श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-अष्टमः स्कन्धः-अध्याय-16
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-अष्टमः स्कन्धः-षोडशोऽध्यायः
सोलहवाँ अध्याय
चन्द्रमा तथा ग्रहों की गति का वर्णन
सोमादिगतिवर्णनम्

श्रीनारायण बोले — [ हे नारद!] अब आप चन्द्रमा आदि की अद्भुत गति का वर्णन सुनिये। उसकी गति के द्वारा ही मनुष्यों को शुभ तथा अशुभ का परिज्ञान होता है ॥ १ ॥ जिस प्रकार कुम्हार के घूमते हुए चाक पर स्थित कीड़ों आदि की एक दूसरी गति भी होती है, उसी प्रकार राशियों से उपलक्षित कालचक्र के अनुसार सुमेरु और ध्रुव को दाहिने करके घूमने वाले सूर्य आदि प्रमुख ग्रहों की एक अन्य गति भी दृष्टिगोचर होती है ॥ २-३१/२

सूर्य की यह गति नक्षत्रों पर निर्भर करती है । एक नक्षत्र के बाद दूसरा नक्षत्र आने पर सूर्यगति में परिवर्तन हो जाता है। ये दोनों गतियाँ एक-दूसरे के अविरुद्ध हैं । यह निश्चित नियम सर्वत्र के लिये है ॥ ४१/२

वेद तथा विद्वान् पुरुष जिन्हें जानने की इच्छा रखते हैं, वे लोकप्रकाशक तथा सम्पूर्ण जगत् के आधार आदिपुरुष सूर्य प्राणियों के कल्याणार्थ और कर्मों की शुद्धि के निमित्त भ्रमण करते हुए अपने वेदमय विग्रह को बारह भागों में विभक्त करके स्वयं वसन्त आदि छः ऋतुओं में ऋतुसम्बन्धी सभी गुणों की यथोचित व्यवस्था करते हैं ॥ ५–७१/२

वर्णाश्रमधर्म का आचरण करने वाले जो पुरुष त्रयीविद्या (वेद)-के आदेशों का पालन करके, शास्त्र-निर्दिष्ट छोटे-बड़े कर्म सम्पादित करके तथा उच्च कोटि की योग-साधना करके श्रद्धापूर्वक भगवान् सूर्य की उपासना करते हैं, वे शीघ्र ही कल्याण प्राप्त कर लेते हैं; यह निश्चित सिद्धान्त है ॥ ८-९१/२

सभी प्राणियों की आत्मास्वरूप ये सूर्य काल-चक्र पर स्थित होकर द्युलोक तथा पृथ्वीलोक के मध्य गति करते हुए बारह राशियों के रूप में संवत्सर के अवयवस्वरूप [बारह ] महीनों को भोगते हैं । उनमें प्रत्येक मास चन्द्रमान से कृष्ण तथा शुक्ल — इन दो पक्षों का, पितृमान से एक दिन तथा एक रात का और सौरमान से सवा दो नक्षत्रों का कहा गया है। सूर्य जितने समय में वर्ष का छठा भाग भोगते हैं, विद्वान् लोग उसे संवत्सर का अवयवस्वरूप कहते हैं ॥ १०-१२१/२

ऋतु भगवान् सूर्य जितने समय में आकाशमार्ग की दूरी तय करते हैं, उसके आधे समय को पूज्य प्राचीन मुनिगण ‘अयन’ कहते हैं और जितने समय में सूर्य सम्पूर्ण नभमण्डल को पार करते हैं, उस समयको वत्सर कहते हैं ॥ १३-१४१/२

वत्सर पाँच प्रकार का कहा गया है — संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर और इद्वत्सर ॥ १५१/२

