May 2, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-22 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-द्वाविंशोऽध्यायः बाईसवाँ अध्याय यशोवती का एकवीर से कालकेतु द्वारा एकावली के अपहृत होने की बात बताना हैहयैकवीराय यशोवत्यैकावलीमोचनाय देवीस्वप्नवर्णनम् यशोवती बोली — एक बार वह सुन्दरी एकावली प्रातः काल उठकर अपनी सखियों के साथ चल दी। वह बहुत-से रक्षकों से रक्षित थी तथा उसके ऊपर चँवर डुलाये जा रहे थे। हे राजेन्द्र ! वह सुन्दरी अनेक प्रकार के आयुधों से सुसज्जित रक्षकों के साथ यहाँ सुन्दर कमलों के पास क्रीड़ा करने के लिये आयी ॥ १-२ ॥ कमलों से खेलने की रुचिवाली इस कन्या के साथ मैं भी अप्सराओं सहित गंगा के तट पर आयी थी ॥ ३ ॥ जब मैं तथा एकावली दोनों खेलने में व्यस्त हो गयीं, उसी समय हाथों में परिघ, तलवार, गदा, धनुष, बाण तथा तोमर धारण किये हुए बहुत-से राक्षसों के साथ कालकेतु नामक बलवान् दानव वहाँ अकस्मात् आ पहुँचा ॥ ४-५ ॥ उसने कमलों के साथ क्रीडा करती हुई उस रूप-यौवन-सम्पन्न तथा दूसरी कामपत्नी रति की भाँति प्रतीत हो रही एकावली को देख लिया ॥ ६ ॥ हे राजन् ! मैंने एकावली से कहा — हे कमलनयने ! यह कौन-सा दैत्य आ गया है! अब हम दोनों रक्षकों के पास भाग चलें ॥ ७ ॥ हे राजकुमार ! इस प्रकार विचार-विमर्श करके सखी एकावली तथा मैं भयभीत होने के कारण शस्त्रधारी सैनिकों के बीच तुरंत चली गयी ॥ ८ ॥ वह कामातुर कालकेतु उस मोहिनी एकावली को देखकर अपनी विशाल गदा लेकर दौड़ता हुआ पास में आ गया और उसने रक्षकों को हटाकर डर के मारे काँपती तथा रोती हुई कृश कटिप्रदेशवाली तथा कमल के समान नेत्रोंवाली एकावली को पकड़ लिया ॥ ९-१० ॥ ‘इस राजकुमारी को छोड़ दो और मुझे ग्रहण कर लो’ – ऐसा मेरे कहने पर भी उसने मुझे स्वीकार नहीं किया और काम के वशीभूत वह दानव एकावली को लेकर वहाँ से निकल गया ॥ ११ ॥ रक्षकों ने ‘ठहरो-ठहरो’ — ऐसा कहते हुए उस महाबली को रोककर उसके साथ विस्मयकारक युद्ध किया ॥ १२ ॥ अपने स्वामी कार्य में पूर्ण तत्पर तथा हाथों में शस्त्र धारण किये उसके सभी क्रूर राक्षसों ने भी रक्षकों के साथ भीषण युद्ध किया। तब उन रक्षकों के साथ कालकेतु का संग्राम होने लगा। वह महाबली युद्ध में सभी रक्षकों को मारकर तथा एकावली को लेकर राक्षसी सेना के साथ अपने नगर के लिये चल दिया। दानव कालकेतु के द्वारा अधिकार में की गयी उस राजकुमारी को रोती हुई देखकर मैं उसके पीछे-पीछे वहीं पहुँच जाती थी, जहाँ कालकेतु मेरी सखी को लेकर जाता था जिससे कि रोती हुई वह मुझे अपने पीछे आते हुए देख ले ॥ १३-१६ ॥ मुझे आयी हुई देखकर वह भी कुछ स्वस्थचित्त हुई तब मैं उसके पास जाकर उससे बार-बार बातें करने लगी ॥ १७ ॥ हे राजन् ! दुःख से व्याकुल तथा पसीने से संसिक्त उस एकावली ने मुझे पकड़कर गले से लगा लिया और वह अत्यन्त दुःखित होकर रोने लगी ॥ १८ ॥ तत्पश्चात् उस कालकेतु ने प्रेम प्रदर्शित करते हुए मुझसे यह बात कही कि चंचल नेत्रों वाली अपनी इस भयग्रस्त सखी को धीरज बँधाओ और अपनी इस सखी से कहो — ‘हे प्रिये ! देवलोक के समान अत्यन्त सुन्दर मेरा नगर अब आ ही गया है। तुम्हारे प्रेम के कारण मैं तुम्हारा दास हो चुका हूँ। तुम भयभीत होकर क्यों विलाप कर रही हो ? हे सुलोचने ! अब शान्त हो जाओ’ — ऐसा कहकर उसी उत्तम रथ में सखी के पास मुझे भी बैठाकर प्रसन्नता के कारण खिले हुए कमल के समान मुखवाला दुष्ट कालकेतु अपनी भारी सेना के साथ अपने सुन्दर नगर के लिये शीघ्र ही चल दिया ॥ १९-२२ ॥ वहाँ उस दान ने मुझे तथा एकावली को एक दिव्य महल में ठहराकर उस महल की रक्षा के लिये करोड़ों राक्षस नियुक्त कर दिये ॥ २३ ॥ हे राजन् ! दूसरे दिन उस कालकेतु ने एकान्त में मुझसे कहा — विरह से दुःखित तथा शोक करती हुई अपनी सुन्दर सखी को [मेरे शब्दों में] समझाओ — ‘हे सुश्रोणि ! तुम मेरी पत्नी हो जाओ और फिर यथेच्छ सुखोपभोग करो । हे चन्द्रमुखि ! अब यह राज्य तुम्हारा है और मैं सदा के लिये तुम्हारा सेवक बन गया हूँ’ ॥ २४-२५ ॥ हे प्रभो ! उसका ऐसा दुर्वचन सुनकर मैंने उससे यह बात कही कि मैं ऐसा अप्रिय वाक्य नहीं कह सकती, अतः आप ही इससे कहिये ॥ २६ ॥ मेरे ऐसा कहने पर काम से आहत चित्त वाले उस दुष्ट दानव ने कृश उदरवाली मेरी उस प्रिय सखी से विनयपूर्वक कहा — ॥ २७ ॥ हे कृशोदरि ! तुमने मेरे ऊपर कोई मन्त्र – प्रयोग कर दिया है। हे कान्ते ! उसी से आहत होकर मेरा मन तुम्हारे वश में हो चुका है। उसी मन्त्र ने मुझे अब तुम्हारा दास बना दिया है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। इसलिये कामबाण से आहत मुझ अत्यन्त विवश को अब तुम स्वीकार कर लो। हे रम्भोरु ! तुम्हारा दुर्लभ तथा चंचल यौवन व्यर्थ जा रहा है । इसलिये हे कल्याणि ! मुझे पतिरूप में स्वीकार करके इसे सफल कर लो ॥ २८-३० ॥ एकावली बोली — मेरे पिता राजकुमार हैहय को मुझे देने का पहले ही निश्चय कर चुके हैं। मैंने भी उन महाभाग का मनसे वरण कर लिया है ॥ ३१ ॥ सनातनधर्म का त्याग करके तथा कन्याधर्म छोड़कर मैं दूसरे को पतिरूप में कैसे स्वीकार करूँ ? आप भी तो शास्त्रीय नियम को जानते ही हैं। पिता कन्या को जिसे सौंप दे, कन्या उसी को पति बना ले। कन्या इस विषय में सदा पराधीन रहती है, उसे स्वतन्त्रता कभी नहीं रहती ॥ ३२-३३ ॥ [हे राजकुमार ! ] उस एकावली के ऐसा कहने पर भी वह पापात्मा कालकेतु राजकुमारी पर मोहित रहने के कारण अपने निश्चय से विचलित नहीं हुआ और उसने विशाल नेत्रों वाली एकावली को तथा उसके पास में स्थित मुझको नहीं छोड़ा ॥ ३४ ॥ उस कालकेतु का नगर अनेक प्रकार के संकटों से युक्त एक पाताल- विवर में विद्यमान है। वहीं पर चारों ओर खाइयों से घिरा हुआ तथा राक्षसों से पूर्णतया रक्षित उसका सुन्दर दुर्ग है। मेरी प्राणप्यारी सखी एकावली वहीं पर दुःख के साथ पड़ी हुई है। इसलिये उसके विरह से अत्यन्त व्यथित होकर मैं यहाँ विलाप कर रही हूँ ॥ ३५-३६ ॥ एकवीर ने कहा — हे वरानने! उस दुष्टात्मा कालकेतु के नगर से तुम यहाँ कैसे आ गयी ? इस बात से मैं बहुत ही आश्चर्यचकित हूँ; तुम मुझसे इस विषय में बताओ ॥ ३७ ॥ हे भामिनि ! अभी तुमने जो कहा है कि एकावली के पिता ने उसका विवाह हैहय के साथ करने का निश्चय किया है, वह बात मुझे अत्यन्त सन्देहास्पद प्रतीत हो रही है। हैहय नाम का राजा मैं ही हूँ; अन्य कोई राजा नहीं है। सुन्दर नेत्रोंवाली वह तुम्हारी सखी अपने पिता के द्वारा कहीं मेरे लिये ही तो कल्पित नहीं की गयी है ? ॥ ३८-३९ ॥ हे सुभ्रु ! हे भामिनि ! तुम मेरे इस सन्देह को दूर करो। मैं उस अधम राक्षस का वध करके उस एकावली को ले आऊँगा । हे सुव्रते ! यदि तुम उस राक्षस का स्थान जानती हो तो वह स्थान मुझे दिखा दो। उसके पिता राजा रैभ्य को तुमने यह बताया अथवा नहीं कि वह अत्यन्त दुःखित है ॥ ४०-४१ ॥ जिसकी ऐसी प्रिय पुत्री हो, क्या वह उसके हरण को नहीं जानता? और फिर उसने एकावली की मुक्ति के लिये क्या कोई प्रयास नहीं किया ? ॥ ४२ ॥ अपनी पुत्री को बन्दी बनाया गया जानने के बाद भी राजा स्थिरचित्त होकर कैसे चुप बैठे हैं? अथवा राजा कुछ कर पाने में असमर्थ तो नहीं है? मुझे इसका कारण शीघ्र बताओ ॥ ४३ ॥ हे कमलनयने ! तुमने अपनी सखी के अलौकिक गुणों को बताकर मेरे चित्त को हर लिया है तथा मैं पूर्ण-रूप से काम के वशीभूत कर दिया गया हूँ ॥ ४४ ॥ अब तो मेरे मन की यही अभिलाषा है कि उस प्रिया को इस महान् संकट से मुक्त करके मैं उसे कब देख लूँ ॥ ४५ ॥ अब उस दानव के अत्यन्त दुर्गम नगर में जाने का उपाय मुझे बताओ और यह भी बताओ कि उस महान् संकट से छूटकर तुम यहाँ कैसे आयी ? ॥ ४६ ॥ यशोवती बोली — हे राजन्! मैंने बाल्यावस्था से ही एक सिद्ध ब्राह्मण से बीज तथा ध्यानसहित भगवती का मन्त्र प्राप्त किया है ॥ ४७ ॥ हे राजन्! जब मैं कालकेतु के यहाँ थी तभी मैंने अपने मन में सोचा कि अब मैं प्रचण्ड पराक्रमवाली भगवती चण्डिका की निरन्तर आराधना करूँ। वे भगवती पूर्णरूप से आराधित होने पर निश्चितरूप से मुझे इस बन्धन से मुक्त करेंगी; क्योंकि भक्तों पर अनुकम्पा करने वाली वे शक्तिस्वरूपा चण्डिका सब कुछ करने में समर्थ हैं। जो निराकार तथा निरालम्ब भगवती अपनी शक्ति से जगत् का सृजन करती हैं तथा पालन करती हैं, वे ही कल्प के अन्त में उसका संहार भी कर देती हैं। मन में ऐसा सोचकर मैं विश्व की अधिष्ठात्री, कल्याणकारिणी, लाल वस्त्र धारण करनेवाली, सौम्य विग्रहवाली तथा सुन्दर रक्त नयनों वाली भगवती का ध्यान करके मन-ही-मन उनके रूप का स्मरण करके मन्त्र का जप करने में तत्पर हो गयी। इस प्रकार मैं समाधि लगाकर एक माहतक भगवती जगदम्बा की उपासना करती रही ॥ ४८-५२ ॥ तत्पश्चात् मेरे भक्तिभाव से प्रसन्न होकर देवी चण्डिका ने मुझे स्वप्न में दर्शन दिया और अमृतमयी वाणी में मुझसे कहा — ‘तुम सोयी क्यों हो ? उठो और तत्काल गंगाजी के मनोहर तट पर चली जाओ; वहीं पर विशाल भुजाओं वाले तथा सभी शत्रुओं का दमन करने वाले नृपश्रेष्ठ हैहय एकवीर आयेंगे। दत्तात्रेयजी ने महाविद्या नामक मेरा श्रेष्ठ मन्त्र उन्हें प्रदान किया है। वे भी भक्तिपूर्वक निरन्तर मेरी उपासना करते रहते हैं। उनका मन सदा मुझमें लगा रहता है तथा वे सदा मेरी पूजा में रत रहते हैं। मेरे प्रति आसक्तिभाव रखने वाले वे सभी प्राणियों में एकमात्र मुझे ही देखते हुए सदा मेरे ही परायण रहते हैं। वे महामति एकवीर ही तुम्हारा दुःख दूर करेंगे। वे लक्ष्मीपुत्र एकवीर घूमते हुए गंगा तट पर आकर तुम्हारी रक्षा करेंगे और उस भयानक कालकेतु का वध करके मानिनी एकावली को मुक्त करेंगे। इसके बाद तुम समस्त शास्त्रों में निष्णात उन्हीं सुन्दर राजकुमार एकवीर के साथ एकावली का विवाह करवा देना’ ॥ ५३–५९ ॥ ऐसा कहकर देवी अन्तर्धान हो गयीं और मैं उसी समय जग गयी। तत्पश्चात् मैंने स्वप्न का वृत्तान्त तथा देवी की आराधना की बात एकावली को बतायी ॥ ६० ॥ सारी बातें सुनकर उस कमलनयनी के मुखमण्डल पर प्रसन्नता छा गयी। अत्यन्त सन्तुष्ट होकर पवित्र मुसकान वाली एकावली ने मुझसे कहा — हे प्रिये ! तुम वहाँ शीघ्रतापूर्वक जाओ और मेरा कार्य सिद्ध करो। जो भगवती सत्य वाणी वाली हैं, वे हम दोनों को मुक्त करेंगी ॥ ६१-६२ ॥ हे राजन्! सखी एकावली के इस प्रकार प्रेमपूर्वक आदेश देने पर उस समय प्रस्थान कर देना उचित समझकर मैं उस स्थान से तुरंत चल पड़ी। हे राजकुमार ! भगवती जगदम्बा की कृपा से मार्ग की जानकारी तथा द्रुतगति से चलने की क्षमता मुझे प्राप्त हो गयी थी ॥ ६३-६४ ॥ हे वीर! इस प्रकार मैंने अपने दुःखी होने का समस्त कारण आपको बता दिया। अब जिस प्रकार मैंने आपको अपने विषय में बताया, उसी प्रकार आप भी बताइये कि आप कौन हैं तथा किसके पुत्र हैं ? ॥ ६५ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘यशोवती का एकावली को छुड़ाने के लिये हैहय एकवीर से देवी के स्वप्न का वर्णन’ नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २२ ॥ Content is available only for registered users. 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