April 4, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-द्वितीयः स्कन्धः-अध्याय-10 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-द्वितीयः स्कन्धः-दशमोऽध्यायः दसवाँ अध्याय महाराज परीक्षित् को डँसने के लिये तक्षक का प्रस्थान, मार्ग में मन्त्रवेत्ता कश्यप से भेंट, तक्षक का एक वटवृक्ष को डँसकर भस्म कर देना और कश्यप का उसे पुनः हरा-भरा कर देना, तक्षक द्वारा धन देकर कश्यप को वापस कर देना, सर्पदंश से राजा परीक्षित् की मृत्यु परीक्षिन्मरणम् सूतजी बोले — [हे मुनिवृन्द!] उसी दिन तक्षक नामक नाग नृपश्रेष्ठ परीक्षित् को शापित जानकर एक उत्तम मनुष्य का रूप धारण करके अपने घर से शीघ्र निकल पड़ा। वृद्ध ब्राह्मण के वेष में रास्ते पर चलते हुए उस तक्षक ने महाराज परीक्षित् के यहाँ जाते हुए कश्यप को देखा ॥ १-२ ॥ उस नाग ने उन मन्त्रवेत्ता ब्राह्मण से पूछा — आप इतनी शीघ्र गति से कहाँ चले जा रहे हैं और कौन- सा कार्य करने की आपकी इच्छा है ?॥ ३ ॥ कश्यप ने कहा — महाराज परीक्षित् को तक्षक नाग डँसने वाला है । अतः मैं उन्हें विषमुक्त करने के लिये शीघ्रतापूर्वक वहीं जा रहा हूँ ॥ ४ ॥ हे विप्रेन्द्र! मेरे पास प्रबल विषनाशक मन्त्र है, अतएव यदि उनकी आयु शेष होगी तो मैं उन्हें जीवित कर दूँगा ॥ ५ ॥ तक्षक ने कहा — हे ब्रह्मन्! मैं ही वह तक्षकनाग हुँ और मैं ही महाराज परीक्षित् को काटूँगा । मेरे काट लेने पर आप चिकित्सा करने में समर्थ नहीं हो सकेंगे; अतएव आप लौट जाइये ॥ ६ ॥ कश्यप ने कहा — हे सर्प ! ब्राह्मण के द्वारा शापित किये गये राजा को आपके काटने के उपरान्त मैं उन्हें अपने मन्त्रबल से निःसन्देह जीवित कर दूँगा ॥ ७ ॥ तक्षक ने कहा — हे विप्र! हे अनघ! यदि आप मेरे काटे हुए नृपश्रेष्ठ परीक्षित् को जीवित करने के लिये जा रहे हैं तो आप अपनी मन्त्र-शक्ति का प्रभाव दिखाइये। मैं इसी समय इस वटवृक्ष को अपने विषैले दाँतों से डँसता हूँ ॥ ८१/२ ॥ कश्यप ने कहा — हे सर्पश्रेष्ठ! आप इसे काट लें अथवा इसे जलाकर भस्म कर दें तो भी मैं इसे पुनः जीवित कर दूँगा ॥ ९ ॥ सूतजी बोले — नागराज तक्षक ने उस वृक्ष को डँस लिया और उसे जलाकर भस्म कर दिया। तब उसने कश्यप से कहा — हे द्विजश्रेष्ठ! अब आप इसे पुनः जीवित कीजिये’ ॥ १० ॥ तक्षकनाग की विषाग्नि से भस्म हुए वृक्ष की सम्पूर्ण भस्म को एकत्र करके कश्यप ने यह बात कही — हे महाविषधर नागराज! अब आप मेरे मन्त्र का प्रभाव देखिये । मैं आपके देखते-देखते इस वटवृक्ष को जीवन प्रदान करता हूँ ॥ ११-१२ ॥ ऐसा कहकर हाथ में जल लेकर मन्त्रविद् कश्यप ने उस जल को अभिमन्त्रित किया और उसे भस्मराशि पर छिड़क दिया। जल के पड़ते ही वह वटवृक्ष पुनः पहले की भाँति सुन्दर हो गया। उस वृक्ष को इस प्रकार जीवित देखकर तक्षक को बड़ा आश्चर्य हुआ ॥ १३-१४ ॥ उस नागराज ने कश्यप से कहा — हे विप्र! आप इतना परिश्रम किसलिये करेंगे? आपकी वह कामना मैं ही पूर्ण कर दूँगा। कहिये, आप क्या चाहते हैं ?॥ १५ ॥ कश्यप ने कहा — हे पन्नग! मैं धन का अभिलाषी हुँ; नृपश्रेष्ठ परीक्षित् को शापित जानकर अपनी मन्त्रविद्या से उनका उपकार करने के लिये मैं अपने घर से निकला हुआ हुँ ॥ १६ ॥ तक्षक ने कहा — हे विप्रवर | राजा से जितना धन आप चाहते हैं, उतना धन मुझसे अभी ले लें और अपने घर लौट जाये, जिससे मैं अपने कृत्य में सफल हो सकूँ ॥ १७ ॥ सूतजी बोले — तक्षक की यह बात सुनकर परमार्थवेत्ता कश्यपजी मन में बार-बार सोचने लगे कि अब मुझे क्या करना चाहिये? यदि मैं धन लेकर अपने घर जाता हूँ तो धनलोलुप होने के कारण संसार में मेरी कीर्ति नहीं होगी। यदि राजा जीवित हो जाते हैं तो मेरी अचल कीर्ति होगी तथा धन-प्राप्ति के साथ-साथ पुण्य भी प्राप्त होगा ॥ १८-२० ॥ यश ही रक्षणीय है और बिना यश के धन को धिक्कार है; क्योंकि प्राचीन काल में महाराज रघु ने कीर्ति के लिये अपना सब कुछ ब्राह्मण को दे दिया था। सत्यवादी हरिश्चन्द्र तथा दानी कर्ण ने भी केवल कीर्ति के लिये बहुत कुछ किया था। अतः विष की अग्नि से जलते हुए राजा परीक्षित् की उपेक्षा मैं कैसे करूँ ?॥ २१-२२ ॥ यदि मैं महाराज को जिला दूँ तो सब लोगों को अत्यन्त सुख मिलेगा और यदि राजा मर गये तो अराजकता के कारण सारी प्रजा नष्ट हो जायगी, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २३ ॥ राजा के मृत हो जाने पर मुझे प्रजानाश का पाप लगेगा तथा संसार में धन-लोभ के कारण मेरी अपकीर्ति भी होगी ॥ २४ ॥ मन में ऐसा विचार करके परम बुद्धिमान् कश्यप ने ध्यान करके जाना कि महाराज परीक्षित् की आयु अब समाप्त हो चुकी है ॥ २५ ॥ इस प्रकार ध्यान-दूष्टि से धर्मात्मा कश्यप राजा की मृत्यु निकट जानकर तक्षक से धन लेकर अपने घर लौट गये ॥ २६ ॥ कश्यप को लौटाकर वह नाग सातवें दिन राजा को डँसने की इच्छा से शीघ्र हस्तिनापुर चला गया ॥ २७ ॥ नगर में पहुँचते ही उसने सुना कि मणि, मन्त्र तथा औषधियों से भली-भाँति सावधानीपूर्वक सुरक्षित होकर राजा परीक्षित् अपने महल में रह रहे हैं ॥ २८ ॥ [यह जानकर] ब्राह्मण के शाप से भयभीत सर्पराज तक्षक को बड़ी चिन्ता हुई। वह सोचने लगा कि अब मैं किस उपाय से इस राजभवन में प्रवेश करूँ ? और इस पापी, मूढ, विप्र को पीड़ित करनेवाले तथा मुनि के शाप से आहत इस दुष्ट राजा को मैं कैसे छलूँ ?॥ २९-३० ॥ पाण्डव वंशमें ऐसा कोई नहीं हुआ, जिसने इस प्रकार किसी तपस्वी ब्राह्मण के गले में मृत सर्प डाल दिया हो ॥ ३१ ॥ ऐसा निन्दित कर्म करके कालचक्र को जानते हुए भी यह राजा भवन में रक्षकों को नियुक्ति करके राज-भवन में छिपकर मृत्यु की वंचना कर रहा है और निश्चिन्त होकर पड़ा है। विप्र के शापानुसार मैं उस राजा को कैसे डसूँ?॥ ३२-३३ ॥ यह मन्दबुद्धि इतना भी नहीं जानता कि मृत्यु तो अनिवार्य है? इसी कारण यह रक्षकों की नियुक्ति करके स्वयं भवन पर चढ़कर आनन्द ले रहा है ॥ ३४ ॥ यदि अमित तेजवाले दैव ने मृत्यु निश्चित कर दी है तो करोड़ों प्रकार के प्रयत्नों से भी उसे कैसे टाला जा सकता है ?॥ ३५ ॥ पाण्डव वंश का उत्तराधिकारी यह राजा परीक्षित् अपने को मृत्यु के मुख में गया हुआ जानते हुए भी जीवित रहने की अभिलाषा रखकर सुरक्षित स्थान में निश्चिन्त होकर पड़ा हुआ है ॥ ३६ ॥ यह यदि चाहता तो अनेक प्रकार के दान- पुण्य-द्वारा अपनी आयु बढ़ा सकता था; क्योंकि धर्माचरण से व्याधि नष्ट होती है और उससे आयु स्थिर होती है ॥ ३७ ॥ यदि ऐसा सम्भव नहीं था तो मृत्यु के समय सम्पन्न की जाने वाली स्नान, दान आदि क्रियाएँ करके मृत्यु के अनन्तर स्वर्गयात्रा कर सकता था, अन्यथा इसे नरक जाना होगा ॥ ३८ ॥ मुनि को पीड़ा पहुँचाने का पाप इस राजा को था ही और ब्राह्मण का घोर शाप अलग से है। अतः अब इसकी मृत्यु सन्निकट है ॥ ३९ ॥ इस समय ऐसा कोई ब्राह्मण भी इसके पास नहीं है, जो इसे यह बता सके कि विधाता के द्वारा निर्धारित मृत्यु सर्वथा अनिवार्य है ॥ ४० ॥ ऐसा विचारकर तक्षकनाग ने अपने निकटवर्ती श्रेष्ठ नागों को तपस्वी ब्राह्मणों का वेष धारण कराकर राजा के पास भेजा। वे राजा को देने के लिये फल-मूल आदि लेकर तैयार हो गये और तक्षकनाग भी एक छोटे-से कीट के रूप मैं फल के बीच में छिप गया ॥ ४१-४२ ॥ तब वे नाग फल आदि लेकर शीघ्र ही निकल पड़े और राजभवन में पहुँचकर महल के पास खड़े हो गये ॥ ४३ ॥ इस प्रकार तपस्वियों को खड़े देखकर रक्षकों ने उनसे पूछा कि आप लोगों की क्या इच्छा है? तब उन्होंने कहा — हमलोग महाराज को देखने के लिये तपोवन से आये हैं ॥ ४४ ॥ पाण्डव कुल के सूर्य, शुभदर्शन तथा पराक्रमी अभिमन्यु-पुत्र परीक्षित् को अथर्ववेदोक्त मन्त्रों से आशीर्वाद देने हेतु हम लोग यहाँ आये हैं ॥ ४५ ॥ आप जाकर महाराज से कहें कि कुछ मुनिजन उनसे मिलने आये हैं और वे महाराज का मन्त्राभिषेक करके उन्हें मधुर फल देकर लौट जायेंगे ॥ ४६ ॥ भरतवंशी राजाओं के कुल में कभी भी द्वाररक्षक नहीं देखे गये। ऐसा भी कहीं सुना नहीं गया कि तपस्वियों को राजा का दर्शन न मिले। जहाँ महाराज परीक्षित् विराजमान हैं, वहाँ हमलोग जायँगे और उन्हें अपने आशीर्वाद से दीर्घायुष्य बनाकर आज्ञा लेकर लौट जायँगे ॥ ४७-४८ ॥ सूतजी बोले — उन तपस्वियों का वचन सुनकर रक्षकों ने उन्हें ब्राह्मण समझकर महाराज का आदेश सुनाते हुए कहा — हे विप्रो! हमारे विचार में आज आप लोगों को राजा का दर्शन नहीं हो सकेगा। अतः आप समस्त तपस्वीजन राजभवन में कल पधारें ॥ ४९-५० ॥ हे मुनिश्रेष्ठो ! विप्र शाप से भयभीत होकर राजा ने अपने महल में ब्राह्मणों का प्रवेश वर्जित कर रखा है; इसमें संशय नहीं है ॥ ५१ ॥ तब ब्राह्मणों ने उनसे कहा — हम लोगों की ओर से ये फल-मूल तथा जल आप रक्षकगण राजा को दे दें और हम लोगों का आशीर्वाद पहुँचा दें ॥ ५२ ॥ उन्होंने राजा के पास जाकर तपस्वियों के आगमन की बात बता दी। इस पर राजा ने आज्ञा दी कि वे लोग फल-मूल आदि जो कुछ दे रहे हैं, उन्हें यहाँ लाओ और उन तपस्वियों के आने का कारण पूछ लो और उन्हें पुनः कल प्रातः आने को कह दो। साथ ही मेरी ओर से उन्हें प्रणाम कहकर यह भी कह देना कि आज मेरा मिलना सम्भव नहीं है ॥ ५३-५४ ॥ उन द्वारपालों ने तपस्वियोंके पास जाकर उनके दिये हुए फल-मूल आदि लाकर आदरपूर्वक राजाको अर्पित कर दिये ॥ ५५ ॥ उन विप्र वेष में आये नागों के चले जाने पर महाराज ने फलों को लेकर मन्त्रियों से कहा — हे सचिवो! आपलोग भी इन फलों का सम्यक् सेवन कीजिये । मैं तो तपस्वियों द्वारा अर्पित यही एक बड़ा फल खाऊँगा ॥ ५६-५७ ॥ ऐसा कहकर उत्तरासुत राजा परीक्षित् ने सब फल अपने सुहृद् सचिवोंमें बाँट दिये और एक सुन्दर पका फल हाथमें लेकर उसे स्वयं विदीर्ण किया ॥ ५८ ॥ जिस फल को राजा ने चीरा, उसमें ताम्र वर्णवाला तथा काले नेत्रवाला एक छोटा-सा कीट राजा को दिखायी दिया । उसे देखकर राजा ने अपने आश्चर्यचकित मन्त्रियों से कहा — सूर्य अस्त हो रहे हैं, अतः अब मुझे विष का भय नहीं है। मैं ब्राह्मण के उस शाप को अंगीकार करता हूँ कि यह कीट मुझे काट ले। ऐसा कहकर महाराज परीक्षित् ने उसे अपने गले पर रख लिया। सूर्य के अस्त होते ही गले पर स्थित वह कीट साक्षात् कालस्वरूप भयानक तक्षक के रूप में परिणत हो गया ॥ ५९-६२ ॥ उस नाग ने तत्काल राजा को लपेट लिया तथा उन्हें डँस लिया। यह देखते ही सभी मन्त्री आश्चर्य में पड़ गये और अत्यधिक दुःखित होकर विलाप करने लगे ॥ ६३ ॥ भयंकर रूपवाले उस सर्प को देखकर सभी सचिवगण भयभीत होकर वहाँ से भागने लगे और सभी रक्षकगण चिल्लाने लगे। इस प्रकार वहाँ महान् हाहाकार मच गया ॥ ६४ ॥ उस सर्प के शरीर से बद्ध हो जाने के कारण राजा का महान् बल प्रभावहीन हो गया, जिससे वे उत्तरापुत्र परीक्षित् कुछ भी बोल पाने तथा हिल-डुल सकने में असमर्थ हो गये ॥ ६५ ॥ तक्षक के मुख से विषजनित भयंकर आग की ज्चालाएँ उठने लगीं। उस भीषण ज्चाला ने क्षणभर में राजा को जला दिया और शीघ्र ही उन्हें निष्प्राण कर दिया ॥ ६६ ॥ इस प्रकार क्षणमात्र में ही राजा का प्राण हरकर वह तक्षकनाग आकाश में चला गया। वहाँ लोगों ने संसार को भस्मसात् कर देने की सामर्थ्य वाले उस तक्षक को देखा ॥ ६७ ॥ वे राजा परीक्षित् प्राणहीन होकर जले हुए वृक्ष की भाँति गिर पड़े और राजा को मृत देखकर सभी लोग विलाप करने लगे ॥ ६८ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत द्वितीय स्कन्ध का ‘परीक्षिन्मरणं’ नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥ Content is available only for registered users. 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