श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-12
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-द्वादशोऽध्यायः
बारहवाँ अध्याय
देवी के अट्टहास से भयभीत होकर ताम्र का महिषासुर के पास भाग आना, महिषासुर का अपने मन्त्रियों के साथ पुनः विचार-विमर्श तथा दुर्धर, दुर्मुख और बाष्कल की गर्वोक्ति
देवीपराजयकरणाय दुर्धरप्रबोधवचनम्

व्यासजी बोले उस ताम्र की वह बात सुनकर भगवती जगदम्बि का मेघ के समान गम्भीर वाणी में उससे हँसते हुए कहने लगीं ॥ १ ॥

देवी बोलीं हे ताम्र ! तुम अपने स्वामी महिष के पास जाओ और मरने को उद्यत मन्दबुद्धि, अति कामातुर तथा ज्ञानशून्य उस मूर्ख से कहो कि जिस प्रकार तुम्हारी माता महिषी घास खाने वाली, प्रौढा, विशाल सींगोंवाली, लम्बी पूँछ वाली तथा महान् उदर वाली है; वैसी मैं नहीं हूँ ॥ २-३ ॥ मैं न देवराज इन्द्र को, न विष्णु को, न शिव को, न कुबेर को, न वरुण को, न ब्रह्मा को और न तो अग्निदेव को ही चाहती हूँ। जब मैंने इन देवताओं की उपेक्षा कर दी, तब भला मैं एक पशु का उसके किस गुण से प्रसन्न होकर वरण करूँगी; इससे तो संसार में मेरी निन्दा ही होगी ! ॥ ४-५ ॥ मैं पति का वरण करने वाली साधारण स्त्री नहीं हूँ । मेरे पति तो साक्षात् प्रभु हैं। वे सब कुछ करने वाले, सबके साक्षी, कुछ भी न करने वाले, इच्छारहित, सदा रहने वाले, निर्गुण, मोहरहित, अनन्त, निरालम्ब, आश्रयरहित, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, साक्षी, पूर्ण, पूर्ण आशय वाले, कल्याणकारी, सबको आश्रय देने में समर्थ, शान्त, सबको देखने वाले तथा सबकी भावनाओं को जाननेवाले हैं। उन प्रभु को छोड़कर मैं मूर्ख महिष को अपना पति क्यों बनाना चाहूँगी ? ॥ ६-८ ॥

[ उससे कह देना ] अब तुम उठकर युद्ध करो। मैं तुम्हें या तो यम का वाहन बना दूँगी अथवा मनुष्यों के लिये पानी ढोने वाला महिष बना दूँगी ॥ ९ ॥ अरे पापी! यदि जीवित रहने की तुम्हारी इच्छा हो तो शीघ्र ही समस्त दानवों को साथ लेकर पाताललोक चले जाओ, अन्यथा मैं युद्ध में मार डालूंगी ॥ १० ॥ इस संसार में समान कुल तथा आचार वालों का परस्पर सम्बन्ध सुखदायक होता है, इसके विपरीत बिना सोचे- समझे यदि सम्बन्ध हो जाता है, तो वह बड़ा दुःखदायी होता है ॥ ११ ॥ [अरे महिष ! ] तुम मूर्ख हो जो यह कहते हो कि ‘हे भामिनि ! मुझे पतिरूप में स्वीकार कर लो।’ कहाँ मैं और कहाँ तुम सींग धारण करने वाले महिष! हम दोनों का यह कैसा सम्बन्ध ! अतः अब तुम [ पाताललोक] चले जाओ अथवा मुझसे युद्ध करो, मैं तुम्हें बन्धु बान्धवोंसहित निश्चय ही मार डालूंगी, नहीं तो देवताओं का यज्ञभाग दे दो और देवलोक छोड़कर सुखी हो जाओ ॥ १२-१३ ॥

