श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-04
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-चतुर्थोऽध्यायः
चौथा अध्याय
इन्द्र का देवताओं तथा गुरु बृहस्पति से परामर्श करना तथा बृहस्पति द्वारा जय-पराजय में दैव की प्रधानता बतलाना
भयातुरेन्द्रादिदेवैः सुरगुरुणा सह परामर्शवर्णनम्

व्यासजी बोले — हे राजन् ! दूत के चले जाने पर इन्द्र ने भी यम, वायु, कुबेर तथा वरुण — इन देवताओं को बुलाकर यह बात कही ॥ १ ॥ रम्भ का पुत्र महाबली दैत्यराज महिषासुर इस समय वरदान के अभिमान में मदोन्मत्त हो गया है। वह सैकड़ों प्रकार की माया रचने में पारंगत है ॥ २ ॥ हे देवताओ ! स्वर्ग प्राप्ति की कामना करने वाले उस लोभी महिषासुर द्वारा भेजा गया दूत आज ही यहाँ आया था। उसने मुझसे इस प्रकारकी बात कही — ॥३॥ हे शक्र ! तुम तत्काल देवलोक छोड़ दो और अपनी इच्छाके अनुसार जहाँ जाना चाहो, वहाँ चले जाओ; अथवा हे वासव! महान् महिषासुरका सेवकत्व स्वीकार कर लो ॥ ४ ॥वे दैत्यराज महिषासुर बड़े दयालु हैं। वे आपके लिये किसी जीविकाका प्रबन्ध अवश्य कर देंगे। विनम्र सेवकोंपर वे कभी भी क्रोध नहीं करते हैं ॥ ५ ॥ हे देवेश ! यदि आपको यह स्वीकार नहीं है तो युद्ध के लिये सेना के संगठन में जुट जाइये। मेरे वहाँ पहुँचते ही वे दैत्येन्द्र महिषासुर [ देवलोक पर आक्रमण के लिये] यहाँ शीघ्र आ पहुँचेंगे ॥ ६ ॥

ऐसा कहकर दुष्टात्मा दानव महिषासुरका वह दूत यहाँ से चला गया। हे श्रेष्ठ देवगण! आपलोग विचार कीजिये कि अब क्या करना चाहिये ? ॥ ७ ॥ हे देवताओ ! स्वयं बलवान् होते हुए भी अत्यन्त दुर्बल शत्रु की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। अपने बल का अभिमान करने वाले, बलशाली तथा सदा उद्यमशील शत्रु की अतः हम लोगों को अपने बल तथा विवेक के अनुसार तो विशेषरूप से उपेक्षा नहीं करनी चाहिये ॥ ८ ॥ पुरुषार्थ अवश्य करना चाहिये। जीत अथवा हार तो दैव के अधीन रहती है ॥ ९ ॥ इस परिस्थिति में सन्धि की भी सम्भावना नहीं है; क्योंकि नीच के साथ की गयी सन्धि व्यर्थ सिद्ध होती है। अतएव बार-बार विचार करके केवल सज्जनों के साथ ही सन्धि करनी चाहिये ॥ १० ॥ इस समय अचानक आक्रमण करना भी उचित नहीं है। अतएव सर्वप्रथम शीघ्रगामी तथा सुगमता से प्रवेश करने में दक्ष गुप्तचर वहाँ भेजे जाने चाहिये, जो शत्रुओं के अभिप्राय समझने में समर्थ, किसी के साथ अधिक भावासक्ति न रखने वाले, निर्लोभी तथा सत्यवादी हों। वे गुप्तचर शत्रु सेना की गतिविधि, प्रस्थान, सेना की ठीक-ठीक संख्या और शत्रुदल के वीरों की वास्तविक जानकारी करके शीघ्रतापूर्वक वापस आ जायँ। इस प्रकार दैत्यपति महिषासुर की सेना के बलाबल को भलीभाँति जान लेने के पश्चात् मैं शीघ्र ही आक्रमण अथवा किलेबन्दी करने का प्रबन्ध करूँगा । सर्वदा भलीभाँति सोच-समझकर बुद्धिमान् मनुष्य को कार्य करना चाहिये; क्योंकि बिना विचार किये अचानक किया गया कार्य हर तरह से दुःखदायक ही होता है । अतएव बुद्धिमान् मनुष्यों को सम्यक् रूप से विचार-हो ॥ ११-१४१/२

