श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-16
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-षोडशोऽध्यायः
सोलहवाँ अध्याय
हैहयवंशी क्षत्रियों द्वारा भृगुवंशी ब्राह्मणों का संहार
हैहयैर्धनाहरणेन सह भृगूणां वधवर्णनम्

जनमेजय बोले — जिन हैहय क्षत्रियों ने ब्रह्महत्या की लेशमात्र भी चिन्ता न करके भृगुवंशी ब्राह्मणों का वध कर दिया, वे किसके कुल में उत्पन्न हुए थे ? ॥ १ ॥ हे पितामह! उनके वैर का क्या कारण था, आप मुझे बतलाइये । श्रेष्ठजन किसी कारण विशेष के बिना क्रोध कैसे कर सकते हैं ? ॥ २ ॥ अपने ही पुरोहितों के साथ उनकी शत्रुता किसलिये हो गयी थी ? सम्भवतः उन क्षत्रियों की उस शत्रुता के पीछे कोई महान् कारण रहा होगा। अन्यथा पाप से भयभीत रहने वाले वे पराक्रमी क्षत्रिय निरपराध एवं पूजनीय ब्राह्मणों की हत्या क्यों करते ? ॥ ३-४ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! ऐसा कौन श्रेष्ठ क्षत्रिय होगा, जो अल्प अपराध के कारण ब्राह्मणों का वध करेगा ? मुझे तो इस विषय में महान् शंका हो रही है, इसका कारण बताने की कृपा करें ॥ ५ ॥

सूतजी बोले — तब राजा जनमेजय के इस प्रकार पूछने पर सत्यवतीनन्दन व्यासजी परम प्रसन्न हुए और मन में उस वृत्तान्त का स्मरण करके कहने लगे ॥ ६ ॥

व्यासजी बोले — हे जनमेजय! मेरे द्वारा पूर्वकाल में सम्यक् प्रकार से ज्ञात क्षत्रियों से सम्बन्ध रखने वाली इस आश्चर्यजनक प्राचीन कथा को आप सुनिये ? ॥ ७ ॥ कार्तवीर्य नामक एक हैहयवंशीय राजा हो चुके हैं। सदा धर्म में तत्पर रहने वाले उन बलवान् राजा की हजार भुजाएँ थीं, वे अर्जुन भी कहे जाते थे ॥ ८ ॥ वे भगवान् विष्णु के अवतारस्वरूप दत्तात्रेय के शिष्य, भगवती के उपासक, परम सिद्ध, सब कुछ देने में समर्थ तथा भृगुवंशी ब्राह्मणों के यजमान थे ॥ ९ ॥ वे यज्ञ करने वाले, धर्मनिष्ठ तथा सदैव दान देने में रुचि रखने वाले थे। उन्होंने अनेक यज्ञ करके अपनी विपुल सम्पदा भृगुवंशी ब्राह्मणों को दान कर दी थी। राजा के द्वारा दिये गये दान से वे भृगुवंशी ब्राह्मण बड़े धनी हो गये। घोड़े तथा रत्न आदि सम्पदा से युक्त हो जाने के कारण जगत् में वे अतीव प्रसिद्ध हो गये ॥ १०-११ ॥ हे राजन् ! नृपश्रेष्ठ कार्तवीर्यार्जुन के दीर्घकाल तक राज्य करने के पश्चात् उनके स्वर्ग चले जाने पर हैहयवंशी क्षत्रिय धनहीन हो गये ॥ १२ ॥

हे राजन् ! किसी समय हैहय क्षत्रियों को कार्यविशेष के लिये धन की आवश्यकता पड़ गयी। तब वे धन माँगने की इच्छा से भृगुवंशी ब्राह्मणों के पास गये ॥ १३ ॥ उन क्षत्रियों ने अत्यधिक विनम्रता-पूर्वक उन ब्राह्मणों से धन की याचना की, किंतु लोभ के वशीभूत उन ब्राह्मणों ने कुछ नहीं दिया और बार-बार कहते रहे ‘मेरे पास नहीं है, मेरे पास नहीं है ‘ ॥ १४ ॥

