श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-084
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
चौरासीवाँ अध्याय
बालक हेरम्ब की बाल लीलाद्वारा क्षेम, कुशल, क्रूर तथा बालासुर आदि दैत्यों के वध का आख्यान
अथः चतुरशीतितमोऽध्यायः
बालासुरवध

ब्रह्माजी बोले — बालक हेरम्ब के दूसरे मास में सायंकाल के समय पार्वती ने उसे उबटन आदि लगाकर पालने में रखा और वे अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक गीत गाने लगीं। उसी समय क्षेम तथा कुशल नामक दो दैत्य, जो बालक हेरम्ब का वध करना चाहते थे, वे दोनों मायावी चूहे का रूप धारणकर वहाँ आये ॥ १-२ ॥ नख तथा दाँत ही उन दोनों के आयुधरूप थे, ऐसे वे दोनों भयानक चूहे घर के अन्दर आये और जहाँ पर बालक हेरम्ब पालने पर लेटा था, वहीं पर आकर परस्पर लड़ने लगे। उन दोनों दुष्टों के शरीर के बाल खड़े हो गये थे ॥ ३ ॥ उन दोनों चूहों के चीत्कार शब्द से कान बहरे हो गये थे तथा उनके पैरों के आघात से वहाँ की सम्पूर्ण भूमि जोती हुई भूमि के समान कृषियोग्य हो गयी । तब देवी पार्वती लाठी लेकर उन दोनों चूहों को डराने लगीं तो भागते हुए वे दोनों ऊपर की ओर जाने लगे ॥ ४-५ ॥

तदनन्तर परस्पर युद्ध करते हुए वे दोनों भयानक चूहे बालक हेरम्ब के ऊपर गिरे । वक्षःस्थल में चोट लगने के कारण कर्कश शब्द करता हुआ वह श्रेष्ठ बालक हेरम्ब जग पड़ा। उस समय वे पार्वती डर गयीं। भयभीत हुए के समान बालक ने भी अपने दोनों हाथों को इधर-उधर चलाया। बालक के हाथों के उस प्रहार से वे दोनों प्राणहीन – से होकर भूमि पर गिर पड़े। उन दोनों के मुख से रक्त प्रवाहित हो रहा था । यह दृश्य देखकर पार्वतीजी अत्यन्त घबड़ा गयीं ॥ ६-८ ॥ जब उन चूहों के प्राण पूरी तरह नहीं निकले थे, उससे पूर्व ही भगवान् शिव के गण उन्हें फेंकने के लिये बाहर ले गये। गणेशजी के हाथों का आघात लगने के फलस्वरूप वे दोनों मोक्ष को प्राप्त हुए ॥ ९ ॥ दस योजन विस्तारवाले तथा महान् भयंकर उन दोनों असुरों के देह जब बाहर गिरे तो उन्हें देखकर शिव के गणों, पार्वती तथा उनकी सखियों का उस समय महान् कोलाहल होने लगा ॥ १०१/२

उन दोनों असुरों के प्राणरहित विस्तृत आकारवाले शरीरों के गिरने से आश्रम, वृक्ष, पर्वत तथा घर विध्वस्त हो गये। तब शिव के गण उनके शरीरों के टुकड़े-टुकड़े करके बाहर फेंकने के लिये ले गये ॥ ११-१२ ॥ उस समय पार्वती अत्यन्त भयभीत हो गयीं, उन्होंने शीघ्र ही बालक को गोद में ले लिया और वे पुत्र के प्रति वात्सल्यभाव के कारण स्नेहपूर्वक अपना स्तनपान कराने लगीं। उसी समय पुण्यमयी ऋषिपत्नियाँ वहाँ आ पहुँचीं और पार्वतीजी से बोलीं — हे गौरी! तुम्हारा महान् पुण्य है, जिसके कारण यह विघ्न नष्ट हो गया है। इस दो मास की अवस्थावाले बालक ने दुष्ट महान् असुरों को मार डाला है। आगे भी तीनों लोकों में ऐसा कोई नहीं होगा ॥ १३–१५ ॥ हे माता ! यह भूमि राक्षसभूमि है, अतः यहाँ शिशु की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये। गुप्त रूप से यहाँ रहने वाले राक्षस तथा दूसरे मायावी असुर इस बालक का हरण कर सकते हैं ॥ १६ ॥

