श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-073
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
तिहत्तरवाँ अध्याय
गण्डकी नगराधिपति राजा चक्रपाणि का आख्यान, निःसंतान राजा को महर्षि शौनक द्वारा पुत्रप्राप्ति के लिये सौरव्रत के अनुष्ठान का उपदेश करना, राजा-रानी द्वारा सम्यग् रूप से सौरव्रत के नियमों का पालन, भगवान् सूर्य द्वारा स्वप्न में रानी को पुत्र की प्राप्ति, रानी द्वारा गर्भ के ताप को सहन न कर सकने के कारण समुद्र में उसका त्याग
अथः त्रिसप्ततितमोऽध्यायः
सिन्धूत्पत्तिवर्णनं

व्यासजी बोले —हे ब्रह्मन् ! हे पितः ! भगवान् शिव के घर में विनायकदेव मयूरेश्वर नाम से कैसे अवतीर्ण हुए? उनके अवतीर्ण होने का प्रयोजन क्या था और उन्होंने कौन-कौन-सी लीलाएँ कीं ? उन विनायक का ‘मयूरेश्वर’ यह नाम क्यों पड़ा ? यह सब आप मुझे बतलाइये। सुनने पर भी मुझे कभी तृप्ति प्राप्त नहीं हो रही है ॥ १-२ ॥

ब्रह्माजी बोले — प्राचीन काल में त्रेतायुग की बात है, सिन्धु नामक एक महान् दैत्य उत्पन्न हुआ था । उसे भगवान् शिव के घर में अवतरित हुए उन बलिष्ठ विनायक ने मारा था। इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है, जो शौनक मुनि तथा राजा चक्रपाणि के मध्य हुए संवाद के रूप में है ॥ ३-४ ॥ मैथिलदेश के गण्डकी नामक शुभ नगर में एक राजा हुए थे, जो चक्रपाणि इस नाम से विख्यात थे और साक्षात् दूसरे विष्णुभगवान्‌के समान ही थे ॥ ५ ॥ इनके सम्पूर्ण गुणों का वर्णन करने में शेषनाग भी समर्थ नहीं हैं। उन्होंने अपने तेज के द्वारा भगवान् सूर्य को भी निस्तेज बना दिया था तथा अपने लावण्य के द्वारा कामदेव को भी तुच्छ बना दिया था । अपनी बुद्धि के द्वारा बृहस्पति को भी जीत लिया था और अपने बल एवं पराक्रम के द्वारा कार्तिकेय को भी पराजित कर दिया था। इन्होंने इस सम्पूर्ण पृथ्वी को क्षणभर में अपने अधीन कर लिया था। सभी राजा इनकी सेवामें उपस्थित रहते थे ॥ ६–७१/२

इस पृथिवी में विद्यमान, विजय की इच्छा रखने वाले उनके अश्वारोहियों, गजारोहियों, पैदल सैनिकों तथा रथारोही सैनिकों की गणना नहीं की जा सकती थी। उनके भवन में साक्षात् लक्ष्मी स्थित होकर दर्शन देती थीं ॥ ८-९ ॥ उन नरेश का भद्र (राजसिंहासन) रत्न, सुवर्ण तथा मोतियों के द्वारा दिशाओं को उद्भासित करने वाला और लोक का कल्याण करने वाला था एवं [ उस राजसिंहासन से समन्वित वहाँ का सभाभवन] अलकापुरी के समान [ शोभामय ] था ॥ १० ॥ उन राजा के दो महाबुद्धिमान् अमात्य थे, एक का नाम था साम्ब तथा दूसरे का नाम था सुबोधन । वे अपने स्वामी की सेवा किया करते थे और उनके कार्य की सिद्धि के लिये अपने प्राणों को तृण के समान समझते थे ॥ १११/२

उस राजा की उग्रा नामवाली एक रानी थी, जो अत्यन्त रमणीय तथा सुन्दर मुसकान वाली थी । उसके मुखचन्द्र की कान्ति से दिन में ही कुमुद खिल उठते थे । वह धारण किये हुए अपने अनेक आभूषणों की दीप्ति से समस्त तमोराशि को विनष्ट कर देती थी । उसके पातिव्रत्य के अनुकरणीय गुणों को देखने के लिये सभी पतिव्रता स्त्रियाँ उसके समीप आती थीं ॥ १२-१३१/२

इस प्रकार के अत्यन्त बुद्धिमान् वे राजा चक्रपाणि सबके लिये मान्य तथा सर्वदा भगवान् विष्णु की भक्ति में परायण रहते थे। पुराणों के कथाश्रवण  में उनका अत्यन्त अनुराग था और वे  धर्मशास्त्रपरायण थे ॥ १४ ॥ सन्तान से रहित होने के कारण वे रात-दिन अत्यन्त दुखी रहते थे । यद्यपि उन्होंने सन्तान की प्राप्ति तथा उसके जीवित रहने के लिये अनेक व्रतों का पालन किया, विविध दान दिये और बहुत से यज्ञों का अनुष्ठान किया, किंतु उनके जो-जो सन्तति होती, वह तत्क्षण ही मृत्यु को प्राप्त हो जाती थी ॥ १६ ॥