विमर्श करके ऐसा कार्य करना चाहिये, जो सुखकर दानवों में मतभेद पैदा करने वाली भेदनीति का आश्रय लेना भी उचित नहीं जान पड़ता; क्योंकि उनमें पूर्ण मतैक्य है। अतएव इस कार्य के लिये पहले गुप्तचर भेजे जायँ। उनके द्वारा उन दानवों के बलाबल को जानने के पश्चात् श्रेष्ठ नीतिविदों से भलीभाँति विचार करके उन कार्यों के लिये नीति निर्धारित की जानी चाहिये। नीति से हटकर किया गया कार्य अज्ञात औषधि के सेवन से उत्पन्न होने वाले कष्ट की भाँति विपरीत फल देने वाला होता है ॥ १५–१७१/२

व्यासजी बोले- इस प्रकार उन सभी देवताओंसे विचार- विमर्श करके देवराज इन्द्रने शत्रुपक्षके रहस्योंकी जानकारीके उद्देश्यसे एक कार्यकुशल गुप्तचर भेजा ॥ १८१/२

उस दूत ने तत्काल पहुँचकर शत्रुपक्ष के सैन्य बलाबल की जानकारी प्राप्त की और पुनः इन्द्र के पास वापस आकर उनको सब कुछ बता दिया। शत्रुसेना की तैयारी के विषय में जानकर इन्द्र को महान् आश्चर्य हुआ और उन्होंने देवताओं को तैयारी में लगने की आज्ञा दे दी। तत्पश्चात् मन्त्रविदों में श्रेष्ठ पुरोधा देवगुरु बृहस्पति को बुलाकर इन्द्र उनके साथ परामर्श करने लगे। उत्तम आसन पर विराजमान श्रेष्ठ अंगिरापुत्र बृहस्पति से इन्द्र ने कहा ॥ १९–२११/२

इन्द्र बोले — हे देवगुरो ! हे विद्वन्! हम लोगों को क्या करना चाहिये, हमें बताइये। आप सर्वज्ञ हैं । आज उत्पन्न इस विषम परिस्थिति में एकमात्र आप ही हमारे अवलम्ब हैं। महाबली तथा मदोन्मत्त दानव महिषासुर बहुत से दानवों को अपने साथ लेकर हम सबसे युद्ध करने के लिये यहाँ आ रहा है। आप मन्त्रणाविद् हैं, अतएव इस समय कोई प्रतिक्रियात्मक युक्ति बताने की कृपा करें। जैसे शुक्राचार्य दानवों की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार हम देवताओं के कष्ट का निवारण करने हेतु आप सदा उद्यत रहते हैं॥ २२–२४१/२

व्यासजी बोले — यह वचन सुनकर अपने मन में  भलीभाँति सोचकर सदा कार्यसिद्धि के लिये तत्पर रहने वाले बृहस्पति इन्द्र से कहने लगे ॥ २५१/२

गुरु बोले — हे देवेन्द्र ! आप निश्चिन्त हो जाइये। हे महानुभाव ! धैर्य  धारण कीजिये, विषम परिस्थिति आ जाने पर सहसा धैर्य नहीं खोना चाहिये। हे सुराध्यक्ष ! हार तथा जीत सदा दैवाधीन होती हैं, अतएव बुद्धिमान् प्राणी को चाहिये कि वह सदैव धैर्य धारण करके स्थित रहे। हे शतक्रतो! होनी होकर रहती है, ऐसा समझते हुए मनुष्य को अपनी सामर्थ्य के अनुसार सदा उद्यम करना चाहिये। सब कुछ दैव के अधीन है — यह जानते हुए भी योगध्यानपरायण मुनिगण भी मुक्ति – प्राप्ति हेतु निरन्तर उद्यमशील रहते हैं। अतएव मनुष्य को अपने सामर्थ्यानुसार सदैव उद्योग करते रहना चाहिये ॥ २६- ३० ॥ सुख मिले अथवा न मिले —इस दैवाधीन विषय में चिन्ता की क्या आवश्यकता ? बिना पुरुषार्थ किये ही संयोग से सिद्धि मिल जाय ऐसा मानकर अन्धे तथा लँगड़े की भाँति अकर्मण्य होकर प्रसन्नतापूर्वक पड़े रहना उचित नहीं है । पुरुषार्थ करने पर भी यदि सिद्धि नहीं मिलती है तो इसमें उस व्यक्ति का कोई अपराध नहीं है; क्योंकि प्रत्येक शरीरधारी सदा दैव के अधीन रहता है।
कार्य की सिद्धि न सेना से, न मन्त्र से, न मन्त्रणा से, न रथ से और न तो आयुध से ही मिलती है। हे सुरेन्द्र ! सफलता तो निश्चितरूप से दैव के अधीन रहती है ॥ ३१-३३१/२

