श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-तृतीयः स्कन्धः-अध्याय-06
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-तृतीयः स्कन्धः-षष्ठोऽध्यायः
छठवाँ अध्याय
भगवती जगदम्बिका द्वारा अपने स्वरूप का वर्णन तथा ‘महासरस्वती’, ‘महालक्ष्मी’ और ‘महाकाली’ नामक अपनी शक्तियों को क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शिव को प्रदान करना
ब्रह्मणे श्रीदेव्या उपदेशवर्णनम्

ब्रह्माजी बोले — अत्यन्त नम्र भाव से मेरे पूछने पर वे आद्या भगवती मधुर वचन कहने लगीं ॥ १ ॥

देवी बोलीं — मैं और परब्रह्म सदा एक ही हैं; कोई भेद नहीं है; क्योंकि जो वे हैं, वही मैं हूँ, और जो मैं हूँ, वही वे हैं। बुद्धिभ्रम से ही हम दोनों में भेद दिखायी पड़ता है ॥ २ ॥ इसलिये हम दोनों में विद्यमान सूक्ष्म अन्तर कों जो बुद्धिमान्‌ जानता है, वह संसार के बन्धन से छूटकर सदा के लिये मुक्त हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३ ॥ ब्रह्म अद्वितीय, एक, नित्य एवं सनातन है; केवल सृष्टि-रचना के समय वह पुनः द्वैतभाव को प्राप्त होता है ॥ ४ ॥ जिस प्रकार एक ही दीपक उपाधिभेद से दो प्रकार का दिखायी देता है अथवा दर्पण में पड़ती हुई छाया दर्पणभेद से भिन्‍न-भिन्‍न प्रतीत होती है, उसी प्रकार मैं और ब्रह्म एक होते हुए भी उपाधिभेद से अनेक हो जाते हैं ॥ ५ ॥ हे अज! जगत्‌ का निर्माण करने के लिये सृष्टिकाल में भेद दिखता ही है। तब दृश्यादृश्य की प्रतीति होना अनिवार्य ही है; क्योंकि बिना दो के सृष्टि होना असम्भव है ॥ ६ ॥

सृष्टि के प्रलयकाल में मैं न स्त्री हूँ, न पुरुष हूँ और न ही नपुंसक हूँ। परंतु जब पुनः सृष्टि होने लगती है, तब पूर्ववत्‌ यह भेद बुद्धि के द्वारा उत्पन्न हो जाता है ॥ ७ ॥ मैं ही बुद्धि, श्री, धृति, कीर्ति, स्मृति, श्रद्धा, मेधा, दया, लज्जा, क्षुधा, तृष्णा, क्षमा, कान्ति, शान्ति, पिपासा, निद्रा, तन्द्रा, जरा, अजरा, विद्या, अविद्या, स्पृहा, वाञ्छा, शक्ति, अशक्ति, वसा, मज्जा, त्वचा, दृष्टि, सत्यासत्य वाणी, परा, मध्या, पश्यन्ती आदि वाणीके भेद और जो विभिन्‍न प्रकार की नाड़ियाँ हैं — वह सब मैं ही हूँ ॥ ८-१० ॥ हे पद्मययोने! आप यह देखिये कि इस संसार में मैं क्या नहीं हूँ और मुझसे पृथक्‌ कौन-सी वस्तु है ? इसलिये आप यह निश्चितरूप से जान लीजिये कि सब कुछ मैं ही हूँ ॥ ११ ॥ हे विधे ! मेरे इन निश्चित रूपों के अतिरिक्त यदि कुछ हो तो मुझे बतायें, अतः इस सृष्टि में सर्वत्र मैं ही व्याप्त हूँ ॥ १२ ॥ निश्चित ही मैं समस्त देवताओं में भिन्न-भिन्न नामों से विराजती हूँ तथा शक्तिरूप से प्रकट होती हूँ और पराक्रम करती हूँ। मैं ही गौरी, ब्राह्मी, रौद्री, वाराही, वैष्णवी, शिवा, वारुणी, कौबेरी, नारसिंही और वासवी शक्ति के रूप में विद्यमान हूँ। सब कार्यों के उपस्थित होनेपर मैं उन देवताओं में प्रविष्ट हो जाती हूँ और देवविशेषकों निमित्त बनाकर सब कार्य सम्पन्न कर देती हूँ ॥ १३-१५ ॥ जल में शीतलता, अग्निमें उष्णता, सूर्यमें प्रकाश और चन्द्रमामें ज्योत्स्नाके रूपमें मैं ही यथेच्छ प्रकट होती हूँ ॥ १६ ॥