तदुपरान्त एक दिन की बात है, राजा अपनी राज्यसम्पदा से जब अत्यन्त विरक्त हो गये तो उन्होंने अपनी भार्यासहित दोनों साम्ब तथा सुबोधन नामक अमात्यों और पुरवासियों को बुलाया तथा उन सबसे कहा — ‘इस समय मैं अब अपने दण्ड (सैन्यदल), राजकोश तथा राज्य का परित्याग कर रहा हूँ । पुत्र से हीन होने से स्वर्ग से हीन हुए मेरा अब राज्य से क्या प्रयोजन? पुत्रप्राप्ति के लिये मैंने जो-जो भी कर्म किये थे, यदि वे कर्म ईश्वरार्पणबुद्धि से किये होते, तो हम दोनों को मोक्ष भी प्राप्त होता और पूर्वजन्मों में किये कर्मों के बन्धन भी विनष्ट हो जाते ॥ १६–१९ ॥ हे जनो! मेरा जीवन व्यर्थ ही चला गया। अब मैं इसी समय [राज्यसम्बन्धी ] सभी दायित्व मन्त्रियों को सौंपकर प्रसन्नतापूर्वक वन जाऊँगा । आप लोग भी उन मन्त्रियों की आज्ञा का पालन करें ॥ २० ॥ हे सज्जनो ! मैं अपने आत्मकल्याण की दृष्टि से तपस्या करने के लिये वन में जाऊँगा । यदि मुझे अपने अभीष्ट की प्राप्ति हो जाती है, तो पुनः मैं अपनी नगरी में चला आऊँगा। हे लोगो ! इस समय अब आप लोग मुझे निश्चित ही आज्ञा प्रदान करें’ ॥ २११/२

राजा के इस प्रकार के वचनों को सुनकर सभी दुखी मनवाले हो गये। आँसुओं की धारा बहाते हुए वे लोग उन नृपश्रेष्ठ से बोले — ॥ २२१/२

पुरवासीजन बोले — हे प्रभो! आप ही हमारी माता हैं और आप ही पिता भी हैं। फिर आज ऐसी निष्ठुरता क्यों दिखा रहे हैं ? बिना अपराध के आप हमारा परित्याग क्यों कर रहे हैं ? आपके बिना हमारा जीवन वैसे ही व्यर्थ है, जैसे कि माता के बिना शिशु का जन्म व्यर्थ होता है। हे प्रभो! आप जहाँ जा रहे हैं, हम सब भी वहीं चलेंगे ॥ २३-२४ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार से जब नगरनिवासी लोग राजा से वार्तालाप कर ही रहे थे कि उसी समय मुनिश्रेष्ठ शौनकजी वहाँ आ पहुँचे। वे साक्षात् दूसरी अग्नि के समान थे ॥ २५ ॥ वे सभी वेदों, शिक्षा-कल्प आदि वेदांगों एवं सभी शास्त्रों के प्रवक्ता, तीनों लोकों में विख्यात, देवराज इन्द्र आदि सभी देवताओं द्वारा वन्दनीय तथा भूत, भविष्य और वर्तमान- तीनों कालों के ज्ञाता थे ॥ २६ ॥ उनको अपने समक्ष देखकर राजा अपने आसन से उठ खड़े हुए और उन्होंने उन्हें प्रणाम किया । राजा ने अपने राजसिंहासन पर उन्हें बैठाया और परम प्रसन्नता के साथ उनकी पूजा की ॥ २७ ॥

भोजन ग्रहण कर चुके हुए तथा संवाहन (दबाने) आदि के द्वारा पैरों की सेवा हो जाने पर विश्राम को प्राप्त हुए उन मुनिश्रेष्ठ शौनकजी से राजा चक्रपाणि ने कहा — ‘मेरा कौन – सा पुण्य फलीभूत हुआ है, जो आज मुझे आपका वह दर्शन प्राप्त हुआ है, जो सभी पापों का हरण करने वाला, अत्यन्त मंगलदायक, मनुष्यों की सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाला तथा पापीजनों के लिये सर्वथा दुर्लभ है ? ‘ ॥ २८-२९ ॥

तदनन्तर मुनि शौनक नृपश्रेष्ठ चक्रपाणि से बोले — मैं आपकी परम भक्ति, सेवा-शुश्रूषा तथा आत्मसंयम से अत्यन्त प्रसन्न हूँ ॥ ३० ॥

