श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-19
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-एकोनविंशोऽध्यायः
उन्नीसवाँ अध्याय
विश्वामित्र की कपटपूर्ण बातों में आकर राजा हरिश्चन्द्र का राज्यदान करना
कौशिकाय सर्वस्वसमर्पणं तद्दक्षिणादानवर्णनम्

व्यासजी बोले — हे नृप [ जनमेजय ] ! हरिश्चन्द्र की यह बात सुनकर मुनि विश्वामित्र हँस करके उनसे कहने लगे — ॥ १ ॥

हे राजन्! यह तीर्थ अत्यन्त पुण्यमय, पवित्र तथा पापनाशक है। हे महाभाग ! इसमें स्नान करो और पितरों का तर्पण करो ॥ २ ॥ भूपते ! यह समय भी अति उत्तम है; इसलिये इस पुण्यमय तथा परम पावन तीर्थ में स्नान करके आप इस समय अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान दीजिये ॥ ३ ॥ ‘जो परम पवित्र तीर्थ में पहुँचकर बिना स्नान किये ही लौट जाता है, वह आत्मघाती होता है’ ऐसा स्वायम्भुव मनु ने कहा है ॥ ४ ॥ अतएव हे राजन्! आप इस सर्वोत्तम तीर्थ में अपनी शक्ति के अनुसार पुण्यकर्म कीजिये । इससे [ प्रसन्न होकर] मैं आपको मार्ग दिखा दूँगा और तब आप अपने नगर को चले जाइयेगा । हे अनघ ! हे काकुत्स्थ ! आपके दान से प्रसन्न होकर आपको मार्ग दिखाने के लिये इसी समय मैं आपके साथ चलूँगा ॥ ५-६ ॥

मुनि की यह कपटभरी वाणी सुनकर राजा हरिश्चन्द्र घोड़े को एक वृक्ष में बाँधकर तथा अपने वस्त्र उतारकर विधिवत् स्नान करने के लिये नदी के तट पर आ गये । होनहार के प्राबल्य के कारण उस समय राजा हरिश्चन्द्र मुनि के वाक्य से मोहित होकर उनके वशीभूत हो गये थे ॥ ७-८ ॥ विधिपूर्वक स्नान करने के पश्चात् पितरों तथा देवताओं का तर्पण करके राजा ने विश्वामित्र से यह कहा — हे स्वामिन्! अब मैं आपको दान देता हूँ । हे महाभाग ! इस समय आप जो चाहते हैं, उसे मैं आपको दूँगा। गाय, भूमि, सोना, हाथी, घोड़ा, रथ, वाहन आदि कुछ भी मेरे लिये अदेय नहीं है — ऐसी प्रतिज्ञा मैं पूर्वकाल में सर्वोत्तम राजसूय यज्ञ में पधारे हुए मुनियों के समक्ष कर चुका हूँ । अतः हे मुने! आपकी जो आकांक्षा हो उसे बताइये; मैं आपकी वह अभिलषित वस्तु आपको दूँगा; क्योंकि आप इस सर्वोत्तम तीर्थ में हैं ॥ ९–१२ ॥

विश्वामित्र बोले — हे राजन् ! संसार में व्याप्त आपकी विपुल कीर्ति के विषय में मैं बहुत पहले सुन चुका हूँ । महर्षि वसिष्ठ ने भी कहा था कि पृथ्वीतल पर उनके समान कोई दानी नहीं है । राजाओं में श्रेष्ठ वे राजा हरिश्चन्द्र सूर्यवंश में उत्पन्न हुए हैं । जैसे दानी तथा परम उदार त्रिशंकुपुत्र महाराज हरिश्चन्द्र हैं, वैसा राजा पृथ्वी पर पहले न हुआ है और न तो आगे होगा। हे महाभाग ! हे पार्थिव ! आज मेरे पुत्र का विवाह होने वाला है, अतः मैं आपसे प्रार्थना कर रहा हूँ कि इसके लिये आप मुझे धन प्रदान करें ॥ १३-१५१/२

राजा बोले — हे विप्रेन्द्र ! आप विवाह कीजिये, मैं आपकी अभिलषित वस्तु दूँगा । आप अधिक से अधिक जितना धन चाहते हैं, मैं उसे अवश्य दूँगा ॥ १६१/२