हे विधे! इस संसार का कोई भी जीव मुझसे रहित होकर स्पन्दन भी करने में समर्थ नहीं हो सकता। यह मेरा निश्चय है। इसे मैं आपको बता दे रही हूँ। इसी प्रकार यदि मैं शिव को छोड़ दूँ तो वे शक्तिहीन होकर दैत्यों का संहार करने में समर्थ नहीं हो सकते। इसीलिये तो संसार में भी अत्यन्त दुर्बल पुरुष को लोग शक्तिहीन कहते हैं ॥ १७-१८ ॥ लोग अधम मनुष्य को विष्णुहीन या रुद्रहीन नहीं कहते बल्कि उसे शक्तिहीन ही कहते हैं। जो गिर गया हो, स्खलित हो गया हो, भयभीत हो, निश्चेष्ट हो गया हो अथवा शत्रु के वशीभूत हो गया हो — वह संसार में अरुद्र नहीं कहा जाता, अपितु अशक्त ही कहा जाता है ॥ १९-२० ॥

[हे ब्रह्मन!]! आप ही जब सृष्टि करना चाहते हैं तब उसमें शक्ति ही कारण है, ऐसा जानिये। जब आप शक्ति से युक्त होते हैं तभी सृष्टिकर्ता हो पाते हैं ॥ २१ ॥ इसी प्रकार विष्णु, शिव, इन्द्र, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, यम, विश्वकर्मा, वरुण और वायुदेवता भी शक्ति-सम्पन्न होकर ही अपना-अपना कार्य सम्पादित करते हैं ॥ २२ ॥ पृथ्वी भी जब शक्ति से युक्त होती है, तब स्थिर होकर सबको धारण करने में समर्थ होती है । यदि वह शक्तिहीन हो जाय तो एक परमाणु को भी धारण करने में समर्थ न हो सकेगी। शेषनाग, कच्छप एवं दसों दिग्गज मेरी शक्ति पाकर ही अपने-अपने कार्य सम्पन्न करने में समर्थ हो पाते हैं ॥ २३-२४ ॥ यदि मैं चाहूँ तो सम्पूर्ण संसार का जल पी जाऊँ, अग्नि को नष्ट कर दूँ और वायु की गति रोक हूँ; मैं जैसा चाहती हूँ, वैसा करती हूँ ॥ २५ ॥ हे कमलोद्धव ! सभी तत्त्वों के अभाव का सन्देह अब आप कभी न कीजिये; क्योंकि कभी-कभी किसी वस्तुविशेष का प्रागभाव जिसका आदि न हो, पर अन्त हो तथा प्रध्वंसाभाव जिसका आदि हो, किंतु अन्त न हो  उसी प्रकार हो जाता है, जिस प्रकार मिट्टी के पिण्डों में और कपालों में घटाभाव प्रतीत होता है ॥ २६-२७ ॥

