श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-चतुर्थ स्कन्धः-अध्याय-21
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-चतुर्थ: स्कन्धः-एकविंशोऽध्यायः
इक्कीसवाँ अध्याय
देवकी के प्रथम पुत्र का जन्म, वसुदेव द्वारा प्रतिज्ञानुसार उसे कंस को अर्पित करना और कंस द्वारा उस नवजात शिशु का वध
कंसेन देवकीप्रथमपुत्रवधवर्णनम्

व्यासजी बोले — हे राजन् ! इसके बाद समय आनेपर देवस्वरूपिणी देवकी ने वसुदेव के संयोग से विधिवत् गर्भ धारण किया ॥ १ ॥ दसवाँ माह पूर्ण होने पर जब देवकी ने अत्यन्त रूपसम्पन्न तथा सुडौल अंगोंवाले अत्युत्तम प्रथम पुत्र को जन्म दिया तब सत्यप्रतिज्ञा से बँधे हुए महाभाग वसुदेव ने होनहार से विवश होकर देवमाता देवकी से कहा ॥ २-३ ॥

हे सुन्दरि ! अपने सभी पुत्र कंस को अर्पित कर देने की मेरी प्रतिज्ञा को तुम भलीभाँति जानती हो । हे महाभागे ! उस समय इसी प्रतिज्ञा के द्वारा मैंने तुम्हें कंस से मुक्त कराया था। अतएव हे सुन्दर केशों वाली ! मैं यह पुत्र तुम्हारे चचेरे भाई कंस को अर्पित कर दे रहा हूँ। ( जब दुष्ट कंस अथवा प्रारब्ध विनाश के लिये उद्यत ही है तो तुम कर ही क्या सकोगी ?) अद्भुत कर्मों का परिणाम आत्मज्ञान से रहित प्राणियों के लिये दुर्ज्ञेय होता है। काल के पाश में बँधे हुए समस्त जीवों को अपने द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्मों का फल निश्चितरूप से भोगना ही पड़ता है। प्रत्येक जीव का प्रारब्ध निश्चित- रूप से विधि के द्वारा ही निर्मित है ॥ ४–६१/२

देवकी बोली — हे स्वामिन्! मनुष्यों को अपने पूर्वजन्म में किये गये कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है; किंतु क्या तीर्थाटन, तपश्चरण एवं दानादि से वह कर्म फल नष्ट नहीं हो सकता है ? हे महाराज ! पूर्व अर्जित पापों के विनाश के लिये महात्माओं ने धर्मशास्त्रों में तो नानाविध प्रायश्चित्त के विधान का उल्लेख किया है ॥ ७-८१/२

ब्रह्महत्या करने वाला, स्वर्ण का हरण करने वाला, सुरापान करने वाला तथा गुरुपत्नी के साथ व्यभिचार करने वाला महापापी भी बारह वर्षों तक व्रत का अनुष्ठान कर लेने पर शुद्ध हो जाता है। हे अनघ ! उसी प्रकार मनु आदि के द्वारा उपदिष्ट प्रायश्चित्त का विधानपूर्वक अनुष्ठान करके मनुष्य क्या पाप से मुक्त नहीं हो जाता है ? [ यदि प्रायश्चित्त-विधान के द्वारा पाप से मुक्ति नहीं मिलती है तो ] क्या याज्ञवल्क्य आदि धर्मशास्त्र प्रणेता तत्त्वदर्शी मुनियों के वचन निरर्थक हो जायँगे ? हे स्वामिन्! होनी होकर ही रहती है यदि यह निश्चित है तब तो सभी आयुर्वेद एवं सभी मन्त्रशास्त्र झूठे सिद्ध हो जायँगे और इस प्रकार भाग्यलेख के समक्ष सभी उद्यम अर्थहीन हो जायँगे ॥ ९-१३ ॥ ‘जो होना है, वह अवश्य घटित होता है’ यदि [ यही सत्य है ] तो सत्कर्मों की ओर प्रवृत्त होना व्यर्थ हो जायगा और अग्निष्टोम आदि स्वर्गप्राप्ति के शास्त्र-सम्मत साधन भी निरर्थक हो जायँगे। जब वेद-शास्त्रादि के उपदेश ही व्यर्थ हो गये, तब उन प्रमाणों के झूठा हो जाने पर क्या धर्म का समूल नाश नहीं हो जायगा ? ॥ १४-१५ ॥

उद्यम करने पर सिद्धि की प्रत्यक्ष प्राप्ति हो जाती है। अतएव अपने मन में भलीभाँति सोच करके कोई ऐसा उपाय कीजिये, जिससे मेरा यह बालक पुत्र बच जाय । किसी के कल्याण की इच्छा से यदि झूठ बोल दिया जाय तो इसमें किसी प्रकार का दोष नहीं होता है ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं ॥ १६-१७१/२