[ ऐसा भी देखा जाता है कि] बलशाली कष्ट पाता है तथा बलहीन सुखोपभोग करता है, बुद्धिमान् भूखा ही सो जाता है तथा बुद्धिहीन अनेक उत्तम भोज्य पदार्थों का सेवन करता है, कायर व्यक्ति की जीत हो जाती है तथा वीर पराजित हो जाता है। हे सुराधिप ! यह समस्त जगत् ही दैव के अधीन है, तो फिर चिन्ता की आवश्यकता ही क्या ? ऐसा दृढ़ विश्वास करके भाग्य को उद्योग के साथ संयोजित कर देना चाहिये ॥ ३४-३६ ॥ उद्योग करने के बाद सुख प्राप्त हो अथवा दुःख – इन दोनों के विषय में किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी चाहिये । दुःख आने पर अपने से अधिक दुःखीजनों को तथा सुख आने पर अधिक सुखी व्यक्ति को देखना चाहिये ॥ ३७ ॥ अपने आपको शत्रु-तुल्य हर्ष तथा शोक को अर्पित नहीं करना चाहिये। बुद्धिमान् पुरुषों को हर्ष या शोक के उपस्थित होने पर धैर्य का अवलम्बन करना चाहिये ॥ ३८ ॥ अधीर हो जाने से जैसा दुःख प्राप्त होता है, वैसा दुःख धैर्य धारण करने से कभी नहीं होता। किंतु सुख तथा दुःख के अवसर पर सहनशील बने रहना अति दुर्लभ है ॥ ३९ ॥ जब हर्ष अथवा शोक उत्पन्न हों तब अपनी बुद्धि से निश्चय करके उनसे अप्रभावित बने रहना चाहिये। वैसी परिस्थिति में सोचना चाहिये कि दुःख क्या है; और यह दुःख किसे होता है? मैं तो सदा गुणों से रहित और अविनाशी हूँ। मैं तो चौबीस तत्त्वों से भिन्न आत्मतत्त्व हूँ, तब सुख अथवा दुःख से मेरा क्या प्रयोजन ? भूख तथा प्यास का सम्बन्ध प्राण से, शोक तथा मोह का सम्बन्ध मन से एवं जरा तथा मृत्यु का सम्बन्ध शरीर से है। मैं तो इन छहों ऊर्मियों से रहित कल्याणस्वरूप हूँ। शोक तथा मोह शरीर के गुण हैं; इनके विषय में सोचने की मुझे क्या आवश्यकता ? ॥ ४०-४२ ॥

मैं न शरीर हूँ और न तो इससे मेरा कोई सम्बन्ध है। मैं तो महदादि सात विकृतियों, एक प्रकृति तथा सोलह विकारों से पृथक् रहने वाला सदा सुख-स्वरूप हूँ । मैं न प्रकृति हूँ और न तो विकृति हूँ; तब मुझे दुःख किस बात का ? हे देवेश! अपने मन में ऐसा निश्चय करके आप ममतारहित हो जाइये। हे शतयज्ञकर्ता इन्द्र ! आपके दुःखनाश का यही प्रधान उपाय है; क्योंकि ममता सबसे बड़ा दुःख है तथा निर्ममता सबसे बड़ा सुख है ॥ ४३–४५ ॥ हे शचीपते ! सन्तोष से बढ़कर सुख का कोई भी स्थान नहीं है। अथवा हे देवराज! यदि आपके पास ममता को नष्ट करने वाले ज्ञान का अभाव हो, तो प्रारब्ध के विषय में विवेक का आश्रय लेना परमावश्यक है। बिना भोग के प्रारब्ध कर्मों का नाश कभी नहीं हो सकता ॥ ४६-४७ ॥ हे आर्य! सभी देवता आपके सहायक हों अथवा केवल आपकी बुद्धि सहायक बने – जो होना है, वह होकर रहेगा, तब सुख अथवा दुःख के विषय में चिन्ता क्या ? ॥ ४८ ॥ हे महाभाग ! सुख उपभोग से पुण्य का क्षय होता है और दुःख भोगने से पाप का नाश होता है। अतएव बुद्धिमान् पुरुषों को सुख-क्षय की स्थिति में हर प्रकार से प्रसन्नता का अनुभव करना चाहिये ॥ ४९ ॥ अथवा हे महाराज ! यदि आपकी इच्छा हो तो विधिवत् परामर्श करके आप यत्न करने में तत्पर हो जाइये । प्रयत्न करने पर भी जो होना होगा, वही होगा ॥ ५० ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकोंवाली श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणसंहिताके अन्तर्गत पंचम स्कन्धका ‘भयातुर इन्द्र आदि देवोंका देवगुरु बृहस्पतिके साथ परामर्शवर्णन’ नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥

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