May 22, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-नवमः स्कन्धः-अध्याय-09 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-नवमः स्कन्धः-नवमोऽध्यायः नौवाँ अध्याय पृथ्वी की उत्पत्ति का प्रसंग, ध्यान और पूजन का प्रकार तथा उनकी स्तुति नारायणनारदसंवादे कलिमाहात्म्यवर्णनम् नारदजी बोले — [ हे भगवन्!] आपने बतलाया कि देवी के निमेषमात्र व्यतीत होने पर ब्रह्मा का अन्त हो जाता है और उनका यह विनाश ही प्राकृतिक प्रलय कहा गया है। उस प्राकृत प्रलय के होने पर पृथ्वी अदृश्य हो जाती है – ऐसा कहा गया है, साथ ही सभी लोक जल में डूब जाते हैं और समस्त प्राणी परमात्मा में विलीन हो जाते हैं । [ हे प्रभो !] उस समय अदृश्य हुई वह पृथ्वी कहाँ स्थित रहती है और सृष्टि होने के समय वह पुन: कैसे प्रकट हो जाती है ? वह पृथ्वी फिर से धन्य, मान्य, सबको आश्रय प्रदान करने वाली तथा विजयशालिनी कैसे हो जाती है ? अब आप उस पृथ्वी के उद्भव की मंगलकारी कथा कहिये ॥ १–४ ॥ श्रीनारायण बोले — [ हे नारद!] सम्पूर्ण सृष्टियों के आरम्भ में भगवती से ही अखिल जगत् की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार सबका उन्हीं से आविर्भाव होता है और सभी प्रलयों के समय प्राणियों का उन्हीं में विलय हो जाता है — ऐसा श्रुति कहती है ॥ ५ ॥ अब आप पृथ्वी के जन्म का वृत्तान्त सुनिये; जो सभी प्रकार का मंगल करने वाला, विघ्नों का नाश करने वाला, पापों का उच्छेद करने वाला तथा पुण्य की वृद्धि करने वाला है ॥ ६ ॥ कुछ लोग कहते हैं कि मधु-कैटभ नामक दैत्यों के मेद से यह धन्य पृथ्वी उत्पन्न हुई, किंतु इससे जो भिन्न मत है, उसे सुनो। उन दोनों दैत्यों ने प्राचीन काल में भगवान् विष्णु के साथ युद्ध में उनके तेज से प्रसन्न होकर उनसे कहा कि हमदोनों का वध वहीं पर हो, जहाँ पृथ्वी जलमग्न न हो। उनके जीवनकाल में पृथ्वी जल के भीतर स्थित रहने के कारण स्पष्ट रूप से दिखायी नहीं पड़ती थी; यह बात उन्हें ज्ञात भी थी। इसीलिये उन्होंने वह वर माँगा था। उन दोनों के वध के उपरान्त उनका मेद प्रभूत मात्रा में फैल गया। इस कारण पृथ्वी मेदिनी नाम से प्रसिद्ध हुई। इसका स्पष्टीकरण सुनो; जल से बाहर निकलने के अनन्तर ही पृथ्वी मेद से परिपुष्ट हुई । इसीलिये उसका नाम मेदिनी पड़ा। मैं अब पृथ्वी के जन्म की मंगलकारिणी तथा श्रुतिप्रतिपादित सार्थक कथा कहता हूँ, जिसे मैंने पहले धर्मराज के मुख से महाविराट् पुष्करक्षेत्र में सुना था ॥ ७–११ ॥ पुरुष अनन्त काल से जल में स्थित रहते हैं, यह स्पष्ट है । समयानुसार उनके भीतर सर्वांगव्यापी शाश्वत मन प्रकट हुआ । तत्पश्चात् वह मन उस महाविराट् पुरुष के सभी रोमकूपों में प्रविष्ट हो गया। हे मुने! बहुत समय के पश्चात् उन्हीं रोमकूपों से पृथ्वी प्रकट हुई ॥ १२-१३ ॥ उस महाविराट् के जितने रोमकूप हैं, उन सबमें सर्वदा स्थित रहने वाली यह पृथ्वी एक एक करके जलसहित बार – बार प्रकट होती और छिपती रहती है ॥ १४ ॥ यह पृथ्वी सृष्टि के समय प्रकट होकर जल के ऊपर स्थित हो जाती है और प्रलय के समय यह अदृश्य होकर जलके भीतर स्थित रहती है ॥ १५ ॥ प्रत्येक ब्रह्माण्ड में यह पृथ्वी पर्वतों तथा वनों से सम्पन्न रहती है, सात समुद्रों से घिरी रहती है और सात द्वीपों से युक्त रहती है ॥ १६ ॥ यह वसुधा हिमालय तथा मेरु आदि पर्वतों, सूर्य तथा चन्द्र आदि ग्रहों से संयुक्त रहती है । महाविराट् की आज्ञा के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवता इस पर प्रकट होते हैं तथा समस्त प्राणी इसपर निवास करते हैं ॥ १७ ॥ यह पृथ्वी पुण्यतीर्थों तथा पवित्र भारतदेश से सम्पन्न है। यह स्वर्णमयी भूमि से सुशोभित है तथा सात स्वर्गों से समन्वित है । इस पृथ्वी के नीचे सात पाताल हैं, ऊपर ब्रह्मलोक है तथा ब्रह्मलोक से भी ऊपर ध्रुवलोक है और उसमें समस्त विश्व स्थित है । इस प्रकार सम्पूर्ण लोक पृथ्वी पर ही निर्मित हैं । ये सभी विश्व विनाशशील तथा कृत्रिम हैं ॥ १८–२० ॥ प्राकृत प्रलय के अवसर पर ब्रह्मा का भी निपात हो जाता है। उस समय केवल महाविराट् पुरुष विद्यमान रहते हैं; क्योंकि सृष्टि के आरम्भ में ही परब्रह्म श्रीकृष्ण ने इनका सृजन किया था ॥ २१ ॥ ये सृष्टि तथा प्रलय नित्य हैं और काष्ठा आदि अवयवोंवाले काल के स्वामी के अधीन होकर रहते हैं। सभी की अधिष्ठातृदेवी पृथ्वी भी नित्य हैं । वाराहकल्प में सभी देवता, मुनि, मनु, विप्र, गन्धर्व आदि ने उन पृथ्वी का पूजन किया था । वेदसम्मत वे पृथ्वी वराहरूपधारी भगवान् विष्णु की पत्नी के रूप में विराजमान हुईं; उनके पुत्ररूप में मंगल को तथा मंगल के पुत्ररूप में घटेश को जानना चाहिये ॥ २२-२३१/२ ॥ नारदजी बोले — देवताओं ने वाराहकल्प में किस रूप में पृथ्वी का पूजन किया था ? सभी लोग उस वाराहकल्प में सबको आश्रय प्रदान करने वाली इस वाराही साध्वी पृथ्वी की पूजा करते थे । यह पृथ्वी पंचीकरण – मार्ग से मूलप्रकृति से उत्पन्न हुई है । हे प्रभो ! नीचे तथा ऊपर के लोकों में उस पृथ्वी के पूजन के विविध प्रकार और (पृथ्वीपुत्र) मंगल के कल्याणमय जन्म तथा निवास-स्थान के विषय में भी बताइये ॥ २४–२६ ॥ श्रीनारायण बोले — [ हे नारद!] प्राचीन काल में वाराहकल्प में ब्रह्माजी के द्वारा स्तुति करने पर भगवान् श्रीहरि वराहरूप धारण करके हिरण्याक्ष को मारकर रसातल से पृथ्वी को निकाल आये ॥ २७ ॥ उन्होंने पृथ्वी को जल में इस प्रकार रख दिया, मानो सरोवर में कमलपत्र स्थित हो। वहीं पर रहकर ब्रह्माजी ने सम्पूर्ण मनोहर विश्व की रचना की ॥ २८ ॥ पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी को कामभाव से युक्त देखकर करोड़ों सूर्य के समान प्रभावाले वाराहरूपधारी सकाम भगवान् श्रीहरि ने अपना अत्यन्त मनोहर तथा रतिकला योग्य समग्र रूप बना करके उसके साथ एकान्त में दिव्य एक वर्ष तक निरन्तर विहार किया । आनन्द की अनुभूति से वह सुन्दरी मूर्च्छित हो गयी । विदग्ध पुरुष के साथ विदग्ध स्त्री का संगम अत्यन्त सुखदायक होता है। उस सुन्दरी के अंग-संश्लेष के कारण विष्णु को दिन-रात का ज्ञान भी नहीं रहा । एक वर्ष के पश्चात् चेतना आने पर भगवान् श्रीहरि उससे विलग हो गये ॥ २९–३२ ॥ तदनन्तर उन्होंने लीलापूर्वक अपना पूर्व का वराह रूप धारण कर लिया। इसके बाद साध्वी भगवती पृथ्वी का ध्यान करके धूप, दीप, नैवेद्य, सिन्दूर, चन्दन, वस्त्र, पुष्प और बलि आदि से उनकी पूजा करके श्रीहरि उनसे कहने लगे ॥ ३३-३४ ॥ श्रीभगवान् बोले — हे शुभे ! तुम सबको आश्रय देने वाली बनो। तुम मुनि, मनु, देवता, सिद्ध और दानव आदि–सभी के द्वारा भलीभाँति पूजित होकर सुख प्राप्त करोगी ॥ ३५ ॥ गृहारम्भ, अम्बुवाचीयोग 1 को छोड़कर अन्य दिनों में, गृहप्रवेश, बावली तथा सरोवर के निर्माण के समय पर, गृह तथा कृषि-कार्य के अवसर पर देवता आदि सभी लोग मेरे वर के प्रभाव से तुम्हारी पूजा करेंगे और जो मूर्ख प्राणी तुम्हारी पूजा नहीं करेंगे, वे नरक में जायँगे ॥ ३६-३७ ॥ वसुधा बोली — हे भगवन्! आपकी आज्ञा के अनुसार मैं वाराहीरूप से समस्त स्थावर-जंगममय विश्व का लीलापूर्वक वहन करती हूँ। किंतु हे भगवन्! आप यह सुन लीजिये कि मैं मोती, सीप, शालग्रामशिला, शिवलिंग, पार्वतीविग्रह, शंख, दीप, यन्त्र, माणिक्य, हीरा, यज्ञोपवीत, पुष्प, पुस्तक, तुलसीदल, जपमाला, पुष्पमाला, कपूर, सुवर्ण, गोरोचन, चन्दन और शालग्राम का जल — इन वस्तुओं का वहन करने में सर्वथा असमर्थ हूँ, इससे मुझे क्लेश होता है ॥ ३८–४१ ॥ श्रीभगवान् बोले — हे सुन्दरि ! जो मूर्ख तुम्हारे ऊपर (अर्थात् आसन विहीन भूमि पर ) ये वस्तुएँ रखेंगे, वे कालसूत्र नामक नरक में दिव्य सौ वर्षों तक निवास करेंगे ॥ ४२ ॥ हे नारद ! यह कहकर भगवान् चुप हो गये । उस समय पृथ्वी गर्भवती हो चुकी थीं। उसी गर्भ से तेजस्वी मंगलग्रह उत्पन्न हुए ॥ ४३ ॥ भगवान ्की आज्ञा के अनुसार वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने पृथ्वी की पूजा की और कण्वशाखा में कहे गये ध्यान तथा स्तोत्रपाठ से उनकी स्तुति की और मूलमन्त्र से नैवेद्य आदि अर्पण किया। इस प्रकार तीनों लोकों में उन पृथ्वी की पूजा तथा स्तुति होने लगी ॥ ४४-४५ ॥ नारदजी बोले — पृथ्वी का ध्यान क्या है, उनका स्तवन क्या है और उनका मूलमन्त्र क्या है, यह सब मुझे बतलाइये। समस्त पुराणों में निगूढ़ इस प्रसंग को सुनने के लिये मुझे बहुत कौतूहल हो रहा है ॥ ४६ ॥ श्रीनारायण बोले — सर्वप्रथम भगवान् वराह ने भगवती पृथ्वी की पूजा की, तत्पश्चात् ब्रह्माजी द्वारा इन पृथ्वी की पूजा की गयी। इसके बाद सभी मुनीश्वरों, मनुओं और मनुष्यों आदि ने पृथ्वी की पूजा की ॥ ४७ ॥ हे नारद! सुनिये; अब मैं पृथ्वी के ध्यान, स्तवन तथा मन्त्र के विषय में बता रहा हूँ। ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं वसुधायै स्वाहा’ — इस मन्त्र से भगवान् विष्णु ने प्राचीनकाल में इनका पूजन किया था। उनके ध्यान का स्वरूप यह है— ‘पृथ्वीदेवी श्वेतकमल के वर्ण के समान आभा से युक्त हैं, उनका मुखमण्डल शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान है, उनके सम्पूर्ण अंग चन्दन से अनुलिप्त हैं, वे रत्नमय अलंकारों से सुशोभित हैं, वे रत्नों की आधारस्वरूपा हैं, वे रत्नगर्भा हैं, वे रत्नों के आकर (खान) – से समन्वित हैं, उन्होंने अग्नि के समान विशुद्ध वस्त्र धारण कर रखे हैं, उनका मुखमण्डल मुसकान से युक्त है तथा वे सभी लोगों के द्वारा वन्दित हैं — मैं ऐसी पृथ्वीदेवी की आराधना करता हूँ।’ इस प्रकार के ध्यान से सभी लोगों के द्वारा पृथ्वी पूजित हुईं। विप्रवर! अब कण्वशाखा में प्रतिपादित इनकी स्तुति सुनिये ॥ ४८–५११/२ ॥ श्रीनारायण बोल — जल की आधारस्वरूपिणी, जलमयी तथा सबको जल प्रदान करने वाली, यज्ञवराह की भार्या तथा विजय की प्राप्ति कराने वाली हे भगवति जये ! आप मुझे विजय प्रदान कीजिये। मंगल करने वाली, मंगल की आश्रयस्वरूपिणी, मंगलमयी तथा मंगल प्रदान करने वाली हे मंगलेश्वरि ! हे भवे ! मेरे मंगल के लिये आप मुझे मंगल प्रदान कीजिये । सबको आश्रय देने वाली, सब कुछ जानने वाली, सर्वशक्तिमयी तथा सभी लोगों के मनोरथ पूर्ण करने वाली हे देवि! हे भवे! मेरा सम्पूर्ण अभिलषित मुझे प्रदान कीजिये । पुण्यमय विग्रहवाली, पुण्यों की बीज-स्वरूपा, सनातनी, पुण्य को आश्रय देने वाली, पुण्यवानों की शरणस्थली तथा पुण्य प्रदान करने वाली हे भवे ! मुझे पुण्य प्रदान कीजिये। सभी फसलों की आलयस्वरूपिणी, सभी प्रकार की फसलों से सम्पन्न, सभी फसलें प्रदान करने वाली, (समय पर) सभी फसलों को अपने में विलीन कर लेने वाली तथा सभी फसलों की आत्मस्वरूपा हे भवे! मुझे फसलें प्रदान कीजिये । राजाओं की सर्वस्व, राजाओं से सम्मान पाने वाली, राजाओं को सुखी करने वाली तथा भूमि प्रदान करने वाली हे भूमे ! मुझे भूमि प्रदान कीजिये ॥ ५२-५७१/२ ॥ जो मनुष्य प्रातः काल उठकर इस महान् पुण्यप्रद स्तोत्र का पाठ करता है, वह करोड़ों जन्मों तक बलवान् तथा राजाओं का अधीश्वर होता है । इसके पढ़ने से मनुष्य भूमिदान करने से होने वाला पुण्य प्राप्त कर लेते हैं। हे मुने! इस स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य दान में दी गयी भूमि का हरण करने, अम्बुवाची दिनों में भूमि-सम्बन्धी कार्य करने, बिना आज्ञा के दूसरे के कुएँ में कूप खनन करने, दूसरे की भूमि का हरण करने, पृथ्वीप र वीर्यत्याग करने तथा भूमि पर दीपक आदि रखने से होने वाले पाप से निश्चितरूप से मुक्त हो जाता है और साथ ही वह एक सौ अश्वमेधयज्ञ करने से होने वाला पुण्य भी प्राप्त कर लेता है; इसमें कोई सन्देह नहीं है। भूमिदेवी का यह महान् स्तोत्र सभी प्रकार का कल्याण करने वाला है ॥ ५८-६३ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत नौवें स्कन्ध का ‘भूमिस्तोत्रवर्णन’ नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥ 1. सौरमान से आर्द्रा नक्षत्र के प्रथम चरण में पृथ्वी ऋतुमती रहती है; इतने समय का नाम अम्बुवाची है । Content is available only for registered users. 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