श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-चतुर्थ स्कन्धः-अध्याय-19
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-चतुर्थ: स्कन्धः-एकोनविंशोऽध्यायः
उन्नीसवाँ अध्याय
देवताओं द्वारा भगवती का स्तवन, भगवती द्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुन को निमित्त बनाकर अपनी शक्ति से पृथ्वी का भार दूर करने का आश्वासन देना
देवान् प्रति देवीवाक्यवर्णनम्

व्यासजी बोले — [ हे राजन्!] ऐसा कहने के उपरान्त भगवान् विष्णु ने ब्रह्माजी से फिर कहा जिन भगवती की माया से मोहित रहने के कारण सभी लोग परमतत्त्व को नहीं जान पाते, उन्हीं की माया से आच्छादित रहने के कारण हम लोग भी जगद्गुरु, शान्तस्वरूप, सच्चिदानन्द तथा अविनाशी परमपुरुष का स्मरण नहीं कर पाते ॥ १-२ ॥ हे ब्रह्मन् ! मैं विष्णु हूँ, मैं ब्रह्मा हूँ, मैं शिव हूँ – इसी [अभिमान से] मोहित हम लोग उस सनातन परम- तत्त्व को नहीं जान पाते ॥ ३ ॥ उस परमात्मा की माया से मोहित मैं उसी प्रकार सदा उसके अधीन रहता हूँ, जैसे कठपुतली बाजीगर के अधीन रहती है ॥ ४ ॥ कल्प के आरम्भ में आप (ब्रह्मा) – ने, शिव ने तथा मैंने भी सुधासागर में उस परमात्मा की अद्भुत विभूति का दर्शन किया था। मणिद्वीप में मन्दारवृक्ष के नीचे चल रहे रासमण्डल में एकत्रित सभा में भी वह विभूति साक्षात् देखी गयी थी; न कि वह केवल कही सुनी गयी बात है ॥ ५-६ ॥

अतएव इस अवसर पर सभी देवता उसी परमा शक्ति, कल्याणकारिणी, सभी कामनाएँ पूर्ण करने वाली, माया- स्वरूपिणी तथा परमात्मा की आद्याशक्ति भगवती का स्मरण करें ॥ ७ ॥

व्यासजी बोले — भगवान् विष्णु के ऐसा कहने पर ब्रह्मा आदि देवता सदा विराजमान रहने वाली भगवती योगमाया का एकाग्र मन से ध्यान करने लगे ॥ ८ ॥ उनके स्मरण करते ही भगवती ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन प्रदान किया। उस समय वे देवी जपाकुसुम के समान रक्तवर्ण से सुशोभित थीं और उन्होंने पाश, अंकुश, वर तथा अभय मुद्रा धारण कर रखी थी। उन परम सुन्दर भगवती को देखकर सभी देवता अत्यन्त प्रसन्न हुए और उनकी स्तुति करने लगे ॥ ९ ॥

देवता बोले — जिस प्रकार मकड़ी की नाभि से तन्तु तथा अग्नि से चिनगारियाँ निकलती हैं, उसी प्रकार यह जगत् जिनसे प्रकट हुआ है, उन भगवती को हम नमस्कार करते हैं ॥ १० ॥ जिनकी मायाशक्ति से सम्पूर्ण चराचर जगत् पूर्णत: ओत-प्रोत है, उन चित्स्वरूपिणी करुणासिन्धु भुवनेश्वरी का हम स्मरण करते हैं ॥ ११ ॥ जिन्हें न जानने से संसार में बार-बार जन्म होता रहता है और जिनका ज्ञान हो जाने से भव-बन्धन का नाश हो जाता है, उन ज्ञानस्वरूपिणी भगवती का हम स्मरण करते हैं। वे हमें [सन्मार्ग पर चलने के लिये] प्रेरित करें। हम उन महालक्ष्मी को जानें। हम सर्वशक्तिमयी भगवती का ध्यान करते हैं। वे भगवती हमें [ सत्कर्म में प्रवृत्त होने की] प्रेरणा प्रदान करें ॥ १२-१३ ॥ संसार का कष्ट हरने वाली हे माता! हम आपको प्रणाम करते हैं, आप प्रसन्न होइये। हे दया से आर्द्र हृदय वाली! हमारा कल्याण कीजिये हमारा यह कार्य सम्पन्न कर दीजिये। हे महेश्वरि ! असुर समुदाय का संहार करके पृथ्वीका भार उतार दीजिये। हे भवानि ! आप सज्जनों का कल्याण करें ॥ १४ ॥

