूर्वकाल में अनन्तशक्तिसम्पन्न प्रकृतिस्वरूपा महिषासुरमर्दिनी दुर्गा ने आपका ही पूजन करके महिषासुर का वध किया था और उस समय महिषासुर के द्वारा छोड़ी गयी श्वासवायु के द्वारा उड़ाये गये पर्वतों के गिरने के भय से भयभीत इस समस्त विश्व की रक्षा भी की थी ॥ ८ ॥ आप अप्रमेय हैं, सम्पूर्ण लोक के साक्षीस्वरूप हैं, आप अविनाशी हैं, आप कारणों के भी कारण हैं, सम्पूर्ण वेदराशि आपका वर्णन करने में कुण्ठित हो जाती है । आपकी उपासना के बल पर ही शेषनाग इस पृथ्वी को धारण करने में समर्थ होते हैं ॥ ९ ॥ भलीभाँति ‘सन्त-महात्माजन आपको ही प्रणाम करके आपकी पूजा करते हैं और मन से आपका ही स्मरण करते हुए यजन करते हैं। निष्कामीजन भी आपकी ही भक्ति करते हुए आवागमन से रहित मुक्तिपद को प्राप्त करते हैं ॥ १० ॥ आप अनेक स्वरूपवाले हैं, आप अनेकों पैर, अनेकों नेत्र, अनेकों सिर, अनेकों कान, अनेकों बाहु और अनेकों जिह्वावाले हैं। आप अनन्तविज्ञानघन हैं, अनेकों ब्रह्माण्डों के कारणरूप हैं और परम प्रकाशमान हैं। हे अखिलेश्वर! आपकी कृपा के फलस्वरूप ही चिरकाल तक प्रयत्न करने के पश्चात् मैं इस अविमुक्तक्षेत्र काशी का दर्शन कर पाया हूँ ॥ ११ ॥ मुनि गृत्समद बोले — इस प्रकार उन दुण्ढि- विनायक की स्तुति करके और उनकी पूजा करके भगवान् शंकर उनसे प्रार्थना करते हुए बोले — [ हे प्रभो ! ] काशीपुरी को पाकर अब काशी की विरहजन्य मेरी पीड़ा दूर हो गयी है। अब आप मेरे भक्तों तथा इस काशीपुरी की सदा रक्षा करते रहें, बिना आपकी कृपा के काशी में निवास करना किसी प्रकार सम्भव न हो ॥ १२-१३ ॥ दण्डपाणि भैरव और आप ढुण्ढिविनायक की जिस पर कृपा होगी, उसी को मैं उसके मृत्युकाल में तारक ब्रह्म का उपदेश दूँगा, इसके अतिरिक्त और किसी को भी नहीं दूँगा। माघमास की [कृष्णपक्ष की] चतुर्थी तिथि में मंगलवार के दिन चन्द्रोदय होने पर जो व्यक्ति पुओं, मोदकों तथा अन्य उपचारों द्वारा आपका पूजन करेगा और जो इस स्तोत्र के पाठ से आपका स्तवन करेगा, उसके भी कष्टों को दूर करके आप उसके समस्त मनोरथों को पूर्ण करें और अनेक प्रकार की धन-सम्पत्ति उसे प्रदान करें ॥ १४-१६ ॥ प्रातः काल उठकर जो तीनों कालों में अथवा एक समय भक्तिपूर्वक इस स्तोत्र का पाठ करेगा, उसे भोग तथा मोक्ष प्राप्त होगा। यहाँ आप अन्वेषण करके मनुष्यों को सभी पदार्थों को प्रदान करते हैं, अतः आप ‘दुण्ढि’ इस नाम से तीनों लोकों में विख्यात होंगे ॥ १७-१८ ॥ आपका ‘दुण्ढि’ यह नाम मोक्ष प्रदान करने वाला तथा सम्पूर्ण पापों का विनाश करने वाला है। साथ ही इस नाम का स्मरण करने से यह सभी कार्यों में सिद्धि प्रदान करने वाला होगा ॥ १९ ॥ मुनि बोले — ऐसा कहकर महादेव भगवान् शंकर ने अत्यन्त रमणीय बने हुए मन्दिर में गण्डकी नदी से प्राप्त (शालग्राम) शिला से निर्मित दुण्डिविनायक की मूर्ति को स्थापित किया ॥ २० ॥ तदनन्तर भगवान् शिव अपने भवन में तथा अन्य सभी देवता भी अपने-अपने स्थानों को गये। उन भगवान् शंकर ने अपने भक्त दिवोदास को मुक्ति प्रदान की ॥ २१ ॥ गृत्समद बोले — इस प्रकार उन दुण्ढिविनायक तथा बौद्धरूपी विष्णु ने अपनी माया द्वारा राजा दिवोदास को मोहित किया और परिणाम में उनका कल्याण किया । हे देवि कीर्ते! इस प्रकार मैंने ढुण्डिराज द्वारा किये गये कार्यों तथा उनके सामर्थ्य को तुमसे पूर्ण रूप से कहा, इस प्रकार के प्रभाव वाले उन ढुण्ढि के वरदान से ही तुम्हारा पुत्र जीवित हुआ है ॥ २२-२३ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार प्रियव्रत की रानी कीर्ति से उन ढुण्डिराज के समस्त कार्यों का वर्णन करके मुनि गृत्समद उनसे विदा लेकर शीघ्र ही अपने आश्रम- स्थल को चले गये ॥ २४ ॥ तदनन्तर उसी समय रानी कीर्ति अपने पुत्र को लेकर उस पुण्यदायिनी वाराणसीपुरी को गयी, जो कि वहाँ मृत्यु होने पर मुक्ति प्रदान करने वाली है ॥ २५ ॥ वहाँ पहुँचकर वह दुण्ढि के मन्दिर में गयी, और वहाँ नर-नारियों द्वारा किये जा रहे महोत्सव को देखकर अत्यन्त हर्षित होकर रानी कीर्ति ने दुण्डिविनायक को प्रणाम किया। उस दिन माघमास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी तिथि और मंगलवार का दिन था ॥ २६१/२ ॥ वहाँ नृत्य एवं गीत में पारंगत भक्तजनों द्वारा अनेक स्वर्णपात्रों में रखे गये पक्वान्नों तथा खीर के नैवेद्य आदि के द्वारा ढुण्ढि का पूजन किया गया था। उन्हें विविध प्रकार के अलंकारों द्वारा सुसज्जित किया गया था। दिव्य माला तथा वस्त्र उन्हें पहनाये गये थे । वे नाना प्रकार की मणियों से समन्वित थे। विविध प्रकार की मोतियों की मालाओं से विभूषित थे और भक्तों द्वारा दक्षिणा के रूप में सुवर्ण तथा रत्न उन्हें निवेदित किये गये थे ॥ २७–२९ ॥ वह निष्पाप कीर्ति देव दुण्ढि के मुख का दर्शन न हो पाने से अत्यन्त चिन्तित हो उठी। वह यह भी सोच रही थी – कि मुझ अकिंचन के द्वारा इन्हें क्या निवेदित किया जाय ? ॥ ३० ॥ उसने मार्ग में चलते समय एकत्र किये गये दूर्वांकुरों, शमीपत्रों तथा मन्दार के पुष्पों से अत्यन्त श्रद्धाभक्तिपूर्वक उन ढुण्ढिविनायक का पूजन किया और उनसे पुत्र के अभ्युदय की प्रार्थना की ॥ ३१ ॥ वे दुण्ढि उसके तथा उसके पुत्र द्वारा शमीपत्र, मन्दारपुष्प एवं दूर्वांकुरों से की गयी पूजा से जितने प्रसन्न हुए, उतने प्रसन्न तो अन्य भक्तों द्वारा की गयी सुवर्णादि विभिन्न उपचारों की पूजा से भी नहीं हुए ॥ ३२ ॥ तदनन्तर वे सभी भक्तजन अत्यन्त उल्लसित होकर अपने-अपने घरों को चले गये और माता तथा पुत्र वे दोनों उन ढुण्डिराज की सन्निधि में स्थित रह गये ॥ ३३ ॥ उन दोनों के उपवास से और श्रद्धा-भक्तिभाव से अत्यन्त प्रसन्न भगवान् महोत्कट ढुण्डिराज उस मूर्ति में से उनके समक्ष प्रत्यक्ष प्रकट हो गये ॥ ३४ ॥ वे दोनों बोले —[हे भगवन्!] मुनि गृत्समद ने महेश्वर ढुण्डिराज का जो स्वरूप बतलाया था, वही अत्यन्त प्रकाशमान स्वरूप आज हमें बड़े ही पुण्य- संचयों के फलस्वरूप साक्षात् दिखायी दिया है, जो कि सभी प्रकार के अलंकारों से अलंकृत है, मस्तक पर मुकुट से सुशोभित है, दस भुजाओं वाला है, अत्यन्त सुन्दर नेत्रकमलों से शोभायमान है, अत्यन्त मूल्यवान् रत्नों एवं मोतियों से बनी श्रेष्ठतम माला को धारण किये हुए है, उसने पीताम्बर धारण कर रखा है, और अत्युत्तम दाँत से सुशोभित है ॥ ३५-३७ ॥ इस प्रकार के परम स्वरूप का दर्शनकर वे दोनों माता-पुत्र आनन्द के सागर में इतना निमग्न हो गये कि उनका पूजन करना तथा उन्हें नमस्कार करना भी वे भूल गये ॥ ३८ ॥ तदनन्तर भगवान् ढुण्ढि बोले — हे सुव्रते ! वर माँगो, मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ । तुम्हारे मन में जो कोई भी अभिलाषा हो, मैं उसे पूर्ण करूँगा ॥ ३९ ॥ हे शोभने ! मैं न तो मुक्ताफलों की मालाओं से, न रत्नों से और न विविध प्रकार के द्रव्यों के समर्पण से वैसा प्रसन्न होता हूँ, जैसा कि शमीपत्रों और मन्दार पुष्पों के समर्पण से प्रसन्न होता हूँ ॥ ४० ॥ ब्रह्माजी बोले — दुण्ढि विनायक का इस प्रकार का वचन सुनकर रानी कीर्ति को परम सन्तोष हुआ । वह चैतन्य होकर उन द्विरदानन विनायक से बोली — ॥ ४१ ॥ कीर्ति बोली — स्त्री होकर मैं आप सर्वज्ञ और सर्वरूप से [यद्यपि] क्या कह सकती हूँ। फिर भी आपके सान्निध्य से बोध प्राप्त कर आपकी आज्ञा पाकर कुछ कहती हूँ ॥ ४२ ॥ [हे भगवन्!] आप निष्कल, निरहंकार, निर्गुण और जगत् के स्वामी हैं। आप पूर्णानन्दस्वरूप, परमानन्दस्वरूप, पुराण और पर से भी परे हैं ॥ ४३ ॥ आप ही दिक्पालों का स्वरूप धारण करने वाले, सूर्य, चन्द्रमा, नदी और सागर-स्वरूप हैं । आप ही पृथ्वी, वायु, आकाश तथा अग्नि हैं ॥ ४४ ॥ आप ही जल, अन्तरिक्ष, गन्धर्व, नाग तथा राक्षस हैं। आप ही चराचरस्वरूप और दीनों के नाथ तथा कृपा के निधान हैं ॥ ४५ ॥ आप विनायक इस समय अनादिरूप से प्रकट हुए हैं। आज मेरे नेत्र धन्य हो गये, मेरा जन्म लेना धन्य हो गया, मेरे स्वामी तथा मेरा यह पुत्र भी धन्य हो गया। मेरे माता-पिता, मेरा कुल, मेरा शील, मेरा रूप, मेरा ज्ञान तथा मेरा तप भी धन्य हो गया । आज मैंने अपने जन्मान्तरीय पुण्यप्रताप के कारण आप क्षिप्रप्रसादन (शीघ्र ही प्रसन्न होनेवाले) विनायक का दर्शन किया है ॥ ४६-४७ ॥ हे देव! आपकी ही आज्ञा से मैंने अपने इस पुत्र का आपका ही नाम ‘क्षिप्रप्रसादन’ रखा है। मेरी सपत्नी के द्वारा इसे विष दे दिया गया था, जिससे यह मृत्यु को प्राप्त हो गया। हे विश्वराट्! आपकी ही भक्ति के प्रभाव से मुनि गृत्समद ने इसे पुनः जीवित कर दिया। उन्होंने मुझसे कहा था कि विनायक की प्राप्ति के लिये तुम शमीपत्रों से उनका पूजन करो ॥ ४८-४९ ॥ हे तीनों तापों का निवारण करने वाले विनायक! मुनि गृत्समद के प्रभाव से ही आज मुझे आपका दर्शन प्राप्त हुआ है। हे नाथ! यदि आप प्रसन्न हैं तो मेरे इस पुत्र को अपनी भक्ति प्रदान करें ॥ ५० ॥ इसे तीनों लोकों में श्रेष्ठ यश, अनासक्तिपूर्वक राज्य-शासन की क्षमता, दीर्घ आयु, सद्गुणों की सम्पदा, बल, कीर्ति, सुख, क्षमाशक्ति, सभी युद्धों में विजय और ब्राह्मणों तथा देवताओं में अत्यन्त भक्ति प्राप्त हो ॥ ५११/२ ॥ ढुण्ढि बोले — अनघे ! तुमने जिन-जिन वरों को माँगा है, वे सभी मैंने तुम्हें प्रदान किये। तुम्हारा यह पुत्र हजार वर्षों तक जीवित रहेगा और यह हजारों यज्ञ करने वाला होगा। यह शान्त स्वभाव वाला, आत्मसंयमी, मेरा भक्त तथा राज्यशासन करने वाला होगा। यह साम, दान, दण्ड तथा भेद-चारों उपायों द्वारा सबको अपने अधीन कर लेगा। यह मेरा ध्यान करने वाला और सदा ही मेरे नाम-जप में परायण रहने वाला होगा। अन्त में यह मेरा स्मरण करते हुए मेरे ही स्वरूप को प्राप्त होगा ॥ ५२-५४ ॥ ब्रह्माजी बोले — प्रसन्न हुए उन विनायक– देव ने इस प्रकार से उसे वर प्रदान करके अपना परशु नामक अस्त्र उसके पुत्र को दिया और उसका ‘पर्शुबाहु’ यह नाम रखा । तदनन्तर वे विनायक अन्तर्धान हो गये ॥ ५५-५६ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘कीर्ति को वरप्रदानवर्णन’ नामक अड़तालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४८ ॥ Content is available only for registered users. 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