हैहयवंशी क्षत्रियों से भयभीत होकर कुछ भृगुवंशी ब्राह्मणों ने अपनी प्रचुर सम्पत्ति जमीन में गाड़ दी और कुछ ने अन्य ब्राह्मणों को दे दी ॥ १५ ॥ भयाक्रान्त तथा लोभ के वशीभूत वे सभी भृगुवंशी ब्राह्मण अपना-अपना धन स्थानान्तरित करके अपने आश्रम छोड़कर अन्यत्र चले गये ॥ १६ ॥ अपने यजमानों को दुःखित देखकर भी लोभ से विमोहित ब्राह्मणों ने उन्हें कुछ भी नहीं दिया। उन सभी ने भागकर पर्वत की गुफाओं का आश्रय ग्रहण किया ॥ १७ ॥ हे तात! तत्पश्चात् कष्ट झेल रहे अनेक हैहय क्षत्रियप्रमुख विशेष कार्यवश द्रव्यप्राप्ति के लिये भृगुवंशी ब्राह्मणों के आश्रमों पर पहुँचे ॥ १८ ॥ अपने-अपने आश्रम को सुनसान छोड़कर भृगुवंशी ब्राह्मणों को बाहर गया हुआ देखकर वे हैहय क्षत्रिय धन के लिये वहाँ की जमीन खोदने लगे ॥ १९ ॥ तत्पश्चात् किसी ब्राह्मण के घर में जमीन खोद रहे किसी क्षत्रिय ने कुछ पाया। अब परिश्रम के कारण क्षीणकाय सभी क्षत्रियों ने उस धन को देख लिया। उस समय से जहाँ-जहाँ भी पता चलता, वे जमीन खोदकर समस्त धन ले लेते थे । धन के लोभ से आस-पास रहने वाले ब्राह्मणों के भी घरों को खोदने पर उन क्षत्रियों को पर्याप्त धन दिखलायी पड़ा। इस पर सभी ब्राह्मण रोने-चिल्लाने लगे और भयभीत होकर क्षत्रियों के शरणागत हो गये ॥ २०-२२ ॥

बार-बार खोजते रहने पर उन ब्राह्मणों के घर से प्रायः सभी धन निकल चुका था। फिर भी वे क्षत्रिय उन शरणागत ब्राह्मणों पर कोप करके बाणों से प्रहार करते रहे ॥ २३ ॥ इसके पश्चात् वे उन पर्वत की गुफाओं में पहुँच गये, जहाँ भृगुवंशी ब्राह्मण स्थित थे। इस प्रकार गर्भस्थ शिशुओंसहित ब्राह्मणों को नष्ट करते हुए क्षत्रिय इस पृथ्वी-मण्डल पर घूमने लगे ॥ २४ ॥ उन्हें जहाँ कहीं भृगुवंशी बालक, वृद्ध तथा अन्य भी मिल जाते थे, वे पाप की परवा किये बिना उन सभी को तीक्ष्ण बाणों से मार डालते थे ॥ २५ ॥ इस प्रकार इधर-उधर सभी भृगुवंशी ब्राह्मणों के मार दिये जाने पर उन हैहय क्षत्रियों ने स्त्रियों को पकड़-पकड़कर उनका गर्भ नष्ट कर डाला। पापकृत्य पर तुले हुए क्षत्रियों के द्वारा जिन स्त्रियों के गर्भ नष्ट कर दिये जाते थे, वे बेचारी अत्यन्त दुःखित होकर कुररी पक्षी की भाँति विलाप करने लगती थीं ॥ २६-२७ ॥

तब अन्य तीर्थवासी मुनियों ने भी अभिमान में चूर उन हैहयवंशी क्षत्रियों से कहा — हे क्षत्रियो ! तुमलोग ब्राह्मणों पर ऐसा भयंकर क्रोध करना छोड़ दो। हे क्षत्रियो ! तुम लोगों ने तो अत्यन्त निन्दनीय तथा अनुचित कार्य आरम्भ कर दिया है जो कि तुमलोग भृगुवंशी ब्राह्मणों की पत्नियों का गर्भोच्छेद कर रहे हो । अत्यन्त उग्र पाप अथवा पुण्य का फल इसी लोक में प्राप्त हो जाता है। इसलिये कल्याण की इच्छा रखने वाले प्राणी को गर्हित कर्म का परित्याग कर देना चाहिये ॥ २८-३० ॥

तत्पश्चात् क्रोध में भरे हुए उन हैहय क्षत्रियों ने उन परम दयालु मुनियों से कहा — आप सभी लोग साधु हैं, अतः पापकर्मों का रहस्य नहीं जानते ॥ ३१ ॥ छल-छद्म को जानने वाले इन ब्राह्मणों ने कपट करके हमारे महात्मा पूर्वजों का सारा धन उसी प्रकार छीन लिया था जैसे कोई लुटेरा किसी पथिक का धन छीन लेता है ॥ ३२ ॥ ये सभी ठग, दम्भी तथा बकवृत्तिवाले ( पाखण्डी ) हैं। आवश्यक कार्य पड़ने पर हमने विनम्रतापूर्वक इनसे धन की याचना की थी, किंतु इन्होंने नहीं दिया । यहाँ तक कि चतुर्थांश वृद्धि पर भी धन माँगने पर हम याचकों को अत्यन्त दुःखित देखकर इन निष्ठुर ब्राह्मणों ने ‘हमारे पास नहीं है’ – ऐसा कहा ॥ ३३-३४ ॥ महाराज कार्तवीर्य से धन प्राप्त करके इन्होंने किस प्रयोजन से धन की रक्षा की ? इन्होंने न तो यज्ञ किये और न तो याचकों को ही प्रचुर दान दिया ॥ ३५ ॥ ब्राह्मणों को कभी भी धन का संग्रह नहीं करना चाहिये। यज्ञ करने, दान देने तथा सुखोपभोग में यथेच्छ धन का उपयोग करना चाहिये ॥ ३६ ॥