वसुदेव बोले — हे महाभागे ! सुनो, मैं तुमसे यह सत्य कह रहा हूँ । मनुष्य को उद्यम करना चाहिये, उसका फल दैव के अधीन रहता है। प्राचीन तत्त्ववेत्ताओं ने इस संसार में प्राणियों के तीन प्रकार के कर्म पुराणों तथा शास्त्रों में बताये हैं । हे सुमध्यमे ! संचित, प्रारब्ध और वर्तमान ये तीन प्रकार के कर्म देहधारियों के होते हैं। हे सुजघने ! प्राणियों द्वारा सम्पादित जो भी शुभाशुभ कर्म होते वे बीज का रूप धारण कर लेते हैं और अनेक जन्मों के उपार्जित वे कर्म समय पाकर फल देने के लिये उपस्थित हो जाते हैं ॥ १८–२११/२

जीव अपना पूर्व शरीर छोड़कर अपने द्वारा किये गये कर्मों के अधीन होकर स्वर्ग अथवा नरक में जाता है। सुकर्म करने वाला जीव दिव्य शरीर प्राप्त करके स्वर्ग में नानाविध सुखों का उपभोग करता है तथा दुष्कर्म करने वाला विषयभोगजन्य यातना देह प्राप्त करके नरक में अनेक प्रकार के कष्ट भोगता है ॥ २२-२३१/२

इस प्रकार भोग पूर्ण हो जाने पर जब पुनः उसके जन्म का समय आता है, तब लिंगदेह के साथ संयोग होने पर उसकी ‘जीव’ संज्ञा हो जाती है। उसी समय जीव का संचित कर्मों से सम्बन्ध हो जाता है और पुनः लिंगदेह के आविर्भाव के समय परमात्मा उन कर्मों के साथ जीव को जोड़ देते हैं। हे सुलोचने! इसी शरीर के द्वारा जीव को संचित, वर्तमान और प्रारब्ध — इन तीन प्रकार के शुभ अथवा अशुभ कर्म भोगने पड़ते हैं। हे भामिनि ! केवल वर्तमान कर्म ही प्रायश्चित्त आदि के द्वारा नष्ट किये जा सकते हैं। इसी प्रकार समुचित शास्त्रोक्त उपायों द्वारा संचित कर्मों को भी विनष्ट किया जा सकता है, किंतु प्रारब्ध कर्मों का क्षय तो भोग से ही सम्भव है, अन्यथा नहीं ॥ २४-२८ ॥ अतएव मुझे तुम्हारे इस पुत्र को हर प्रकार से कंस को अर्पित कर ही देना चाहिये। ऐसा करने से मेरा वचन भी मिथ्या नहीं होगा और लोकनिन्दा का दोष भी मुझे नहीं लगेगा ॥ २९ ॥

इस अनित्य संसार में महापुरुषों के लिये धर्म ही एकमात्र सार तत्त्व है। इस लोक में प्राणियों का जन्म तथा मरण दैव के अधीन है। अतएव हे प्रिये! प्राणियों को व्यर्थ शोक नहीं करना चाहिये। इस संसार में जिसने सत्य छोड़ दिया उसका जीवन निरर्थक ही है ॥ ३०-३१ ॥ जिसका यह लोक बिगड़ गया, उसके लिये परलोक कहाँ ? अतः हे सुन्दर भौंहोंवाली ! यह बालक मुझे दे दो और मैं इसे कंस को साँप दूँ ॥ ३२ ॥ अनुगमन करने से आगे हे देवि ! सत्य-पथ का कल्याण होगा। हे प्रिये! सुख अथवा दुःख – किसी भी परिस्थिति में मनुष्यों को सत्कर्म ही करना चाहिये। (हे देवि ! सत्य की भलीभाँति रक्षा करने से कल्याण ही होगा ) ॥ ३३ ॥

व्यासजी बोले — अपने प्रिय पति के ऐसा कहने पर शोक-सन्तप्त तथा काँपती हुई मनस्विनी देवकी ने वह नवजात शिशु वसुदेव को दे दिया ॥ ३४ ॥ धर्मात्मा वसुदेव भी अपने पुत्र उस अबोध शिशु को लेकर कंस के महल की ओर चल पड़े। मार्ग में लोग उनकी प्रशंसा कर रहे थे ॥ ३५ ॥

लोगों ने कहा — हे नागरिको! इस मनस्वी वसुदेव को देखो; इस अबोध बालक को लेकर ये द्वेषरहित एवं सत्यवादी वसुदेव अपने वचन की रक्षा के लिये आज इसे मृत्यु को समर्पित करने जा रहे हैं। इनका जीवन सफल हो गया है। इनके इस अद्भुत धर्मपालन को देखो, जो साक्षात् कालस्वरूप कंस को अपना पुत्र देने के लिये जा रहे हैं ॥ ३६-३७१/२