शौनक बोले — हे राजेन्द्र ! आप कोई चिन्ता न करें और न राज्य का ही परित्याग करें। आपको मेरे वचन के अनुसार निश्चित ही पुत्र की प्राप्ति होगी, इसमें कोई संशय नहीं है। मैंने आज तक कभी भी परिहास तक में मिथ्या वाणी नहीं बोली ॥ ३११/२

ब्रह्माजी बोले — मुनि का यह वचन सुनकर राजश्रेष्ठ चक्रपाणि अत्यन्त प्रसन्न हो उठे। उन्होंने उन्हें रत्नों तथा सुवर्ण से बने हुए अनेकों आभूषण और अत्यन्त मूल्यवान् वस्त्रों को समर्पित किया, किंतु मुनि शौनक ने कुछ भी ग्रहण नहीं किया ॥ ३२-३३ ॥

तदनन्तर वे मुनि शौनक राजा से बोले — हम लोग वल्कल वस्त्रों को धारण करने वाले हैं। सभी प्रकार के सुख-भोगों में किसी भी प्रकार की आसक्ति नहीं रखते। सभी प्राणियों के कल्याण में निरत रहते हैं । सृष्टि तथा संहार करने में समर्थ हैं। दया के सागर हैं। साधुपुरुषों के दर्शन की अभिलाषा करते रहते हैं । मिट्टी के ढेले, पत्थर तथा सुवर्ण में समान दृष्टि रखने वाले हैं। विद्वानों के पास लक्ष्मी कभी भी नहीं रहती। इसी कारण मैं आपके द्वारा प्रदत्त इस सुवर्ण तथा सुन्दर वस्त्र को ग्रहण नहीं करूँगा ॥ ३४–३६ ॥ तीर्थयात्रा के प्रसंग में मैं आपके पास आया था। आपके दर्शन किये हुए मेरे बहुत दिन व्यतीत हो गये थे ॥ ३७ ॥

ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर पुनः उन दम्पती – राजा तथा रानी ने भलीभाँति उन मुनि शौनक को प्रणाम किया और सन्तान की प्राप्ति के विषय में समर्थ उपाय पूछा ॥ ३८ ॥ तब शौनकमुनि ने सभी प्रकार के व्रत, तप, यज्ञ तथा दानों को वृथा जानकर उनसे उस सौर व्रत को करने के लिये कहा, जो मनुष्यों को सब प्रकार के पदार्थों को प्रदान करने वाला, अनेकों जन्मों के संचित पापों का शमन करने वाला तथा पुत्र एवं पौत्र को देने वाला है ॥ ३९१/२

शौनकमुनि बोले — सूर्यसप्तमी से आरम्भ करके एक मास तक यह व्रत करना चाहिये । [ उसमें सर्वप्रथम ] मातृकापूजन करके आभ्युदयिक श्राद्ध करना चाहिये । गणेशजी का पूजन करके श्रेष्ठ ब्राह्मणों द्वारा स्वस्तिवाचन कराना चाहिये ॥ ४०-४१ ॥ सुवर्णकलश के ऊपर सुवर्ण का सूर्यमण्डल बनाकर स्थापित करे और भक्तिभाव से समन्वित होकर षोडश उपचारों द्वारा उसका पूजन करे ॥ ४२ ॥ लाल चन्दनमिश्रित तण्डुलों, लाल रंग के फूलों, विविध प्रकार के रक्त वर्ण के रत्नों तथा अनेक प्रकार के फलों, बारह अर्घौ, नमस्कारों तथा प्रदक्षिणाओं, स्तुतियों एवं प्रार्थनाओं के द्वारा परमेश्वर सूर्यनारायण की प्रार्थना करे ॥ ४३-४४ ॥

तदनन्तर भगवान् सूर्य को स्वयं एक लाख बार प्रणाम करे अथवा [ब्राह्मणों द्वारा ] करवाये। परम प्रसन्नता के साथ प्रतिदिन एक लाख की संख्या में ब्राह्मणों को भोजन कराये। वेदज्ञ कुटुम्बी ब्राह्मण को प्रतिदिन एक गौ का दान करे। हे नृपश्रेष्ठ ! व्रत के समापनपर्यन्त सपत्नीक ब्रह्मचर्य का पालन करे ॥ ४५-४६ ॥ दयाभाव से युक्त होकर दीनों, अन्धों तथा निर्धनों को अन्न प्रदान करे। मास के अन्त में सभी सामग्रियों को ब्राह्मण को निवेदित कर दे ॥ ४७ ॥