आज यहाँ पृथ्वी नहीं है, तब वह कहाँ चली गयी ? इस पर विचार करने पर वह पृथ्वी परमाणुरूप से विद्यमान तो है ही — ऐसा जानना चाहिये ॥ २८ ॥ शाश्वत, क्षणिक, शून्य, नित्य, अनित्य, सकर्तृक और अहंकार — इन सात भेदों में सृष्टि का वर्णन विवक्षित जो अपेक्षित हो, जिसकी इच्छा हो, या जो कहने योग्य हो। यह शब्द “इच्छित” या “अपेक्षित” के समान अर्थ रखता है ।  है। इसलिये हे अज! अब आप उस महत्तत्त्व को ग्रहण कीजिये, जिससे अहंकार की उत्पत्ति होती है। तत्पश्चात्‌ आप पूर्व की भाँति समस्त प्राणियों की रचना कीजिये ॥ २९-३० ॥ अब आप लोग जाइये तथा अपने-अपने लोकों की रचना करके निवास कीजिये और दैव का चिन्तन करते हुए अपने-अपने कार्य कीजिये ॥ ३१ ॥ हे विधे! सुन्दर रूपवाली, दिव्य हासवाली, रजोगुण से युक्त, श्रेष्ठ श्वेत वस्त्र धारण करने वाली, अलौकिक, दिव्याभूषणों से विभूषित, उत्तम आसन पर विराजमान इस महासरस्वती नामक शक्ति को क्रीडाविहार के लिये अपनी सहचरी के रूप में स्वीकार कीजिये ॥ ३२-३३ ॥ यह सुन्दरी सदा आपकी सहचरी बनकर रहेगी। इस पृज्यतम प्रेयसी को मेरी विभूति समझकर कभी भी इसका तिरस्कार न कीजियेगा। अब आप शीघ्र ही इसे साथ लेकर सत्यलोक में प्रस्थान करें और तत्त्व-बीज से चार प्रकार की समस्त सृष्टि करने में तत्पर हो जायँ ॥ ३४-३५ ॥ समस्त जीवों और कर्मों के साथ जो लिंगकोश हैं, उन्हें पूर्व की भाँति आप प्रतिष्ठित कर दें। काल, कर्म और स्वभाव नाम वाले — इन कारणों से समस्त चराचर सृष्टि को पूर्व की भाँति अपने-अपने स्वभाव और गुणों से युक्त कर दीजिये ॥ ३६-३७ ॥

विष्णु आपके सदा माननीय और पूजनीय हैं; क्योंकि सत्त्वगुण की प्रधानता के कारण वे सर्वदा सब प्रकार से श्रेष्ठ हैं ॥ ३८ ॥ जब-जब आप लोगों का कोई कठिन कार्य उपस्थित होगा, उस समय भगवान्‌ श्रीहरि पृथ्वी पर अवतार ग्रहण करेंगे ॥ ३९ ॥ कहीं तिर्यक्-योनि में तथा कहीं मानवयोनि में शरीर धारण करके ये भगवान्‌ जनार्दन दानवों का अवश्य विनाश करेंगे ॥ ४० ॥ ये महाबली शंकरजी भी आपकी सहायता करेंगे। अब आप समस्त देवताओं का सृजन करके स्वेच्छया सुखपूर्वक विहार कीजिये ॥ ४१ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यलोग दक्षिणायुक्त नानाविध यज्ञों से विधिपूर्वक पूर्ण मनोयोग के साथ आप सबकी पूजा करेंगे ॥ ४२ ॥ हे देवो। सभी यज्ञों में मेरे नाम का उच्चारण करते ही आप सभी लोग निश्चितरूप से सदैव तृप्त एवं सन्तुष्ट हो जायँगे ॥ ४३ ॥ आप लोग तमोगुण-सम्पन्न शंकरजी का सब प्रकार से सम्मान कीजियेगा और सभी यज्ञकार्यों में प्रयत्नपूर्वक उनकी पूजा कीजियेगा ॥ ४४ ॥ जब कभी भी देवताओं के समक्ष दैत्यों से भय उत्पन्न होगा, उस समय सुन्दर रूपों वाली वाराही, वैष्णवी, गौरी, नारसिंही, सदाशिवा तथा अन्य देवियों के रूप में मेरी शक्तियाँ प्रकट होकर उनका भय दूर कर देंगी। अतः हे कमलोद्धव! अब आप अपने कार्य करें ॥ ४५-४६ ॥ हे कमलोद्धव! बीज तथा ध्यान से युक्त मेरे इस नवाक्षर मन्त्र का जप करते हुए आप समस्त कार्य कीजिये ॥ ४७ ॥ हे महामते! आप इस मन्त्र को सभी मन्त्रों से श्रेष्ठ जानिये। सभी मनोरथों की सिद्धि के लिये आपको इस मन्त्र को सदा अपने हृदय में धारण करना चाहिये ॥ ४८ ॥