ब्रह्माजी बोले — ऐसा कहकर वे ऋषिपत्नियाँ चली गयीं, तब शिवगणों ने देवी पार्वती से कहा — हे शिवे! आपका यह बालक तो प्रतिदिन असुरों का वध करेगा, ऐसे में हम लोगों के द्वारा कब तक मरे हुए असुरों को बाहर फेंका जायगा ? उसी समय मुनिगण वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने रक्षामन्त्रों के पाठ से उस बालक को अभिमन्त्रित किया। देवी ने उन्हें अनेक प्रकार के दान दिये, फिर उन्हें प्रणामकर विदा किया ॥ १७-१८१/२

तीसरे मास की बात है, एक दिन जब सभी लोग अपने-अपने कार्य में व्यस्त थे । मध्याह्नकाल का समय था । देवी पार्वती अपने बालक को लेकर शय्या पर सोयी थीं। उस समय उनकी जो सेविकाएँ थीं, उनमें से कुछ तो सो गयी थीं और कुछ दूसरे कार्यों में लगी हुई थीं ॥ १९-२० ॥ कुछ सेविकाएँ भवन के द्वार पर बैठकर वार्तालाप कर रही थीं। उसी समय क्रूर नामक असुर विडाल का रूप धारणकर देवी पार्वती के घर में प्रविष्ट हुआ ॥ २१ ॥ वह महाबली दुष्ट असुर लोगों की नजर बचाता हुआ कुत्ते के समान वहाँ गया। पार्वतीजी को सोया हुआ देखकर वह मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुआ कि जब तक ये गिरिजा सोती रहती हैं, उसी बीच मैं इस शिशु को उठा ले जाऊँगा । वह शीघ्र ही पलंग के ऊपर चढ़ गया और बालक को अपने मुख में पकड़कर शीघ्र ही पलंग से नीचे कूदा। उस समय बालक रोने लगा ॥ २२-२३१/२

उसी समय पार्वतीजी नींद से जग पड़ीं, उन्होंने विडाल के मुख में अपने बालक को देखा तो वे भय से विह्वल हो उठीं और ‘दौड़ो-दौड़ो’ इस प्रकार से चिल्लाने लगीं । दुःख तथा भय से उनके नेत्र बन्द हो गये। उन्हें मूर्च्छा आ गयी ॥ २४-२५ ॥ जब तक वह विडाल बालक के कण्ठ में दाँत चुभाता, उससे पहले ही बालक ने उसके दोनों कानों को अपने दोनों हाथों से पकड़ लिया और बालस्वभाववश अपने पैरों से उसके सिर पर आघात किया तथा उस महान् असुर को पलंग से नीचे गिरा दिया। उस विडाल का हृदय विदीर्ण हो गया और वह बाहर जाकर उसी प्रकार गिर पड़ा, जैसे कि आँधी के द्वारा वृक्ष से थोड़ा-सा पका हुआ फल गिराया जाता है। उसका दुर्गन्धयुक्त रक्त भूमि पर गिरने लगा ॥ २६-२८ ॥

तब उस समय शोक से विह्वल गिरिजा ने दुर्गन्ध से बचने के लिये अपनी नाक बन्द कर ली और वहाँ पहुँचकर उन्होंने झट से बालक को पकड़कर प्रीतिपूर्वक अपना स्तनपान कराया। बालक के रुदन की ध्वनि सुनकर सभी सेविकाएँ वहाँ आ पहुँचीं और कौतूहलयुक्त होकर प्रत्येक सेविका उस बालक के अंगों को छूने लगी ॥ २९-३० ॥ वे उस बालक के विषय में दृढ़मति थीं कि यह बालक अजर-अमर है । उस समय वह विडाल बारह योजन विस्तारवाला हो गया ॥ ३१ ॥ उसके गिरने से कुछ सखियाँ चूर-चूर हो गयी थीं और कितनी ही सेविकाएँ भी चूर-चूर हो गयीं। उस समय भगवान् शिव के गण भी उस प्रकारके विडाल को देखने वहाँ आये। वे बालक के बल-पराक्रम को देखकर परम आश्चर्य करने लगे और कहने लगे कि कहाँ तो यह अनेक प्रकार की माया करनेवाला दुष्ट दैत्य और कहाँ बालक का चरण-प्रहार ? ॥ ३२-३३ ॥ जो दैत्य इन्द्र आदि देवताओं के लिये भी सर्वथा अवध्य थे, उन्हें यह बालक लीला में ही मार गिरा रहा है! ऐसा कहकर उनकी आज्ञा प्राप्तकर वे शिवगण अपने-अपने स्थानों को चले गये ॥ ३४ ॥

