श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-दशम स्कन्धः-अध्याय-01
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-दशम स्कन्धः-प्रथमोऽध्यायः
पहला अध्याय
स्वायम्भुव मनु की उत्पत्ति, उनके द्वारा भगवती की आराधना
मनुकृतं देवीस्तवनम्

नारदजी बोले — हे नारायण ! हे धरा के आधार ! हे सर्वपालनकारण! आपने पापों का नाश करने वाले देवीचरित्र का वर्णन कर दिया ॥ १ ॥ सभी मन्वन्तरों में वे देवी जो-जो स्वरूप धारण करती हैं तथा जिस-जिस स्वरूप से उन माहेश्वरी का प्रादुर्भाव हुआ है भगवती की महिमा से युक्त उन समस्त प्रसंगों का अब आप हमसे सम्यक् वर्णन करें ॥ २-३ ॥ जिस प्रकार से तथा जिस-जिस मन्त्र अथवा स्तोत्र से भगवती का पूजन तथा स्तवन किया गया है और वे भक्तवत्सला देवी भक्तों का जिस प्रकार मनोरथ पूर्ण करती हैं, सुनने की अभिलाषा वाले हम लोगों से आप देवी के उस उत्तम चरित्र का वर्णन कीजिये, जिससे महान् सुख प्राप्त होता है ॥ ३-४१/२

श्रीनारायण बोले — हे महर्षे ! भक्तों के हृदय में भक्ति उत्पन्न करने वाले, महान् सम्पदा प्रदान करने वाले तथा पापों का शमन करने वाले देवी-चरित्र का अब आप श्रवण कीजिये ॥ ५१/२

सर्वप्रथम जगत् के मूल कारण महान् तेजस्वी लोकपितामह ब्रह्मा चक्रधारी देवदेव भगवान् विष्णु के नाभिकमल से प्रादुर्भूत हुए ॥ ६१/२

हे महामते ! विष्णु के नाभिकमल से प्रकट होकर उन चतुर्मुख ब्रह्मा ने स्वायम्भुव नामक मनु को अपने मन से उत्पन्न किया। इस प्रकार वे मनु परमेष्ठी ब्रह्मा के मानस पुत्र कहलाये । पुनः ब्रह्माजी ने धर्मस्वरूपिणी शतरूपा को उत्पन्न किया और उन्हें मनु की पत्नी के रूप में प्रतिष्ठित किया । तत्पश्चात् वे मनु क्षीरसागर के परम पवित्र तट पर महान् सौभाग्य प्रदान करने वाली जगदम्बा की आराधना करने लगे ॥ ७–९१/२

वहाँ पर देवी की मृण्मयी मूर्ति बनाकर पृथ्वीपति मनु एकान्त में उन भगवती के वाग्भव-मन्त्र का जप करते हुए उनकी उपासना में तत्पर हो गये ॥ १०१/२

नियमों तथा व्रतों का पालन करते हुए निराहार रहकर श्वास को निरन्तर नियन्त्रित करके वे सौ वर्षों तक पृथ्वी पर एक पैर से खड़े रहे । महात्मा मनु ने काम तथा क्रोध पर विजय प्राप्त कर ली। अपने हृदय में भगवती के चरणों का चिन्तन करते हुए वे किसी स्थावर की भाँति हो गये ॥ ११-१२१/२

उनकी उस तपस्या से जगन्मयी भगवती प्रकट हो गयीं और उन्होंने यह दिव्य वचन कहा ‘ हे भूपाल ! तुम वर माँगो’ ॥ १३१/२

तब देवी का आनन्ददायक वचन सुनकर महाराज मनु देवताओं के लिये भी परम दुर्लभ अपने मनोभिलषित उन श्रेष्ठ वरों की याचना की ॥ १४१/२

मनु बोले — हे देवि ! हे विशालनयने ! हे समस्त प्राणियों के भीतर निवास करने वाली ! आपकी जय हो । हे मान्ये! हे पूज्ये ! हे जगद्धात्रि ! हे सर्वमंगलमंगले! आपके कटाक्षपातमात्र से पद्मयोनि ब्रह्मा जगत् की सृष्टि करते हैं, भगवान् विष्णु पालन करते हैं तथा रुद्र क्षणभर में संहार करते हैं, शचीपति इन्द्र आपकी ही आज्ञा से तीनों लोकों पर शासन करते हैं ॥ १५–१७ ॥ आपके ही आदेश पर यमराज दण्ड के द्वारा प्राणियों को नियन्त्रित करते हैं तथा जलचर जीवों के स्वामी वरुणदेव हम जैसे प्राणियों का पालन करते हैं । आपकी ही कृपा से कुबेर निधियों के अविनाशी अधिपति के रूप में प्रतिष्ठित हैं। अग्नि, नैर्ऋत, वायु, ईशान और शेषनाग आपके ही अंश से उत्पन्न हुए हैं और आपकी ही शक्ति से परिवर्धित हैं ॥ १८-१९१/२

फिर भी हे देवि ! यदि इस समय आप मुझे वर देना चाहती हैं तो हे शिवे ! सृष्टिकार्य में आने वाले मेरे सभी विघ्न क्षीण होकर नष्ट हो जायँ । जो भी लोग वाग्भव बीजमन्त्र के उपासक हों, उनके कार्यों की सिद्धि शीघ्र ही हो जाय । हे देवि ! जो लोग इस संवाद को पढ़ें और दूसरों को सुनायें, उनके लिये इस लोक में भोग तथा मोक्ष सुलभ हो जायँ । हे शिवे ! उन्हें पूर्वजन्मों की स्मृति बनी रहे और वे वक्तृता तथा वाणी – सौष्ठव से सम्पन्न रहें । उन्हें ज्ञान की सिद्धि हो तथा कर्मयोग की भी सिद्धि प्राप्त हो, साथ ही उनके यहाँ पुत्र-पौत्र की समृद्धि निरन्तर होती रहे — यही मेरा आपसे निवेदन है ॥ २०–२४ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत दसवें स्कन्ध का ‘मनुकृत देवीस्तवन’ नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥

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