हे कमलनयने ! यदि आप देवताओं पर दया नहीं करेंगी तो वे समरांगण में तलवारों तथा बाणों से [ दैत्यों पर ] प्रहार करने में समर्थ कैसे हो सकेंगे? इस बात को आपने स्वयं [यक्षोपाख्यान प्रसंग में] यक्षरूप धारण करके ‘हे हुताशन! आप इस तिनकेको जला दें’ इत्यादि पद-कथनों के द्वारा व्यक्त कर दिया है ॥ १५ ॥ हे माता ! कंस, भौमासुर, कालयवन, केशी, बृहद्रथ-पुत्र जरासन्ध, बकासुर, पूतना, खर और शाल्व आदि तथा इनके अतिरिक्त और भी जो दुष्ट राजागण पृथ्वी पर हैं, उन्हें मारकर आप शीघ्र ही पृथ्वी का भार उतार दीजिये ॥ १६ ॥ हे कमलनयने ! जिन दैत्यों को भगवान् विष्णु, शिव और इन्द्र भी [ कई बार] युद्ध करके नहीं मार सके, वे दैत्य युद्धभूमि में आपका सुखदायक मुखमण्डल देखते हुए आपकी लीला से आपके बाणों के द्वारा मार डाले गये ॥ १७ ॥ चन्द्रकला को मस्तक पर धारण करने वाली हे देवदेवि ! विष्णु, शिव आदि प्रमुख देवता भी आपकी शक्ति के बिना हिलने-डुलने तक में समर्थ नहीं हैं। इसी प्रकार क्या शेषनाग भी आपकी शक्ति के बिना पृथ्वी को धारण कर सकने में समर्थ हैं ? ॥ १८ ॥

इन्द्र बोले — [ हे माता!] क्या सरस्वती के बिना ब्रह्मा इस विश्व की सृष्टि करने में, लक्ष्मी के बिना विष्णु पालन करने में और पार्वती के बिना शिवजी संहार करने में समर्थ हो सकते हैं? वे महान् देवगण उन्हीं [ तीनों महाशक्तियों ]- के साथ अपना-अपना कार्य कर सकने में समर्थ होते हैं ॥ १९ ॥

विष्णु बोले — हे अनघे! आपकी कला से रहित होकर न तो ब्रह्मा इस त्रिलोकी की रचना कर सकने में, न तो मैं इसका पालन कर सकने में और न तो शिव इसका संहार कर सकने में समर्थ हैं। हे समस्त विभवों की स्वामिनि ! इसका सृजन, पालन तथा संहार करने में समर्थ निश्चितरूप से आप ही प्रतीत होती हैं ॥ २० ॥

 व्यासजी बोले — इस प्रकार उन देवताओं ने जब देवी की स्तुति की, तब उन्होंने उन देवेश्वरों से कहा वह कौन-सा कार्य है ? आप लोग सन्तापरहित होकर बतायें, मैं अभी करूँगी। इस संसार में देवताओं के द्वारा अभिलषित जो असाध्य कार्य भी होगा, उसे मैं करूँगी। हे श्रेष्ठ देवतागण ! आप लोग अपना तथा पृथ्वी का दुःख मुझे बताइये ॥ २१-२२ ॥

देवता बोले — दुष्ट राजाओं से पीड़ित यह पृथ्वी उनके भार से व्याकुल होकर रोती तथा थर-थर काँपती हुई हम देवताओं के पास आयी । हे भुवनेश्वरि ! आप इसका भार उतार दें । हे शिवे ! इस समय हम देवताओं का यही अभीष्ट कार्य है ॥ २३-२४ ॥ हे माता ! पूर्वकाल में आप अत्यधिक बलसम्पन्न दानव महिषासुर का वध कर चुकी हैं। इसके अतिरिक्त आप उसके करोड़ों सहायकों, शुम्भ, निशुम्भ, रक्तबीज, महाबली चण्ड-मुण्ड, धूम्रलोचन, दुर्मुख, दुःसह, अतिशय बलवान् कराल तथा दूसरे भी अनेक क्रूर दानवों को मार चुकी हैं। उसी प्रकार आप हम देवताओं के शत्रुरूप सभी दुष्ट राजाओं का वध कीजिये। (दुष्ट राजाओं का वध करके पृथ्वी का दुःसह भार उतार दीजिये ) ॥ २५-२७१/२