हे विप्रो ! पास में धन रहने पर चोर, राजा, अग्नि तथा धूर्तों से महान् भय कहा गया है ॥ ३७ ॥ जिस किसी भी उपाय से अपनी ही रक्षा करने वाले को धन छोड़ देता है अथवा वह व्यक्ति धन छोड़कर स्वयं मरजाता है और दुर्गति को प्राप्त होता है ॥ ३८ ॥ हम सबने बड़ी विनम्रता के साथ इन लोगों से चतुर्थांश-वृद्धि पर धन माँगा था, फिर भी लोभ के कारण संशय में पड़े हुए पुरोहितों ने हमें धन नहीं दिया ॥ ३९ ॥ दान, भोग तथा नाश धन की इस प्रकार की गति होती है। पुण्यशाली प्राणियों के धन की गति दान तथा भोग है और दुष्ट आत्मावाले प्राणियों के धन की गति नाश है। जो कृपण व्यक्ति न दान करता है और न धन का उपभोग करता है, अपितु केवल धन के संग्रह में लगा रहता है, वह वंचक प्राणी राजा के द्वारा सर्वथा दण्डनीय है और दुःख का भागी होता है ॥ ४०-४१ ॥ इसीलिये इन वंचक गुरुओं तथा अधम ब्राह्मणों को मारने के लिये हम सभी उद्यत हुए हैं। आप महात्माजन इसके लिये हम पर कोप न करें ॥ ४२ ॥

व्यासजी बोले — इस प्रकार सहेतुक वचन कहकर उन मुनियों को पूर्ण आश्वस्त करने के बाद वे पुनः भृगुकुल की स्त्रियों को खोजते हुए भ्रमण करने लगे ॥ ४३ ॥ भयार्त तथा अत्यन्त कृश शरीरवाली भृगुवंशीय पत्नियाँ हिमवान् पर्वत पर रोती तथा काँपती हुई पहुचीं ॥ ४४ ॥ इस प्रकार धनलोलुप तथा पापकर्मों से अभिभूत हैहयों ने उन ब्राह्मणों को बहुत पीड़ित किया तथा उनका संहार किया ॥ ४५ ॥ लोभ मनुष्यों के देह में रहने वाला सबसे बड़ा शत्रु है। यह समस्त दुःखों का आगार, दुःखदायी तथा प्राणों का नाश करने वाला कहा गया है ॥ ४६ ॥ यह लोभ सम्पूर्ण पापों की जड़ तथा सभी दुःखों का कारण है। लोभ से युक्त प्राणी सदा तीनों वर्णों के लोगों से विरोध रखने वाला होता है ॥ ४७ ॥ लोभ के वशीभूत प्राणी अपने सदाचार तथा कुलधर्म का भी परित्याग कर देते हैं। वे अपने माता, पिता, भाई, बान्धव, गुरु, मित्र, पत्नी, पुत्र तथा बहन तक का वध कर देते हैं। इस प्रकार लोभ के वशीभूत मनुष्य पाप से विमोहित होकर कौन – सा दुष्कर्म नहीं कर डालता ॥ ४८-४९ ॥ क्रोध, काम तथा अहंकार से भी बढ़कर लोभ महान् शत्रु है। लोभ में पड़कर मनुष्य अपने प्राण तक गँवा देता है; फिर इसके विषय में और क्या कहा जाय ! ॥ ५० ॥

हे महाराज ! आपके पूर्वज धर्मज्ञ तथा सत्पथ पर चलने वाले थे, किंतु वे पाण्डव तथा कौरव लोभ के कारण ही मारे गये। जहाँ भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य,कर्ण, वाह्लीक, भीमसेन, धर्मपुत्र युधिष्ठिर, अर्जुन तथा श्रीकृष्ण थे, फिर भी लोभ के वशीभूत उन्होंने आपस में भीषण युद्ध किया और अपने कुटुम्ब का महाविनाश कर डाला। उस युद्ध में द्रोण, भीष्म, पाण्डवों के पुत्र, भाई, पिता, पुत्र सभी मारे गये ॥ ५१-५४ ॥ अतएव लोभपरायण मनुष्य क्या नहीं कर डालता ? [लोभ के कारण ही ] पापबुद्धि हैहयवंशी क्षत्रियों ने भृगुकुल के समस्त ब्राह्मणों को मार डाला था ॥ ५५ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘हैहयों द्वारा धनहरण के साथ भृगुवंशियों के वध का वर्णन’ नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १६ ॥

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