व्यासजी बोले ऐसा कहकर देवीने बड़े जोरसे अद्भुत गर्जन किया। वह गर्जन प्रलयकालीन भीषण ध्वनि के समान तथा दैत्यों को भयभीत कर देने वाला था। उस नाद से पृथ्वी काँप उठी और पर्वत डगमगाने लगे तथा दैत्यों की पत्नियों के गर्भ गिर गये ॥ १४-१५ ॥ उस शब्द को सुनकर ताम्र के मन में भय व्याप्त हो गया और तब वह वहाँ से भागकर महिषासुर के पास जा पहुँचा ॥ १६ ॥ हे राजन् ! उसके नगर में जो भी दैत्य थे, वे सब बड़े चिन्तित हुए। वे उस ध्वनि के प्रभाव से बधिर हो गये और वहाँ से भागने लगे ॥ १७ ॥ उसी समय देवी का सिंह भी क्रोधपूर्वक अपने
अयालों (गर्दन के बालों) को फैलाकर बड़े जोर से दहाड़ा । उस गर्जनसे सभी दैत्य बहुत डर गये ॥ १८ ॥ ताम्र को वापस आया हुआ देखकर महिषासुर को बहुत विस्मय हुआ । वह उसी समय मन्त्रियों के साथ विचार-विमर्श करने लगा कि अब आगे क्या किया जाय ? ॥ १९ ॥

[ उसने कहा ] हे श्रेष्ठ दानवो! हमें आत्मरक्षार्थ किले के भीतर ही रहना चाहिये अथवा बाहर निकलकर युद्ध करना चाहिये अथवा भाग जाने में ही हमारा कल्याण है ? ॥ २० ॥ आपलोग बुद्धिमान्, अजेय तथा सभी शास्त्रों के विद्वान् हैं। अतः मेरे कार्य की सिद्धि के लिये आपलोग अत्यन्त गुप्त मन्त्रणा करें; क्योंकि मन्त्रणा को ही राज्य का मूल कहा गया है । यदि मन्त्रणा सुरक्षित (गुप्त) रहती है, तभी राज्य की सुरक्षा सम्भव है। अतएव राजा को चाहिये कि बुद्धिमान् तथा सदाचारी मन्त्रियों के साथ सदा गुप्त मन्त्रणा करे ॥ २१-२२ ॥ मन्त्रणा के खुल जाने पर राज्य तथा राजा इन दोनों का विनाश हो जाता है। अतः अपने अभ्युदय की इच्छा करनेवाले राजा को चाहिये कि भेद खुल जाने के भय से सदा गुप्त मन्त्रणा करे ॥ २३ ॥ अतः इस समय आप मन्त्रिगण नीति-निर्णय पर सम्यक् विचार करके देश – काल के अनुसार मुझे सार्थक तथा हितकर परामर्श प्रदान करें ॥ २४ ॥ देवताओं द्वारा निर्मित जो यह अत्यन्त बलवती स्त्री बिना किसी सहायता के अकेली ही यहाँ आयी हुई है, उसके रहस्य पर आपलोग विचार करें ॥ २५ ॥ वह बाला हमें युद्ध के लिये चुनौती दे रही है, इससे बढ़कर आश्चर्य और क्या हो सकता है ? इसमें मेरी विजय होगी अथवा पराजय इसे तीनों लोकों में भला कौन जानता है ? ॥ २६ ॥

न तो बहुत संख्या वालों की ही सदा विजय होती है और न तो अकेला रहते हुए भी किसी की पराजय ही होती है । युद्ध में जय तथा पराजय को सदा दैव के अधीन जानना चाहिये ॥ २७ ॥ पुरुषार्थवादी लोग कहते हैं कि दैव क्या है, उसे किसने देखा है; इसीलिये तो बुद्धिमान् उसे ‘अदृष्ट’ कहते हैं। उसके होने में क्या प्रमाण है ? वह केवल कायरों को आशा बँधाने का साधन है, सामर्थ्यवान् लोग उसे कहीं नहीं देखते। उद्यम और दैव – ये दोनों ही वीर तथा कायर लोगों की मान्यताएँ हैं। अतः बुद्धिपूर्वक सारी बातों पर विचार करके हमें कर्तव्य का निश्चय करना चाहिये ॥ २८-३० ॥

