श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-06
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-षष्ठोऽध्यायः
छठा अध्याय
भगवान् विष्णु का इन्द्र को वृत्रासुर से सन्धि का परामर्श देना, ऋषियों की मध्यस्थता से इन्द्र और वृत्रासुर में सन्धि, इन्द्र द्वारा छलपूर्वक वृत्रासुर का वध
छद्मेनेन्द्रेण फेनद्‌वारा पराशक्तिस्मरणमूर्वकं वृत्रहननवर्णनम्

व्यासजी बोले — इस प्रकार वरप्राप्त उन देवता और तपस्वी ऋषिगणों ने (परस्पर मन्त्रणा करके वृत्रासुर के उत्तम आश्रम के लिये प्रस्थान किया) वहाँ तेज से प्रकाशमान वृत्रासुर को देखा, जो तीनों लोकों को भस्मसात् करने और देवताओं को निगल जाने के लिये उद्यत प्रतीत होता था । ऋषियों ने वृत्रासुर के समीप जाकर देवताओं की कार्य- सिद्धि के लिये उससे सामनीतिपूर्ण तथा रसमय प्रिय वचन कहा ॥ १-२१/२

ऋषि बोले — सब लोकों के लिये भयंकर हे महाभाग वृत्रासुर ! आपने इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को व्याप्त कर लिया है, परंतु इन्द्र के साथ आपका वैर आपके सुख को नष्ट करने वाला है। यह आप दोनों के लिये दुःखद और चिन्ता बढ़ाने का परम कारण है। न आप सुख से सो पाते हैं, न ही इन्द्र सन्तुष्ट होकर सोते हैं; क्योंकि आप दोनों को शत्रु- जन्य भय बना रहता है। आप दोनों को युद्ध करते हुए भी बहुत समय व्यतीत हो गया है; इससे देवताओं, राक्षसों तथा मनुष्यों सहित समस्त प्रजा को कष्ट हो रहा है ॥ ३-६१/२

इस संसार में सुख ही ग्राह्य है और दुःख सर्वथा त्याज्य है — यही परम्परा है। वैर करने वाले को सुख नहीं प्राप्त होता, यह निश्चित सिद्धान्त है। इसलिये युद्धप्रेमी वीरों की विद्वान् लोग प्रशंसा नहीं करते। श्रृंगार रस के प्रेमी युद्ध को इन्द्रिय सुख को नष्ट करने वाला मानते हैं। पुष्पों से भी युद्ध नहीं करना चाहिये, फिर तीक्ष्ण बाणों की तो बात ही क्या ? ॥ ७-९ ॥ युद्ध में विजय ही हो — यह सन्देहास्पद है, परंतु उसमें बाणों से शरीर को पीड़ा प्राप्त होना निश्चित है। यह समस्त विश्व दैव के अधीन है, उसी प्रकार जय-पराजय भी उसी के अधीन हैं। अतः इन्हें दैवाधीन जानकर युद्ध कभी नहीं करना चाहिये। समय पर स्नान, भोजन, शय्या पर शयन और पत्नी द्वारा सेवा ही संसार में सुख के साधन हैं। बाणवर्षा से भयंकर, खड्ग प्रहार से अत्यन्त रौद्र तथा शत्रु को सुख प्रदान करने वाले संग्राम में युद्ध करने से क्या सुख प्राप्त हो सकता है ? ॥ १०-१२१/२

ऐसा स्पष्ट कथन है कि युद्ध में मरने से स्वर्ग- सुख की प्राप्ति होती है — यह तो प्रलोभन और प्रेरणा देने वाला तथा निरर्थक वचन है। ऐसा कौन मन्दबुद्धि है जो शरीर को अस्त्र-शस्त्रों से घायल कराकर सियार और कौओं से नोचवाकर स्वर्गसुख की प्राप्ति की कामना करेगा ! ॥ १३-१४१/२

