April 30, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-15 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-पञ्चदशोऽध्यायः पन्द्रहवाँ अध्याय भगवती की कृपा से निमि को मनुष्यों के नेत्र – पलकों में वासस्थान मिलना तथा संसारी प्राणियों की त्रिगुणात्मकता का वर्णन देवीमहिम्नि नानाभाववर्णनम् जनमेजय बोले — आपने वसिष्ठ की शरीर प्राप्ति का वर्णन किया; निमि ने पुनः किस प्रकार देह प्राप्त की; यह मुझसे कहिये ॥ १ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! वसिष्ठ ने जिस प्रकार पुनः शरीर प्राप्त किया, उस प्रकार निमि को शाप के बाद पुनः देह नहीं मिली ॥ २ ॥ जब वसिष्ठजी ने शाप दिया तो राजा के द्वारा यज्ञ में वरण किये गये ब्राह्मण और ऋत्विज विचार करने लगे — ॥ ३ ॥ अहो, यज्ञ में दीक्षित ये धर्मनिष्ठ राजा शाप से दग्ध हो गये हैं और यज्ञ भी अपूर्ण ही रह गया है — ऐसे में हम सबको क्या करना चाहिये ? अब हम क्या करें? यह तो विपरीत कार्य हो गया। भवितव्यता के अवश्य होने के कारण इसका निवारण करने में हम असमर्थ हैं ॥ ४-५ ॥ तब उन महात्मा राजा की देह को ऋत्विजों ने अनेक प्रकार के मन्त्रों से सुरक्षित रखा; उनकी श्वास मन्द गति से चल रही थी । मन्त्रशक्ति से उनकी निर्विकार आत्मा को देह में प्रतिष्ठित करके ऋत्विजों ने उसे अनेक प्रकार के गन्ध, माल्य आदि से सुपूजित कर रखा था ॥ ६-७ ॥ हे राजन् ! यज्ञ के सम्पूर्ण होने पर वहाँ सभी देवगण आये। ऋत्विजों ने उन सबकी स्तुति की, जिससे वे बहुत प्रसन्न हुए। मुनियों के द्वारा राजा के विषय में समस्त बातों को जान लेने पर स्तोत्रों से सन्तुष्ट देवताओं ने दुःखी मनवाले राजा से कहा — हे राजन् ! हे सुव्रत ! हम प्रसन्न हैं; वर माँगिये। हे राजर्षे ! इस यज्ञ के कारण आपको श्रेष्ठ जन्म प्राप्त हो सकता है। देवशरीर, मनुष्य शरीर अथवा आपके मन में जो इच्छा हो, उसे आप प्राप्त कर सकते हैं; जैसे कि आपके पुरोहित वसिष्ठ मर्त्यलोक में सुखपूर्वक रह रहे हैं ॥ ८-१०१/२ ॥ उनके ऐसा कहने पर निमि की आत्मा ने परम सन्तुष्ट होकर उनसे कहा — हे श्रेष्ठ देवगण! सर्वदा होने वाली इस देह में रहने की मेरी इच्छा नहीं है, सम्पूर्ण विनष्ट प्राणियों की दृष्टि में मेरा निवास हो, जिससे मैं वायुरूप होकर समस्त प्राणियों के नेत्रों में विचरण करूँ ॥ ११-१२१/२ ॥ उनसे ऐसा कहे जाने पर देवताओं ने निमि की आत्मा से कहा — हे महाराज ! आप कल्याणकारिणी तथा सबकी ईश्वरी भगवती की आराधना करें। आपके इस यज्ञ से प्रसन्न होकर वे आपका अभीष्ट अवश्य पूर्ण करेंगी ॥ १३-१४ ॥ देवताओं के ऐसा कहने पर उन्होंने अनेक प्रकार के दिव्य स्तोत्रों द्वारा भक्तिपूर्वक गद्गद वाणी में देवी की प्रार्थना की ॥ १५ ॥ तब प्रसन्न होकर देवी ने उन्हें साक्षात् दर्शन दिया । उनके करोड़ों सूर्यो की प्रभा के समान तथा लावण्य से दीप्तिमान रूप को देखकर सभी कृतकृत्य हो गये और उनके मन में परम प्रसन्नता हुई। हे राजन् ! देवी के प्रसन्न हो जाने पर राजा ने वर माँगा — मुझे वह विमल ज्ञान दीजिये, जिससे मोक्ष प्राप्त हो जाय तथा समस्त प्राणियों के नेत्रों में मेरा निवास हो जाय ॥ १६-१८ ॥ तब प्रसन्न हुई देवेश्वरी जगदम्बा ने कहा — तुम्हें विमल ज्ञान प्राप्त होगा, परंतु अभी तुम्हारा प्रारब्ध शेष है। समस्त प्राणियों के नेत्रों में तुम्हारा निवास भी होगा। तुम्हारे कारण ही प्राणियों के नेत्रों में पलक गिराने की शक्ति होगी। तुम्हारे निवास के कारण ही मनुष्य, पशु तथा पक्षी ‘निमिष’ ( पलक गिरानेवाले) तथा देवता ‘अनिमिष’ (पलक न गिरानेवाले) होंगे ॥ १९–२१ ॥ इस प्रकार उन राजा को वर देकर और सब मुनियों को बुलाकर वे श्रीवरदायिनी भगवती वहीं अन्तर्धान हो गयीं ॥ २२ ॥ देवी के अन्तर्धान हो जाने पर वहाँ उपस्थित मुनिगण विधिवत् विचार करके निमि के शरीर को ले आये और पुत्रप्राप्ति के लिये उसपर अरणिकाष्ठ रखकर वे महात्मा मन्त्र पढ़कर मन्त्रहोम के द्वारा निमि के देह का मन्थन करने लगे ॥ २३-२४ ॥ अरणि के मन्थन से एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो समस्त लक्षणों से सम्पन्न और साक्षात् दूसरे निमि की भाँति था । अरणि के मन्थन से इसका जन्म हुआ था, अतः यह ‘मिथि’ – ऐसा कहा गया और जनक से जन्म होने के कारण ‘जनक’ यह नामवाला हुआ। राजा निमि विदेह हुए, अतः उनके कुल में उत्पन्न सभी राजा ‘विदेह’ ऐसा कहे गये ॥ २५-२७ ॥ इस प्रकार निमि के पुत्र राजा जनक प्रसिद्ध हुए। उन्होंने गंगा के तट पर एक सुन्दर नगरी का निर्माण कराया, जो मिथिला नाम से विख्यात है। यह गोपुरों, अट्टालिकाओं तथा धन-धान्य से सम्पन्न और बाजारों से सुशोभित है ॥ २८-२९ ॥ इस वंश में जो अन्य राजा हुए, वे सभी जनक कहे गये; वे सभी विख्यात ज्ञानी और विदेह कहे जाते थे ॥ ३० ॥ हे राजन् ! इस प्रकार निमि की उत्तम कथा का मैंने आपसे वर्णन किया, शाप के कारण उनके विदेह होने को भी मैंने विस्तार से कह दिया ॥ ३१ ॥ राजा बोले — हे भगवन्! आपने निमि के शाप का कारण बताया, इसे सुनकर मेरा मन संशयग्रस्त और अत्यन्त चंचल हो गया है ॥ ३२ ॥ वसिष्ठजी श्रेष्ठ ब्राह्मण थे, राजा के पुरोहित थे और वे कमलयोनि ब्रह्माजी के पुत्र थे, तब राजा निमि ने उन मुनि को कैसे शाप दिया ? निमि ने उन्हें गुरु और ब्राह्मण जानकर क्षमा क्यों नहीं किया। यज्ञ जैसा शुभ कार्य करने पर भी उन्हें क्रोध कैसे आ गया ? धर्म का रहस्य जान करके भी इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न राजा ने क्रोध के वशीभूत होकर अपने ब्राह्मण गुरु को शाप क्यों दिया ? ॥ ३३-३५ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! अजितेन्द्रिय प्राणियों के लिये क्षमा अत्यन्त दुर्लभ है, विशेषरूप से सामर्थ्यशाली व्यक्ति का क्षमाशील होना इस संसार में दुर्लभ है ॥ ३६ ॥ मुनि को चाहिये कि वह सभी आसक्तियों का परित्याग करने वाला, तपस्वी, निद्रा तथा भूख पर विजय प्राप्त करने वाला और योगाभ्यास में सम्यक् रूप से निष्ठा रखने वाला हो ॥ ३७ ॥ काम, क्रोध, लोभ और चौथा अहंकार — ये शत्रु शरीर में सदा विद्यमान रहते हैं जो सर्वथा दुर्ज्ञेय होते हैं। संसार में न पहले कोई व्यक्ति हुआ है, न इस समय है और न तो आगे होगा जो इन शत्रुओं को जीत सके ॥ ३८-३९ ॥ न स्वर्ग में, न पृथ्वीलोक में, न ब्रह्मलोक में, न विष्णुलोक में और न तो कैलास में भी ऐसा कोई व्यक्ति है, जो इन शत्रुओं को जीत सके ॥ ४० ॥ जो मुनिगण, ब्रह्माजी के सभी पुत्र तथा अन्य श्रेष्ठ तपस्वी लोग हैं, वे भी तीनों गुणों से बँधे रहते हैं, तो मर्त्यलोक के मनुष्यों की बात ही क्या ? ॥ ४१ ॥ कपिलमुनि सांख्यशास्त्र के ज्ञाता, योगाभ्यासपरायण और शुद्ध चित्तवाले थे, किंतु उन्होंने भी दैववश सगर-पुत्रों को भस्म कर दिया ॥ ४२ ॥ अतः हे राजन् ! कार्य-कारणस्वरूप अहंकार से ही यह त्रिलोक उत्पन्न हुआ है, तो फिर मनुष्य उससे वियुक्त कैसे रह सकता है ? ॥ ४३ ॥ ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी त्रिगुण से बँधे हुए हैं; उनके भी शरीरों में गुणों के पृथक् पृथक् भाव उत्पन्न होते हैं। जब एकमात्र सत्त्वप्रधान देवताओं की भी यह स्थिति है तो फिर मनुष्यों की क्या बात ? हे राजन् ! गुणों का संकर (मेल) सर्वत्र विद्यमान है। कभी सत्त्वगुण की वृद्धि होती है, कभी रजोगुण की वृद्धि होती है, कभी तमोगुण की वृद्धि हो जाती है और कभी तीनों गुण बराबर हो जाते हैं ॥ ४४–४६ ॥ वे परमात्मा निर्गुण, निर्लेप, परम अविनाशी, सभी प्राणियों से अलक्ष्य, अप्रमेय और सनातन हैं। उसी प्रकार वे परमा शक्ति भी निर्गुण, ब्रह्म में स्थित, अल्पबुद्धि प्राणियों के द्वारा दुर्ज्ञेय, समस्त प्राणियों की आश्रय हैं। परमात्मा और पराशक्ति उन दोनों में सदा से ऐक्य है। उनका स्वरूप अभिन्न है —यह जानकर प्राणी समस्त दोषों से मुक्त हो जाता है। इस ज्ञान से मुक्ति हो जाती है- यह वेदान्त का डिंडिमघोष है। जो यह जान लेता है, वह इस त्रिगुणात्मक संसार से मुक्त हो जाता है ॥ ४७-५० ॥ ज्ञान भी दो प्रकार का कहा गया है। प्रथम शाब्दिक ज्ञान बताया गया है। वह ज्ञान बुद्धि की सहायता से वेद और शास्त्र के अर्थविज्ञान द्वारा प्राप्त हो जाता है। बुद्धिवैभिन्न्य के अनुसार इस ज्ञान के भी बहुत-से भेद हो जाते हैं। (इनमें से कुछ ज्ञान कुतर्क से और कुछ सुतर्क से कल्पित होते हैं। कुतर्कों से भ्रान्ति की उत्पत्ति होती है और विभ्रम से बुद्धिनाश हो जाता है। बुद्धिनाश से प्राणियों का ज्ञान नष्ट हो जाना कहा गया है।) हे राजन् ! अनुभव नामक वह दूसरा ज्ञान तो दुर्लभ होता है। वह ज्ञान तब प्राप्त होता है, जब उसके जानने वाले का संग हो जाय। हे भारत! शब्दज्ञान से कार्य की सिद्धि नहीं होती, इसलिये अनुभव ज्ञान अत्यन्त अलौकिक होता है। शब्दज्ञान अन्तःकरण के अन्धकार को दूर करने में उसी प्रकार समर्थ नहीं है जैसे दीपक सम्बन्धी वार्ता करने से अन्धकार नष्ट नहीं होता ॥ ५१-५४१/२ ॥ कर्म वही है, जो बन्धन न करे और विद्या वही है जो मुक्ति के लिये हो । अन्य कर्म तो मात्र परिश्रम के लिये होता है तथा दूसरी विद्या तो मात्र शिल्पसम्बन्धी कौशल है। शील, परोपकार, क्रोध का अभाव, क्षमा, धैर्य और सन्तोष — यह सब विद्या का अत्यन्त उत्तम फल है। हे भूपते ! विद्या, तपस्या अथवा योगाभ्यास के बिना काम आदि शत्रुओं का नाश कभी नहीं हो सकता। (हे राजन् ! मन चंचल और स्वभावतः अति दुर्ग्रह होता है, तीनों लोकों में तीनों प्रकार के प्राणी उसी मन के वश में रहते हैं) काम-क्रोध आदि भाव चित्तजन्य कहे गये हैं। ये सब उस समय नहीं उत्पन्न होते, जब मन पर विजय पा ली जाती है। हे राजन् ! इसीलिये निमि ने मुनि को उस प्रकार क्षमा नहीं किया, जिस प्रकार ययाति ने अपराध करने पर भी शुक्राचार्य को क्षमा कर दिया था । पूर्वकाल में भृगुपुत्र शुक्राचार्य ने नृपश्रेष्ठ ययाति को शाप दे दिया था, लेकिन राजा ने क्रोधित होकर मुनि को शाप नहीं दिया और स्वयं वृद्धावस्था को स्वीकार कर लिया था ॥ ५५-६०१/२ ॥ हे राजन्! कोई राजा शान्तस्वभाव और कोई क्रूर होता है । स्वभाव में भेद होने के कारण इसमें किसका दोष कहा जाय ? पूर्वकाल में हैहयवंशी क्षत्रियों ने ब्रह्महत्याजनित पाप की उपेक्षा करके धन के लोभ से भृगुवंशी ब्राह्मण पुरोहितों का कोपाविष्ट होकर समूलोच्छेद कर दिया था ॥ ६१–६३ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध ‘देवी की महिमा में नाना भावों का वर्णन’ नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥ Content is available only for registered users. 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