हे राजन्! इस प्रकार सौरव्रत का अनुष्ठान करने से मेरी कृपा से आपको पुत्र की प्राप्ति होगी, वह महान् यशस्वी, सूर्य की भक्ति से समन्वित तथा पुण्यात्मा होगा ॥ ४८ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार सौर व्रत के विधि- विधान का उपदेश देकर मुनि शौनक अन्तर्धान हो गये । तदनन्तर राजा ने उस व्रत को उसी प्रकार किया, जिस प्रकार का कि उन्हें उपदेश प्राप्त हुआ था ॥ ४९ ॥ अपनी पत्नी के साथ विनीतात्मा राजा ने सूर्यभक्तिपरायण होकर वह व्रत किया और प्रतिदिन एक लाख ब्राह्मणों को उनकी इच्छा के अनुसार भोजन कराया ॥ ५० ॥ इस प्रकार पत्नी के साथ उपवास करते हुए राजा को एक मास का समय व्यतीत हो गया । राजा ने प्रतिदिन गोदान किया और भगवान् सूर्य को एक लाख नमस्कार किया तथा ब्राह्मणों से भी करवाया ॥ ५१ ॥ वे प्रतिदिन भगवान् सूर्य के मन्त्र का जप करते थे और सदा ही उनके नाम का जप किया करते थे। तदनन्तर एक दिन की बात है, उनकी रानी ने रात्रि में स्वप्न में भगवान् सूर्य को अपने पति के सुन्दर रूप में देखा । कामदेव के समान उनका मनोरम रूप देखकर रानी ने उनके साथ रमण की अभिलाषा की ॥ ५२-५३ ॥

संतप्त अंगोंवाली वे उनसे बोलीं — ‘इस समय काम मुझे अत्यन्त पीड़ित कर रहा है, मैं शरीर में विद्यमान ऋतुकालीन अग्नि से दग्ध हो रही हूँ ॥ ५४ ॥ हे स्वामिन्! अतः मुझे सहवास प्रदान करें, अन्यथा मेरी मृत्यु निश्चित है ।’ तब उसके पति राजा चक्रपाणि को सन्तानोत्पादन की शक्ति से विहीन और रानी को सकाम जानकर उसके पति के स्वरूप को धारण किये हुए भगवान् सवितादेव ने उसे ऋतुदान किया। इसके अनन्तर जब रानी निद्रा से जागी तो उसने अपने पति को जगाया और उनसे बोली — ॥ ५५-५६ ॥

‘हे स्वामिन्! आपने ब्रह्मचर्य नियम-पालन में स्थित रहते हुए भी मेरे साथ सहवास क्यों किया ?’ तब राजा उनसे बोले —  ‘हे शुभे ! मेरा मन तो व्रत के नियमों में लगा हुआ है, मैं निरन्तर उपवास में रहने के कारण क्षीण शक्तिवाला हो गया हूँ और मैं भगवान् सूर्य की भक्ति में परायण हूँ। मैंने तुम्हारे साथ रमण नहीं किया’ ॥ ५७१/२

तदनन्तर पतिव्रता रानी पुनः उनसे बोली — मैं तो आपके अतिरिक्त और किसी पुरुष को किसी प्रकार भी नहीं जानती हूँ। मैं आपके ही स्वरूप में भगवान् सूर्य का ध्यानकर व्रत में स्थित हुई हूँ । अतएव निश्चय ही आपके रूप में आये सूर्यदेव ने ही मुझे ऋतुदान दिया है। तब राजा चक्रपाणि ने प्रियभाषिणी अपनी रानी से पुन: कहा ॥ ५८-५९ ॥

राजा बोले — हे प्रिये ! वे भगवान् सूर्य हमारे द्वारा किये गये नमस्कारों, ब्राह्मण-भोजन, गोदान, उपवास तथा जप से अत्यन्त सन्तुष्ट प्रतीत होते हैं। लगता है उन्होंने हमें सिद्धि प्रदान की है, अब निश्चित ही तुमको पुत्र की प्राप्ति होगी ॥ ६०१/२

ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर दिन-प्रतिदिन रानी का गर्भ वृद्धि को प्राप्त होने लगा और उसका शारीरिक ताप भी बढ़ने लगा। वह बार-बार मूर्च्छित-सी होने लगी। तब वह अपने शरीर में शीतल चन्दन तथा खस लगाने लगी और समस्त अंगों में कपूर का लेपन करने लगी। किंतु इन उपायों से उसका वह ताप नष्ट नहीं हुआ ॥ ६१-६२ ॥ गीले वस्त्रों द्वारा ठण्डी हवा करने पर भी उसकी उष्णता कम नहीं हुई। तब उसने अपनी सखियों के साथ जाकर सिन्धु के तट पर उस महान् गर्भ का परित्याग कर दिया । तदुपरान्त वह स्वस्थ होकर अपनी सखियों के साथ अपने भवन में चली आयी। उसने अपने पति को उस गर्भ को परित्यक्त करने की बात बता दी और वह अपने गृहकार्य में संलग्न हो गयी ॥ ६३-६४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘सिन्धु की उत्पत्ति का वर्णन’ नामक तिहत्तरवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७३ ॥

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