व्यासजी बोले — हरिश्चन्द्र के ऐसा कहने पर उन्हें ठगने के लिये तत्पर मुनि विश्वामित्र ने गान्धर्वी माया रचकर राजा के समक्ष एक सुकुमार पुत्र और दस वर्ष की कन्या उपस्थित कर दी और कहा हे नृपश्रेष्ठ! आज इन्हीं दोनों का विवाह सम्पन्न करना है । किसी गृहस्थ की सन्तान का विवाह करा देने का पुण्य राजसूययज्ञ से भी बढ़कर होता है । अतः आज ही इस विप्रपुत्र का विवाह सम्पन्न करा देने से आपको महान् पुण्य होगा ॥ १७–१९१/२

विश्वामित्र की बात सुनकर उनकी माया से मोहित हुए राजा हरिश्चन्द्र ‘वैसा ही करूँगा’   यह प्रतिज्ञा करके आगे कुछ भी नहीं बोले । इसके बाद मुनि के द्वारा मार्ग दिखा दिये जाने पर वे अपने नगर को चले गये और राजा को ठगकर विश्वामित्र भी अपने आश्रम के लिये प्रस्थान कर गये ॥ २०-२११/२

विवाह-कार्य पूर्ण होने के पूर्व विश्वामित्र ने राजा हरिश्चन्द्र से कहा — हे राजन् ! अब आप हवन वेदी के मध्य मुझे अभिलषित दान दीजिये ॥ २२१/२

राजा बोले — हे द्विज ! आपकी क्या अभिलाषा है, उसे बताइए; मैं आपको अभिलषित वस्तु अवश्य दूँगा । इस संसार में मेरे लिये कुछ भी अदेय नहीं है। अब मैं केवल यश प्राप्त करना चाहता हूँ; क्योंकि वैभव प्राप्त करके भी जिसने परलोक में सुख देने वाले पवित्र यश का उपार्जन नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ है ॥ २३-२४१/२

विश्वामित्र बोले — हे राजन् ! इस परम पुनीत हवन वेदी के मध्य आप हाथी, घोड़े, रथ, रत्न और अनुचरों से युक्त सम्पूर्ण राज्य वर को दे दीजिये ॥ २५१/२

व्यासजी बोले — मुनि की बात सुनते ही उनकी माया से मोहित होने के कारण बिना कुछ सोचे-विचारे राजा ने अकस्मात् कह दिया — ‘ सारा राज्य आपको दे दिया ।’ तत्पश्चात् परम निष्ठुर विश्वामित्र ने उनसे कहा ‘मैंने पा लिया और हे राजेन्द्र ! हे महामते ! अब दान की सांगता-सिद्धि के लिये उसके योग्य दक्षिणा भी दे दीजिये; क्योंकि मनु ने कहा है कि दक्षिणारहित दान व्यर्थ होता है। अतएव दान का पूर्ण फल प्राप्त करने के लिये आप यथोचित दक्षिणा भी दीजिये ‘ ॥ २६-२८१/२

मुनि के यह कहने पर राजा हरिश्चन्द्र उस समय बड़े आश्चर्य में पड़ गये । उन्होंने मुनि से कहा हे स्वामिन्! आप यह तो बताइये कि इस समय कितना धन आपको और देना है । हे साधो ! दक्षिणा के रूप में निष्क्रय-द्रव्य का परिमाण बता दीजिये। हे तपोधन ! आप निश्चिन्त रहिये; दान की पूर्णता के लिये मैं वह दक्षिणा अवश्य दूँगा ॥ २९-३०१/२

यह सुनकर विश्वामित्र ने राजा हरिश्चन्द्र से कहा कि आप दक्षिणा के रूप में ढाई भार सोना अभी दीजिये । तत्पश्चात् ‘आपको दूँगा’ यह प्रतिज्ञा विश्वामित्र से करके राजा बड़े विस्मय में पड़ गये ॥ ३१-३२ ॥ उसी समय उनके सभी सैनिक भी उन्हें खोजते हुए वहाँ आ गये। राजा को देखकर वे बहुत हर्षित हुए और उन्हें चिन्तित देखकर सान्त्वना देने लगे ॥ ३३ ॥

