April 7, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-तृतीयः स्कन्धः-अध्याय-04 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-तृतीयः स्कन्धः-चतुर्थोऽध्यायः चौथा अध्याय भगवती के चरणनख में त्रिदेवों को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का दर्शन होना, भगवान् विष्णु द्वारा देवी की स्तुति करना विष्णुना कृतं देवीस्तोत्रम् ब्रह्माजी बोले — हे नारद! ऐसा कहकर जनार्दन भगवान् विष्णु ने पुनः कहा — हम लोग बार-बार प्रणाम करते हुए उनके पास चलें । वे वरदायिनी महामाया हमें अवश्य वरदान देंगी। अतः निर्भय होकर हमें उनके चरणों के निकट चलकर उनकी स्तुति करनी चाहिये। यदि उनके द्वारपाल हमें वहाँ रोकेंगे तो हमलोग ध्यानपूर्वक वहीं बैठकर देवी की स्तुति करने लगेंगे ॥ १-३ ॥ ब्रह्माजी बोले — भगवान् विष्णु के ऐसा कहने पर मैं तथा शिव – हम दोनों प्रसन्नता से गद्गद होकर शीघ्र उनके निकट जाने को उत्सुक हो गये । विष्णु से ‘ठीक है’ – ऐसा कहकर हम तीनों शीघ्रतापूर्वक विमान से उतरकर मन-ही-मन अनेक तर्क-वितर्क करते हुए भगवती के द्वार पर ज्यों ही पहुँचे, त्यों ही द्वार पर स्थित हम सभी को देखकर मन्द मुसकान करके उन भगवती ने हम तीनों को स्त्रीरूप में परिणत कर दिया ॥ ४-६ ॥ हम लोग नाना प्रकार के भूषणों से अलंकृत रूपवती युवती बन गये और अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर उन महामाया भगवती के पास पुनः गये ॥ ७ ॥ स्त्री के वेष में हम लोगों को अपने चरणों के निकट देखकर अत्यन्त मनोहर रूप वाली उन देवी ने हम लोगों के ऊपर कृपादृष्टि डाली ॥ ८ ॥ उस समय महामाया भगवती को प्रणाम करके स्त्री – वेषधारी तथा दिव्य वस्त्राभरण धारण किये हम तीनों परस्पर एक दूसरे को देखते हुए उनके सामने खड़े रहे ॥ ९ ॥ विविध प्रकार के मणिजटित एवं करोड़ों सूर्य के समान देदीप्यमान देवी के पादपीठ को देखते हुए हम तीनों वहीं स्थित रहे ॥ १० ॥ उन महादेवी की हजारों सेविकाओं में से कुछ ने रक्त वस्त्र, कुछ ने नीले वस्त्र और कुछ ने सुन्दर पीत वस्त्र धारण कर रखे थे ॥ ११ ॥ वहाँ उपस्थित सभी देवियाँ सुन्दर स्वरूप की थीं और विचित्र वस्त्र एवं आभूषणों से सुसज्जित थीं । वे सब जगदम्बा की विभिन्न सेवाओं में तत्पर थीं ॥ १२ ॥ उनमें से कुछ गा रही थीं, कुछ नाच रही थीं और कुछ स्त्रियाँ हर्ष के साथ वीणा तथा मुखवाद्य बजाती हुई अन्य सेवाओं में संलग्न थीं ॥ १३ ॥ हे नारदजी ! वहाँ मैंने भगवती के चरणकमल के नखरूपी दर्पण में जो अद्भुत दृश्य देखा, उसे बताता हूँ, आप सुनें । वहाँ मुझे समस्त स्थावर-जंगमात्मक ब्रह्माण्ड, मैं (ब्रह्मा), विष्णु, शिव, वायु, अग्नि, यम, सूर्य, वरुण, चन्द्रमा, विश्वकर्मा, कुबेर, इन्द्र, पर्वत, समुद्र, नदियाँ, गन्धर्व, अप्सराएँ, विश्वावसु, चित्रकेतु, श्वेत, चित्रांगद, नारद, तुम्बुरु, हाहा – हूहू, दोनों अश्विनीकुमार, अष्टवसु, साध्य, सिद्धगण, पितर, शेष आदि नाग, सभी किन्नर, उरग और राक्षसगण दिखायी दे रहे थे ॥ १४-१८ ॥ वैकुण्ठ, ब्रह्मलोक तथा पर्वतश्रेष्ठ कैलास — इन सबको हमने उनके पद- नख में विराजमान देखा । उसी में मेरा जन्मस्थान कमल भी था और मैं चतुरानन उस कमलकोश में बैठा हुआ था । मधु-कैटभ नाम के दोनों दानव तथा शेषशायी महाविष्णु भी उसी में विराजमान थे ॥ १९-२० ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार परमेश्वरी के चरण- कमल के नख में स्थित यह सारा दृश्य मुझे दिखायी दिया, जिसे देखकर मैं चकित रह गया और मन-ही-मन सोचने लगा – ‘ यह क्या है ? ‘ ॥ २१ ॥ मेरे ही समान विष्णु और शिव भी वहाँ आश्चर्य चकित होकर खड़े थे। उस समय हम तीनों ने समझ लिया कि समस्त जगत् की जननी ये ही महादेवी हैं ॥ २२ ॥ इस प्रकार अमृतमय एवं कल्याणमय उस द्वीप में अनेक प्रकार के अद्भुत दृश्य देखते हुए हमारे सौ वर्ष व्यतीत हो गये ॥ २३ ॥ वहाँ की प्रसन्नवदना एवं विचित्र अलंकारों से अलंकृत देवियाँ हम तीनों को अपनी सखियाँ समझती थीं और हम लोग भी उनके स्नेहपूर्ण सद्व्यवहार से मुग्ध थे तथा उनके मनोरम भावों को देखकर अतीव प्रसन्न थे ॥ २४-२५ ॥ एक बार नारीरूप में स्थित भगवान् विष्णु महादेवी भगवती श्रीभुवनेश्वरी की स्तुति करने लगे — ॥ २६ ॥ ॥ विष्णुनाकृतम् देवीस्तोत्रं ॥ ॥ श्रीभगवानुवाच ॥ नमो देव्यै प्रकृत्यै च विधात्र्यै सततं नमः । कल्याणै कामदायै च वृद्ध्यै सिद्ध्यै नमो नमः ॥ २७ ॥ सच्चिदानन्दरूपिण्यै संसारारणये नमः । पञ्चकृत्यविधात्र्यै ते भुवनेश्यै नमो नमः ॥ २८ ॥ सर्वाधिष्टानरूपायै कूटस्थायै नमो नमः । अर्धमात्रार्थभूतायै हृल्लेखायै नमो नमः ॥ २९ ॥ ज्ञातं मयाऽखिलमिदं त्वयि सन्निविष्टं त्वत्तोऽस्य सम्भवलयावपि मातरद्य । शक्तिश्च तेऽस्य करणे विततप्रभावा ज्ञाताऽधुना सकललोकमयीति नूनम् ॥ ३० ॥ विस्तार्य सर्वमखिलं सदसद्विकारं सन्दर्शयस्यविकलं पुरुषाय काले । तत्त्वैश्च षोडशभिरेव च सप्तभिश्च भासीन्द्रजालमिव नः किल रञ्जनाय ॥ ३१ ॥ न त्वामृते किमपि वस्तुगतं विभाति व्याप्यैव सर्वमखिलं त्वमवस्थिताऽसि । शक्तिं विना व्यवहृतो पुरुषोऽप्यशक्तो वम्भण्यते जननि बुद्धिमता जनेन ॥ ३२ ॥ प्रीणासि विश्वमखिलं सततं प्रभावैः स्वैस्तेजसा च सकलं प्रकटीकरोषि । अत्स्येव देवि तरसा किल कल्पकाले को वेद देवि चरितं तव वै भवस्य ॥ ३३ ॥ त्राता वयं जननि ते मधुकैटभाभ्यां लोकाश्च ते सुवितताः खलु दर्शिता वै । नीताः सुखस्य भवने परमां च कोटिं यद्दर्शनं तव भवानि महाप्रभावम् ॥ ३४ ॥ नाहं भवो न च विरिंचि विवेद मातः कोऽन्यो हि वेत्ति चरितं तव दुर्विभाव्यम् । कानीह सन्ति भुवनानि महाप्रभावे ह्यस्मिन्भवानि रचिते रचनाकलापे ॥ ३५ ॥ अस्माभिरत्र भुवने हरिरन्य एव दृष्टः शिवः कमलजः प्रथितप्रभावः । अन्येषु देवि भुवनेपु न सन्ति किं ते किं विद्म देवि विततं तव सुप्रभावम् ॥ ३६ ॥ याचेऽम्ब तेऽङ्घ्रिकमलं प्रणिपत्य कामं चित्ते सदा वसतु रूपमिदं तवैतत् । नामापि वक्त्रकुहरे सततं तवैव सन्दर्शनं तव पदाम्बुजयोः सदैव ॥ ३७ ॥ भृत्योऽयमस्ति सततं मयि भावनीयं त्वां स्वामिनीति मनसा ननु चिन्तयामि । एषाऽऽवयोरविरता किल देवि भूया- द्व्याप्तिः सदैव जननी सुतयोरिवार्थे ॥ ३८ ॥ त्वं वेत्सि सर्वमखिलं भुवनप्रपञ्चं सर्वज्ञता परिसमाप्तिनितान्तभूमिः । किं पामरेण जगदम्ब निवेदनीयं यद्युक्तमाचर भवानि तवेङ्गितं स्यात् ॥ ३९ ॥ ब्रह्मा सृजत्यवति विष्णुरुमापतिश्च संहारकारक इयं तु जने प्रसिद्धिः । किं सत्यमेतदपि देवि तवेच्छया वै कर्तुं क्षमा वयमजे तव शक्तियुक्ताः ॥ ४० ॥ धात्री धराधरसुते न जगद्बिभर्ति आधारशक्तिरखिलं तव वै बिभर्ति । सूर्योऽपि भाति वरदे प्रभया युतस्ते त्वं सर्वमेतदखिलं विरजा विभासि ॥ ४१ ॥ ब्रह्माऽहमीश्वरवरः किल ते प्रभावा- त्सर्वे वयं जनियुता न यदा तु नित्याः । केऽन्ये सुराः शतमखप्रमुखाश्च नित्या नित्या त्वमेव जननी प्रकृतिः पुराणा ॥ ४२ ॥ त्वं चेद्भवानि दयसे पुरुषं पुराणं जानेऽहमद्य तव संनिधिगः सदैव । नोचेदहं विभुरनादिरनीह ईशो विश्वात्मधीरिति तमःप्रकृतिः सदैव ॥ ४३ ॥ विद्या त्वमेव ननु बुद्धिमतां नराणां शक्तिस्त्वमेव किल शक्तिमतां सदैव । त्वं कीर्तिकान्तिकमलामलतुष्टिरूपा मुक्तिप्रदा विरतिरेव मनुष्यलोके ॥ ४४ ॥ गायत्र्यसि प्रथमवेदकला त्वमेव स्वाहा स्वधा भगवती सगुणार्धमात्रा । आम्नाय एव विहितो निगमो भवत्यै सञ्जीवनाय सततं सुरपूर्वजानाम् ॥ ४५ ॥ मोक्षार्थमेव रचयस्यखिलं प्रपञ्चं तेषां गताः खलु यतो ननु जीवभावम् । अंशा अनादिनिधनस्य किलानघस्य पूर्णार्णवस्य वितता हि यथा तरङ्गाः ॥ ४६ ॥ जीवो यदा तु परिवेत्ति तवैव कृत्यं त्वं संहरस्यखिलमेतदिति प्रसिद्धम् । नाट्यं नटेन रचितं वितथेऽन्तरङ्गे कार्ये कृते विरमसे प्रथितप्रभावा ॥ ४७ ॥ त्राता त्वमेव मम मोहमयाद्भवाब्धे- स्त्वामम्बिके सततमेमि महार्तिदे च । रागादिभिर्विरचिते वितथे किलान्ते मामेव पाहि बहुदुःखकरे च काले ॥ ४८ ॥ नमो देवि महाविद्ये नमामि चरणौ तव । सदा ज्ञानप्रकाशं मे देहि सर्वार्थदे शिवे ॥ ४९ ॥ श्रीभगवान् बोले — प्रकृति एवं विधात्रीदेवी को मेरा निरन्तर नमस्कार है । कल्याणी, कामप्रदा वृद्धि तथा सिद्धिदेवी को बार-बार नमस्कार है । सच्चिदानन्द- रूपिणी तथा संसार की योनिस्वरूपा देवी को नमस्कार है। आप पंचकृत्य सृष्टि, स्थिति, संहार, निग्रह, अनुग्रह । विधात्री तथा श्रीभुवनेश्वरीदेवी को बार-बार नमस्कार है ॥ २७-२८ ॥ समस्त संसार की एकमात्र अधिष्ठात्री तथा कूटस्थरूपा देवी को बार- बार नमस्कार है। अर्धमात्राक अर्थभूता एवं हृल्लेखादेवी को बार-बार नमस्कार है ॥ २९ ॥ हे जननि! आज मैंने जान लिया कि यह समस्त विश्व आपमें समाहित है तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सृष्टि एवं संहार भी आप ही करती हैं। इस ब्रह्माण्ड के निर्माण में आपकी विस्तृत प्रभाववाली शक्ति ही मुख्य हेतु है, अतः मुझे यह ज्ञात हो गया कि आप ही सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। इस सत् एवं असत् सम्पूर्ण जगत् का विस्तार करके उस चिद्ब्रह्म पुरुष को यथासमय आप इसे समग्ररूप से प्रस्तुत करती हैं। अपनी प्रसन्नता के लिये सोलह तत्त्वों तथा महदादि अन्य सात तत्त्वों के साथ आप हमें इन्द्रजाल के समान प्रतीत होती हैं ॥ ३०-३१ ॥ हे जननि ! आपसे रहित यहाँ कोई भी वस्तु दिखायी नहीं देती, आप ही समस्त जगत् को व्याप्त करके स्थित रहती हैं। बुद्धिमान् पुरुषों का कथन है कि आपकी शक्ति के बिना वह परमपुरुष कुछ भी करने में असमर्थ है ॥ ३२ ॥ आप अपने कृपा प्रभाव से संसार का कल्याण करती हैं। हे देवि ! आप ही अपने तेज से सृष्टिकाल में सम्पूर्ण जगत् को उत्पन्न करती हैं तथा प्रलयकाल में इसका शीघ्र ही संहार कर डालती हैं । हे देवि ! आपके वैभव के लीला – चरित्र को भली-भाँति जानने में कौन समर्थ है ? ॥ ३३ ॥ हे जननि ! मधु-कैटभ नामक दोनों दानवों से आपने हमारी रक्षा की है, आपने ही हम लोगों को अपने अनेक विस्तृत लोक दिखाये तथा अपने-अपने भवन में हमें परमानन्द का अनुभव कराया । हे भवानि ! यह आपके दर्शन का ही महान् प्रभाव है ॥ ३४ ॥ हे माता ! जब मैं (विष्णु), शिव तथा ब्रह्मा भी आपके अपूर्व चरित्र को जानने में समर्थ नहीं हैं, तब अन्य कोई कैसे जान सकेगा ? हे महिमामयी भवानि ! आपके रचे हुए इस ब्रह्माण्ड – प्रपंच में न जाने कितने ब्रह्माण्ड भरे पड़े हैं ! ॥ ३५ ॥ हम लोगों ने आपके इस लोक में अद्भुत प्रभाव वाले दूसरे विष्णु, शिव तथा ब्रह्मा को देखा है । हे देवि ! क्या वे देवता अन्यान्य लोकों में नहीं होंगे? हम लोग आपकी इस अद्भुत महिमा को कैसे जान सकते हैं ? ॥ ३६ ॥ हे जगदम्ब ! हम लोग आपके चरणों में मस्तक झुकाकर यही याचना करते हैं कि आपका यह दिव्य स्वरूप हमारे हृदय में सदा विराजमान रहे, हमारे मुख से सदा आपका ही नाम निकले और हमारे नेत्र प्रतिदिन आपके चरणकमलों के दर्शन पाते रहें ॥ ३७ ॥ हे माता! आपकी यह भावना हमारे प्रति सर्वदा बनी रहे कि ये सब हमारे सेवक हैं और हम भी सर्वथा आपको मन से अपनी स्वामिनी समझते रहें । हे आर्ये! इस प्रकार हमारा और आपका माता-पुत्र का अनन्य सम्बन्ध सर्वदा बना रहे ॥ ३८ ॥ हे जगदम्बिके ! आप समस्त ब्रह्माण्ड-प्रपंच को पूर्ण रूप से जानती हैं; क्योंकि जहाँ सर्वज्ञता की समाप्ति होती है, उसकी अन्तिम सीमा आप ही हैं । हे भवानि! मैं पामर कह ही क्या सकता हूँ? आपको जो उचित लगे, आप वह करें; क्योंकि सब कुछ तो आप ही के संकेत पर होता है ॥ ३९ ॥ जगत् में ऐसी प्रसिद्धि है कि ब्रह्मा सृष्टि करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और रुद्र संहार करते हैं, किंतु हे देवि! क्या यह बात सत्य है ? हे अजे ! सच्चाई तो यह है कि आपकी इच्छा से तथा आपसे शक्ति प्राप्तकर हम अपना-अपना कार्य करने में समर्थ हो पाते हैं ॥ ४० ॥ हे गिरिजे! यह पृथ्वी इस जगत् को धारण नहीं करती है अपितु आपकी आधारशक्ति ही इस समस्त जगत् को धारण करती है । हे वरदे ! भगवान् सूर्य भी आपके ही आलोक से युक्त होकर प्रकाशमान हैं। इस प्रकार आप विरजारूप से इस सम्पूर्ण जगत् के रूप में सुशोभित हो रही हैं ॥ ४१ ॥ ब्रह्मा, मैं (विष्णु) तथा शंकर हम सब आपके ही प्रभाव से उत्पन्न होते हैं। जब हम नित्य नहीं हैं तो फिर इन्द्र आदि प्रमुख देवता कैसे नित्य हो सकते हैं ? समस्त चराचर जगत् की जननी तथा सनातन प्रकृतिरूपा आप ही नित्य हैं ॥ ४२ ॥ हे भवानि ! आपकी सन्निधि में आने पर आज मुझे ज्ञात हो गया कि आप मुझ पुराणपुरुष पर सर्वदा दयाभाव बनाये रखती हैं; अन्यथा मैं अपने को सर्वव्यापी, आदिरहित, निष्काम, ईश्वर तथा विश्वात्मा मान बैठता और अहंकारयुक्त होकर सदा के लिये तमोगुणी प्रकृतिवाला हो जाता ॥ ४३ ॥ आप निश्चय ही सदा से बुद्धिमान् पुरुषों की विद्या तथा शक्तिशाली पुरुषों की शक्ति हैं। आप इस मनुष्य – लोक में कीर्ति, कान्ति, कमला, निर्मला तथा तुष्टिस्वरूपा हैं तथा प्राणियों को मोक्ष प्रदान करने वाली विरक्तिस्वरूपा हैं ॥ ४४ ॥ आप वेदों की प्रथम कला गायत्री हैं। आप ही स्वाहा, स्वधा, सगुणा तथा अर्धमात्रा भगवती हैं। आपने ही देवताओं और पूर्वजों के संरक्षण के लिये आगम तथा निगम की रचना की है ॥ ४५ ॥ जिस प्रकार पूर्ण महासमुद्र की विस्तृत तरंगें उस समुद्र का ही अंश होती हैं, उसी प्रकार आदि – अन्त से हीन निष्कलंक ब्रह्म के जीवरूपी अंशों को मोक्ष प्राप्त कराने के उद्देश्य से ही आपने सम्पूर्ण जगत्-प्रपंच का निर्माण किया है ॥ ४६ ॥ जीव को जब यह विदित हो जाता है कि सम्पूर्ण विश्वप्रपंच आप ही का कृत्य है, तब अमित प्रभाववाली आप उसका उपसंहार कर देती हैं और अपने द्वारा किये गये मिथ्या, किंतु रहस्यपूर्ण कार्य पर उसी प्रकार प्रमुदित होती हैं जिस प्रकार मनोहारी नाटक की रचना पर सफल नट सन्तुष्ट होता है ॥ ४७ ॥ अम्ब! आप ही इस मोहमय भव-सागर से मेरी रक्षा कर सकती हैं । राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों के कारण अत्यन्त कष्टदायक तथा दुःखप्रद मिथ्या अन्तकाल में मेरी रक्षा कीजियेगा, मैं आपके शरणागत हूँ ॥ ४८ ॥ हे देवि ! आपको नमस्कार है । हे महाविद्ये ! मैं आपके चरणों में नमन करता हूँ । हे सर्वार्थदात्री शिवे ! आप ज्ञानरूपी प्रकाश से मेरे हृदय को आलोक प्रदान क्रीजिये ॥ ४९ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत तृतीय स्कन्ध का ‘विष्णुना कृतं देवीस्तोत्रं’ नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥ Content is available only for registered users. 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