कालतत्त्व के ज्ञाताओं ने सूर्य के मन्द, शीघ्र तथा समान गतियों से चलने के कारण उनकी इस प्रकार तीन गतियाँ बतायी हैं । [ हे नारद!] अब चन्द्रमा आदि की गति के विषय में सुनिये। इसी प्रकार चन्द्रमा सूर्य की किरणों से एक लाख योजन ऊपर है। औषधियों के स्वामी वे चन्द्रमा सूर्य के एक वर्ष के मार्ग को दो पक्षों में, एक महीने में तय किये गये मार्ग को सवा दो दिनों में और एक पक्ष में तय किये गये मार्ग को एक दिन में भोग लेते हैं । इस प्रकार तीव्र गति से चलने वाले चन्द्रमा नक्षत्रचक्र में गति करते रहते हैं ॥ १६-१९ ॥ ये चन्द्र क्रमशः अपनी पूर्ण होने वाली कलाओं से देवताओं को प्रसन्न करते हैं और क्षीण होती हुई कलाओं से पितरों का चित्तानुरंजन करते हैं ॥ २० ॥ अपने पूर्व और उत्तर पक्षों के द्वारा दिन तथा रात का विभाजन करने वाले वे चन्द्रमा ही समस्त जीव-जगत् के प्राण तथा जीवन हैं । परम ऐश्वर्यसम्पन्न वे चन्द्रमा तीस मुहूर्त में एक-एक नक्षत्र का भोग करते हैं। सोलह कलाओं से युक्त, मनोमय, अन्नमय, अमृतमय तथा श्रेष्ठ अनादि पुरुष वे भगवान् चन्द्रमा देवताओं, पितरों, मनुष्यों, रेंगकर चलने वाले जन्तुओं तथा वृक्ष आदि के प्राणों का पोषण करने के कारण सर्वमय कहे जाते हैं ॥ २१-२३१/२

चन्द्रमा के स्थान से तीन लाख योजन ऊपर नक्षत्रमण्डल है। अभिजित् को लेकर इस मण्डल में कुल नक्षत्र संख्या में अट्ठाईस गिने गये हैं । भगवान्‌ के द्वारा कालचक्र में बँधा हुआ यह नक्षत्रमण्डल मेरु को दाहिने करके सदा भ्रमण करता रहता है ॥ २४-२५ ॥ उससे भी दो लाख योजन ऊपर रहने वाले शुक्र कभी सूर्य के आगे तथा कभी पीछे और कभी सूर्य के साथ-साथ तीव्र, मन्द और समान गतियों से चलते हुए परिभ्रमण करते रहते हैं ॥ २६१/२

ये प्राणियों के लिये प्रायः अनुकूल ही रहते हैं। इन्हें शुभकारी ग्रह कहा गया है। हे मुने! ये भार्गव शुक्र वर्षा के विघ्नों को सदा दूर करने वाले हैं ॥ २७१/२

शुक्र से भी ऊपर दो लाख योजन की दूरी पर बुध बताये गये हैं। ये भी शुक्र के ही समान तीव्र, मन्द तथा सम गतियों से सदा भ्रमण करते रहते हैं ॥ २८१/२

ये चन्द्रपुत्र बुध जब सूर्य की गति का उल्लंघन करके चलते हैं, उस समय ये आँधी, विद्युत्पात और वृष्टि आदि के भय की सूचना देते हैं ॥ २९१/२

उनसे भी ऊपर दो लाख योजन की दूरी पर मंगल हैं। हे देवर्षे! यदि वे वक्रगति से न चलें तो एक-एक राशि को तीन-तीन पक्षों में भोगते हुए बारहों राशियों को पार करते हैं। ये प्रायः अशुभ करने वाले तथा अमंगल के सूचक हैं ॥ ३०-३११/२

उनसे भी दो लाख योजन ऊपर बृहस्पति हैं। यदि वे वक्री न होकर भ्रमण करें तो एक-एक राशि को एक-एक वर्ष में भोगते हैं। वे प्रायः ब्रह्मवादियों के अनुकूल रहते हैं ॥ ३२-३३ ॥ उनसे भी दो लाख योजन ऊपर भयंकर शनि हैं । सूर्य के पुत्र कहे जाने वाले ये महाग्रह शनि एक-एक राशि को तीस-तीस महीनों में भोगते हुए सभी राशियों का परिभ्रमण करते रहते हैं। श्रेष्ठ कालज्ञ पुरुषों ने शनि को सबके लिये अशुभ बताया है ॥ ३४-३५ ॥ उनसे भी ऊपर ग्यारह लाख योजन की दूरी पर सप्तर्षियों का मण्डल बताया गया है। हे मुने! वे सातों ऋषि प्राणियों के कल्याण की कामना करते हुए जो वह विष्णुपद है, उस ध्रुव-लोक की प्रदक्षिणा करते हैं ॥ ३६-३७ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत आठवें स्कन्ध का ‘सोमादिगतिवर्णन’ नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १६ ॥

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