व्यासजी बोले राजा महिष की यह सारगर्भित बात सुनकर महायशस्वी बिडालाख्य ने हाथ जोड़कर अपने महाराज महिषासुर से यह वचन कहा हे राजन् ! विशाल नयनों वाली इस स्त्री के विषय में सावधानीपूर्वक बार-बार यह पता लगाया जाना चाहिये कि यह यहाँ किसलिये और कहाँ से आयी हुई है तथा यह किसकी पत्नी है ? ॥ ३१-३२ ॥ [ मैं तो यह समझता हूँ कि] ‘स्त्री के द्वारा ही आपकी मृत्यु होगी ‘ ऐसा भलीभाँति जानकर सभी देवताओं ने अपने तेज से उस कमलनयनी स्त्री का निर्माण करके यहाँ भेजा है ॥ ३३ ॥ युद्ध देखने की इच्छा वाले वे देवता भी आकाश में छिपकर विद्यमान हैं और अवसर आने पर युद्ध की इच्छा वाले देवता भी उसकी सहायता करेंगे ॥ ३४ ॥ उस स्त्री को आगे करके वे विष्णु आदि प्रधान देवता युद्ध में हम सबका वध कर देंगे और वह स्त्री भी आपको मार डालेगी ॥ ३५ ॥ हे नरेश ! मैंने तो यही समझा है कि उन देवताओं का यही अभीष्ट है, किंतु मुझे भविष्य में होने वाले परिणाम का बिलकुल ज्ञान नहीं है। हे प्रभो! मैं इस समय यह भी नहीं कह सकता कि आप युद्ध न करें। हे महाराज ! देवताओं के द्वारा निर्मित इस कार्य में कुछ भी निर्णय लेने में आप ही प्रमाण हैं ॥ ३६-३७ ॥ हम अनुयायियों का तो यही धर्म है कि अवसर आनेपर आपके लिये सदा मरने को तैयार रहें अथवा आपके साथ आनन्दपूर्वक रहें ॥ ३८ ॥ हे राजन् ! अद्भुत बात तो यह है कि बलाभिमानी और सेनासम्पन्न हम लोगों को एक स्त्री युद्ध के लिये चुनौती दे रही है ॥ ३९ ॥

दुर्मुख बोला हे राजन् ! मैं यह पूर्णरूप से जानता हूँ कि आज युद्ध में विजय निश्चितरूप से हम लोगों की होगी। हम लोगों को पलायन नहीं करना चाहिये; क्योंकि युद्ध से भाग जाना पुरुषों की कीर्ति को नष्ट करने वाला होता है ॥ ४० ॥ इन्द्र आदि देवताओं के साथ भी युद्ध में जब हम लोगों ने यह निन्दनीय कार्य नहीं किया था, तब उस अकेली स्त्री को सामने पाकर उससे डरकर भला कौन पलायन करेगा ? ॥ ४१ ॥ अतः अब हमें युद्ध आरम्भ कर देना चाहिये, युद्ध में हमारी मृत्यु हो अथवा विजय। जो होना होगा वह तो होगा ही । यथार्थ ज्ञान वाले को इस विषय में चिन्ता की क्या आवश्यकता ? ॥ ४२ ॥ रणभूमि में मरने पर कीर्ति मिलेगी और विजयी होने पर जीवन में सुख मिलेगा। इन दोनों ही बातों को मन में स्थिर करके हमें आज ही युद्ध छेड़ देना चाहिये ॥ ४३ ॥ युद्ध से पलायन कर जाने से हमारा यश नष्ट हो जायगा। आयु के समाप्त हो जाने पर मृत्यु होनी तो निश्चित ही है। अतएव जीवन तथा मरण के लिये व्यर्थ चिन्ता नहीं करनी चाहिये ॥ ४४ ॥

व्यासजी बोले दुर्मुख का विचार सुनकर बात करने में परम प्रवीण बाष्कल हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक राजा महिषासुर से यह वचन कहने लगा ॥ ४५ ॥

बाष्कल बोला हे राजन् ! कायर लोगों के लिये प्रिय इस [ पलायन] कार्य के विषय में आपको विचार नहीं करना चाहिये। मैं उस चंचल नेत्रोंवाली चण्डी को अकेला ही मार डालूँगा ॥ ४६ ॥ हमें सर्वदा उत्साह से सम्पन्न रहना चाहिये; क्योंकि उत्साह ही वीररस का स्थायीभाव है। हे नृपश्रेष्ठ ! भयानक रस तो वीररस का वैरी है ॥ ४७ ॥ अतएव हे राजन् ! भय का त्याग करके मैं अद्भुत युद्ध करूँगा । हे नरेन्द्र ! मैं उस चण्डिका को मारकर उसे यमपुरी पहुँचा दूँगा ॥ ४८ ॥ मैं यम, इन्द्र, कुबेर, वरुण, वायु, अग्नि, विष्णु, शिव, चन्द्रमा और सूर्य से भी नहीं डरता, तब उस अकेली तथा मदोन्मत्त स्त्री से भला क्यों डरूँगा? पत्थर पर सान धरे हुए तीक्ष्ण बाणों से मैं उस स्त्री का वध कर दूँगा। आज आप मेरा बाहुबल तो देखिये और इस स्त्री के साथ युद्ध करने के लिये आपको संग्राम में जाने की आवश्यकता नहीं है; आप केवल सुखपूर्वक विहार कीजिये ॥ ४९–५१ ॥

