श्रीदुर्गा कवचम्

॥ पूर्व-पीठिका ॥
शृणु देवि ! प्रवक्ष्यामि, कवचं सर्व सिद्धिदम् ।
पठित्वा धारयित्वा च नरो मुच्यते सङ्कटात् ॥ १ ॥

हे देवि ! सब सिद्धियों के देनेवाले ‘कवच’ को कहूँगा, सुनो। इसको पढ़कर एवं धारण कर मनुष्य सङ्कट से छूट जाता है।

अज्ञात्वा कवचं देवि!, दुर्गा-मन्त्रं च यो जपेत् ।
स नाप्नोति फलं तस्य, परे च नरकं व्रजेत् ॥ २ ॥

हे देवि ! इस ‘कवच’ को जाने बिना जो दुर्गा के मन्त्र का जप करता है, वह उस जप का फल नहीं पाता और अन्त में नरक में वास करता है।

इदं गुह्य – तमं देवि!, कवचं तव कथ्यते ।
गोपनीयं प्रयत्नेन, सावधानावधारय ॥ ३ ॥

हे देवि ! यह अत्यन्त गुप्त ‘कवच’ तुमसे कहता हूँ। इसे यत्न- पूर्वक गुप्त रखना चाहिए। ध्यान देकर सुनो।

॥ मूल पाठ ॥
उमा देवी शिरः पातु, ललाटं शूल-धारिणी ।
चक्षुषी खेचरी पातु, कर्णौ चत्वर – वासिनी ॥ १ ॥

‘उमा’ देवी शिर की, ‘शूल-धारिणी’ ललाट की रक्षा करें। ‘खेचरी’ दोनों आँखों की, ‘ चत्वर-वासिनी’ दोनों कानों की रक्षा करें।

सुगन्धा नासिकां पातु, वदनं सर्व-साधिनी ।
जिह्वां च चण्डिका पातु, ग्रीवां सौभद्रिका तथा ॥ २ ॥

‘ सुगन्धा’ नासिका की, ‘सर्व-साधिनी’ मुख की रक्षा करें। ‘चण्डिका’ जिह्वा की और ‘सौभद्रिका’ ग्रीवा की रक्षा करें।

अशोक-वासिनी चेतो, द्वौ बाहू वज्र-धारिणी ।
कण्ठं पातु महा-वाणी, जगन्माता स्तन-द्वयम् ॥ ३ ॥

‘अशोक – वासिनी’ बुद्धि की, ‘वज्र-धारिणी’ दोनों भुजाओं की रक्षा करें। ‘महा-वाणी’ कण्ठ की, ‘जगन्माता’ दोनों स्तनों की रक्षा करें।

हृदयं ललिता देवी, उदरं सिंह वाहिनी ।
कटिं भगवती देवी, द्वावूरू विन्ध्यवासिनी ॥ ४ ॥

‘ललिता’ देवी हृदय की, ‘सिंह-वाहिनी’ उदर की रक्षा करें। ‘भगवती’ देवी कमर की, ‘विन्ध्य-वासिनी’ दोनों उरुओं की रक्षा करें।

महा-बला च जङ्घे द्वे, पादौ भू-तल-वासिनी ।
एवं स्थिताऽसि देवि! त्वं, त्रैलोक्य-रक्षणात्मिके ।
रक्ष मां सर्व- गात्रेषु, दुर्गे देवि! नमोऽस्तु ते ॥ ५ ॥

‘महा-बला’ दोनों जाँघों की और ‘भू-तल-वासिनी’ दोनों पैरों की रक्षा करें। तीनों लोकों की रक्षिका के स्वरूपवाली हे देवि ! इस प्रकार तुम स्थित हो। हे दुर्गे ! सब अङ्गों में मेरी रक्षा करो। हे देवि! तुम्हें नमस्कार है।

॥ फलश्रुति ॥
इत्येतत् कवचं देवि!, महा-विद्या-फल-प्रदम् ।
यः पठेत् प्रातरुत्थाय, सर्व-तीर्थ-फलं लभेत् ॥ १ ॥

हे देवि ! परम ज्ञान के फल को देनेवाला यह ‘कवच’ है। जो प्रातः काल उठकर इसे पढ़ता है, वह सब तीर्थों का फल प्राप्त करता है।

यो न्यसेत् कवचं देहे, तस्य विघ्नं न कुत्र – चित् ।
भूत-प्रेत-पिशाचेभ्यो, भयस्तस्य न विद्यते ॥ २ ॥

जो इस ‘कवच’ का अपने शरीर में न्यास करता है, उसे कहीं विघ्न नहीं होता । भूत-प्रेत-पिशाचों से उसे भय नहीं रहता है।

रणे राज-कुले वापि, सर्वत्र विजयी भवेत् ।
सर्वत्र पूजामाप्नोति, देवी – पुत्र इव क्षितौ ॥ ३ ॥

युद्ध या राज-दरबार में-सब स्थानों में विजयी होता है। सभी जगह पूजा पाकर वह देवी-पुत्र के समान पृथ्वी पर निवास करता है।

॥ कुब्जिका – तन्त्रे श्रीदुर्गा कवचम् ॥

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