मुझसे ऐसा कहकर पवित्र मुसकानवाली जगज्जननी ने भगवान्‌ विष्णु से कहा — हे विष्णो! अब आप इन मनोहर महालक्ष्मी को स्वीकार कीजिये और यहाँ से प्रस्थान कीजिये ॥ ४९ ॥ ये आपके वक्षःस्थल में सदा निवास करेंगी, सन्देह नहीं है। आपके लीलाविनोद के लिये मैंने आपको यह सभी मनोरथ प्रदान करने वाली कल्याणमयी शक्ति अर्पित की है ॥ ५० ॥ आप इनका सर्वदा सम्मान करते रहियेगा और कभी भी तिरस्कार न कीजियेगा। लक्ष्मीनारायण नामक यह संयोग मेरे द्वारा ही रचा गया है ॥ ५१ ॥ मैंने देवताओं की जीविका के लिये ही यज्ञों की रचना की है। आप तीनों विरोध-भावना से रहित होकर व्यवहार कीजिये ॥ ५२ ॥ आप (विष्णु), ब्रह्मा, शिव तथा ये सभी देवता मेरे ही प्रभाव से प्रादुर्भूत हुए हैं। अतएवं निस्सन्देह आप लोग सभी प्राणियों के मान्य एवं पूज्य होंगे ॥ ५३ ॥ जो अज्ञानी मनुष्य इनमें भेदभाव करेंगे, वे इस विभे दके कारण नरक में पड़ेंगे। इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५४ ॥ जो विष्णु हैं, वे ही साक्षात्‌ शिव हैं और जो शिव हैं, वे ही स्वयं विष्णु हैं। इन दोनों में भेद रखने वाला मनुष्य नरकगामी होता है ॥ ५० ॥ ब्रह्माजी के सम्बन्ध में भी ऐसा ही जानिये; इसमें कोई सन्देह नहीं है। हे विष्णो ! गुणों के कारण इनमें जो भेद हैं; उन्हें आपको बता रही हूँ, आप सुनें ॥ ५६ ॥

परमात्म-चिन्तन की दृष्टि से आपका मुख्य गुण सत्त्वगुण है। दूसरे रजोगुण तथा तमोगुण आपके लिये गौण हैं। अतएव विभिन्‍न भेदयुक्त विकारों में रजोगुण से सम्पन्न होकर आप इन लक्ष्मी के साथ विहार कीजिये ॥ ५७-५८ ॥ हे लक्ष्मीकान्त! मेरे द्वारा आपको दिया गया वाग्बीज (ऐं), कामराज (क्लीं) तथा तृतीय मायाबीज (ह्रीं) इनसे युक्त यह मन्त्र परमार्थ प्रदान करने वाला है। आप इसे ग्रहण करके निरन्तर इसका जप कीजिये तथा सुखपूर्वक विहार कीजिये। हे विष्णो! ऐसा करने से आपको न तो मृत्युभय होगा और न कालजनित भय ही होगा ॥ ५९-६० ॥ जबतक मैं विहार करती रहूँगी, तबतक यह सृष्टि निश्चितरूप से रहेगी और जब मैं सम्पूर्ण चराचर जगत्‌ का संहार कर दूँगी, उस समय आप लोग भी मुझमें समाहित हो जायँगे। आप लोग समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाले तथा मोक्ष प्रदान करने वाले इस मन्त्र का अनवरत स्मरण करते रहें ॥ ६१-६२ ॥ अपना कल्याण चाहने वाले व्यक्ति को इस मन्त्र के साथ ‘ओंकार’ जोड़कर चतुरक्षर मन्त्र का जप करना चाहिये। हे पुरुषोत्तम! अब आप वैकुण्ठ का निर्माण कराकर उसी में निवास कीजिये और मुझ सनातनी का सतत ध्यान करते हुए इच्छापूर्वक विहार कीजिये ॥ ६३१/२

ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] विष्णु से ऐसा कहकर उस त्रिगुणात्मिका तथा निर्गुणा परा प्रकृति ने देवाधिदेव शंकर से अमृतमय वचन कहा ॥ ६४१/२