कुछ बलवान् गणों ने उस दैत्य को कमर से पकड़कर खींचते हुए बाहर ले जाकर छोड़ा। तदनन्तर वे देवी पार्वती अपने भवन के अन्दर गयीं ॥ ३५ ॥ चौथे मास में सूर्य के उत्तरायण होने पर मुनिपत्नियाँ विविध प्रकार के सौभाग्य-द्रव्यों को लेकर पार्वती के मंगलमय भवन में आयीं, उनमें से कुछ अपने बालकों को साथ लायी थीं और कुछ अकेले ही आयी थीं। तब देवी पार्वती ने आसन आदि प्रदानकर उनका सत्कार किया ॥ ३६-३७ ॥ अपने बालक को गोद में पकड़े हुए ही पार्वती ने उन मुनिपत्नियों को नमस्कार किया। वे सभी हरिद्रा तथा कुंकुम के द्वारा परस्पर एक-दूसरे का पूजन करने लगीं ॥ ३८ ॥ उस समय उन मुनिपत्नियों ने अपने चलने वाले बालकों को तथा जो अभी ठीक से चलना नहीं जानते थे, उन शिशुओं को भूमि पर बैठाया हुआ था। तब देवी पार्वती का बालक भी उन बालकों के साथ क्रीडा करने लगा। उस पार्वतीपुत्र की शोभा से वे सभी बालक ऐसे सुशोभित हो रहे थे, जैसे चन्द्रमा के द्वारा अन्य तारे सुशोभित होते हैं। यह दृश्य देखकर वे मुनिपत्नियाँ गिरिपुत्री पार्वती से इस प्रकार कहने लगीं — ॥ ३९-४० ॥

हे गौरी! भगवान् शिव के द्वारा प्रदत्त इस तेजस्वी पुत्र को पाकर तुम धन्य हो। तुम्हारे बालक का सान्निध्य पाकर हमारे बालक भी प्रकाशमान-से दिखायी देते हैं ॥ ४१ ॥ पारसमणि का संयोग प्राप्तकर लोहा भी अपने लोहत्व को समाप्तकर सुवर्ण हो जाता है। इस प्रकार कौतुकसम्पन्न वे सभी मुनिपत्नियाँ हलदी, कुमकुम, ईंख के टुकड़े, चन्दन, गुंजक, तिल, गुड़, ताड़पत्र तथा विविध सुगन्धित द्रव्यों से परस्पर एक-दूसरे का पूजन करने लगीं। कोई-कोई शरीर में तथा मुखमण्डल में हलदी का उबटन लगा रही थीं ॥ ४२-४३१/२

उसी बीच बालासुर नाम का महान् दैत्य समान अवस्था वाला बालक बनकर उन बालकों के साथ क्रीडा करने के लिये वहाँ आ पहुँचा। वह पार्वतीपुत्र के साथ मनोविनोद के रूप में युद्ध-सा करता हुआ, वैसे ही क्रीड़ा करने लगा, जैसे कोई सियार सिंह के साथ और जैसे कोई महिष हाथी के साथ खेलता हो । वे दोनों कठोर बनकर गले से गले को रगड़ते हुए भूमि पर गिर रहे थे ॥ ४४-४६ ॥ तदनन्तर उस दुष्ट असुर ने अपने दोनों पैरों से गजानन के मस्तक पर प्रहार किया और वह अपने दोनों हाथों से बालक विनायक के बालों को पकड़कर जोर से खींचने लगा। इतना ही नहीं, वह दुष्ट उसी प्रकार की ध्वनि करने लगा, जैसे रात्रि में वृद्ध सियार चिल्लाता है। उन दोनों को वैसी स्थितिमें देखकर वे गिरिजा उन मुनिपत्नियों से कहने लगीं। यह बलवान् बालक किस ऋषि का है, जो मेरे पुत्र को मार रहा है ? यह दुष्ट गधे की भाँति प्रहर-प्रहर में चिल्ला रहा है ॥ ४७-४९ ॥

