श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-तृतीयः स्कन्धः-अध्याय-07
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-तृतीयः स्कन्धः-सप्तमोऽध्यायः
सातवाँ अध्याय
ब्रह्माजी के द्वारा परमात्मा के स्थूल और सूक्ष्म स्वरूप का वर्णन; सात्त्विक, राजस और तामस शक्ति का वर्णन; पंचतन्मात्राओं, ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा पंचीकरण-क्रिया द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन
तत्त्वनिरूपणवर्णनम्

ब्रह्माजी बोले — हे महाभाग! [नारद!] मैंने, विष्णु तथा शंकर ने इस प्रकार के प्रभाववाली उन देवी को तथा अन्य सभी देवियों को पृथक्‌-पृथक्‌ देखा ॥ १ ॥

व्यासजी बोले — पिता का यह वचन सुनकर मुनिवर नारद ने परम प्रसन्न होकर प्रजापति ब्रह्माजी से यह बात पूछी ॥ २ ॥

नारदजी बोले — हे पितामह! आपने जिन आदि, अविनाशी, निर्गुण, अच्युत तथा अव्यय परमपुरुष का दर्शन तथा अनुभव किया, उनके विषय में बताइये ॥ ३ ॥ हे पिताजी ! आपने त्रिगुणसम्पन्ना देवी का दर्शन तो कर लिया है; निर्गुणा शक्ति कैसी होती हैं ? हे कमलोद्धव! अब आप मुझे उन शक्ति का तथा परमपुरुष का स्वरूप बताइये ॥ ४ ॥ जिनके लिये मैंने श्वेतद्वीप में महान्‌ तपश्चर्या की और क्रोधशून्य सिद्धपुरुषों, महात्माओं तथा तपस्वियों के दर्शन किये; वे परमात्मा मुझे दृष्टि- गोचर नहीं हुए। हे प्रजापते! इसके बाद भी [उनके दर्शनार्थ] मैंने वहाँ बार-बार घोर तपस्या की ॥ ५-६ ॥ हे तात! आपने मनोरमा सगुणा शक्ति का दर्शन किया है। आप मुझे बताइये कि निर्गुणा शक्ति और निर्गुण परमात्मा कैसे हैं ?॥ ७ ॥

व्यासजी बोले — नारदजी ने अपने पिता प्रजापति ब्रह्मा से ऐसा पूछा, तब उन पितामह ने मुसकराते हुए रहस्यपूर्ण वचन कहा ॥ ८ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुने! निर्गुणतत्त्व का रूप दृष्टिगोचर नहीं हो सकता; क्योंकि जो दिखायी पड़ता है, वह तो नाशवान्‌ होता है। जो रूपरहित है, वह दृष्टिगोचर कैसे हो सकता है ?॥ ९ ॥ निर्गुणा शक्ति को जान पाना अत्यन्त दुरूह है और उसी प्रकार निर्गुण परमपुरुष का साक्षात्कार भी अति दुष्कर है। ये दोनों केवल मुनिजनों के द्वारा ज्ञान से प्राप्त तथा अनुभूत किये जा सकते हैं ॥ १० ॥ आप प्रकृति तथा पुरुष दोनों को आदि-अन्त से सर्वदा रहित जानिये। ये दोनों विश्वास से जाने जा सकते हैं; अविश्वास से कभी नहीं ॥ ११ ॥ हे नारद ! सभी प्राणियों में जो चैतन्य विद्यमान है, उसे ही परमात्मस्वरूप जानो | तेजःस्वरूप वे परमात्मा सर्वत्र व्याप्त हैं तथा सदा विराजमान हैं ॥ १२ ॥ हे महाभाग! उन परमपुरुष तथा प्रकृति को सर्वव्यापी तथा सर्वगामी समझिये। इस संसार में कोई भी पदार्थ उन दोनों से रहित नहीं है ॥ १३ ॥ सर्वदा अव्यय, एकरूप, चिदात्मा, निर्गुण तथा निर्मल — उन दोनों (प्रकृति-पुरुष)-को एक ही शरीर में सम्मिश्रित मानकर सदा इनका चिन्तन करना चाहिये ॥ १४ ॥

