April 28, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-05 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-पञ्चमोऽध्यायः पाँचवाँ अध्याय भगवान् विष्णु की प्रेरणा से देवताओं का भगवती की स्तुति करना और प्रसन्न होकर भगवती का वरदान देना देवीसमाराधनाय देवकृतस्तुतिवर्णनम् व्यासजी बोले — हे राजन् ! तब सभी तत्त्वों के ज्ञाता माधव भगवान् विष्णु समस्त देवताओं को चिन्ता से व्याकुल तथा अत्यन्त प्रेमविह्वल देखकर कहने लगे ॥ १ ॥ विष्णु बोले — हे देवगण! आप सबने मौन धारण क्यों कर रखा है? आप सब अपने दुःख का सत्-असत् जो भी कारण हो बतायें, जिसे सुनकर मैं उसे दूर करने का उपाय करूँगा ॥ २ ॥ देवता बोले — हे विभो ! तीनों लोकों में कौन-सी वस्तु आपसे अज्ञात है, आप हमारा सारा कार्य [भली प्रकारसे ] जानते हैं; तो क्यों बार-बार पूछ रहे हैं ? ॥ ३ ॥ पूर्वकाल में आपने बलि को बाँध लिया था और इन्द्र को देवताओं का राजा बनाया था; आपने वामन-शरीर धारणकर तीनों लोकों को अपने चरणों से नाप लिया था ॥ ४ ॥ हे विष्णो! आपने ही अमृत छीनकर दैत्यों का नाश किया था; आप सभी देवताओं की समस्त विपत्तियों को दूर करने में समर्थ हैं ॥ ५ ॥ विष्णु बोले — हे श्रेष्ठ देवताओ! आपलोग भयभीत न हों। मैं उस वृत्रासुर के वध का सुसंगत उपाय जानता हूँ, उसे मैं बताऊँगा, जिससे आप लोगों को सुख होगा ॥ ६ ॥ अपनी बुद्धि से, बल से, धन से या किसी भी उपाय से मुझे आप लोगों का हित अवश्य करना है ॥ ७ ॥ मित्रों और विशेष रूप से शत्रुओं के प्रति [ प्रयोगहेतु] तत्त्वदर्शियों ने साम, दान, दण्ड, भेद — ये चार उपाय बताये हैं ॥ ८ ॥ वृत्रासुर की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने इसे वरदान दिया है और उस वरदान के प्रभाव से यह दुर्जय हो गया है ॥ ९ ॥ त्वष्टा के द्वारा उत्पन्न किया गया यह वृत्रासुर समस्त प्राणियों के लिये अजेय हो गया है। शत्रुओं के राज्य को जीत लेने वाला वह अपनी शक्ति से अधिक प्रबल हो गया है ॥ १० ॥ हे देवताओ! बिना सामनीति के प्रयोग के वह वृत्रासुर देवताओं के लिये दुःसाध्य है, अतः पहले इसे प्रलोभन देकर वश में करना चाहिये, तत्पश्चात् मार डालना चाहिये ॥ ११ ॥ हे गन्धर्वगण! जहाँ वह बलवान् वृत्रासुर रहता है, वहाँ तुमलोग जाओ और उसपर सामनीति का प्रयोग करो; तभी उस पर विजय प्राप्त कर सकोगे ॥ १२ ॥ वहाँ जाकर अनेक शपथें खाकर सन्धि के द्वारा उसे विश्वास में ले करके और पुनः मित्रताकर बाद में उस प्रबल शत्रुको मार डालना चाहिये ॥ १३ ॥ हे श्रेष्ठ देवगण! मैं अदृश्य रूप में इन्द्र के श्रेष्ठ आयुध वज्रमें प्रवेश कर जाऊँगा और उनकी सहायता करूँगा ॥ १४ ॥ हे देवताओ ! अब आप लोग समय की प्रतीक्षा करें, वृत्रासुर की आयु के क्षीण होने पर ही उसकी मृत्यु होगी, अन्य किसी भी प्रकार से नहीं ॥ १५ ॥ हे गन्धर्वगण! तुम लोग वेष बदलकर ऋषियों के साथ उसके पास जाओ और वचनबद्धतापूर्वक इन्द्र के साथ उसकी मित्रता करा दो ॥ १६ ॥ जिस प्रकार से उसका विश्वास दृढ़ हो जाय, वैसा ही आप सबको करना चाहिये। मैं सुदृढ़ तथा आवरणयुक्त वज्र में गुप्तरूप से प्रवेश कर जाऊँगा ॥ १७ ॥ जब वृत्रासुर को पूर्ण विश्वास हो जाय तभी इन्द्र उस शत्रु का वध करेंगे। उसके वध का अन्य कोई उपाय नहीं है। वे इन्द्र विश्वासघात करके मेरी सहायता से वज्र द्वारा पीछे से उस पापी को मार डालेंगे। इस दुष्ट शत्रु के साथ शठता करने में दोष नहीं है। अन्यथा वह बलवान् वीरधर्म से नहीं मारा जा सकेगा । पूर्वकाल में मैंने भी वामनरूप धारणकर बलि को वंचित किया था और मोहिनी रूप धारणकर सभी दैत्यों को छला था ॥ १८-२०१/२ ॥ हे देवताओ ! अब आप सब लोग एक साथ देवी भगवती शिवा की शरण में जायँ और भावपूर्वक स्तोत्रों और मन्त्रों से उनकी स्तुति करें। वे भगवती योगमाया आप लोगों की सहायता करेंगी ॥ २१-२२ ॥ हम सभी उन सात्त्विकी, परा प्रकृति, सिद्धिदात्री, कामनास्वरूपिणी, भक्तों की कामना पूर्ण करने वाली और दुराचारियों के लिये दुर्लभ देवी की सदा वन्दना करते हैं ॥ २३ ॥ इन्द्र भी उनकी आराधना करके युद्ध में शत्रु को मार डालेंगे। वे मोहिनी महामाया उस दानव वृत्रासुर को मोहित कर देंगी। तब माया से मोहित वृत्रासुर सुगमतापूर्वक मारा जा सकेगा। उन पराम्बा के प्रसन्न होने पर सब कुछ साध्य हो जायगा । अन्यथा किसी की भी कामना की पूर्ति नहीं होगी। वे भगवती सबकी अन्तर्यामिस्वरूपिणी और सभी कारणों की भी कारण हैं। इसलिये हे श्रेष्ठ देवगण ! शत्रु के विनाश के लिये सात्त्विक भावों से युक्त होकर उन प्रकृतिस्वरूपा जगज्जननी का परम आदरपूर्वक भजन कीजिये ॥ २४-२७ ॥ पूर्वकाल में मैंने भी पाँच हजार वर्षों तक अत्यन्त भीषण युद्ध करके मधु-कैटभ का वध किया था। उस समय मैंने उन पराप्रकृति की स्तुति की थी, तब वे अत्यन्त प्रसन्न हो गयी थीं। तत्पश्चात् उनके द्वारा मोहित दोनों दैत्यों को मैंने छलपूर्वक मार डाला था। मोहित किये गये विशाल भुजाओं वाले वे दोनों दानव अत्यन्त मदोन्मत्त थे । इसीलिये आप लोग भी उसी प्रकार भावपूर्वक उन पराप्रकृति का भजन कीजिये। हे देवगण! वे सब प्रकार से कार्य की सिद्धि करेंगी ॥ २८-३०१/२ ॥ इस प्रकार भगवान् विष्णु से परामर्श प्राप्त करके वे मन्दार वृक्षों से सुशोभित सुमेरुपर्वत के शिखर पर चले गये । वे देवता वहाँ एकान्त में बैठकर ध्यान, जप और तप करके जगत् का सृजन – पालन – संहार करने वाली, भक्तों के लिये कामधेनुस्वरूपा एवं संसार के क्लेशों का नाश करने वाली पराम्बा भगवती की इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥ ३१–३३ ॥ ॥ देवा ऊचुः ॥ देवि प्रसीद परिपाहि सुरान्प्रतप्तान् वृत्रासुरेण समरे परिपीडितांश्च । दीनार्तिनाशनपरे परमार्थतत्त्वे प्राप्तांस्त्वदङ्घ्रिकमलं शरणं सदैव ॥ ३४ ॥ त्वं सर्वविश्वजननी परिपालयास्मान् पुत्रानिवातिपतितान् रिपुसङ्कटेऽस्मिन् । मातर्न तेऽस्त्यविदितं भुवनत्रयेऽपि कस्मादुपेक्षसि सुरानसुरप्रतप्तान् ॥ ३५ ॥ त्रैलोक्यमेतदखिलं विहितं त्वयैव ब्रह्मा हरिः पशुपतिस्तव वासनोत्थाः । कुर्वन्ति कार्यमखिलं स्ववशा न ते ते भ्रूभङ्गचालनवशाद्विहरन्ति कामम् ॥ ३६ ॥ माता सुतान्परिभवात्परिपाति दीनान् रीतिस्त्वयैव रचिता प्रकटापराधान् । कस्मान्न पालयसि देवि विनापराधा-नस्मांस्त्वदङ्घ्रिशरणान्करुणारसाब्धे ॥ ३७ ॥ नूनं मदङ्घ्रिभजनाप्तपदाः किलैते भक्तिं विहाय विभवे सुखभोगलुब्धाः । नेमे कटाक्षविषया इति चेन्न चैषा रीतिः सुते जननकर्तरि चापि दृष्टा ॥ ३८ ॥ दोषो न नोऽत्र जननि प्रतिभाति चित्ते यत्ते विहाय भजनं विभवे निमग्नाः । मोहस्त्वया विरचितः प्रभवत्यसौ न-स्तस्मात्स्वभावकरुणे दयसे कथं न ॥ ३९ ॥ पूर्वं त्वया जननि दैत्यपतिर्बलिष्ठो व्यापादितो महिषरूपधरः किलाजौ । अस्मत्कृते सकललोकभयावहोऽसौ वृत्रं कथं न भयदं विधुनोषि मातः ॥ ४० ॥ शुम्भस्तथातिबलवाननुजो निशुम्भ-स्तौ भ्रातरौ तदनुगा निहता हतौ च । वृत्रं तथा जहि खलं प्रबलं दयार्द्रे मत्तं विमोहय तथा न भवेद्यथासौ ॥ ४१ ॥ त्वं पालयाद्य विबुधानसुरेण मातः सन्तापितानतितरां भयविह्वलांश्च । नान्योऽस्ति कोऽपि भुवनेषु सुरार्तिहन्ता यः क्लेशजालमखिलं निदहेत्स्वशक्त्या ॥ ४२ ॥ वृत्रे दया तव यदि प्रथिता तथापि जह्येनमाशु जनदुःखकरं खलं च । पापात्समुद्धर भवानि शरैः पुनाना नोचेत्प्रयास्यति तमो ननु दुष्टबुद्धिः ॥ ४३ ॥ ते प्रापिताः सुरवनं विबुधारयो ये हत्वा रणेऽपि विशिखैः किल पावितास्ते । त्राता न किं निरयपातभयाद्दयार्द्रे यच्छत्रवोऽपि न हि किं विनिहंसि वृत्रम् ॥ ४४ ॥ जानीमहे रिपुरसौ तव सेवको न प्रायेण पीडयति नः किल पापबुद्धिः । यस्तावकस्त्विह भवेदमरानसौ किं त्वत्पादपङ्कजरतान्ननु पीडयेद्वा ॥ ४५ ॥ कुर्मः कथं जननि पूजनमद्य तेऽम्ब पुष्पादिकं तव विनिर्मितमेव यस्मात् । मन्त्रा वयं च सकलं परशक्तिरूपं तस्माद्भवानि चरणे प्रणताः स्म नूनम् ॥ ४६ ॥ धन्यास्त एव मनुजा हि भजन्ति भक्त्या पादाम्बुजं तव भवाब्धिजलेषु पोतम् । यं योगिनोऽपि मनसा सततं स्मरन्ति मोक्षार्थिनो विगतरागविकारमोहाः ॥ ४७ ॥ ये याज्ञिकाः सकलवेदविदोऽपि नूनं त्वां संस्मरन्ति सततं किल होमकाले । स्वाहां तु तृप्तिजननीममरेश्वराणां भूयः स्वधां पितृगणस्य च तृप्तिहेतुम् ॥ ४८ ॥ मेधासि कान्तिरसि शान्तिरपि प्रसिद्धा बुद्धिस्त्वमेव विशदार्थकरी नराणाम् । सर्वं त्वमेव विभवं भुवनत्रयेऽस्मि-न्कृत्वा ददासि भजतां कृपया सदैव ॥ ४९ ॥ देवता बोले — हे देवि! हे दीनों के कष्ट दूर करने वाली! हे परमार्थतत्त्वस्वरूपिणि! हम पर प्रसन्न हों, वृत्रासुर के द्वारा सताये गये, युद्ध में अत्यन्त पीड़ित किये गये तथा आपके चरणकमल की शरण में सदा से पड़े हुए हम देवताओं की रक्षा कीजिये ॥ ३४ ॥ हे माता! आप समस्त विश्व की जननी हैं, शत्रु द्वारा उपस्थित किये गये इस संकट में पड़े हुए हम सबका आप पुत्रों के समान परिपालन कीजिये । आपसे तीनों लोकों में कुछ भी अज्ञात नहीं है, तो आप असुरों के द्वारा पीड़ित देवताओं की उपेक्षा क्यों कर रही हैं ? ॥ ३५ ॥ आपने ही इस सम्पूर्ण त्रिलोकी की रचना की है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव आपके ही संकल्प से उत्पन्न हुए हैं। आपके भृकुटि – विलासमात्र से वे [सृजन, पालन तथा संहार] समस्त कार्य करते हैं और यथेच्छ विहार करते हैं; वे भी स्वतन्त्र नहीं हैं ॥ ३६ ॥ हे देवि ! माता प्रत्यक्ष अपराधवाले अपने दुःखी पुत्रों की भी कष्ट से सब प्रकार से रक्षा करती है — यह रीति आपके ही द्वारा निर्मित है; तब हे करुणरस की समुद्रस्वरूपिणि! आप अपने चरणों की शरण में पड़े हुए हम निरपराध देवताओं का पालन क्यों नहीं कर रही हैं ? ॥ ३७ ॥ हे जननि ! यदि आप सोचती हों कि मेरे चरणकमलों की आराधना से राज्य प्राप्त करके देवता मेरी भक्ति छोड़कर वैभव-सुखों के भोग में आसक्त हो जायँगे और इन्हें मेरे कृपाकटाक्ष की आवश्यकता नहीं रह जायगी तो ऐसा सामान्यतः होता ही है, फिर भी जन्म देने वाली माता अपने पुत्र के प्रति ऐसी भावना रखे — यह रीति कहीं देखी नहीं गयी ॥ ३८ ॥ हे जननि ! आपका भजन त्यागकर हम लोग जो भोग में निमग्न हैं — इसमें हमारे चित्त में अपना दोष नहीं प्रतीत होता; क्योंकि मोह की रचना आपने ही की है और वह हम लोगों को मोहित कर देता है। ऐसी परिस्थिति में हे करुणामय स्वभाववाली! आप हमपर दया क्यों नहीं करतीं ? ॥ ३९ ॥ हे जननि ! पूर्वकाल में आपने हमलोगों के कल्याणार्थ सभी के लिये भयकारी महिषरूप धारण करने वाले बलवान् दैत्यराज का वध किया था। हे माता! भय प्रदान करने वाले वृत्रासुर का भी वध आप क्यों नहीं करतीं ? ॥ ४० ॥ शुम्भ और उसके बलवान् भाई निशुम्भ —उन दोनों भाइयों को आपने मार डाला था और उनके अनुचरों का भी वध कर दिया था। उसी प्रकार हे दया से आर्द्रहृदयवाली ! अत्यन्त बलशाली, उन्मत्त तथा दुष्ट वृत्रासुर को भी मार डालिये। आप इसे विमोहित कर दें, जिससे यह भी उनकी तरह न हो सके। हे माता ! असुरों के द्वारा अत्यधिक पीड़ित किये गये तथा भय से व्याकुल हम देवताओं का अब आप ही पालन कीजिये; क्योंकि तीनों लोकों में ऐसा कोई नहीं है जो देवताओं का दुःख दूर कर सके और अपनी शक्ति से सम्पूर्ण कष्ट के समूह को नष्ट कर सके ॥ ४१-४२ ॥ यदि वृत्रासुर पर आपकी अत्यधिक दया हो तो भी आप हम लोगों के लिये संतापकारक इस दुष्ट को शीघ्र ही मार डालिये। हे भवानि ! अपने बाणों से इसको पवित्र करती हुई आप पाप से इसका उद्धार कर दीजिये, अन्यथा यह दुष्टबुद्धि वृत्रासुर नरक प्राप्त करेगा ॥ ४३ ॥ जिन दानवों को युद्ध में आपने बाणों द्वारा मारकर पवित्र बना दिया, वे नन्दनवन को प्राप्त हो गये। हे दयार्द्र स्वभाववाली ! क्या आपने नरक में गिरने के भय से उन शत्रुओं की रक्षा नहीं की? तो फिर आप वृत्रासुर को क्यों नहीं मारती हैं ॥ ४४ ॥ हम यह जानते हैं कि वह आपका सेवक नहीं, शत्रु ही है; क्योंकि वह दुष्ट पापबुद्धि हम सबको सदैव सताया करता है। आपके चरणकमलों की भक्ति में रत हम देवताओं को पीड़ित करने वाला वह (वृत्रासुर) आपका भक्त कैसे हो सकता है ? ॥ ४५ ॥ हे जननि ! हे अम्ब! हम आज आपकी पूजा कैसे करें; क्योंकि पुष्पादि [पूजोपचार] तो आपके द्वारा ही बनाये गये हैं । मन्त्र, हम लोग तथा अन्य सब कुछ आपकी पराशक्ति के ही रूप हैं, अतः हे भवानि ! हम केवल आपके चरणों की शरण ले सकते हैं ॥ ४६ ॥ वे ही मनुष्य धन्य हैं, जो भवसागर से पार उतारने वाले पोतसदृश आपके चरणकमल का निरन्तर भक्तिभाव से भजन करते हैं और राग, मोह आदि विकारों से रहित मोक्षकामी योगी भी मनसे जिसका निरन्तर स्मरण करते हैं ॥ ४७ ॥ समस्त वेदों में पारंगत वे यज्ञकर्ता भी निश्चय ही धन्य हैं, जो हवन के समय देवताओं को तृप्ति देने वाली स्वाहा और पितरों को तृप्ति देने वाली स्वधा के रूप में आपका निरन्तर स्मरण करते हैं ॥ ४८ ॥ आप ही मेधा हैं, आप ही प्रभा हैं, आप ही कान्ति हैं, आप ही शान्ति हैं और मनुष्यों का महान् मनोरथ पूर्ण करने वाली बुद्धि भी आप ही हैं। समस्त ऐश्वर्य की रचना करके आप इस त्रिलोकी में कृपा करके अपनी आराधना करने वाले को वैभव प्रदान करती रहती हैं ॥ ४९ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार देवताओं के स्तुति करने पर वे भगवती प्रकट हो गयीं। उन्होंने सुन्दर रूप धारण कर रखा था, वे कोमल विग्रहवाली थीं और समस्त आभूषणों से सुसज्जित थीं ॥ ५० ॥ वे पाश, अंकुश, वर और अभयमुद्रा से सुशोभित चार भुजाओं से युक्त थीं, उनकी कमर में बँधी हुई करधनी के घुंघरू बज रहे थे ॥ ५१ ॥ उन कान्तिमयी भगवती की ध्वनि कोयल के समान थी, उनके हाथों के कंकण और चरणों के नूपुर बज रहे थे। उनके मस्तक पर अर्धचन्द्र और रत्नमुकुट सुशोभित हो रहा था ॥ ५२ ॥ वे मन्द मन्द मुसकरा रही थीं, उनका मुख कमल के समान सुशोभित हो रहा था, वे तीन नेत्रों से विभूषित थीं तथा पारिजात के पुष्प – नाल की भाँति उनके शरीर की नील- कान्ति थी ॥ ५३ ॥ वे लाल रंग के वस्त्र धारण किये हुए थीं और उनके शरीर पर रक्त चन्दन अनुलिप्त था । करुणारस की सागर वे भगवती प्रसन्न मुख – मण्डल से शोभा पा रही थीं। वे समस्त शृंगार – वेष से विभूषित थीं। वे देवी द्वैतभाव के लिये अरणी- स्वरूपा, परा, सब कुछ जाननेवाली, सबकी रचना करने वाली, सबकी अधिष्ठानस्वरूपा, सभी वेदान्तों द्वारा प्रतिपादित और सच्चिदानन्दरूपिणी हैं। उन देवी को अपने सम्मुख स्थित देखकर देवताओं ने उन्हें प्रणाम किया। तब उन प्रणत देवताओं से भगवती अम्बिका ने कहा — आपलोग मुझे अपना कार्य बतायें ॥ ५४-५६१/२ ॥ देवता बोले — आप देवताओं के लिये अत्यन्त दुःखदायी इस शत्रु वृत्रासुर को विमोहित कर दीजिये । उसे आप ऐसा विमोहित कर दें, जिससे वह देवताओं पर विश्वास करने लगे और हमारे आयुध में इतनी शक्ति भर दीजिये, जिससे यह शत्रु मारा जा सके ॥ ५७-५८ ॥ व्यासजी बोले — तब ‘तथास्तु’ – ऐसा कहकर भगवती वहीं अन्तर्धान हो गयीं और देवता भी प्रसन्न होकर अपने-अपने भवनों को चले गये ॥ ५९ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘देवी की समाराधना के लिये देवताओं द्वारा की गयी स्तुति का वर्णन’ नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥ Content is available only for registered users. 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