हे वृत्र ! इन्द्र के साथ तुम्हारी स्थायी मैत्री हो जाय, जिससे तुम्हें और इन्द्र — दोनों को निरन्तर सुख की प्राप्ति हो । आप दोनों का वैर शान्त हो जाने से हम सब तपस्वी और गन्धर्वगण भी अपने-अपने आश्रमों में सुखपूर्वक रह सकेंगे । हे धीर! आप दोनों के दिन-रात के युद्ध में हम सभी मुनियों, गन्धर्वों, किन्नरों और मनुष्यों को कष्ट प्राप्त होता है। सभी लोगों को शान्ति प्राप्त हो सके इस कामना से हम सब आप दोनों में मैत्री कराना चाहते हैं ॥ १५-१८ ॥ हे वृत्र ! मुनिगण, तुम्हें और इन्द्र को सुख प्राप्त हो । हम लोग तुम दोनों की मित्रता कराने में मध्यस्थ बनेंगे। हम शपथ कराकर आप दोनों को एक-दूसरे का प्रिय मित्र बना देंगे। आप जैसा कहेंगे, वैसे ही इन्द्र भी आपके सम्मुख शपथ लेकर आपके मन को प्रेम से परिपूर्ण कर देंगे। सत्य के आधार पर ही यह पृथ्वी स्थित है, सत्य से ही भगवान् सूर्य नित्य तपते हैं, सत्य से ही समय के अनुसार वायु बहती है और सत्य के कारण ही समुद्र भी अपनी मर्यादा का परित्याग नहीं करता। इसलिये सत्य के आधार पर ही आज आप दोनों में मित्रता हो जाय, जिससे आपलोग सुखपूर्वक साथ-साथ शयन, क्रीडा, जलकेलि कर सकें और बैठ सकें। इसलिये आप दोनों को एकत्रित होकर अवश्य ही मित्रता कर लेनी चाहिये ॥ १९-२३१/२

व्यासजी बोले — उन महर्षियों का वचन सुनकर अत्यन्त बुद्धिमान् वृत्रासुर ने कहा — हे भगवन्! आप सभी तपस्वीगण मेरे मान्य हैं। आप मुनिगण कभी असत्य भाषण नहीं करते। आप लोग सदाचारी तथा अति शान्त स्वभाव वाले हैं और छल करना नहीं जानते। किंतु वैरी, मूर्ख, जड़, कामी, कलंकित और निर्लज्ज से बुद्धिमान्‌ को मित्रता नहीं करनी चाहिये। यह (इन्द्र) निर्लज्ज, दुराचारी, ब्राह्मणघाती, लम्पट और मूर्ख है — इस प्रकार के व्यक्ति का विश्वास नहीं करना चाहिये। आप सभी लोग कुशल हैं, किंतु द्रोह-बुद्धि वाले कभी नहीं हैं। आप सब शान्तचित्त होने के कारण अतिवादियों के मन की बात नहीं जानते ॥ २४- २८१/२

मुनि बोले — प्रत्येक प्राणी अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों का फल भोगता है। जिसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी हो, वह द्रोह करके भी क्या शान्ति प्राप्त कर सकता है ? विश्वासघात करने वाले निश्चय ही नरक में जाते हैं। विश्वासघाती निश्चितरूप से दुःख प्राप्त करता है । ब्राह्मण की हत्या करने वालों और मद्यपान करने वालों के लिये तो प्रायश्चित्त है, परंतु विश्वासघातियों और मित्रद्रोहियों के लिये कोई प्रायश्चित्त नहीं है। अतः हे सर्वज्ञ ! आपने मन में जो शर्त निश्चय कर रखी हो, उसे बताइये; जिससे उस शर्त के अनुसार आज ही आप दोनों में सन्धि हो जाय ॥ २९-३२१/२

