May 4, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-04 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-चतुर्थोऽध्यायः चौथा अध्याय सुकन्या की पतिसेवा तथा वन में अश्विनीकुमारों से भेंट का वर्णन अश्विनीकुमारयोः सुकन्यां प्रति बोधवचनवर्णनम् व्यासजी बोले — [ हे जनमेजय !] राजा शर्याति के चले जाने पर सुकन्या अपने पति च्यवन-मुनि की सेवामें संलग्न हो गयी । धर्मपरायण वह उस आश्रम में अग्नियों की सेवामें सदा निरत रहने लगी ॥ १ ॥ सर्वदा पति सेवामें संलग्न रहने वाली वह बाला विविध प्रकार के स्वादिष्ट फल तथा कन्द-मूल लाकर मुनि को अर्पण करती थी ॥ २ ॥ वह [शीतकाल में] ऊष्ण जल से उन्हें शीघ्रता-पूर्वक स्नान कराने के पश्चात् मृगचर्म पहनाकर पवित्र आसन पर विराजमान कर देती थी । पुनः उनके आगे तिल, जौ, कुशा और कमण्डलु रखकर उनसे कहती थी — मुनिश्रेष्ठ ! अब आप अपना नित्यकर्म करें ॥ ३-४ ॥ मुनि का नित्यकर्म समाप्त हो जाने पर वह सुकन्या पति का हाथ पकड़कर उठाती और पुनः किसी आसन अथवा कोमल शय्या पर उन्हें बिठा देती थी ॥ ५ ॥ तत्पश्चात् वह राजकुमारी पके हुए फल तथा भली-भाँति सिद्ध किये गये नीवारान्न ( धान्यविशेष) च्यवन-मुनि को भोजन कराती थी ॥ ६ ॥ वह सुकन्या भोजन करके तृप्त हुए पति को आदरपूर्वक आचमन कराने के पश्चात् बड़े प्रेम के साथ उन्हें ताम्बूल तथा पूगीफल प्रदान करती थी ॥ ७ ॥ च्यवनमुनि के मुखशुद्धि कर लेने पर सुकन्या उन्हें सुन्दर आसन पर बिठा देती थी। तत्पश्चात् उनसे आज्ञा लेकर वह अपने शरीर-सम्बन्धी कृत्य सम्पन्न करती थी ॥ ८ ॥ तत्पश्चात् स्वयं फलाहार करके वह पुनः मुनि के पास जाकर नम्रतापूर्वक उनसे कहती थी — ‘हे प्रभो! मुझे क्या आज्ञा दे रहे हैं? यदि आपकी सम्मति हो तो मैं अब आपके चरण दबाऊँ।’ इस प्रकार पतिपरायणा वह सुकन्या उनकी सेवामें सदा संलग्न रहती थी ॥ ९-१० ॥ सायंकालीन हवन समाप्त हो जाने पर वह सुन्दरी स्वादिष्ट तथा मधुर फल लाकर मुनि को अर्पित करती थी । पुनः उनकी आज्ञा से भोजन से बचे हुए आहार को बड़े प्रेम के साथ स्वयं ग्रहण करती थी । इसके बाद अत्यन्त कोमल तथा सुन्दर आसन बिछाकर उन्हें प्रेमपूर्वक उसपर लिटा देती थी ॥ ११-१२ ॥ अपने प्रिय पति के सुखपूर्वक शयन करने पर वह सुन्दरी उनके पैर दबाने लगती थी । उस समय क्षीण कटि-प्रदेशवाली वह सुकन्या कुलीन स्त्रियों के धर्म के विषय में उनसे पूछा करती थी ॥ १३ ॥ चरण दबा करके रात में वह भक्तिपरायणा सुकन्या जब यह जान जाती थी कि च्यवनमुनि सो गये हैं, तब वह भी उनके चरणों के पास ही सो जाती थी ॥ १४ ॥ ग्रीष्मकाल में अपने पति च्यवन मुनि को बैठा देखकर वह सुन्दरी सुकन्या ताड़ के पंखे से शीतल वायु करती हुई उनकी सेवामें तत्पर रहती थी । शीतकाल में सूखी लकड़ियाँ एकत्र कर उनके सम्मुख प्रज्वलित अग्नि रख करके वह उनसे बार-बार पूछा करती थी कि आप सुखपूर्वक तो हैं ? ॥ १५-१६ ॥ ब्राह्ममुहूर्त में उठकर वह सुकन्या जल, पात्र तथा मिट्टी पति के पास रखकर उन्हें शौच के लिये उठाती थी। इसके बाद उन्हें आश्रम से कुछ दूर ले जाकर बैठा देने के बाद वहाँ से स्वयं कुछ दूर हटकर बैठी रहती थी। ‘मेरे पतिदेव शौच कर चुके होंगे’ – ऐसा जानकर वह उनके पास जा करके उन्हें उठाती थी और आश्रम में ले आकर अत्यन्त सावधानीपूर्वक एक सुन्दर आसन पर बिठा देती थी। तत्पश्चात् मिट्टी और जल से विधिवत् उनके दोनों चरण धोकर फिर आचमनपात्र दे करके दन्तधावन ( दातौन) ले आती थी। शास्त्रोक्त दातौन मुनि को देनेके बाद वह राजकुमारी मुनि के स्नान के लिये लाये गये शुद्ध तथा परम पवित्र जल को गरम करने लगती थी। तत्पश्चात् उस जल को आकर प्रेमपूर्वक उनसे पूछती थी — ‘हे ब्रह्मन् ! आप क्या आज्ञा दे रहे हैं? आपने दन्तधावन तो कर लिया ? उष्ण जल तैयार है, अतः अब आप मन्त्रोच्चारपूर्वक स्नान कर लीजिये | हवन और प्रातः कालीन संध्या का समय उपस्थित है; आप विधिपूर्वक अग्निहोत्र करके देवताओं का पूजन कीजिये ‘ ॥ १७–२३ ॥ इस प्रकार वह श्रेष्ठ सुकन्या तपस्वी पति प्राप्तकर तप तथा नियम के साथ प्रेमपूर्वक प्रतिदिन उनकी सेवा करती रहती थी ॥ २४ ॥ सुन्दर मुखवाली वह सुकन्या अग्नि तथा अतिथियों की सेवा करती हुई प्रसन्नतापूर्वक सदा च्यवनमुनि की सेवामें तल्लीन रहती थी ॥ २५ ॥ किसी समय सूर्य के पुत्र दोनों अश्विनीकुमार क्रीड़ा करते हुए च्यवनमुनि के आश्रम के पास आ पहुँचे ॥ २६ ॥ उन अश्विनीकुमारों ने जल में स्नान करके निवृत्त हुई तथा अपने आश्रम की ओर जाती हुई उस सर्वांगसुन्दरी सुकन्या को देख लिया ॥ २७ ॥ देवकन्या के समान कान्तिवाली उस सुकन्या को देखकर दोनों अश्विनीकुमार अत्यधिक मुग्ध हो गये और शीघ्र ही उसके पास पहुँचकर आदरपूर्वक कहने लगे — ॥ २८ ॥ हे वरारोहे! थोड़ी देर ठहरो । हे गजगामिनि ! हम दोनों सूर्यदेव के पुत्र अश्विनीकुमार तुमसे कुछ पूछने के लिये यहाँ आये हैं। हे शुचिस्मिते! सच-सच बताओ कि तुम किसकी पुत्री हो, तुम्हारे पति कौन हैं ? हे चारुलोचने! इस सरोवर में स्नान करने के लिये तुम अकेली ही उद्यान में क्यों आयी हुई हो ? ॥ २९-३० ॥ हे कमललोचने! तुम तो सौन्दर्य में दूसरी लक्ष्मी की भाँति प्रतीत हो रही हो । हे शोभने ! हम यह रहस्य जानना चाहते हैं, तुम बताओ ॥ ३१ ॥ हे कान्ते! हे चंचल नयनों वाली ! जब तुम्हारे ये कोमल तथा नग्न चरण कठोर भूमि पर पड़ते हैं तथा आगे की ओर बढ़ते हैं, तब ये हमारे हृदय में व्यथा उत्पन्न करते हैं । हे तन्वंगि ! तुम विमान पर चलने योग्य हो; तब तुम नंगे पाँव पैदल ही क्यों चल रही हो? इस वन में तुम्हारा भ्रमण क्यों हो रहा है ? ॥ ३२-३३ ॥ तुम सैकड़ों दासियों को साथ लेकर घर से क्यों नहीं निकली ? हे वरानने! तुम राजपुत्री हो अथवा अप्सरा हो, यह सच सच बता दो ॥ ३४ ॥ तुम्हारी माता धन्य हैं, जिनसे तुम उत्पन्न हुई हो। तुम्हारे वे पिता भी धन्य हैं । हे अनघे ! तुम्हारे पति के भाग्य के विषय में तो हम तुमसे कह ही नहीं सकते ॥ ३५ ॥ हे सुलोचने ! यहाँ की भूमि देवलोक से भी बढ़कर है। पृथ्वीतल पर पड़ता हुआ तुम्हारा चरण इसे पवित्र बना रहा है ॥ ३६ ॥ जो तुम्हें देख रहे हैं, वे परम भाग्यशाली हैं । यह भूमि इस वन में रहने वाले सभी मृग तथा दूसरे पक्षी भी परम पवित्र हो गयी है ॥ ३७ ॥ हे सुलोचने! तुम्हारी अधिक प्रशंसा क्या करें ? अब तुम सत्य बता दो कि तुम्हारे पिता कौन हैं और तुम्हारे पतिदेव कहाँ रहते हैं ? उन्हें आदरपूर्वक देखने की हमारी इच्छा है ॥ ३८ ॥ व्यासजी बोले — अश्विनीकुमारों की यह बात सुनकर परम सुन्दरी राजकुमारी सुकन्या अत्यन्त लज्जित हो गयी । देवकन्या के सदृश वह राजपुत्री उनसे कहने लगी — ॥ ३९ ॥ आप लोग मुझे राजा शर्याति की पुत्री तथा च्यवन-मुनि की भार्या समझें । मैं एक पतिव्रता स्त्री हूँ । मेरे पिताजी ने स्वेच्छा से मुझे इन्हें सौंप दिया है ॥ ४० ॥ हे देवताओ! मेरे पतिदेव वृद्ध तथा नेत्रहीन हैं । वे परम तपस्वी हैं। मैं प्रसन्न मन से दिन-रात उनकी सेवा करती रहती हूँ ॥ ४१ ॥ आप दोनों कौन हैं और यहाँ क्यों पधारे हुए हैं ? मेरे पतिदेव इस समय आश्रम में विराजमान हैं । आप लोग वहाँ चलकर आश्रम को पवित्र कीजिये ॥ ४२ ॥ हे राजन्! अश्विनीकुमारों ने सुकन्या की बात सुनकर उससे कहा — हे कल्याणि ! तुम्हारे पिता ने तुम्हें उन तपस्वी को कैसे सौंप दिया ? ॥ ४३ ॥ तुम तो बादल में चमकने वाली विद्युत् की भाँति इस वन- प्रदेश में सुशोभित हो रही हो । हे भामिनि ! तुम्हारे सदृश स्त्री तो देवताओं के यहाँ भी नहीं देखी गयी है ॥ ४४ ॥ काले केशपाश वाली तुम दिव्य वस्त्र तथा सर्वविध आभूषण धारण करने के योग्य हो । इन वल्कल वस्त्रों को धारण करके तुम शोभा नहीं पा रही हो ॥ ४५ ॥ हे रम्भोरु ! हे विशालनेत्रे ! हे प्रिये ! विधाता ने यह कैसा मूर्खतापूर्ण कृत्य किया है, जो कि तुम वार्धक्य से पीड़ित इस नेत्रहीन मुनि को पतिरूप में प्राप्त करके इस वन में महान् कष्ट भोग रही हो ! ॥ ४६ ॥ हे नृत्यविशारदे ! तुमने इन्हें व्यर्थ ही वरण किया। नवीन अवस्था प्राप्त करके तुम उनके साथ शोभा नहीं पा रही हो । भली-भाँति लक्ष्य साध कर कामदेव के द्वारा वेगपूर्वक छोड़े गये बाण किस पर गिरेंगे; तुम्हारे पति तो इस प्रकार के [ असमर्थ ] हैं ॥ ४७ ॥ विधाता निश्चय ही मन्द बुद्धिवाले हैं, जो उन्होंने नवयौवन से सम्पन्न तुम्हें नेत्रहीन की पत्नी बना दिया । हे विशाललोचने ! तुम इनके योग्य नहीं हो । अतः हे चारुलोचने! तुम किसी दूसरे को अपना पति बना लो ॥ ४८ ॥ हे कमललोचने ! ऐसे नेत्रहीन मुनि को पतिरूप में पाकर तुम्हारा जीवन व्यर्थ हो गया है । हम लोग इस तरह से वन में तुम्हारे निवास करने तथा वल्कलवस्त्र धारण करनेको उचित नहीं मानते हैं ॥ ४९ ॥ अतः हे प्रशस्त अंगोंवाली ! तुम सम्यक् विचार करके हम दोनों में से किसी एक को अपना पति बना लो। हे सुलोचने! हे मानिनि ! हे सुन्दरि ! तुम इस [ अन्धे तथा बूढ़े ] मुनि की सेवा करती हुई अपने यौवन को व्यर्थ क्यों कर रही हो ? ॥ ५० ॥ भाग्य से हीन तथा पोषण – भरण और रक्षा के सामर्थ्य से रहित उस मुनि की सेवा तुम क्यों कर रही हो ? हे निर्दोष अंगों वाली ! सभी प्रकार के सुखोपभोगों से वंचित इस मुनि को छोड़कर तुम हम दोनों में से किसी एक को स्वीकार कर लो ॥ ५१ ॥ हे कान्ते! हमें वरण करके तुम इन्द्र के नन्दनवन में तथा कुबेर के चैत्ररथवन में स्वेच्छापूर्वक विहार करो। हे मानिनि ! तुम इस अन्धे तथा वृद्ध के साथ अपमानित होकर अपना जीवन कैसे बिताओगी ? ॥ ५२ ॥ तुम समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न एक राजकुमारी हो तथा सांसारिक हाव-भावों को भलीभाँति जानती हो । अतः तुम भाग्यहीन स्त्री की भाँति इस निर्जन वन में अपना समय व्यर्थ क्यों बिता रही हो ? ॥ ५३ ॥ अतः हे पिकभाषिणि! हे सुमुखि ! हे विशालनेत्रे ! तुम अपने सुख के लिये हम दोनों में से किसी एक को स्वीकार कर लो । कृश कटि प्रदेशवाली हे राजकुमारी ! तुम इस वृद्ध मुनि को शीघ्र छोड़कर हमारे साथ देवभवनों में चलकर नानाविध सुखों का भोग करो ॥ ५४ ॥ हे सुन्दर केशोंवाली ! हे मृगनयनी ! इस निर्जन वन में एक वृद्ध के साथ रहते हुए तुम्हें कौन-सा सुख है? एक तो तुम्हारी यह नयी युवावस्था और उस पर भी एक अन्धे की सेवा तुम्हें करनी पड़ रही है । हे राजकुमारी ! क्या दुःख भोगना ही तुम्हारा अभीष्ट है ? ॥ ५५ ॥ हे [वनसे] चन्द्रमुखी ! तुम अत्यन्त कोमल हो, अतः तुम्हारा इस प्रकार फल तथा जल ले आना कदापि उचित नहीं है ॥ ५६ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘अश्विनीकुमारों का सुकन्या के प्रति बोधवचन- वर्णन’ नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥ Content is available only for registered users. 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