व्यासजी बोले —[ हे जनमेजय !] उनकी बात सुनकर राजा हरिश्चन्द्र शुभाशुभ कुछ भी उत्तर न देकर अपने किये हुए कार्य पर विचार करते हुए अन्तःपुर में चले गये ॥ ३४ ॥ यह मैंने कैसा दान देना स्वीकार कर लिया, जो कि मैंने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया । इस ब्राह्मण ने तो ठगों की भाँति वन में मुझे बड़ा धोखा दिया । सामग्रियों- सहित सम्पूर्ण राज्य उस ब्राह्मण को देने के लिये मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी और फिर साथ में ढाई भार स्वर्ण की भी प्रतिज्ञा कर ली है। अब मैं क्या करूँ ? मेरी तो बुद्धि ही भ्रष्ट हो गयी है। मुनि के कपट को मैं नहीं जान पाया और उस तपस्वी ब्राह्मण ने मुझे अकस्मात् ही ठग लिया। विधि का विधान मैं बिलकुल नहीं समझ पा रहा हूँ। हा दैव ! पता नहीं भविष्य में क्या होने वाला है इसी चिन्ता में पड़े हुए अत्यन्त क्षुब्धचित्त राजा हरिश्चन्द्र अपने महल में पहुँचे ॥ ३५-३८ ॥ अपने पति राजा हरिश्चन्द्र को चिन्ताग्रस्त देखकर रानी ने इसका कारण पूछा हे प्रभो ! इस समय आप उदास क्यों दिखायी दे रहे हैं, आपको कौन-सी चिन्ता है ? मुझे बताइये ॥ ३९ ॥ अब तो आपका पुत्र भी वन से लौट आया है और आपने बहुत पहले ही राजसूययज्ञ भी सम्पन्न कर लिया है, तो फिर आप किसलिये शोक कर रहे हैं ? हे राजेन्द्र ! अपनी चिन्ता का कारण बताइये ॥ ४० ॥ इस समय बलशाली अथवा बलहीन आपका कोई शत्रु भी कहीं नहीं है । वरुणदेव भी आपसे परम सन्तुष्ट हैं । आपने संसार में अपने सारे मनोरथ सफल कर लिये हैं । हे बुद्धिमान् नृपश्रेष्ठ ! चिन्ता से शरीर क्षीण हो जाता है, चिन्ता के समान तो मृत्यु भी नहीं है; इसलिये आप चिन्ता छोड़िये और स्वस्थ [हे जनमेजय!] रहिये ॥ ४१-४२ ॥

अपनी पत्नी की बात सुनकर राजा ने प्रेमपूर्वक उन्हें चिन्ता का शुभाशुभ थोड़ा-बहुत कारण बतला दिया ॥ ४३ ॥ उस समय चिन्ता से आकुल राजा हरिश्चन्द्र ने भोजन तक नहीं किया । सुन्दर शय्या पर लेटे रहने पर चिन्ताग्रस्त राजा हरिश्चन्द्र प्रातः काल उठकर भी राजा को निद्रा नहीं आयी ॥ ४४ ॥ जब सन्ध्या-वन्दन आदि क्रियाएँ कर रहे थे, उसी समय मुनि विश्वामित्र वहाँ आ पहुँचे ॥ ४५ ॥ राजा का सर्वस्व हरण कर लेने वाले मुनि के आने की सूचना द्वारपाल ने राजा को दी। तब मुनि विश्वामित्र उनके पास गये और बार-बार प्रणाम करते हुए राजा से कहने लगे ॥ ४६ ॥

विश्वामित्र बोले — हे राजन् ! अपना राज्य छोड़िये और अपने वचन से संकल्पित इस राज्य को मुझे दे दीजिये। हे राजेन्द्र ! अब प्रतिज्ञा की हुई सुवर्ण की दक्षिणा भी दीजिये और सत्यवादी बनिये ॥ ४७ ॥