व्यासजी बोले — हे राजन् ! इस प्रकार लोगों द्वारा प्रशंसित होते हुए वे वसुदेव कंस के महल में पहुँच गये और उस दिव्य नवजात शिशु को कंस को अर्पित कर दिया । महात्मा वसुदेव के इस धैर्य को देखकर कंस भी विस्मित हो गया ॥ ३८-३९ ॥

उस बालक को अपने हाथों में लेकर कंस ने मुसकराते हुए यह वचन कहा — हे शूरसेनतनय ! आप धन्य हैं; आज आपके इस पुत्र – समर्पण के कृत्य से मैंने आपका महत्त्व जान लिया ॥ ४० ॥
यह बालक मेरी मृत्यु का कारण नहीं है; क्योंकि आकाशवाणी के द्वारा देवकी का आठवाँ पुत्र मेरी मृत्यु का कारण बताया गया है। अतएव मैं इस बालक का वध नहीं करूँगा, आप इसे अपने घर ले जाइये ॥ ४१ ॥ हे महामते ! आप मुझे देवकी का आठवाँ पुत्र दे दीजियेगा। ऐसा कहकर उस दुष्ट कंस ने तुरंत वह शिशु वसुदेव को वापस दे दिया ॥ ४२ ॥

राजा कंस ने कहा कि यह बालक अपने घर जाय और सकुशल रहे। तत्पश्चात् उस बालक को लेकर शूरसेन- पुत्र वसुदेव प्रसन्नतापूर्वक अपने घर की ओर चल पड़े ॥ ४३ ॥ इसके बाद कंस ने भी अपने मन्त्रियों से कहा कि मैं इस शिशु की व्यर्थ ही हत्या क्यों करता; क्योंकि मेरी मृत्यु तो देवकी के आठवें पुत्र से कही गयी है, अतः देवकी के प्रथम शिशु का वध करके मैं पाप क्यों करूँ ? तब वहाँ विद्यमान श्रेष्ठ मन्त्रिगण ‘साधु, साधु’ – ऐसा कहकर और कंस से आज्ञा पाकर अपने-अपने घर चले गये। उनके चले जाने पर मुनिश्रेष्ठ नारदजी वहाँ आ गये ॥ ४४–४६ ॥ उस समय उग्रसेन – पुत्र कंस ने श्रद्धापूर्वक उठकर विधिवत् अर्घ्य, पाद्य आदि अर्पण किया और पुनः कुशल- क्षेम तथा उनके आगमन का कारण पूछा ॥ ४७ ॥

तब नारदजी ने मुसकराकर कंस से यह वचन कहा — हे कंस! हे महाभाग! मैं सुमेरुपर्वत पर गया था। वहाँ ब्रह्मा आदि देवगण एकत्र होकर आपस में मन्त्रणा कर रहे थे कि वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से सुरश्रेष्ठ भगवान् विष्णु आपके संहार के उद्देश्य से अवतार लेंगे; तो फिर नीति का ज्ञान रखते हुए भी आपने उस शिशु का वध क्यों नहीं किया ? ॥ ४८-५० ॥

कंस बोला — आकाशवाणी के द्वारा बताये गये अपने मृत्यु-रूप [देवकी के] आठवें पुत्र का मैं वध करूँगा ॥ ५०१/२

नारदजी बोले — हे नृपश्रेष्ठ ! आप शुभ तथा अशुभ राजनीति को नहीं जानते हैं और देवताओं की माया – शक्ति भी नहीं जानते हैं। अब मैं क्या बताऊँ ? अपना कल्याण चाहने वाले वीर को छोटे-से-छोटे शत्रु की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये ॥ ५१-५२ ॥ [ गणितशास्त्र की] सम्मेलन-क्रिया के आधार पर तो सभी पुत्र आठवें कहे जा सकते हैं। आप मूर्ख हैं; क्योंकि ऐसा जानते हुए भी आपने शत्रु को छोड़ दिया है ॥ ५३ ॥

ऐसा कहकर श्रीमान् देवदर्शन नारद वहाँ से शीघ्रतापूर्वक चले गये। नारद के चले जाने पर कंस ने उस बालक को मँगवाकर उसे पत्थर पर पटक दिया और उस मन्दबुद्धि कंसको महान् सुख प्राप्त हुआ ॥ ५४ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकोंवाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत चतुर्थ स्कन्ध का ‘कंस द्वारा देवकी के प्रथम पुत्र के वध का वर्णन’ नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २१ ॥

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