वृत्रासुर बोला — हे महाभाग ! सभी देवताओं सहित इन्द्र न शुष्क या गीली वस्तुसे, न पत्थर से, न काष्ठ से, न वज्र से, न दिन में और न रात में मेरा वध कर सकें। हे विप्रेन्द्रो ! इसी शर्त पर मैं इन्द्र से सन्धि करना चाहता हूँ, अन्यथा नहीं ॥ ३३-३४१/२

व्यासजी बोले — ऋषियों ने उससे आदरपूर्वक कहा — ‘ठीक है’ और तत्पश्चात् देवराज इन्द्र को वहाँ बुलाकर उन्हें वह शर्त सुना दी। इन्द्र ने भी मुनियों की उपस्थिति में अग्नि को साक्षी करके शपथें लीं और वे सन्ताप से मुक्त हो गये । वृत्रासुर भी उनकी बातों से विश्वास में आ गया और इन्द्र के साथ मित्र की भाँति व्यवहारपरायण हो गया ॥ ३५-३७१/२

वे दोनों कभी नन्दनवन में, कभी गन्धमादन पर्वत पर और कभी समुद्र के तट पर आनन्दपूर्वक विचरण करते थे। इस प्रकार सन्धि हो जाने पर वृत्रासुर बहुत प्रसन्न रहता था । लेकिन वध की इच्छा वाले इन्द्र उसके वध के उपाय सोचा करते थे। इन्द्र उसकी कमजोरी ढूँढ़ने के लिये सदा उद्विग्न रहते थे ॥ ३८-४० ॥ इन्द्र के इस प्रकार विचार करते हुए कुछ समय बीत गया । वृत्रासुर को अत्यन्त क्रूर इन्द्र पर अत्यधिक विश्वास हो गया। इस प्रकार सन्धि के कुछ वर्ष बीत जाने पर इन्द्र ने मन-ही-मन वृत्रासुर के मरण का उपाय सोच लिया ॥ ४१-४२ ॥

एक बार त्वष्टा ने इन्द्र पर बहुत अधिक विश्वास करने वाले पुत्र से कहा — हे पुत्र वृत्रासुर ! हे महाभाग ! मेरी हितकर बात सुनो, जिसके साथ शत्रुता हो चुकी हो, उसका विश्वास कभी नहीं करना चाहिये । इन्द्र तुम्हारा शत्रु है, वह दूसरों के द्वारा तुम्हारे गुणों में सदा दोष ढूँढ़ा करता है ॥ ४३-४४ ॥ वह सदा लोभ से उन्मत्त रहने वाला, सबसे द्वेष रखने वाला, दूसरों का दुःख देखकर सुखी रहने वाला, परस्त्रीगामी, पापबुद्धि, कपटी, छिद्रान्वेषी, दूसरों से द्रोह करने वाला, मायावी और अहंकारी है, जिसने कि एक बार माता के उदर में प्रवेश करके उसके गर्भ को सात भागों में काट डाला। तब उन्हें रोते देखकर उस निर्दयी ने उनके भी पृथक् पृथक् सात भाग कर दिये। वे ही उनचास मरुद्गण बने । इसलिये हे पुत्र ! उस पर किसी प्रकार भी विश्वास नहीं करना चाहिये। हे पुत्र ! पाप करने वाले को दुबारा पाप करने में क्या लज्जा ! ॥ ४५-४७१/२

व्यासजी बोले — इस प्रकार पिता द्वारा कल्याणकारी वचनों से समझाये जाने पर भी आसन्न – मृत्यु वृत्रासुर को कुछ भी चेत नहीं हुआ ॥ ४८१/२

