April 4, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-द्वितीयः स्कन्धः-अध्याय-09 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-द्वितीयः स्कन्धः-नवमोऽध्यायः नौवाँ अध्याय सर्प के काटने से प्रमद्वरा की मृत्यु, रुरु द्वारा अपनी आधी आयु देकर उसे जीवित कराना, मणि-मन्त्र-औषधि द्वारा सुरक्षित राजा परीक्षित् का सात तलवाले भवन में निवास करना परीक्षिद्राज्ञो गुप्तगृहे वासवर्णनम् परीक्षित् बोले — [हे सचिववृन्द!] इस प्रकार कामासक्त होकर रुरुमुनि अपने आश्रम में सो गये, तब उनके पिता ने उन्हें दुःखी देखकर पूछा — हे रुरु! तुम इतने उदास क्यों हो ?॥ १ ॥ कामातुर रुरु ने अपने पिता से कहा — महर्षि स्थूलकेश के आश्रम में प्रमद्वरा नाम की एक कन्या है; मैं चाहता हूँ कि वह मेरी पत्नी बन जाय ॥ २ ॥ उन प्रमति ने महामुनि स्थूलकेश के पास शीघ्र जाकर उन्हें प्रसन्न तथा अपने अनुकूल करके उस सुन्दर कन्या की याचना की ॥ ३ ॥ महामुनि स्थूलकेश ने यह वचन दे दिया कि किसी अच्छे मुहूर्त में कन्यादान दूँगा। अब उस वन में वे दोनों विवाह की सामग्री का प्रबन्ध करने लगे। इस प्रकार उस तपोवन में समीप में ही रहकर प्रमति और स्थूलकेश दोनों महात्मा विवाहोत्सव की तैयारी करने लगे ॥ ४-५ ॥ उसी अवसर पर वह कन्या अपने घर के आँगन में खेल रही थी, तभी एक सोये हुए सर्प से उस सुनयनी का पैर छू गया। [स्पर्श होते ही] सर्प ने उसे डँस लिया और वह सुन्दरी कन्या मर गयी । तब मृत्यु को प्राप्त हुई प्रमद्वरा को देखकर वहाँ कोलाहल मच गया ॥ ६-७ ॥ सभी मुनि जुट गये और शोक से ग्रस्त होकर रोने लगे। पृथ्वी पर प्राणहीन होकर पड़ी हुई अत्यन्त तेज से देदीप्यमान उस कन्या को देखकर उसके पिता स्थूलकेश अत्यन्त दुःखित होकर रुदन करने लगे। उस समय करुण क्रन्दन सुनकर रुरु भी उसे देखने के लिये आये। उन्होंने उस मृत पड़ी सुन्दरी को सजीव- जैसी देखा। स्थूलकेश तथा अन्य श्रेष्ठ मुनियों को रुदन करते देखकर रुरुमुनि उस स्थान से बाहर आ करके विरहाकुल होकर रोने लगे ॥ ८-१०१/२ ॥ [वे कहने लगे —] अहो! प्रारब्ध ने ही मेरे सुख के विनाश के लिये ही यह अत्यन्त विचित्र सर्प भेजा था। यह निश्चित ही मेरे दुःख का कारण है। अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ ? मेरी प्राणप्रिया तो मर गयी। अब मैं अपनी इस प्रिया से विलग होकर जीना नहीं चाहता। अभी तक मैंने उस सुन्दरी का आलिंगन आदि कोई सांसारिक सुख भी नहीं प्राप्त किया था। में ऐसा अभागा हुँ कि उसका पाणिग्रहण नहीं कर सका और न तो उसके साथ अग्नि में लाजाहोम ही कर पाया। मेरे इस मनुष्य-जीवन को धिक्कार है। अब तो मेरे प्राण निकल जायँ तो अच्छा है, जब दुःखित मनुष्य को चाहने पर भी मृत्यु नहीं मिलती, तब इस संसार में वांछित उत्तम सुख कैसे मिल सकता है ? अब मैं या तो कहीं किसी भयानक तालाब में डूब जाऊँ, अग्नि में कूद पड़, विष खा लूँ अथवा गले में फाँसी लगाकर प्राण त्याग दूँ ॥ ११-१६ ॥ इस प्रकार विलाप करके रुरु अपने मन में विचारकर उस नदी के तट पर स्थित रहते हुए उपाय सोचने लगे। प्राण त्यागने से मुझे क्या लाभ होगा? आत्महत्या का फल तो अत्यन्त दुर्निवार्य होता है। [मेरी मृत्यु सुनकर] पिताजी दुःखी होंगे, माताजी को भी महान् कष्ट होगा। हाँ, हो सकता है कि मुझे मरा हुआ देखकर प्रारब्ध सन्तुष्ट हो जाय? मेरे मर जाने पर मेरे सभी शत्रु भी प्रसन्न होंगे, इसमें सन्देह नहीं है, किंतु इससे परलोक में मेरी प्रिया का क्या उपकार होगा? इस प्रकार विरह से सन्तप्त होकर आत्महत्या करके मेरे मर जाने पर भी परलोक में मुझ आत्मघाती को मेरी वह प्रिया नहीं मिलेगी। इसलिये मेरे मरने में बहुत दोष हैं और न मरने पर मुझे कोई दोष नहीं होगा ॥ १७-२११/२ ॥ ऐसा सोचकर रुरु स्नान तथा आचमन करके पवित्र होकर वहीं पर बैठ गये। इसके बाद उन मुनि ने हाथ में जल लेकर यह वचन कहा — यदि मेरे द्वारा देवाराधन आदि कुछ भी पुण्य कर्म सम्पादित किया गया हो, यदि मैने श्रद्धापूर्वक गुरुओं की पूजा की हो; हवन, जप एवं तप किया हो, समस्त वेदों का अध्ययन किया हो, गायत्री की उपासना की हो और सूर्य की आराधना की हो तो उस पुण्य के प्रभाव से मेरी प्रिया जीवित हो जाय। यदि मेरी प्रिया जीवित नहीं होगी तो मैं प्राण त्याग दूँगा। ऐसा कहकर देवताओं का ध्यान करके उन्होंने वह जल जमीन पर छोड़ दिया ॥ २२-२५१/२ ॥ राजा बोले — तदनन्तर इस प्रकार अपनी भार्या के लिये विलाप कर रहे उन दुःखित रुरु के पास एक देवदूत आकर यह वाक्य बोला ॥ २६१/२ ॥ देवदूत बोला — हे ब्रह्मन्! ऐसा साहस मत कीजिये। आपकी मरी हुई प्रियतमा भला कैसे जीवित हो सकेगी? गन्धर्व और अप्सरा की इस सुन्दर कन्या क आयु समाप्त हो चुकी थी, जिससे यह अविवाहिता ही मर गयी; अतः अब आप किसी अन्य शुभ अंगों वाली कन्या का वरण कर लीजिये। हे हतबुद्धि ! आप क्यों रो रहे हैं ? इसके साथ आपका कैसा प्रेम है ?॥ २७-२८१/२ ॥ रुरु बोले — हे देवदूत! मैं किसी अन्य सुन्दरी का वरण नहीं करूँगा। यदि यह जीवित हो जाती है तो ठीक है, अन्यथा मैं इसी समय अपने प्राण त्याग दूँगा ॥ २९१/२ ॥ राजा बोले — उन मुनि का यह हठ देखकर देवदूत ने प्रसन्न होकर तथ्यपूर्ण, सत्य तथा मनोहर वचन कहा — हे विप्रेन्द्र! देवताओं के द्वारा इसका पूर्वविहित उपाय मुझसे सुनिये। आप अपनी आयु का आधा भाग देकर अपनी प्रमद्वरा को शीघ्र ही जीवित कर लीजिये ॥ ३०-३१ ॥ रुरु बोल — मैं निःसन्देह अपनी आयु का आधा भाग इस कन्या को दे रहा हूँ। अब मेरी प्रियतमा के वापस आ जायँ और यह उठकर बैठ जाय। उसी समय विश्वावसु अपनी पुत्री प्रमद्वरा की मृत्यु जान करके स्वर्गलोक से विमान द्वारा शीघ्र ही वहाँ आ गये। तत्पश्चात् गन्धर्वराज विश्वावसु तथा उस श्रेष्ठ देवदूत ने धर्मराज के पास पहुँचकर यह वचन कहा — हे धर्मराज! रुरु की पत्नी तथा विश्वावसु की पुत्री इस प्रमद्वरा नामक कन्या को सर्पदंश के कारण इस समय मृत्यु हो गयी है। हे सूर्यतनय! इसके वियोग में मरण के लिये उद्यत मुनि रुरु की आधी आयु तथा उनकी तपस्या के प्रभाव से यह कोमलांगी जीवित हो जाय ॥ ३२-३६१/२ ॥ धर्मराज ने कहा — हे देवदूत! यदि तुम ऐसा चाहते हो तो उसकी आधी आयु से विश्वावसु की यह कन्या जीवित होकर उठ जाय और तुम जाकर इसे रुरु को समर्पित कर दो ॥ ३७१/२ ॥ राजा बोले — धर्मराज के ऐसा कहने पर देवदूत ने जाकर प्रमद्वरा को जीवित करके शीघ्र ही रुरु को समर्पित कर दिया और तत्पश्चात् रुरु ने किसी शुभ दिन उसके साथ विधानपूर्वक विवाह कर लिया ॥ ३८-३९ ॥ इस प्रकार उपाय का आश्रय लेकर मृत प्रमद्वरा को भी जीवित कर लिया गया था। अतः मणि, मन्त्र तथा औषधियों के विधिवत् प्रयोग द्वारा प्राणरक्षा के लिये शास्त्र-सम्मत उपाय अवश्य किया जाना चाहिये ॥ ४०१/२ ॥ मन्त्रियों से यह कहकर उत्तम रक्षकों की व्यवस्था करके एक सात तलवाला उत्तम राजभवन बनवाकर उसी क्षण उत्तरापुत्र परीक्षित् अपने मन्त्रियों के साथ उस पर चढ़ गये ॥ ४१-४२ ॥ उस भवन की सम्यक् सुरक्षा के लिये मणि- मन्त्र-धारी वीरों को नियुक्त किया गया और इसके बाद राजा ने गौरमुखमुनि को [गविजात के पास उन्हें] प्रसन्न करने के उद्देश्य से भेजा और कहलाया कि मुझ सेवक का अपराध वे बार-बार क्षमा करें। तत्पश्चात् राजा ने मन्त्र-प्रयोग में निपुण ब्राह्मणों को रक्षा-कार्य के निमित्त चारों ओर नियुक्त कर दिया ॥ ४३-४४ ॥ एक मन्त्रिपुत्र वहाँ नियुक्त किया गया, जिसने महल के चारों ओर हाथियों का घेरा स्थापित कराया ताकि विशेषरूप से रक्षित उस महल पर कोई चढ़ न सके ॥ ४५ ॥ महल के भीतर वायु का भी संचरण नहीं हो पाता था; क्योंकि उसका प्रवेश सर्वथा वर्जित था। राजा वहीं स्थित रहकर भोजनादि करने लगे। वहीं पर रहते हुए स्नान एवं सन्ध्यादि कार्यों से निवृत्त होकर राजा मन्त्रियों से मन्त्रणा करते तथा शाप के दिन गिनते हुए समस्त राजकार्यों को संचालित करते थे ॥ ४६-४७१/२ ॥ इसी बीच किसी कश्यप नामक मन्त्र-विशेषज्ञ ब्राह्मण ने सुना कि राजा परीक्षित् को [सर्प द्वारा काटे जाने का] शाप प्राप्त हुआ है। उस धनाभिलाषी ब्राह्मणश्रेष्ठ कश्यप ने विचार किया कि मुनि के द्वारा शापित राजा इस समय जहाँ रह रहे हैं, मैं वहीं पर जाऊँगा। ऐसा निश्चय करके मन्त्रज्ञ, विद्वान् तथा धनाभिलाषी वह कश्यप नामक मुनिश्रेष्ठ विप्र अपने घर से निकलकर रास्ते पर चल पड़ा ॥ ४८-५१ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत द्वितीय स्कन्ध का ‘परीक्षिद्राज्ञो गुप्तगृहे वासवर्णनं’ नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥ Content is available only for registered users. 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