व्यासजी बोले — [ हे राजन्!] देवताओं के ऐसा कहने पर नीले नेत्रप्रान्तवाली कल्याणमयी भगवती हँसकर मेघ के समान गम्भीर वाणी में उनसे कहने लगीं ॥ २८१/२

श्रीदेवी बोलीं — हे देवताओ! मैंने यह पहले से ही सोच रखा है कि मैं अंशावतार धारण करूँ, जिससे पृथ्वी पर से दुष्ट राजाओं का भार उतर जाय। हे महाभाग देवताओ ! मन्द तेज वाले जरासन्ध आदि जो बड़े-बड़े दैत्य राजागण हैं, उन सबको मैं अपनी शक्ति से मार डालूंगी। हे देवतागण ! आप लोग भी अपने-अपने अंशों से पृथ्वी पर अवतार लेकर मेरी शक्ति से युक्त होकर भार उतारें ॥ २९–३११/२

मेरे अवतार लेने से पूर्व देवताओं के प्रजापति कश्यप अपनी पत्नी के साथ यदुकुल में वसुदेव नाम से अवतीर्ण होंगे। उसी प्रकार भृगु के शाप से अविनाशी भगवान् विष्णु अपने अंश से वहीं पर वसुदेव के पुत्र के रूप में उत्पन्न होंगे ॥ ३२-३३१/२

हे श्रेष्ठ देवताओ ! उस समय मैं भी गोकुल में यशोदा के गर्भ से उत्पन्न होऊँगी और देवताओं का सारा कार्य सिद्ध करूँगी। कारागार में अवतीर्ण हुए [कृष्णरूपधारी ] विष्णु को मैं गोकुल में पहुँचा दूँगी और देवकी के गर्भ से शेषभगवान्‌ को खींचकर रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दूँगी । मेरी शक्ति से सम्पन्न होकर वे दोनों ही दुष्टों का विनाश करेंगे। द्वापर के व्यतीत होते ही दुष्ट राजाओं का पूर्णरूप से संहार बिलकुल निश्चित है ॥ ३४-३६१/२

साक्षात् इन्द्र के अंशस्वरूप अर्जुन भी [उन दुष्ट राजाओं के] बल का नाश करेंगे। धर्म के अंशरूप महाराज युधिष्ठिर, वायु के अंशरूप भीमसेन तथा दोनों अश्विनीकुमारों के अंशरूप नकुल सहदेव भी उत्पन्न होंगे। [ उसी समय ] वसु के अंश से अवतीर्ण गंगापुत्र भीष्म उन दुष्ट राजाओं की शक्ति नष्ट करेंगे ॥ ३७-३८१/२

हे श्रेष्ठ देवतागण ! अब आप लोग जायँ और पृथ्वी भी निश्चिन्त होकर रहे। मैं उन अंशावतारी लोगों को निमित्तमात्र बनाकर अपनी शक्ति से इस पृथ्वी का भार दूर करूँगी, इसमें सन्देह नहीं है । मैं क्षत्रियों का यह संहार कुरुक्षेत्र में करूँगी ॥ ३९-४०१/२

असूया, ईर्ष्या, बुद्धि, तृष्णा, ममता, अपनी प्रिय वस्तु की इच्छा, स्पृहा, विजय की अभिलाषा, काम और मोह — इन दोषों के कारण सभी यादव नष्ट हो जायँगे। ब्राह्मण के शाप से उनके वंश का नाश हो जायगा और उसी शापवश भगवान् श्रीकृष्ण भी अपने शरीर का त्याग कर देंगे । अब आप लोग भी अपनी शक्तिस्वरूपा भार्याओंसहित अपने- अपने अंशों से मथुरा तथा गोकुल में अवतरित हों और शार्ङ्गपाणि भगवान् विष्णु के सहायक बनें ॥ ४१ – ४३१/२

व्यासजी बोले — ऐसा कहकर परमात्मा की योगमाया भगवती अन्तर्धान हो गयीं । तदनन्तर पृथ्वीसहित सभी देवता अपने-अपने स्थान पर चले गये । पृथ्वी भी उन भगवती की वाणी से सन्तुष्ट होकर शान्तचित्त हो गयी । हे जनमेजय ! वह औषधियों और लताओं से सम्पन्न हो गयी। प्रजाएँ सुखी हो गयीं, द्विजगणों की महान् उन्नति होने लगी और सभी मुनिगण सन्तुष्ट होकर धर्मपरायण हो गये ॥ ४४-४६ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत चतुर्थ स्कन्ध का ‘देवों के प्रति देवीवाक्य वर्णन’ नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥

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