हे नारद! जो शक्ति हैं, वे ही परमात्मा हें और जो परमात्मा हैं, वे ही परमशक्ति मानी गयी हैं। इन दोनों में विद्यमान सूक्ष्म अन्तर को कोई भी नहीं जान सकता ॥ १५ ॥ है नारद! कोई भी व्यक्ति समस्त शास्त्रों तथा अंगोंसहित वेदों का अध्ययन करके भी विरक्ति के बिना उन दोनों के सूक्ष्म अन्तर को नहीं जान पाता है ॥ १६ ॥ हे पुत्र ! जड-चेतनरूप यह सारा जगत्‌ अहंकार से निर्मित है; ऐसी स्थिति में सैकड़ों कल्पों में भी यह अहंकार से रहित कैसे हो सकता है ?॥ १७ ॥ हे पुत्र ! सगुण मनुष्य निर्गुण को नेत्र से कैसे देख सकता है ? अतः हे महाबुद्धे ! उन परमात्मा के सगुण रूप का मन से सम्यक्‌ ध्यान करते रहो ॥ १८ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ। पित्त से आच्छादित जिह्ला जिस प्रकार यथार्थ रस का अनुभव न करके केवल कटुरस का अनुभव करती है तथा पित्ताच्छादित नेत्र यथार्थ रूप न देखकर केवल पीले रंग को ही देखता है, उसी प्रकार गुणों से आच्छादित मन उस निर्गुण परमात्मा को कैसे जान पायेगा? क्योंकि मन भी तो अहंकार से उत्पन्न हुआ है, तब वह मन अहंकार से रहित कैसे हो सकता है ? जबतक अन्तःकरण गुणों से रहित नहीं होता तबतक परमात्मा का दर्शन कैसे सम्भव है ? जब मनुष्य अहंकारविहीन हो जाता है, तब वह अपने हृदय में उनका साक्षात्कार कर लेता है ॥ १९-२१ ॥

नारदजी बोले — हे देवदेवेश | तीनों गुणों का जो स्वरूप है, उसका विस्तारपूर्वक विवेचन कीजिये और त्रिगुणात्मक अहंकार के स्वरूप का भी वर्णन कीजिये। हे पुरुषोत्तम! सात्त्विक, राजस तथा तीसरे तामस अहंकार के स्वरूप-भेद को बताइये। इस प्रकार गुणों के विस्तृत लक्षणों को विभागपूर्वक मुझको बताइये। हे प्रभो! मुझे ऐसा ज्ञान दीजिये जिसे जानकर मैं पूर्णरूपेण मुक्त हो जाऊँ ॥ २२-२४ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे निष्पाप ! इस त्रिविध अहंकार की तीन शक्तियाँ हैं, मैं उन्हें बताता हूँ। वे हैं — ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति तथा तीसरी अर्थशक्ति ॥ २५ ॥ उनमें सात्त्विक अहंकार की ज्ञानशक्ति, राजस की क्रियाशक्ति और तामस की द्र॒व्यशक्ति — ये तीन शक्तियाँ आपको बता दीं ॥ २६ ॥ हे नारद! अब मैं उनके कार्यों को सम्यक्‌ रूप से बताऊँगा, सुनिये। तामसी द्र॒व्यशक्ति (अर्थशक्ति) -से उत्पन्न शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध — ये तन्मात्राएँ कही गयी हैं। आकाश का एकमात्र गुण शब्द, वायु का गुण स्पर्श, अग्नि का गुण रूप, जल का गुण रस तथा पृथ्वी का गुण गन्ध है — ऐसा जानना चाहिये । हे नारद ! ये तन्मात्राएँ अत्यन्त सूक्ष्म हैं ॥ २७-२९ ॥ द्रव्यशक्ति से युक्त इन दसों (पाँच तन्मात्राओं तथा उनके पाँच गुणों)-से मिलकर तामस अहंकार की अनुवृत्ति से सृष्टि की रचना होती है ॥ ३० ॥ अब राजसी क्रियाशक्ति से उत्पन्न होने वाली इन्द्रियों के विषय में मुझसे सुनिये। श्रोत्र, त्वचा, रसना, नेत्र और नासिका ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा वाणी, हाथ, पैर, गुदा और गुह्मांग ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ उससे उत्पन्न हैं। प्राण, अपान, व्यान, समान तथा उदान — ये पाँच वायु होती हैं। इन पन्द्रह (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच वायु) से मिलकर होने वाली सृष्टि राजसी सृष्टि कही जाती है। ये सभी साधन क्रियाशक्ति से सदा युक्त रहते हैं और इनके उपादानकारण को चित्‌- अनुवृत्ति कहा जाता है ॥ ३१-३४ ॥