तदनन्तर बालकों का ऐसा स्वभाव ही होता है, यह समझकर पार्वती उस ओर से उदासीन हो गयीं। वे दोनों अत्यन्त प्रिय बालक बार-बार लोट-पोट करने लगे ॥ ५० ॥ वे दोनों बालक एक-दूसरे के सि रके बालों को सभी ओर से पकड़कर खींच रहे थे। स्वयं हँस भी रहे थे और अन्य बालकों तथा मुनियों की स्त्रियों को हँसा भी रहे थे । बालक विनायक जान रहे थे कि यह महान् दैत्य है, फिर भी वे उसके साथ खेल रहे थे। तदनन्तर उस दुष्ट बालासुर ने अपने दोनों हाथों से गणनायक गणेश के कण्ठदेश को इस प्रकार कसकर पकड़ा, ताकि उनके प्राण निकल जायँ। तब विनायक ने भी उसी प्रकार से उस बालासुरको पकड़ा। अब तो असुर की साँस रुकने लगी ॥ ५१–५३ ॥

उस दैत्यपुत्र (बालरूप दैत्य) को विह्वल देखकर वे मुनिपनियाँ अत्यन्त चिन्तित हो उठीं और चिल्लाने लगीं कि निश्चित ही इस विनायक ने इस बच्चे को मार डाला है। कुछ स्त्रियाँ दौड़ती हुई उनके पास गयीं, किंतु वे उन दोनों को छुड़ाने में समर्थ नहीं हो सकीं। तदनन्तर वे सभी पुरुष तथा स्त्रियाँ उन मंगलमयी पार्वती से कहने लगीं — ‘तुम इसे छुड़ा डालो। यह विनायक निश्चित ही इस मुनिपुत्र को मार डालेगा।’ तदनन्तर पार्वती ने विनायक से कहा — ‘इस बालकको छोड़ दो – छोड़ दो ॥ ५४–५६ ॥ अगर कहीं यह मर गया तो तपोबल से सम्पन्न मुनिगण हमें शाप दे डालेंगे। इस ब्रह्माण्डगोलक में प्राणदान से अधिक पुण्य और कोई नहीं है। उन मुनियों के शाप से तुम्हारी महान् शक्ति लुप्त हो जायगी’ ॥ ५७१/२

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार से पार्वती जब विनायक को मना कर रही थीं, उसी समय क्षणभर में नेत्रों के मार्ग से उस असुर के प्राण बुद्बुद की भाँति निकल पड़े। तब सभी ने उस मृत दैत्य को देखा, वह दस योजन विस्तार वाला था ॥ ५८-५९ ॥ उसका मुख अत्यन्त विकराल था । वह बड़े-बड़े वृक्षों को चूर-चूर करता हुआ गिर पड़ा। यह देखकर सभी स्त्रियाँ अत्यन्त भयभीत हो गयीं और वे अपने-अपने बालकों को लेकर शीघ्र ही उसी प्रकार दौड़ पड़ीं, जैसे कि भेड़ियों के समूह को देखकर गायें और बकरियाँ भयभीत होकर दौड़ पड़ती हैं। तदनन्तर पार्वती ने भी अपने पुत्र को पकड़कर उसके ऊपर मिट्टी घुमाकर उसे स्तनपान कराया और श्रेष्ठ ब्राह्मणों द्वारा शान्तिकर्म करवाकर तथा उन्हें अनेक प्रकार के दान देकर बहुत-से आशीर्वाद ग्रहण किये ॥ ६०–६२ ॥

मैं तो इन असुरों की माया को नहीं जानती हूँ, कितने ही असुर मेरे बालक को मारने के लिये आते रहते हैं, किंतु वे महान् दुष्ट असुर इसके द्वारा मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। यदि ईश्वर अनुकूल हो तो व्यक्ति को मारने में कौन समर्थ हो सकता है ? ॥ ६३१/२

ब्रह्माजी बोले — देवी पार्वती के ऐसे वचनों को सुनकर वे सभी मुनिपत्नियाँ वापस चली गयीं। तब उन शिवगणों ने उस असुर को दूर फेंक दिया और स्नान करने के अनन्तर वे अपने स्थान को चले गये ॥ ६४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘बालासुर के वध का वर्णन’ नामक चौरासीवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८४ ॥

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