एक दिन उन्होंने (इन्द्र ने) उस महान् दैत्य को समुद्र तट पर देखा । उस समय संध्याकाल का अत्यन्त भयंकर मुहूर्त उपस्थित था। तब इन्द्र ने महात्मा मुनियों द्वारा निर्धारित शर्त- वरदान पर यह विचार करके कि यह भयंकर संध्याकाल है, इस समय न दिन है, न रात है, अतः मुझे आज ही इसे अपनी शक्ति से मार डालना चाहिये; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४९-५१ ॥ यहाँ एकान्त है और यह अकेला है तथा समय भी अनुकूल है — ऐसा विचारकर उन्होंने अपने मन में अविनाशी भगवान् श्रीहरि का स्मरण किया। [ स्मरण करते ही] पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु वहाँ अदृश्यरूप से आ गये और वे प्रभु श्रीहरि इन्द्र के वज्र में प्रविष्ट होकर विराजमान हो गये ॥ ५२-५३ ॥ तब इन्द्र वृत्रासुर को मारने की युक्ति सोचने लगे कि सभी देवताओं तथा दानवों से सर्वथा अजेय इस शत्रु को युद्ध में कैसे मारूँ ? यदि छल करके इस महाबली को आज नहीं मारता तो इस शत्रु के जीवित रहते किसी भी प्रकार कल्याण नहीं है। इन्द्र ऐसा विचार कर ही रहे थे तभी उन्होंने समुद्र में पर्वत के समान जलफेन को देखा ॥ ५४–५६ ॥ यह न सूखा है, न गीला है और यह न तो कोई शस्त्र है, [ ऐसा विचारकर ] इन्द्र ने उस समुद्रफेन को लीलापूर्वक उठा लिया ॥ ५७ ॥

तदनन्तर उन्होंने परम भक्तिपूर्वक, पराशक्ति जगदम्बा का स्मरण किया, तब स्मरण करते ही देवी ने अपना अंश उस फेन में स्थापित कर दिया ॥ ५८ ॥ इन्द्र ने भगवान् श्रीहरि से युक्त वज्र को उस फेन से आवृत कर दिया और उस फेन से आवृत वज्र को वृत्रासुर के ऊपर फेंका ॥ ५९ ॥ उस वज्र के अचानक प्रहार से वह पर्वत की भाँति गिर पड़ा। तब उसके मर जाने पर इन्द्र अत्यन्त प्रसन्नचित्त हो उठे और ऋषिगण विविध स्तोत्रों से देवराज इन्द्र की स्तुति करने लगे। उस शत्रु के मारे जाने से प्रसन्नचित्त इन्द्र ने देवताओं के साथ उन भगवती की पूजा की तथा विविध स्तोत्रों से उन्हें प्रसन्न किया, जिनकी कृपा से शत्रु मारा गया ॥ ६०-६२ ॥ तत्पश्चात् इन्द्र ने देवोद्यान नन्दनवन में पराशक्ति भगवती का मन्दिर बनवाया और उसमें पद्मराग मणियों से निर्मित मूर्ति की स्थापना की और सभी देवता भी तीनों समय उनकी महती पूजा करने लगे; तभी से श्रीदेवी ही उन देवताओं की कुलदेवी हो गयीं ॥ ६३-६४ ॥ तब महापराक्रमी और देवताओं के लिये भयंकर वृत्र के मारे जाने पर इन्द्र ने तीनों लोकों में श्रेष्ठ भगवान् विष्णु की पूजा की। उस वृत्रासुर के मर जाने पर कल्याणकारी वायु बहने लगी तथा देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नरगण हर्षित हो उठे ॥ ६५-६६ ॥ इस प्रकार भगवती पराशक्ति के समुद्रफेन से संयुक्त होने और उनके द्वारा ही विमोहित किये जाने के कारण वृत्रासुर सहसा इन्द्र के द्वारा मारा गया। इसलिये वे भगवती देवी संसार में ‘वृत्रनिहन्त्री’ इस नाम से विख्यात हुईं और वह वृत्रासुर चूँकि प्रकटरूप से इन्द्र के द्वारा मारा गया था, इसलिये उसे इन्द्र के द्वारा मारा गया, ऐसा कहा जाता है ॥ ६७-६८ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘छलपूर्वक इन्द्र का फेन द्वारा पराशक्ति का स्मरण करते हुए वृत्रहनन-वर्णन’ नामक छठा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६ ॥

Content is available only for registered users. Please login or register

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.