October 15, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-061 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ इकसठवाँ अध्याय भगवान् विनायक द्वारा नरान्तक का वध अथः एकषष्टित्तमोऽध्यायः दैत्यदमनं विराङ्दर्शनं विनायक बोले — [अहो दैत्य ! ] मैंने इससे पहले इतना बलवान् योद्धा नहीं देखा, तुम तो परम पराक्रमी हो। इस समय मुझ बालक के पराक्रमपूर्ण युद्ध व्यापार का अवलोकन करो ॥ १ ॥ ऐसा कहकर उन्होंने तरकस से एक बाण निकाला और कान तक धनुष खींचकर उस बाण को नरान्तक पर छोड़ दिया। वह बाण आकाशमण्डल को उद्भासित, [ब्रह्माण्ड को] कम्पित तथा [पृथ्वी के] वृक्षों को गिराता हुआ वैसे ही नरान्तक के पास आ पहुँचा, जैसे [ग्रहणकाल में] सूर्य-चन्द्रमा के निकट [राहु] जा पहुँचता है ॥ २-३ ॥ उस बाण ने नरान्तक के पैरों को काट दिया, जिससे वह गिर पड़ा। जब कटे हुए आधे शरीर वाला नरान्तक गिरा तो विनायक गरजने लगे। नरान्तक के पैर आकाशमार्ग से जाते और बहुत सारे लोगों को कुचलते हुए देवान्तक के विशाल भवन में जा गिरे ॥ ४-५ ॥ आधे शरीर वाला वह दैत्यराज भयानक रूप से मुख फैलाकर बलपूर्वक विनायक की ओर दौड़ा। वह ऐसा प्रतीत होता था, मानो तीनों लोकों को ही निगल लेगा । तदुपरान्त माया के प्रभाव से दैत्यराज के चरण पूर्ववत् हो गये और तब वह विनायक के निकट आकर कहने लगा — ॥ ६-७ ॥ तुमने मेरे शरीर (हाथ-पैर)-को काटकर जैसा पुरुषार्थ दिखलाया है, मैं भी वैसे ही तुम्हारे अंगों को काटने जा रहा हूँ, अब तुम मेरा पुरुषार्थ देखो ॥ ८ ॥ उसकी बात सुनकर उन विनायक ने फिर गर्जना की और दैत्यराज पर वे प्रचण्ड बाणवर्षा करने लगे ॥ ९ ॥ महाबली दैत्यराज उन असंख्य बाणों को भी निगल गया तो विनायक ने एक विशाल बाण को अभिमन्त्रित किया तथा कान तक [धनुष की] प्रत्यंचा को खींचकरअग्नि से युक्त अग्रभाग वाले, सोने के पंखों वाले और गरजते हुए उस भयानक बाण को दैत्य के मस्तक को लक्ष्य करके छोड़ दिया। वह बाण वृक्षों को गिराता, पक्षियों को मारता और पर्वतों को विदीर्ण-सा करता हुआ वायुवेग से चल पड़ा ॥ १०–१२ ॥ उसके घोष को सुनकर सेना दसों दिशाओं में पलायित हो गयी। वह दैत्य के कण्ठ में वैसे ही गिरा, जैसे पर्वतशिखर पर वज्र गिरता है। उसके आघात से नरान्तक का भयानक मस्तक [कटकर] पक्षी की भाँति आकाश में उड़-सा गया और चीत्कार करता हुआ उसके पिता के घर में जा गिरा ॥ १३-१४ ॥ इसके पश्चात् नरान्तक के [कबन्ध में] पहले के सिर की भाँति एक अन्य सिर उत्पन्न हो गया और ऐसा प्रतीत होता था कि सिर कभी कटा ही नहीं। तदुपरान्त दैत्यराज ने भी क्रोधपूर्वक उच्च स्वर से गर्जना की। उससे पक्षिगण, सभी मनुष्य और देवता भयभीत हो उठे ॥ १५१/२ ॥ नरान्तक पुनः विनायक पर पर्वतों की भयानक वर्षा करने लगा, किन्तु विनायक ने बड़ी सहजता से बाणवर्षा करके उस समस्त पर्वत-वर्षा को मध्य में ही निरस्त कर दिया। पर्वतों और बाणों का यह अभिनव संग्राम एक दिन-रात चलता रहा ॥ १६-१७ ॥ [ इस युद्ध के कारण लीलावश] वे विनायक थकान का अनुभव करने लगे और वह महाबली दैत्य भी थक गया। विनायकदेव अत्यधिक चिन्तित हो उठे और [अमर्षजन्य] तेज से जलने लगे ॥ १८ ॥ तदुपरान्त उन बली ने ज्वालावली से समन्वित परशु उठा लिया और जब वे [भुजारूपी तराजू पर मानो ] तौलने लगे तो धरती काँप उठी। तब देवगण विमानों में आरूढ़ होकर युद्ध देखने आ पहुँचे और रसातल में शेषनाग भयभीत होकर काँपने लगे ॥ १९-२० ॥ विनायक ने दैत्यराज पर वह परशु छोड़ दिया और उसने तत्काल नरान्तक का मस्तक काट डाला। [सिर के कटते ही] फिर से मुकुट-कुण्डलादि से युक्त एक अन्य सुन्दर सिर उत्पन्न हो गया। क्रुद्ध हुए विनायक ने उसे पुनः काट डाला। उसके कटते ही फिर से सिर उत्पन्न हो गया। वे बार-बार मस्तक काटते रहे और नरान्तक के बार-बार मस्तक उत्पन्न होते रहे। इस प्रकार उन विभु ने सैकड़ों-हजारों मस्तक काट डाले। [ जब सिरों के उत्पन्न होने का क्रम नहीं रुका तो] फिर उन्होंने दैत्य की मृत्यु के कारण अर्थात् उपाय का अनुसन्धान किया ॥ २१-२३ ॥ [उपाय ज्ञात होते ही] उन्होंने शिव के वरदान से गर्वित बलशाली उस नरान्तक को सहसा माया से मोहित कर लिया। तब वह दैत्य अपने और पराये को जान पाने में असमर्थ हो गया। क्षणभर में उसे [दिन में] रात्रि जान पड़ने लगी और दूसरे ही क्षण [रात्रि में] वह दिन समझने लगा ॥ २४-२५ ॥ वह क्षणभर में कभी स्वर्ग, कभी पृथ्वीतल और कभी पाताल देखने लगा। उसे क्षण-क्षण में जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीया (ब्रह्मीभूत पुरुषों की सहजावस्था) दशाओं का आभास होने लगा ॥ २६ ॥ वह विनायकदेव को देखकर भ्रमवश निश्चय नहीं कर पा रहा था कि वे देवता हैं, या मनुष्य हैं, नर हैं या नारी हैं अथवा गुह्यक, सिद्ध, यक्ष या राक्षस हैं। वे अपने हैं या पराये हैं। पिता हैं या माता हैं, सजीव हैं अथवा निर्जीव हैं ॥ २७-२८ ॥ वह गहन चिन्ता में डूब गया और मन में सोचने लगा कि त्रिशूलधारी शंकर ने मुझे कुछ ऐसा ही वर प्रदान किया था [कि जब तुम्हें भ्रमवश विविध विकल्प प्रतीत होने लगें तो समझना कि अब मृत्यु आ चुकी है । ] और वह समय उपस्थित है, अतः अब मेरी अवश्य ही मृत्यु हो जायगी ॥ २९१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार से नरान्तक सोच ही रहा था कि तबतक उसने अपने समक्ष विरारूपधारी विनायक को देखा। उनका मस्तक ऊपर आकाश को छू रहा था, चरण पाताल तक फैले थे, दिशाएँ ही कान थीं और वृक्ष ही उनके रोंये थे । रोमकूपों में ब्रह्माण्ड भ्रमण कर रहे थे और समुद्र ही उनके स्वेदबिन्दु थे । उनके नख के अग्रभाग में तैंतीस कोटि देवगण विराजमान थे और उनके उदर के एक भाग में चौदह भुवन अवस्थित थे ॥ ३०-३२१/२ ॥ तदुपरान्त [विरारूपधारी उन] विनायक ने अपने चरणांगुष्ठ के नख के अग्रभाग से तत्काल ही दैत्य को वैसे ही मसल दिया, जैसे खटमल को कोई बालक मसल दे। तब अत्यन्त हर्षित देवताओं और मुनियों ने बारम्बार जयघोष करते हुए भक्तिपूर्वक उनका स्तवन किया और फूल बरसाये ॥ ३३–३४१/२ ॥ जब उन विभु ने अपने विराड् रूप को छिपा लिया तो उसके अनन्तर पृथ्वीदेवी उन देवेश्वर के समीप आयीं और प्रणामकर बोलीं — ‘ [आपने] मेरा आधा भार तो दूर कर दिया है। जब समग्र भार नष्ट हो जायगा तो मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी। इसलिये आगे भी [ आप मेरा भारहरण] करते रहें ‘ ॥ ३५-३६ ॥ जब [ऐसा कहकर] पृथ्वीदेवी अन्तर्धान हो गयीं तो इसके अनन्तर विनयावनत काशिराज ने विनायकदेव की पूजा की और प्रसन्न मन से कहने लगे — ‘हे विभो ! मैंने अतिशय आश्चर्यजनक [आपके लीलाविलास का ] दर्शन किया है, जो न वाणी से कहा जा सकता है और न ही. जिसे मन से जाना जा सकता है। पृथिवी का भार हरण करने के लिये आप अवतीर्ण हुए और आपने वह सम्पन्न भी किया है ॥ ३७-३८ ॥ तैंतीस कोटि देवताओं से भी जो न मारा जा सका, उसे आपने [अकेले ही] मार डाला । हे सुरेश्वर ! हम लोगों के पुण्य अत्यधिक थे, इसीलिये हम आपके विराट् स्वरूप को देख सके’ ॥ ३९ ॥ ब्रह्माजी बोले — जब काशिराज इस प्रकार कह रहे थे, तभी पुरवासी भी कहने लगे — ‘हे विभो ! आप धन्य हैं। अहो ! आप बालक का रूप धारण करके हम सभी को भ्रमित करते रहे। आपने अपनी कीर्ति का विस्तार करने के लिये ये सभी कृत्य किये हैं।’ [ऐसा कहकर ] पुरवासियों ने परमभक्ति से उन विभु का पूजन किया और इस प्रकार प्रार्थना करने लगे — ॥ ४०-४१ ॥ ‘हे देव! हमें आप अपनी भक्ति प्रदान कीजिये और कभी भी आपका हमसे वियोग न हो – ऐसा कीजिये ।’ तदुपरान्त उन नागरिकों और काशिराज ने ब्राह्मणों को भाँति-भाँति के दान किये और उनसे प्रार्थना की कि ऐसे ही हमारी विजय होती रहे। उस समय नगरवासियों ने काशिराज को उपहार अर्पित किये और काशिराज ने भी उन्हें उपहारादि से सन्तुष्ट किया ॥ ४२-४३ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड के अन्तर्गत ‘दैत्यदमन एवं विराड्दर्शन’ नामक इकसठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६१ ॥ Content is available only for registered users. 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