देवी बोलीं — हे हर! आप इन मनोहरा महाकाली गौरी को अंगीकार कीजिये और कैलासशिखर की रचना कराकर वहाँ सुखपूर्वक विहार कीजिये। तमोगुण आप में प्रधानगुण के रूप में विद्यमान रहेगा और सत्त्वगुण तथा रजोगुण आपमें गौणरूप से व्याप्त रहेंगे ॥ ६५-६६ ॥ रजोगुण और तमोगुण के द्वारा दैत्यों के विनाश के लिये आप वहाँ विहार करें और हे शर्व ! परमात्मा का स्मरण- ध्यान करने के लिये आप तप कर चुके हैं। आप शान्तिप्रधान सत्त्वगुण का अवलम्बन कीजिये। हे अनध! त्रिगुणात्मक आप तीनों देवता सृष्टि, पालन एवं संहार करने वाले हैं ॥ ६७-६८ ॥ संसा में कहीं भी कोई भी वस्तु इन तीनों गुणों से रहित नहीं है। जगत् ‌की जितनी भी दृश्य वस्तुएँ हैं, वे सब त्रिगुणात्मिका हैं ॥ ६९ ॥ इस संसार में ऐसी कोई भी दृश्य वस्तु गुणरहित न तो हुई और न होगी । निर्गुण तो एकमात्र वह परमात्मा ही है और वह कभी दृष्टिगोचर नहीं होता ॥ ७० ॥ हे शंकर! समय आने पर मैं श्रेष्ठरूपा ही वह सगुणा या निर्गुणा हो जाती हूँ। हे शम्भो! मैं सर्वदा कारण हूँ, कार्य कभी नहीं ॥ ७१ ॥

किसी कारणविशेष से मैं सगुणा होती हूँ तो उस परमपुरुष के सांनिध्य में निर्गुणा रहती हूँ। महत्तत्त्व, अहंकार, तीनों गुण और शब्द आदि विषय कार्य- कारणभाव से निरन्तर गतिशील रहते हैं। सत् से अहंकार उत्पन्न होता है; इसीलिये मैं शिवा सबका कारण हूँ ॥ ७२-७३ ॥ अहंकार मेरा कार्य है और वह त्रिगुणात्मक रूप में प्रतिष्ठित है। उस अहंकार से महत्तत्त्व उत्पन्न होता है; उसी को बुद्धि कहा गया है ॥ ७४ ॥ वह महत्तत्त्व कार्य है तथा अहंकार उसका कारण है। इसी अहंकार से तन्मात्राओं की सदा उत्पत्ति होती है। वे तन्मात्राएँ [पृथ्वी, जल आदि] पंचमहाभूतों का कारण हैं। सबके सृजन में पाँच कर्मन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच महाभूत और सोलहवाँ मन यह षोडशात्मक समूह कार्य और कारणरूप होता है ॥ ७५-७७ ॥ वह आदिपुरुष परमात्मा न कार्य है और न कारण। हे शिव ! सबकी प्रारम्भिक सृष्टि के उत्पत्ति का यही क्रम है ॥ ७८ ॥ अभी मैंने आप लोगों की यह उत्पत्ति-परम्परा संक्षेप में कही। इसलिये हे श्रेष्ठदेव! अब आपलोग मेरा कार्य सम्पन्न करने के लिये इस विमान से प्रस्थान करें ॥ ७९ ॥ जब आप लोगों पर कोई संकट आयेगा, तब मैं स्मरणमात्र से तत्काल आप लोगों को दर्शन दूँगी। अतः हे देवो! आप लोग सर्वदा मेरा तथा सनातन परमात्मा का स्मरण करते रहें। हम दोनों के स्मरण से ही निःसन्देह आप लोगों की कार्यसिद्धि होगी ॥ ८०१/२

ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! ऐसा कहकर भगवती ने अपनी अद्भुत शक्तियाँ प्रदानकर हमें विदा किया। विष्णु को महालक्ष्मी, शिव को महाकाली और मुझे महासरस्वती प्रदान करके उस स्थान से विदा कर दिया ॥ ८१-८२ ॥ उनके स्वरूप तथा अत्यन्त अद्भुत प्रभाव का स्मरण करते हुए अन्य स्थान पर पहुँचकर हम लोग पुनः पुरुषरूप में हो गये ॥ ८३ ॥ तब लौटकर हम तीनों पुनः उसी विमान में बैठ गये। [हमने देखा कि] वहाँ न तो वह मणिद्वीप है, न वे महामाया हैं और न वह सुधासागर है। उस समय वहाँ उस विमान के अतिरिक्त और कुछ दृष्टिगोचर नहीं होता था ॥ ८४ ॥ उस विशाल विमान में बैठकर हम तीनों पुनः उसी महासागर में विद्यमान उस कमल के निकट पहुँचे, जहाँ भगवान्‌ विष्णु ने मधु-कैटभ नामक दुर्धर्ष दैत्यों का वध किया था ॥ ८५ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत तृतीय स्कन्ध का ‘ब्रह्मा के प्रति देवी का उपदेशवर्णन’ नामक छठा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६ ॥

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