March 29, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-प्रथमःस्कन्धः-अध्याय-02 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-प्रथमःस्कन्धः-अथ द्वितीयोऽध्यायः दूसरा अध्याय सूतजी द्वारा श्रीमद्देवीभागवत के स्कन्ध, अध्याय तथा श्लोक संख्या का निरूपण और उसमें प्रतिपादित विषयों का वर्णन ग्रन्थसंख्याविषयवर्णनम् ॥ सूत उवाच ॥ धन्योऽहमतिभाग्योऽहं पावितोऽहं महात्मभिः । यत्पृष्टं सुमहत्पुण्यं पुराणं वेदविश्रुतम् ॥ १ ॥ तदहं सम्प्रवक्ष्यामि सर्वश्रुत्यर्थसम्मतम् । रहस्यं सर्वशास्त्राणामागमानामनुत्तमम् ॥ २ ॥ नत्वा तत्पदपङ्कजं सुललितं मुक्तिप्रदं योगिनां ब्रह्माद्यैरपि सेवितं स्तुतिपरैर्ध्येयं मुनीन्द्रैः सदा । वक्ष्याम्यद्य सविस्तरं बहुरसं श्रीमत्पुराणोत्तमं भक्त्या सर्वरसालयं भगवतीनाम्ना प्रसिद्धं द्विजाः ॥ ३ ॥ सूतजी बोले — [ हे मुनिजनो ! ] मैं धन्य और महान् भाग्यशाली हूँ, जो कि आप महात्माओं ने वेदविश्रुत तथा अत्यन्त पुण्यप्रद श्रीमद्देवीभागवत महापुराण के सम्बन्ध में प्रश्न करके मुझे पवित्र बना दिया ॥ १ ॥ इसलिये मैं सभी वेदों के तात्पर्य से युक्त, सभी शास्त्रों और आगमों के रहस्यरूप सर्वोत्तम श्रीमद्देवीभागवत पुराण को आप लोगों से कहता हूँ ॥ २ ॥ द्विजगण ! ब्रह्मा-विष्णु-महेश से सेवित, स्तुतिपरायण मुनिजनों के सतत ध्यान करने योग्य तथा योगियों को मुक्ति देने वाले भगवती के सुन्दर एवं कोमल चरणकमलों में प्रणाम करके मैं अब उस उत्तम पुराण का भक्तिपूर्वक विस्तार से वर्णन करूँगा; जो सभी रसों से युक्त, शोभासम्पन्न, सभी रसों का निधान एवं श्रीमद्देवीभागवत के नाम से प्रसिद्ध है ॥ ३ ॥ या विद्येत्यभिधीयते श्रुतिपथे शक्तिः सदाद्या परा सर्वज्ञा भवबन्धछित्तिनिपुणा सर्वाशये संस्थिता । दुर्ज्ञेया सुदुरात्मभिश्च मुनिभिर्ध्यानास्पदं प्रापिता ॥ प्रत्यक्षा भवतीह सा भगवती सिद्धिप्रदा स्यात्सदा ॥ ४ ॥ सृष्ट्वाखिलं जगदिदं सदसत्स्वरूपं शक्त्या स्वया त्रिगुणया परिपाति विश्वम् । संहृत्य कल्पसमये रमते तथैका तां सर्वविश्वजननीं मनसा स्मरामि ॥ ५ ॥ ब्रह्मा सृजत्यखिलमेतदिति प्रसिद्धं पौराणिकैश्च कथितं खलु वेदविद्भिः । विष्णोस्तु नाभिकमले किल तस्य जन्म तैरुक्तमेव सृजते न हि स स्वतन्त्रः ॥ ६ ॥ विष्णुस्तु शेषशयने स्वपितीति काले तन्नाभिपद्यमुकुले खलु तस्य जन्म । आधारतां किल गतोऽत्र सहस्रमौलिः सम्बोध्यतां स भगवान् हि कथं मुरारिः ॥ ७ ॥ एकार्णवस्य सलिलं रसरूपमेव पात्रं विना न हि रसस्थितिरस्ति कच्चित् । या सर्वभूतविषये किल शक्तिरूपा तां सर्वभूतजननीं शरणं गतोऽस्मि ॥ ८ ॥ योगनिद्रामीलिताक्षं विष्णुं दृष्ट्वाम्बुजे स्थितः । अजस्तुष्टाव यां देवीं तामहं शरणं गतः ॥ ९ ॥ तां ध्यात्वा सगुणां मायां मुक्तिदां निर्गुणां तथा । वक्ष्ये पुराणमखिलं शृण्वन्तु मुनयस्त्विह ॥ १० ॥ वैदिक मार्गानुसार जिसे ‘विद्या’ कहते हैं, जो सर्वदा ‘आदिशक्ति’ कही जाती हैं, जिन्हें योगीलोग ‘पराशक्ति’ भी कहते हैं; जो सर्वज्ञ, भवबन्धन काटने में निपुण हैं तथा जो सबके हृदय देश में विराजती रहती हैं और दुरात्मा प्राणी जिन्हें नहीं जान सकते, मुनियों के ध्यान करने पर जो शीघ्र प्रत्यक्ष दर्शन देती हैं, वे भगवती सर्वदा सिद्धिदायिनी बनी रहें ॥ ४ ॥ जो सत्-असत्रूप उस जगत् की सृष्टि करके अपनी त्रिगुणात्मिका (सत्त्व, रज, तम) शक्ति द्वारा उसका पालन करती तथा प्रलयान्त में उसका संहार करके अकेली स्वयं लीलारमण करती हैं, उन समस्त विश्व की जननी भगवती का मैं मन-ही-मन स्मरण करता हूँ ॥ ५ ॥ यह संसार में प्रसिद्ध है कि ब्रह्मा ही इस सम्पूर्ण जगत् के स्रष्टा हैं, साथ ही सभी वेदज्ञ तथा पुराणवेत्ता भी यही कहते हैं। उनका यह भी कथन है कि भगवान् विष्णु के नाभिकमल से ही उन ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई है, जो स्वतन्त्र नहीं हैं, अपितु विष्णु की प्रेरणा से ही वे संसार की सृष्टि करते हैं ॥ ६ ॥ जब कल्पान्त में सर्वत्र जलमय हो जाता है, तब केवल शेषशय्या पर भगवान् विष्णु शयन करते हैं और उन्हीं के नाभिकमल से ब्रह्मा का आविर्भाव होता है। इस प्रकार जब सहस्र फणवाले शेष ही विष्णु के आधार हैं, तो फिर उन मुरारि को भी सर्वाधार भगवान् कैसे कहा जाय ? ॥ ७ ॥ प्रलयकालीन समुद्र का जल भी तो रसरूप ही है और बिना पात्र रस कहीं ठहर नहीं सकता। अतएव जो सब प्राणियों में शक्तिरूप से विराजती रहती हैं, मैं उन सम्पूर्ण संसार की जननी आदिशक्ति भगवती की शरण ग्रहण करता हूँ ॥ ८ ॥ योगनिद्रा में लीन भगवान् विष्णु को देखकर उनके नाभिकमल पर विराजमान ब्रह्मा ने जिन देवी की स्तुति की थी, मैं उन्हीं पराशक्ति भगवती के शरणागत हूँ ॥ ९ ॥ हे मुनिजनो ! उन्हीं निर्गुण तथा सगुण रूपवाली तथा मुक्तिदायिनी योगमायाका ध्यान करके मैं यहाँ सम्पूर्ण देवीभागवतपुराण कह रहा हूँ; आपलोग सुनिये ॥ १० ॥ पुराणमुत्तमं पुण्यं श्रीमद्भागवताभिधम् । अष्टादश सहस्राणि श्लोकास्तत्र तु संस्कृताः ॥ ११ ॥ स्कन्धा द्वादश चैवात्र कृष्णेन विहिताः शुभाः । त्रिशतं पूर्णमध्याया अष्टादशयुताः स्मृताः ॥ १२ ॥ विंशतिः प्रथमे तत्र द्वितीये द्वादशैव तु । त्रिंशच्चैव तृतीये तु चतुर्थे पञ्चविंशतिः ॥ १३ ॥ पञ्चत्रिंशत्तथाध्यायाः पञ्चमे परिकीर्तिताः । एकत्रिंशत्तथा षष्ठे चत्वारिंशच्च सप्तमे ॥ १४ ॥ अष्टमे तत्त्वसङ्ख्याश्च पञ्चाशन्नवमे तथा । त्रयोदश तु सम्प्रोक्ता दशमे मुनिना किल ॥ १५ ॥ तथा चैकादशस्कन्धे चतुर्विंशतिरीरिताः । चतुर्दशैव चाध्याया द्वादशे मुनिसत्तमाः ॥ १६ ॥ एवं सङ्ख्या समाख्याता पुराणेऽस्मिन्महात्मना । अष्टादशसहस्रीया सङ्ख्या च परिकीर्तिता ॥ १७ ॥ सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च । वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥ १८ ॥ यह श्रीमद्देवीभागवत नामक पुराण अत्यन्त पवित्र एवं उत्तम है। इसमें अठारह हजार सुन्दर श्लोक हैं। कृष्णद्वैपायनद्वारा विरचित इस श्रीमद्देवीभागवतपुराण में कल्याणकारी बारह स्कन्ध तथा कुल तीन सौ अठारह अध्याय बताये गये हैं । उनमें प्रथम स्कन्ध में बीस अध्याय, द्वितीय में बारह, तृतीय में तीस और चतुर्थ में पच्चीस अध्याय हैं। पंचम स्कन्ध में पैंतीस अध्याय, षष्ठ में एकतीस, सप्तम में चालीस, अष्टम में तत्त्व- संख्या 1 के बराबर अर्थात् चौबीस, नवम में पचास और दशम स्कन्ध में तेरह अध्याय मुनि व्यासजी ने कहे हैं। इसी प्रकार हे मुनिगण ! एकादश स्कन्ध में चौबीस और द्वादश स्कन्ध में चौदह अध्याय बताये गये हैं ॥ ११-१६ ॥ इस प्रकार महात्मा व्यासजी ने इस महापुराण में अध्यायों की संख्या बतायी है। इसमें श्लोकों की संख्या अठारह हजार कही गयी है ॥ १७ ॥ सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश-वर्णन, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित-इस प्रकार पुराणों के ये पाँच लक्षण हैं ॥ १८ ॥ निर्गुणा या सदा नित्या व्यापिका विकृता शिवा । योगगम्याखिलाधारा तुरीया या च संस्थिता ॥ १९ ॥ तस्यास्तु सात्त्विकी शक्ती राजसी तामसी तथा । महालक्ष्मीः सरस्वती महाकालीति ताः स्त्रियः ॥ २० ॥ तासां तिसॄणां शक्तीनां देहाङ्गीकारलक्षणः । सृष्ट्यर्थं च समाख्यातः सर्गः शास्त्रविशारदैः ॥ २१ ॥ हरिद्रुहिणरुद्राणां समुत्पत्तिस्ततः स्मृता । पालनोत्पत्तिनाशार्थं प्रतिसर्गः स्मृतो हि सः ॥ २२ ॥ सोमसूर्योद्भवानां च राज्ञां वंशप्रकीर्तनम् । हिरण्यकशिप्वादीनां वंशास्ते परिकीर्तिताः ॥ २३ ॥ स्वायम्भुवमुखानां च मनूनां परिवर्णनम् । कालसङ्ख्या तथा तेषां तत्तन्मन्वन्तराणि च ॥ २४ ॥ तेषां वंशानुकथनं वंशानुचरितं स्मृतम् । पञ्चलक्षणयुक्तानि भवन्ति मुनिसत्तमाः ॥ २५ ॥ सपादलक्षं च तथा भारतं मुनिना कृतम् । इतिहास इति प्रोक्तं पञ्चमं वेदसम्मतम् ॥ २६ ॥ जो कल्याणमयी भगवती नित्या, निर्गुणा, व्यापकरूपसे सृष्टिमें स्थित रहने वाली, विकाररहित, योगगम्या, सबकी आधाररूपा तथा तुरीयावस्था में प्रतिष्ठित हैं; उन्हीं की सात्त्विकी, राजसी और तामसी शक्तियाँ महासरस्वती, महालक्ष्मी तथा महाकाली नामक देवियों के रूप में प्रकट होती हैं ॥ १९-२० ॥ उन्हीं तीनों शक्तियों का सृष्टि के लिये शरीर धारण करना ही शास्त्र के विद्वानों के द्वारा ‘सर्ग’ कहा गया है ॥ २१ ॥ तदनन्तर जगत् के सृजन पालन तथा संहार के लिये ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पत्ति कही गयी है; और उसे ही प्रतिसर्ग बताया गया है ॥ २२ ॥ चन्द्रवंशी, सूर्यवंशी राजाओं के वंशवर्णन तथा हिरण्यकशिपु आदि दैत्यों के वंशकथन को ‘वंश’ कहा गया है; इसी प्रकार स्वायम्भुव आदि चौदह मनुओं का वर्णन एवं उनके समय-विभाग मन्वन्तर कहलाते हैं। उन मनुओं के वंश का क्रमशः वर्णन करना ही ‘वंशानुचरित’ कहा गया है । हे मुनिवरो ! इस प्रकार सभी पुराण उपर्युक्त पाँचों लक्षणों से युक्त होते हैं ॥ २३-२५ ॥ सवा लाख श्लोकों का महाभारत नामक ग्रन्थ भी व्यासजी ने ही रचा है; यह ‘इतिहास’ कहलाता है— जो वेदसम्मत होने के कारण पाँचवाँ वेद कहा गया है ॥ २६ ॥ ॥ शौनक उवाच ॥ कानि तानि पुराणानि ब्रूहि सूत सविस्तरम् । कतिसङ्ख्यानि सर्वज्ञ श्रोतुकामा वयं त्विह ॥ २७ ॥ कलिकालविभीताः स्मो नैमिषारण्यवासिनः । ब्रह्मणात्र समादिष्टाश्चक्रं दत्त्वा मनोमयम् ॥ २८ ॥ कथितं तेन नः सर्वान्गच्छन्त्वेतस्य पृष्ठतः । नेमिः संशीर्यते यत्र स देशः पावनः स्मृतः ॥ २९ ॥ कलेस्तत्र प्रवेशो न कदाचित् सम्भविष्यति । तावत्तिष्ठन्तु तत्रैव यावत्सत्ययुगं पुनः ॥ ३० ॥ तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य गृहीत्वा तत्कथानकम् । चालयन्निर्गतस्तूर्णं सर्वदेशदिदृक्षया ॥ ३१ ॥ प्रेत्यात्र चालयंश्चक्रं नेमिः शीर्णोऽत्र पश्यतः । तेनेदं नैमिषं प्रोक्तं क्षेत्रं परमपावनम् ॥ ३२ ॥ कलिप्रवेशो नैवात्र तस्मात्स्थानं कृतं मया । मुनिभिः सिद्धसङ्घैश्च कलिभीतैर्महात्मभिः ॥ ३३ ॥ पशुहीनाः कृता यज्ञाः पुरोडाशादिभिः किल । कालातिवाहनं कार्यं यावत्सत्ययुगागमः ॥ ३४ ॥ भाग्ययोगेन सम्प्राप्तः सूत त्वं चात्र सर्वथा । कथयाद्य पुराणं हि पावनं ब्रह्मसम्मतम् ॥ ३५ ॥ सूत शुश्रूषवः सर्वे वक्ता त्वं मतिमानथ । निर्व्यापारा वयं नूनमेकचित्तास्तथैव च ॥ ३६ ॥ त्वं सूत भव दीर्घायुस्तापत्रयविवर्जितः । कथयाद्य पुराणं हि पुण्यं भागवतं शिवम् ॥ ३७ ॥ यत्र धर्मार्थकामानां वर्णनं विधिपूर्वकम् । विद्यां प्राप्य तया मोक्षः कथितो मुनिना किल ॥ ३८ ॥ शौनकजी बोले — हे सूतजी ! वे पुराण कौन-कौनसे हैं और कितने हैं? हमलोगों को सुनने की उत्कट इच्छा है और आप सर्वज्ञ हैं, अतः विस्तार से बताइये ॥ २७ ॥ कलिकाल से भयभीत हम ब्राह्मण नैमिषारण्य में ही रहते हैं। ब्रह्माजी ने मनोमय चक्र हमें देकर यह आदेश दिया था कि इसी चक्र के पीछे-पीछे आपलोग जायँ। जहाँ इस चक्र की नेमि शीर्ण हो जाय, वह देश परम पवित्र कहा गया है। वहाँ कभी कलियुग का प्रवेश नहीं होगा। आपलोग वहाँ तबतक रहें, जबतक पुनः ‘सत्ययुग’ न आ जाय ॥ २८-३० ॥ उनका वह वचन सुनकर तथा उनकी बातों को हृदय में रखकर हमलोग सब देशों के दर्शनार्थ उस मनोमय चक्र के पीछे-पीछे तत्काल चल दिये ॥ ३१ ॥ चलते-चलते इसी स्थान पर पहुँचकर उस चक्र की नेमि हमलोगों के देखते-देखते शीर्ण हो गयी। तभी से यह स्थान परम पवित्र ‘नैमिषक्षेत्र’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥ ३२ ॥ यहाँ कभी कलि का प्रवेश नहीं होता। इसीलिये मैंने अनेक ऋषि-मुनियों, सिद्धगणों एवं कलि से भयभीत महात्माओं के साथ यहाँ अपना निवास बना लिया है ॥ ३३ ॥ हमलोगों ने यहाँ पर चरु-पुरोडाश2 आदि द्वारा अनेक पशु वध-विहीन यज्ञ किये हैं। जबतक सत्ययुग न आ जाय तबतक हम लोगों का यहीं रहने का दृढ़ निश्चय है ॥ ३४ ॥ हे सूतजी ! आप निश्चितरूप से हम लोगों के सौभाग्य से ही यहाँ आ पहुँचे हैं। इसलिये आप इस ब्रह्मसम्मित पावन पुराण की कथा कहिये ॥ ३५ ॥ हे सूतजी ! हम लोगों को सुनने की उत्कट इच्छा है और आप जैसे बुद्धिमान् वक्ता भी प्राप्त हैं। हम लोग भी अपना सभी कार्य त्यागकर चित्त एकाग्र करके यहाँ स्थित हैं ॥ ३६ ॥ अतः हे सूतजी ! आप चिरंजीवी हों तथा तीनों प्रकारके तापों (दैहिक, दैविक, भौतिक) – से मुक्त रहकर अब हमलोगोंको परम पवित्र तथा कल्याणकारी श्रीमद्देवी- भागवतपुराण सुनाइये; जिसमें धर्म, अर्थ और कामका विधिवत् वर्णन किया गया है। महर्षि व्यासने भी बताया है कि इसके द्वारा ज्ञान प्राप्त करके पुनः उससे मुक्ति मिलती है ॥ ३७-३८ ॥ द्वैपायनेन मुनिना कथितं यच्च पावनम् । न तृप्यामो वयं सूत कथां श्रुत्वा मनोरमाम् ॥ ३९ ॥ सकलगुणगणानामेकपात्रं पवित्र- ॥ मखिलभुवनमातुर्नाट्यवद्यद्विचित्रम् । निखिलमलगणानां नाशकृत्कामकन्दं ॥ प्रकटय भगवत्या नामयुक्तं पुराणम् ॥ ४० ॥ ॥ इति श्रीभद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां प्रथमस्कन्धे ग्रन्थसंख्याविषयवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥ हे सूतजी ! महर्षि वेदव्यास ने जिस पवित्र पुराण को कहा है, उसके मनोहर कथा – चरित्रों को सुनने से हमारी कभी तृप्ति नहीं होती है ॥ ३९ ॥ सभी गुणों का एकमात्र स्थान, परम पवित्र, समस्त संसार की जननी भगवती के लीलानाट्य के समान विचित्र, सभी पापसमूहों का नाश करने वाले तथा सब प्रकार की अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले तथा भगवती के नाम से समन्वित श्रीमद्देवीभागवत महापुराण को प्रकट कीजिये ॥ ४० ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत प्रथम स्कन्ध का ‘ग्रन्थसंख्याविषयवर्णन’ नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २ ॥ 1. सांख्यशास्त्रमें प्रकृति, महत्, अहंकार आदि चौबीस तत्त्व माने जाते हैं। 2. चरु का तात्पर्य खीर से है। इसे स्थालीपाक भी कहते हैं। यज्ञ के अंत में औषधि मिश्रित इस खीर को, चरु को याज्ञिक के हाथों उसकी स्विष्टकृत आहुति दिलवाने के पश्चात् शेष बचे चरु को यज्ञावेश के रूप में उसे खिला देते हैं। शतपथ ब्राह्मण १/६/२/५ के अनुसार ‘पुरोडाश’ उसे कहते हैं जो यज्ञ में पहले समर्पित किया जाता है। ऐतरेय ब्राह्मण २/१३ में भी उल्लेख है- पुरो वा एतान् देवा अक्रत यत्पुरोडाशानां पुरोडाशत्वम् अर्थात् चूँकि यज्ञ में देवों ने इसे पहले प्रयुक्त किया इसलिए इसे ‘पुरोडाश’ कहा जाता है। वस्तु़तः पुरोडाश या चरु यज्ञाग्नि पर पकाये हुए औषधीय हव्य पदार्थ को कहते हैं। पूर्णाहुति हो जाने के उपरांत हवन कुंड या वेदी पर जो अग्नि रहती है उस पर उपयुक्त औषधियों के मिश्रण से युक्त निर्धारित आटे की बाटी सेंक ली जाती हैं। उसे पुरोडाश कहते हैं। Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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