दिशाएँ, वायु, सूर्य, वरुण और दोनों अश्विनीकुमार ज्ञानशक्ति से युक्त हैं और ये सात्त्विक अहंकार से उत्पन्न हुए हैं। पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के ये ही पाँच अधिष्ठातृदेवता हैं। इसी प्रकार बुद्धि आदि अन्तःकरण चतुष्टय के चन्द्रमा, ब्रह्मा, रुद्र तथा क्षेत्रज्ञ ये अधिदेव हैं। ये चारों अधिष्ठातृदेवता कहे गये हैं। मनसहित ये सब पन्द्रह होते हैं। यह सात्त्विक अहंकार की सृष्टि है और “सात्त्विकी सृष्टि’ कही गयी है ॥ ३५-३८ ॥ स्थूल और सूक्ष्मभेद से परमात्मा के दो रूप होते हैं, उनमें ज्ञानरूप निराकारस्वरूप सबका कारण कहा गया है ॥ ३९ ॥ साधक के ध्यान आदि कार्यों के लिये परमात्मा के स्थूल रूप की उपासना कही गयी है। यह उस परमपुरुष का सूक्ष्म शरीर ही बताया गया है ॥ ४० ॥ मेरा यह शरीर सूत्रसंज्ञक है। अब मैं उस परब्रह्म परमात्मा के स्थूल विराट्‌ स्वरूप का वर्णन करूँगा। हे नारद! आप उसे सुनें, जिसे सावधानी से सुनकर मनुष्य मुक्त हो जाता है। इसके पहले मैंने गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द — इन पंच तन्मात्राओं तथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश — इन सूक्ष्म पंच महाभूतों का वर्णन विस्तार से कर दिया है ॥ ४१-४२ ॥ उन्हीं पाँचों को मिलाकर पंचीकरण की क्रिया से परमात्मा ने पंचभूतमय देह की सृष्टि की है। अब मैं पंचीकरण का भेद बता रहा हूँ, ध्यान देकर सुनिये — ॥ ४३ ॥

सबसे पहले रसरूप तन्मात्रा का मन में निश्चय करके जिस स्थूल रूप में जल होता है, वैसी ही उसकी दो अंशों में भावना करे ॥ ४४ ॥ उसी प्रकार अवशिष्ट चार भूतों के भी दो-दो भाग करके, उसमें से आधे भाग कों पृथक्‌ कर ले। शेष आधे अंश को चार प्रकार से अलग करके आधे भाग से रहित उन अंशों में मिला दे। रस तन्मात्रा को आधे भाग जल में मिलाकर अवशिष्टभूत तन्मात्रा के आधे को चारों भागों में मिश्रित कर दे। ऐसा करने से जब रसमय स्थूल जल हो जाय तब अन्य चार भूतों के पंचीकरण का विभाग करे। उन पंचीकृत पंचभूतों में अधिष्ठानता के कारण उनके प्रतिबिम्बरूप से जब चैतन्य प्रविष्ट हो जाता है, तब उस पंचभूतात्मक शरीर में ‘अहम्‌’ भावरूप संशय उत्पन्न हो जाता है। वह संशय स्पष्टरूप से जब भासित होने लगता है, तब उस स्थूल शरीर में देहाभिमान के साथ चैतन्य जाग्रत्‌ होने लगता है, वही दिव्य चैतन्य आदिनारायण भगवान्‌, परमात्मा आदि नामों से पुकारा जाता है ॥ ४५-४७ ॥ इस प्रकार पंचीकरण से सभी भूतों का विभाग स्पष्ट हो जाने पर आकाश आदि सभी पंचभूत पूर्वोक्त तन्मात्राओं के कारण अपने-अपने विशेष गुणों से वृद्धि को प्राप्त होते हैं और एक-एक गुण की वृद्धि से एक-एक भूत उत्पन्न हो जाता है ॥ ४८ ॥ आकाश का केवल एकमात्र गुण शब्द है, दूसरा नहीं। वायु के शब्द और स्पर्श — ये दो गुण कहे गये हैं। शब्द, स्पर्श और रूप — ये तीन गुण अग्नि के हैं। शब्द, स्पर्श, रूप और रस — ये चार गुण जल के हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध — ये पाँच गुण पृथ्वी के हैं। इस प्रकार इन पंचीकृत महाभूतों के योग से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कही जाती है। ब्रह्माण्ड के अंश से उत्पन्न सभी जीवों को मिलाकर चौरासी लाख जीव- योनियाँ कही गयी हैं ॥ ४९-५२ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत तृतीय स्कन्ध का तत्त्वनिरूपणवर्णन॑ नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥

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