व्यासजी बोले दैत्यराज महिष से मदोन्मत्त बाष्कल के ऐसा कहने पर वहाँ उपस्थित दुर्धर अपने राजा महिषासुर को प्रणाम करके कहने लगा ॥ ५२ ॥

दुर्धर बोला हे महाराज महिष! रहस्यमय ढंग से आयी हुई उस देवनिर्मित अठारह भुजाओं वाली तथा मनोहर देवी पर मैं विजय प्राप्त करूँगा ॥ ५३ ॥ हे राजन् ! आपको भयभीत करने के लिये ही देवताओं ने इस माया की रचना की है। यह एक विभीषिकामात्र है ऐसा जानकर आप अपने मन की व्याकुलता दूर कर दीजिये ॥ ५४ ॥ हे राजन् ! यह सब तो राजनीति की बात हुई, अब आप मन्त्रियों का कर्तव्य सुनिये। हे दानवेन्द्र! तीन प्रकार के मन्त्री संसार में होते हैं। उनमें कुछ सात्त्विक, कुछ राजस तथा अन्य तामस होते हैं। सात्त्विक मन्त्री अपनी पूरी शक्ति से अपने स्वामी का कार्य सिद्ध करते हैं। वे अपने स्वामी के कार्य में बिना कोई अवरोध उत्पन्न किये अपना कार्य करते हैं। ऐसे मन्त्री एकाग्रचित्त, धर्मपरायण तथा मन्त्रशास्त्रों (मन्त्रणा से सम्बन्धित शास्त्र ) – के विद्वान् होते हैं ॥ ५५-५७ ॥ राजस प्रकृति के मन्त्री चंचल चित्तवाले होते हैं और वे सदा अपना कार्य साधने में लगे रहते हैं। जब कभी उनके मन में आ जाता है, तब वे अपने स्वामी का भी काम कर देते हैं ॥ ५८ ॥ तामस प्रकृति के मन्त्री लोभपरायण होते हैं और वे सदैव अपना कार्य सिद्ध करने में संलग्न रहते हैं। वे अपने स्वामी का कार्य विनष्ट करके भी अपना कार्य सिद्ध करते हैं। वे समय आने पर परपक्ष के लोगों से प्रलोभन पाकर अपने स्वामी का भेद खोल देते हैं और घर में बैठे-बैठे अपनी कमजोरी शत्रुपक्ष के लोगों को बता देते हैं। ऐसे मन्त्री म्यान में छिपी तलवार की भाँति अपने स्वामी के कार्य में बाधा डालते हैं और संग्राम की स्थिति उत्पन्न होने पर सदा उन्हें डराते रहते हैं ॥ ५९–६१ ॥

हे राजन् ! उन मन्त्रियों का कभी विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि उनका विश्वास करने पर काम बिगड़ जाता है और गुप्त भेद भी खुल जाता है। लोभी, तमोगुणी, पापी, बुद्धिहीन, शठ तथा खल मन्त्रियों का विश्वास कर लेने पर वे क्या- क्या अनर्थ नहीं कर डालते ? ॥ ६२-६३ ॥ अतएव हे नृपश्रेष्ठ ! मैं स्वयं युद्धभूमि में जाकर आपका कार्य सम्पन्न करूँगा। आप किसी भी तरह की चिन्ता न करें। मैं उस दुराचारिणी स्त्री को पकड़कर आपके पास शीघ्र ले आऊँगा । आप मेरा बल तथा धैर्य देखें। मैं अपनी पूरी शक्ति से अपने स्वामी का कार्य सिद्ध करूँगा ॥ ६४-६५ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध का ‘देवी की पराजय के लिये दुर्धर प्रबोधवचन’ नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥

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