हरिश्चन्द्र बोले — हे स्वामिन्! मेरा यह राज्य अब आपका है; क्योंकि मैंने इसे आपको दे दिया है। हे कौशिक ! इसे छोड़कर अब मैं अन्यत्र चला जाऊँगा, आप चिन्ता न करें ॥ ४८ ॥ हे ब्रह्मन्! मेरा सर्वस्व तो विधिपूर्वक आपने ग्रहण कर लिया है, अतः हे विभो ! इस समय मैं आपको स्वर्ण-दक्षिणा देने में असमर्थ हूँ । हे द्विज ! जब मेरे पास धन हो जायगा, तब मैं आपको दक्षिणा दे दूँगा और यदि दैवयोग से धन उपलब्ध हो गया, तो उसी समय मैं आपकी दक्षिणा चुका दूँगा ॥ ४९-५० ॥

विश्वामित्र से यह कहकर राजा हरिश्चन्द्र ने अपने पुत्र रोहित तथा पत्नी माधवी से कहा — हाथी, घोड़े, रथ, स्वर्ण तथा रत्न आदिसहित अपना सारा विस्तृत राज्य मैं विवाह वेदी पर इन ब्राह्मणदेव को दान कर चुका हूँ; केवल हम लोगों के इन तीन शरीरों को छोड़कर और सब कुछ इन्हें समर्पित कर दिया है। अतः अब मैं अयोध्या छोड़कर किसी वन की गुफा में चला जाऊँगा। अब ये मुनि इस सर्वसमृद्धिशाली राज्य को भलीभाँति ग्रहण करें ॥ ५१-५३ ॥

[हे जनमेजय!] अपने पुत्र तथा पत्नी से यह कहकर परम धार्मिक राजा हरिश्चन्द्र द्विजश्रेष्ठ विश्वामित्र को सम्मान देते हुए अपने भवन से निकल पड़े ॥ ५४ ॥ राजा को जाते देखकर उनकी पत्नी माधवी तथा पुत्र रोहित चिन्तित हो गये तथा उनके मुख पर उदासी छा गयी। वे दोनों भी उनके पीछे-पीछे चल दिये ॥ ५५ ॥ उन सभी को इस स्थिति में देखकर नगर में बड़ा हाहाकार मच गया। अयोध्या में रहने वाले सभी प्राणी चीख-चीखकर रोने लगे हा राजन् ! आपने यह कैसा कर्म कर डाला! आपके ऊपर यह संकट कहाँ से आ पड़ा । हे महाराज ! यह निश्चय है कि आप विवेकहीन विधाता द्वारा ठग लिये गये हैं ॥ ५६-५७ ॥

महात्मा पुत्र रोहित तथा भार्या माधवीके सहित उन राजा हरिश्चन्द्रको इस दशामें देखकर सभी वर्णके लोग बहुत दुःखी हुए ॥ ५८ ॥ ‘यह महान् धूर्त है’ – ऐसा कहते हुए नगरवासी ब्राह्मण आदि लोग दुःख से व्याकुल होकर उस दुराचारी ब्राह्मण (विश्वामित्र) – की निन्दा करने लगे ॥ ५९ ॥ महाराज हरिश्चन्द्र अभी नगर से निकलकर जा ही रहे थे कि इतने में विश्वामित्र पुनः उनके सम्मुख आकर उनसे यह निष्ठुर वचन कहने लगे हे राजन् ! मेरी सुवर्ण दक्षिणा देकर आप जाइये अथवा यह कह दीजिये कि मैं नहीं दूँगा तो मैं वह सुवर्ण छोड़ दूँगा । हे राजन्! यदि आपके हृदय में लोभ हो तो आप अपना सारा राज्य वापस ले लीजिये और यदि आप यह मानते हैं कि ‘मैं वस्तुतः दान दे चुका हूँ’ तो जिस सुवर्ण की आप प्रतिज्ञा कर चुके हैं, उसे मुझको दे दीजिये ॥ ६०–६२ ॥

विश्वामित्र के यह कहने पर अत्यन्त उदास मन वाले राजा हरिश्चन्द्र उन्हें दण्डवत् प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर कहने लगे ॥ ६३ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘कौशिक के लिये सर्वस्व-समर्पण तथा दक्षिणा दान का वर्णन’ नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥

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