March 29, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-प्रथमःस्कन्धः-अध्याय-04 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-प्रथमःस्कन्धः-अथ चतुर्थोऽध्यायः चौथा अध्याय नारदजी द्वारा व्यासजी को देवी की महिमा बताना देवीसर्वोत्तमेतिकथनम् ॥ ऋषय ऊचुः ॥ सौम्य व्यासस्य भार्यायां कस्यां जातः सुतः शुकः । कथं वा कीदृशो येन पठितेयं सुसंहिता ॥ १ ॥ अयोनिजस्त्वया प्रोक्तस्तथा चारणिजः शुकः । सन्देहोऽस्ति महांस्तत्र कथयाद्य महामते ॥ २ ॥ गर्भयोगी श्रुतः पूर्वं शुको नाम महातपाः । कथं च पठितं तेन पुराणं बहुविस्तरम् ॥ ३ ॥ ऋषिगण बोले — हे सौम्य ! महर्षि व्यास की किस पत्नी से शुकदेवजी उत्पन्न हुए ? उनका जन्म किस प्रकार हुआ और किस प्रकार से उन्होंने इस संहिता का सम्यक् अध्ययन कर लिया ? ॥ १ ॥ आपके द्वारा ही वे अयोनिज कहे गये हैं तो फिर अरणी से उनकी उत्पत्ति कैसे हुई ? हे महामते ! इसमें हमें महान् संशय हो रहा है, आप उसका समाधान करें ॥ २ ॥ हम लोगों ने पहले ही सुना है कि महातपस्वी शुकदेवजी गर्भयोगी थे। ऐसी स्थिति में उन्होंने इतने विस्तृत पुराण ( श्रीमद्देवीभागवत) – का अध्ययन कैसे कर लिया ? ॥ ३ ॥ ॥ सूत उवाच ॥ पुरा सरस्वतीतीरे व्यासः सत्यवतीसुतः । आश्रमे कलविंकौ तु दृष्ट्वा विस्मयमागतः ॥ ४ ॥ जातमात्रं शिशुं नीडे मुक्तमण्डान्मनोहरम् । ताम्रास्यं शुभसर्वाङ्गं पिच्छांकुरविवर्जितम् ॥ ५ ॥ तौ तु भक्ष्यार्थमत्यन्तं रतौ श्रमपरायणौ । शिशोश्चंचुपुटे भक्ष्यं क्षिपन्तौ च पुनः पुनः ॥ ६ ॥ अङ्गेनाङ्गानि बालस्य घर्षयन्तौ मुदान्वितौ । चुम्बन्तौ च मुखं प्रेम्णा कलविंकौ शिशोः शुभम् ॥ ७ ॥ वीक्ष्य प्रेमाद्भुतं तत्र बाले चटकयोस्तदा । व्यासश्चिन्तातुरः कामं मनसा समचिन्तयत् ॥ ८ ॥ तिरश्चामपि यत्प्रेम पुत्रे समभिलक्ष्यते । किं चित्रं यन्मनुष्याणां सेवाफलमभीप्सताम् ॥ ९ ॥ किमेतौ चटकौ चास्य विवाहं सुखसाधनम् । विरच्य सुखिनौ स्यातां दृष्ट्वा वध्वा मुखं शुभम् ॥ १० ॥ अथवा वार्धके प्राप्ते परिचर्यां करिष्यति । पुत्रः परमधर्मिष्ठः पुण्यार्थं कलविंकयोः ॥ ११ ॥ अर्जयित्वाथवा द्रव्यं पितरौ तर्पयिष्यति । अथवा प्रेतकार्याणि करिष्यति यथाविधि ॥ १२ ॥ अथवा किं गयाश्राद्धं गत्वा संवितरिष्यति । नीलोत्सर्गं च विधिवत्प्रकरिष्यति बालकः ॥ १३ ॥ सूतजी बोले — प्राचीन काल में एक समय सत्यवती के पुत्र व्यासजी सरस्वती नदी के किनारे अपने आश्रम में गौरैया पक्षी का जोड़ा देखकर आश्चर्यचकित हो गये ॥ ४ ॥ अण्डे से तत्काल पैदा हुए लाल मुखवाले, सुन्दर अंगोंवाले एवं पंखरहित शिशु को घोंसले में ही छोड़कर वे दोनों उड़ गये और अत्यन्त परिश्रम से चारा लाकर उस शिशु के चोंच में डालते हुए दोनों पक्षी अत्यन्त आह्लादयुक्त होकर उस शिशु के अंगों को अपने अंगों से रगड़ते हुए प्रेमपूर्वक उसके सुन्दर मुख को चूम रहे थे ॥ ५–७ ॥ व्यासजी उस शिशु में उन दोनों पक्षियों का ऐसा अद्भुत प्रेम देखकर चिन्ता में पड़ गये और मन-ही- मन सोचने लगे। यदि अपने पुत्र के प्रति पक्षियों में ऐसा प्रेम दिखायी दे रहा है तो अपनी सेवा का फल चाहने वाले मनुष्यों में ऐसा प्रेम-व्यवहार होने में आश्चर्य ही क्या ! क्या ये दोनों पक्षी इसका सुख-साधनस्वरूप विवाह करके स्वयं सुखी रहते हुए इसकी वधू का सुन्दर मुख देख पायेंगे ? क्या इनकी वृद्धावस्था में यह धर्मनिष्ठ पुत्र पुण्य प्राप्ति के लिये इन दोनों की सेवा करेगा? धन आदि अर्जित करके क्या यह अपने माता-पिता को सन्तुष्ट रखेगा और इनकी मृत्यु के उपरान्त क्या इनका विधि- पूर्वक प्रेतकर्म करेगा ? अथवा क्या गयातीर्थ जाकर यह बालक उनके श्राद्ध आदि कर्म करके उनका उद्धार करेगा तथा उनके परलोकसाधनहेतु क्या यह विधिपूर्वक नीलोत्सर्ग (नील वृषभ छोड़नेका कर्म ) करेगा ? ॥ ८-१३ ॥ संसारेऽत्र समाख्यातं सुखानामुत्तमं सुखम् । पुत्रगात्रपरिष्वंगो लालनञ्च विशेषतः ॥ १४ ॥ अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च । पुत्रादन्यतरन्नास्ति परलोकस्य साधनम् ॥ १५ ॥ मन्वादिभिश्च मुनिभिर्धर्मशास्त्रेषु भाषितम् । पुत्रवान्स्वर्गमाप्नोति नापुत्रस्तु कथञ्चन ॥ १६ ॥ दृश्यतेऽत्र समक्षं तन्नानुमानेन साध्यते । पुत्रवान्मुच्यते पापादाप्तवाक्यं च शाश्वतम् ॥ १७ ॥ आतुरे मृत्युकालेऽपि भूमिशय्यागतो नरः । करोति मनसा चिन्तां दुःखितः पुत्रवर्जितः ॥ १८ ॥ धनं मे विपुलं गेहे पात्राणि विविधानि च । मन्दिरं सुन्दरं चैतत्कोऽस्य स्वामी भविष्यति ॥ १९ ॥ मृत्युकाले मनस्तस्य दुःखेन भ्रमते यतः । अतोऽस्य दुर्गतिर्नूनं भ्रान्तचित्तस्य सर्वथा ॥ २० ॥ पुत्र के शरीर का आलिंगन और विशेषरूप से उसका लालन-पालन इस संसार में सभी सुखों में उत्तम सुख कहा गया है ॥ १४ ॥ पुत्ररहित मनुष्य की न तो सद्गति होती है और न तो उसे स्वर्ग की ही प्राप्ति होती है। अतः परलोक साधन के लिये पुत्र से बढ़कर अन्य कोई उपाय नहीं है ॥ १५ ॥ मनु आदि ऋषियों ने भी धर्मशास्त्रों में कहा है कि पुत्रवान् मनुष्य स्वर्ग प्राप्त करता है और पुत्रहीन व्यक्ति को स्वर्ग प्राप्ति कभी भी नहीं होती है ॥ १६ ॥ इस बात में अनुमान की कोई आवश्यकता ही नहीं है अपितु यह प्रत्यक्षरूप में भी देखा जाता है; साथ ही यह वेद, स्मृति आदि का भी सनातन वचन है कि पुत्रवान् मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है ॥ १७ ॥ रोगावस्था में तथा मरणकाल में भूमि – शय्या पर पड़ा हुआ सन्तानहीन प्राणी दुःखित होकर अपने मन में विचार करता है कि मेरे घर में पर्याप्त धन है, अनेक प्रकार के पात्र हैं तथा मेरा यह भवन भी अत्यन्त सुन्दर है; किंतु अब इन सबका स्वामी कौन होगा ? ॥ १८-१९ ॥ चूँकि मृत्युकाल में उस प्राणी का मन अति दुःखी होकर भ्रमित होता रहता है, इसलिये उस भ्रान्त मनवाले प्राणी की दुर्गति अवश्य ही होती है ॥ २० ॥ एवं बहुविधां चिन्तां कृत्वा सत्यवतीसुतः । निःश्वस्य बहुधा चोष्णं विमनाः सम्बभूव ह ॥ २१ ॥ विचार्य मनसात्यर्थं कृत्वा मनसि निश्चयम् । जगाम च तपस्तप्तुं मेरुपर्वतसनिधौ ॥ २२ ॥ मनसा चिन्तयामास कं देवं समुपास्महे । वरप्रदाननिपुणं वाञ्छितार्थप्रदं तथा ॥ २३ ॥ विष्णुं रुद्रं सुरेन्द्रं वा ब्रह्माणं वा दिवाकरम् । गणेशं कार्तिकेयं च पावकं वरुणं तथा ॥ २४ ॥ एवं चिन्तयतस्तस्य नारदो मुनिसत्तमः । यदृच्छया समायातो वीणापाणिः समाहितः ॥ २५ ॥ तं दृष्ट्वा परमप्रीतो व्यासः सत्यवतीसुतः । कृत्वार्घ्यमासनं दत्त्वा पप्रच्छ कुशलं मुनिम् ॥ २६ ॥ श्रुत्वाथ कुशलप्रश्नं पप्रच्छ मुनिसत्तमः । चिन्तातुरोऽसि कस्मात्त्वं द्वैपायन वदस्व मे ॥ २७ ॥ इस प्रकार अनेकानेक चिन्तन करके और बार-बार लम्बी तथा गर्म साँसें लेकर सत्यवतीपुत्र व्यासजी का मन अत्यन्त खिन्न हो गया ॥ २१ ॥ इसके बाद मन में बहुत सोच-विचार करके अन्ततः दृढ निश्चय करके वे तपश्चर्या के लिये मेरुपर्वत पर चले गये ॥ २२ ॥ उन्होंने मन में विचार किया कि मैं विष्णु, रुद्र, इन्द्र, ब्रह्मा, सूर्य, गणेश, कार्तिकेय, अग्नि एवं वरुण- इन देवताओं में किस देवता की आराधना करूँ, जो वर प्रदान करने में उदार तथा अभीष्ट फलों को देनेवाला हो ॥ २३-२४ ॥ इस प्रकार व्यासजी विचार कर ही रहे थे कि उसी समय संयोगवश मुनिश्रेष्ठ नारदजी हाथों में वीणा धारण किये हुए वहाँ आ गये ॥ २५ ॥ उन्हें देखकर सत्यवतीपुत्र व्यासजी अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने अर्घ्य तथा आसन प्रदान करके उन मुनि से कुशल-क्षेम पूछा ॥ २६ ॥ कुशल- प्रश्न सुन लेने के पश्चात् मुनिवर नारदजीने पूछा — हे द्वैपायन! आप किस कारणसे चिन्ताग्रस्त हैं ? मुझे बतायें ॥ २७ ॥ ॥ व्यास उवाच ॥ अपुत्रस्य गतिर्नास्ति न सुखं मानसे यतः । तदर्थं दुःखितश्चाहं चिन्तयामि पुन पुनः ॥ २८ ॥ तपसा तोषयाम्यद्य कं देवं वाच्छितार्थदम् । इति चिन्तातुरोऽस्म्यद्य त्वामहं शरणं गतः ॥ २९ ॥ सर्वज्ञोऽसि महर्षे त्वं कथयाशु कृपानिधे । कं देवं शरणं यामि यो मे पुत्रं प्रदास्यति ॥ ३० ॥ व्यासजी बोले — सन्तानहीन व्यक्ति की सद्गति नहीं होती और कभी भी उसके मन में सुखानुभूति नहीं होती है। इसी बात को लेकर मैं अत्यन्त दुःखित हूँ और बार-बार यही सोचता रहता हूँ ॥ २८ ॥ मैं अभिलषित फल देने वाले किस देवता को अपनी तप:साधना से प्रसन्न करूँ, इसी चिन्ता में पड़ा हुआ मैं [अब इसके समाधानहेतु] आपकी शरण में हूँ ॥ २९ ॥ हे महर्षे! आप सब कुछ जानने वाले हैं। हे कृपासिन्धु ! आप मुझे शीघ्र ही बतायें कि मैं किस देवता की शरण में जाऊँ, जो प्रसन्न होकर मुझे पुत्र प्रदान कर दे ॥ ३० ॥ ॥ सूत उवाच ॥ इति व्यासेन पृष्टस्तु नारदो वेदविन्मुनिः । उवाच परया प्रीत्या कृष्णं प्रति महामनाः ॥ ३१ ॥ ॥ नारद उवाच ॥ पाराशर्य महाभाग यत्त्वं पृच्छसि मामिह । तमेवार्थं पुरा पृष्टः पित्रा मे मधुसूदनः ॥ ३२ ॥ ध्यानस्थं च हरिं दृष्ट्वा पिता मे विस्मयं गतः । पर्यपृच्छत देवेशं श्रीनाथं जगतः पतिम् ॥ ३३ ॥ कौस्तुभोद्भासितं दिव्यं शङ्खचक्रगदाधरम् । पीताम्बरं चतुर्बाहुं श्रीवत्साङ्कितवक्षसम् ॥ ३४ ॥ कारणं सर्वलोकानां देवदेवं जगद्गुरुम् । वासुदेवं जगन्नाथं तप्यमानं महत्तपः ॥ ३५ ॥ सूतजी बोले — व्यासजी के द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर वेदवेत्ता तथा महामना महर्षि नारद अत्यन्त प्रेमपूर्वक कृष्णद्वैपायन से कहने लगे ॥ ३१ ॥ नारदजी बोले — हे पराशरतनय ! हे महाभाग ! आपके द्वारा जो प्रश्न यहाँ मुझसे पूछा गया है, वैसा ही प्रश्न पूर्वकाल में मेरे पिता ब्रह्माजी ने मधुसूदन भगवान् विष्णु से किया था ॥ ३२ ॥ मेरे पिता ब्रह्माजी कौस्तुभमणि की प्रभा से दीप्तिमान्, शंख-चक्र-गदा और पद्म धारण करने वाले, पीत वस्त्र धारण करने वाले, चार भुजाओं वाले, श्रीवत्सचिह्न से विभूषित वक्षःस्थल वाले, सभी लोकों के कारणस्वरूप, देवाधिदेव, जगद्गुरु, जगदीश्वर, वासुदेव, देवेश, जगत्पति, श्रीनाथ विष्णु को ध्यान में अवस्थित होकर कठोर तप करते हुए देखकर अत्यन्त विस्मय में पड़ गये और उन्होंने पूछा ॥ ३३-३५ ॥ ॥ ब्रह्मोवाच ॥ देवदेव जगन्नाथ भूतभव्यभवत्प्रभो । तपश्चरसि कस्मात्त्वं किं ध्यायसि जनार्दन ॥ ३६ ॥ विस्मयोऽयं ममात्यर्थं त्वं सर्वजगतां प्रभुः । ध्यानयुक्तोऽसि देवेश किं च चित्रमतः परम् ॥ ३७ ॥ त्वन्नाभिकमलाज्जातः कर्ताहमखिलस्य ह । त्वत्तः कोऽप्यधिकोऽस्त्यत्र तं देवं ब्रूहि मापते ॥ ३८ ॥ जानाम्यहं जगन्नाथ त्वमादिः सर्वकारणम् । कर्ता पालयिता हर्ता समर्थः सर्वकार्यकृत् ॥ ३९ ॥ इच्छया ते महाराज सृजाम्यहमिदं जगत् । हरः संहरते काले सोऽपि ते वचने सदा ॥ ४० ॥ सूर्यो भ्रमति चाकाशे वायुर्वाति शुभाशुभः । अग्निस्तपति पर्जन्यो वर्षतीश त्वदाज्ञया ॥ ४१ ॥ त्वं तु ध्यायसि कं देवं संशयोऽयं महान्मम । त्वत्तः परं न पश्यामि देवं वै भुवनत्रये ॥ ४२ ॥ कृपां कृत्वा वदस्वाद्य भक्तोऽस्मि तव सुव्रत । महतां नैव गोप्यं हि प्रायः किञ्चिदिति स्मृतिः ॥ ४३ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे देवाधिदेव ! हे जगन्नाथ ! हे भूत-भविष्य वर्तमान के स्वामी! आप किसलिये यह कठोर तपस्या कर रहे हैं ? हे जनार्दन ! आप किसके ध्यान में लीन हैं ? ॥ ३६ ॥ हे देवेश ! [ यह देखकर ] मैं परम विस्मय में पड़ गया हूँ कि समस्त विश्व का स्वामी होते हुए भी आप ऐसा ध्यान कर रहे हैं; भला इससे बढ़कर अन्य कौन-सी विचित्र बात होगी ! ॥ ३७ ॥ आपके नाभिकमल से प्रादुर्भूत होकर मैं सम्पूर्ण लोकों के कर्ता के रूप में अधिष्ठित हूँ। हे लक्ष्मीपते ! आपसे भी श्रेष्ठतर कौन देवता है? उस देवता को मुझे बताइये ॥ ३८ ॥ हे जगन्नाथ ! मैं तो यही जानता हूँ कि आप ही आदिस्वरूप, सबके कारण, निर्माता, पालनकर्ता, संहारक तथा सभी कार्यों को सम्पादित करने वाले हैं ॥ ३९ ॥ हे महाराज ! आपकी इच्छा से ही मैं इस जगत् के रचना – कार्य में प्रवृत्त होता हूँ और सदा आपके ही आदेश से शंकरजी प्रलयावस्था में जगत् का संहार करते हैं ॥ ४० ॥ हे ईश ! आपकी आज्ञा से ही सूर्य आकाश में [नियमित रूपसे] भ्रमण करता है, शुभ तथा अशुभ हवा चलती है, अग्नि ताप धारण करती है और मेघ वृष्टि करता है ॥ ४१ ॥ आप किस देवता का ध्यान कर रहे हैं? यह मेरी महती शंका है। मैं तो तीनों लोकों में आपसे बढ़कर अन्य किसी देवता को नहीं जानता हूँ ॥ ४२ ॥ हे सुव्रत ! मैं आपका भक्त हूँ, अतः कृपा करके [ अपनी तपस्याका रहस्य ] बताइये; क्योंकि यह सर्वविदित है कि महान् लोग अपने भक्तों से कुछ भी गोपनीय नहीं रखते हैं ॥ ४३ ॥ तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य हरिराह प्रजापतिम् । शृणुष्वैकमना ब्रह्मंस्त्वां ब्रवीमि मनोगतम् ॥ ४४ ॥ यद्यपि त्वां शिवं मां च स्थितिसृष्ट्यन्तकारणम् । ते जानन्ति जनाः सर्वे सदेवासुरमानुषाः ॥ ४५ ॥ स्रष्टा त्वं पालकश्चाहं हरः संहारकारकः । कृताः शक्त्येति संतर्कः क्रियते वेदपारगैः ॥ ४६ ॥ जगत्संजनने शक्तिस्त्वयि तिष्ठति राजसी । सात्त्विकी मयि रुद्रे च तामसी परिकीर्तिता ॥ ४७ ॥ तया विरहितस्त्वं न तत्कर्मकरणे प्रभुः । नाहं पालयितुं शक्तः संहर्तुं नापि शङ्करः ॥ ४८ ॥ तदधीना वयं सर्वे वर्तामः सततं विभो । प्रत्यक्षे च परोक्षे च दृष्टान्तं शृणु सुव्रत ॥ ४९ ॥ शेषे स्वपिमि पर्यङ्के परतन्त्रो न संशयः । तदधीनः सदोत्तिष्ठे काले कालवशं गतः ॥ ५० ॥ तपश्चरामि सततं तदधीनोऽस्म्यहं सदा । कदाचित्सह लक्ष्या च विहरामि यथासुखम् ॥ ५१ ॥ कदाचिद्दानवैः सार्धं संग्रामं प्रकरोम्यहम् । दारुणं देहदमनं सर्वलोकभयङ्करम् ॥ ५२ ॥ ब्रह्माजी का वचन सुनकर भगवान् विष्णु उनसे बोले — हे ब्रह्मन् ! आपको अपने मन की बात बताता हूँ, आप उसे एकाग्रचित्त होकर सुनें ॥ ४४ ॥ यद्यपि सभी देव, दानव और मानव यही जानते हैं कि आप जगत् की रचना, मैं जगत् के पालन और शिवजी जगत् के संहार के परम कारण हैं तथापि वेद-तत्त्वज्ञ विद्वान् यह तर्कना करते हैं कि किसी शक्ति के द्वारा ही आप सृष्टि के कर्ता हैं, मैं भर्ता हूँ और शंकरजी हर्ता हैं ॥ ४५-४६ ॥ जगत् की रचना के लिये आपमें राजसी शक्ति विद्यमान है, मुझमें सात्त्विकी शक्ति स्थित है तथा शिवजी में तामसी शक्ति बतायी गयी है ॥ ४७ ॥ उस शक्ति के न रहने पर आप न तो सृष्टि रचना कर सकते हैं, न मैं पालन-कार्य करने में समर्थ हो सकता हूँ और न तो शंकर संहार कर सकते हैं ॥ ४८ ॥ हे विभो ! हम सभी निरन्तर उसी शक्ति के अधीन रहते हैं । हे सुव्रत ! अब प्रत्यक्ष तथा परोक्ष से सम्बन्धित दृष्टान्त भी आप सुनिये ॥ ४९ ॥ इसमें कोई संशय नहीं कि मैं परतन्त्र होकर शेष- शय्या पर शयन करता हूँ और उसी शक्ति के अधीन होकर समय पर काल का वशवर्ती होकर मैं शयन से उठता हूँ ॥ ५० ॥ उसी शक्ति का अवलम्बन प्राप्त कर मैं सदा तपश्चरण करता रहता हूँ। मैं कभी लक्ष्मी के साथ सुखपूर्वक विहार करता हूँ और कभी दानवों के साथ अत्यन्त भीषण, शरीर को चूर्ण कर देने वाला तथा लोगों को भयभीत कर देने वाला युद्ध भी करता हूँ ॥ ५१-५२ ॥ प्रत्यक्षं तव धर्मज्ञ तस्मिन्नेकार्णवे पुरा । पञ्चवर्षसहस्राणि बाहुयुद्धं मया कृतम् ॥ ५३ ॥ तौ कर्णमलजौ दुष्टौ दानवौ मदगर्वितौ । देव देव्याः प्रसादेन निहतौ मधुकैटभौ ॥ ५४ ॥ तदा त्वया न किं ज्ञातं कारणं तु परात्परम् । शक्तिरूपं महाभाग किं पृच्छसि पुनः पुनः ॥ ५५ ॥ यदिच्छः पुरुषो भूत्वा विचरामि महार्णवे । कच्छपः कोलसिंहश्च वामनश्च युगे युगे ॥ ५६ ॥ न कस्यापि प्रियो लोके तिर्यग्योनिषु सम्भवः । नाभवं स्वेच्छया वामवराहादिषु योनिषु ॥ ५७ ॥ विहाय लक्ष्या सह संविहारं को याति मत्स्यादिषु हीनयोनिषु । शय्यां च मुक्त्वा गरुडासनस्थः करोमि युद्धं विपुलं स्वतन्त्रः ॥ ५८ ॥ पुरा पुरस्तेऽज शिरो मदीयं गतं धनुर्ज्यास्खलनात्क्व चापि । त्वया तदा वाजिशिरो गृहीत्वा संयोजितं शिल्पिवरेण भूयः ॥ ५९ ॥ हयाननोऽहं परिकीर्तितश्च प्रत्यक्षमेतत्तव लोककर्तः । विडम्बनेयं किल लोकमध्ये कथं भवेदात्मपरो यदि स्याम् ॥ ६० ॥ तस्मान्नाहं स्वतन्त्रोऽस्मि शक्त्यधीनोऽस्मि सर्वथा । तामेव शक्तिं सततं ध्यायामि च निरन्तरम् ॥ ६१ ॥ नातः परतरं किञ्चिज्जानामि कमलोद्भव । हे धर्मज्ञ ! आप यह तो प्रत्यक्ष जानते हैं कि पूर्व समय में मेरे द्वारा उस महासिन्धु में पाँच हजार वर्षों तक भीषण बाहुयुद्ध किया गया था ॥ ५३ ॥ हे देव! कान की मैल से उत्पन्न अत्यन्त दुष्ट, मदोन्मत्त तथा अहंकारी मधु-कैटभ नामक दोनों दानवों का मैंने देवी की कृपा से ही संहार किया था। हे महाभाग ! क्या आप उस समय परात्पर कारणस्वरूपा महाशक्ति को नहीं जान पाये थे ? अतः बार-बार क्यों पूछ रहे हैं ? ॥ ५४-५५ ॥ उसी शक्ति की इच्छा से मैं परमपुरुष के रूप में महासागर में विचरण करता हूँ और विभिन्न युगों में कच्छप, वराह, नृसिंह तथा वामन के रूप में अवतरित होता रहता हूँ ॥ ५६ ॥ तिर्यग्योनि में उत्पन्न होना किसी के लिये भी प्रिय नहीं होता। मैं अपनी इच्छा से वामन, वराह आदि योनियों में उत्पन्न नहीं होता हूँ। [ अपितु इसमें उसी शक्ति की प्रेरणा ही परम कारण है ] ॥ ५७ ॥ भला ऐसा कौन होगा, जो लक्ष्मी के साथ सुख- दायक विहार का त्याग करके मत्स्यादि नीच योनियों में जन्म लेगा? यदि मैं स्वतन्त्र होता तो [सुखदायिनी ] शय्या को छोड़कर गरुडरूपी आसन पर बैठकर महाभयंकर युद्ध क्यों करता ! ॥ ५८ ॥ हे अज! प्राचीन काल में एक बार आपके समक्ष ही धनुष की प्रत्यंचा टूट जाने के कारण मेरा सिर छिन्न हो गया था। तब शिल्पकारों में श्रेष्ठ आपने फिर से मेरे धड़ पर घोड़े का सिर जोड़ दिया था ॥ ५९ ॥ हे लोकनिर्माता ! उसी समय से मैं ‘हयग्रीव’ नाम से लोकप्रसिद्ध हुआ, यह सब आपके सामने घटित हुआ था । यदि मैं स्वाधीन होता तो संसार में यह विडम्बना कैसे होती ? ॥ ६० ॥ अतएव मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ, अपितु सर्वथा उसी शक्ति के अधीन हूँ। मैं निरन्तर उसी शक्ति का ध्यान करता रहता हूँ। हे कमलोद्भव! मैं इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं जानता ॥ ६११/२ ॥ ॥ नारद उवाच ॥ इत्युक्तं विष्णुना तेन पद्मयोनेस्तु सन्निधौ ॥ ६२ ॥ तेन चाप्यहमुक्तोऽस्मि तथैव मुनिपुङ्गव । तस्मात्त्वमपि कल्याण पुरुषार्थाप्तिहेतवे ॥ ६३ ॥ असंशयं हृदम्भोजे भज देवीपदाम्बुजम् । सर्वं दास्यति सा देवी यद्यदिष्टं भवेत्तव ॥ ६४ ॥ ॥ सूत उवाच ॥ नारदेनैवमुक्तस्तु व्यासः सत्यवतीसुतः । देवीपादाब्जनिष्णातस्तपसे प्रययौ गिरौ ॥ ६५ ॥ ॥ इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां प्रथमस्कन्धे देवीसर्वोत्तमेतिकथनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ नारदजी बोले — हे व्यासजी ! भगवान् विष्णु ने ब्रह्माजी से इस प्रकार कहा था । हे मुनिश्रेष्ठ ! मेरे पिता ब्रह्माजी ने वे सब बातें मुझसे कही थीं। अतः आप भी कल्याणकारी पुत्र – प्राप्ति के उद्देश्य से सर्वथा संशयरहित होकर अपने हृदयकमल में देवी भगवती के चरणारविन्द का ध्यान कीजिये । वे देवी आपके समस्त अभिलषित फलों को अवश्य प्रदान करेंगी ॥ ६२-६४ ॥ सूतजी बोले — नारदजीके ऐसा कहनेपर सत्यवतीपुत्र व्यासजी देवीके चरणारविन्दमें अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए तपश्चर्याहेतु पर्वतपर चले गये ॥ ६५ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत प्रथम स्कन्ध का ‘देवी सर्वोत्तम हैं ‘ — ऐसे वर्णन वाला चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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