April 21, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-09 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-नवमोऽध्यायः नौवाँ अध्याय देवताओं द्वारा भगवती को आयुध और आभूषण समर्पित करना तथा उनकी स्तुति करना, देवी का प्रचण्ड अट्टहास करना, जिसे सुनकर महिषासुर का उद्विग्न होकर अपने प्रधान अमात्य को देवी के पास भेजना महिषमन्त्रिणा देवीवार्तावर्णनम् व्यासजी बोले — [हे राजन् ! ] तब भगवान् विष्णु का यह वचन सुनकर सभी देवता बहुत प्रसन्न हुए। वे तुरंत महालक्ष्मी को वस्त्र, आभूषण और अपने-अपने आयुध प्रदान करने लगे ॥ १ ॥ क्षीरसागर ने देवी को दिव्य, रक्तवर्णवाले, महीन तथा कभी भी जीर्ण न होने वाले दो वस्त्र; निर्मल तथा मनोहर हार; करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान दिव्य चूडामणि; दो सुन्दर कुण्डल तथा कड़े प्रसन्नतापूर्वक दिये । विश्वकर्मा ने भुजाओं पर धारण करने के लिये बाजूबन्द और अनेक प्रकार के रत्नजटित दिव्य कंकण प्रसन्नचित्त होकर उन्हें प्रदान किये। साथ ही त्वष्टा ने मधुर ध्वनि वाले, चमकीले, स्वच्छ, रत्नजटित और सूर्य के समान प्रकाशमान दो नूपुर पैरों में पहनने के लिये उन्हें प्रदान किये ॥ २-५ ॥ महासमुद्र ने उन्हें गले में धारण करने के लिये मनोहर कण्ठहार और रत्नों से निर्मित तेजोमय अँगूठियाँ प्रदान कीं ॥ ६ ॥ वरुणदेव ने कभी न मुरझाने वाले कमलों की वैजयन्ती नामक माला जो सुगन्ध से परिपूर्ण थी तथा जिस पर भौरे मँडरा रहे थे, भगवती को प्रदान की ॥ ७ ॥ हिमवान् ने प्रसन्न होकर उन्हें नाना प्रकार के रत्न तथा सुवर्ण के समान चमकीले वर्णवाला एक मनोहर सिंह वाहन के रूप में प्रदान किया ॥ ८ ॥ सभी लक्षणों से सम्पन्न तथा सुन्दर रूपवाली वे कल्याणमयी श्रेष्ठ भगवती दिव्य आभूषणों से विभूषित होकर सिंह पर आरूढ़ होकर अत्यन्त सुशोभित हो रही थीं ॥ ९ ॥ तत्पश्चात् भगवान् विष्णु ने अपने चक्र से उत्पन्न करके सहस्र अरोंवाला, तेजसम्पन्न और दैत्यों का सिर काट लेने की सामर्थ्य वाला एक चक्र उन्हें प्रदान किया ॥ १० ॥ शंकरजी ने अपने त्रिशूल से उत्पन्न करके भगवती को एक ऐसा उत्तम त्रिशूल अर्पण किया, जो दानवों को काट डालने की शक्ति से सम्पन्न तथा देवताओं के भय का नाश करने वाला था ॥ ११ ॥ वरुणदेव ने अपने शंख से उत्पन्न करके प्रसन्नचित्त होकर देवीजी को एक ऐसा शंख प्रदान किया; जो मंगलमय, अत्यन्त उज्ज्वल तथा तीव्र ध्वनि करनेवाला था ॥ १२ ॥ अग्निदेव ने प्रसन्नचित्त होकर सैकड़ों शत्रुओं का संहार करने वाली, मन के समान तीव्र गति से चलने वाली तथा दैत्यों का विनाश करने वाली एक शक्ति उन्हें प्रदान की ॥ १३ ॥ पवनदेव ने उन भगवती महालक्ष्मी को बाणों से भरा हुआ एक तरकस तथा देखने में अत्यन्त अद्भुत, कठिनाई से खींचा जा सकने वाला और कर्कश टंकार करने वाला धनुष प्रदान किया ॥ १४ ॥ देवराज इन्द्र ने अपने वज्र से उत्पन्न करके एक अत्यन्त भयंकर वज्र तथा ऐरावत हाथी से उतारकर एक परम सुन्दर तथा तीव्र ध्वनि करने वाला घण्टा तुरंत भगवती को अर्पण किया ॥ १५ ॥ यमराज ने अपने कालदण्ड से आविर्भूत एक ऐसा दण्ड भगवती को प्रदान किया, जिससे वे समय आने पर सभी प्राणियों का अन्त करते थे ॥ १६ ॥ ब्रह्माजी ने गंगाजल से परिपूर्ण दिव्य कमण्डलु और वरुणदेव ने अपना पाश उन्हें प्रसन्नतापूर्वक प्रदान किया ॥ १७ ॥ हे राजन् ! काल ने महालक्ष्मी को खड्ग तथा ढाल दिये और विश्वकर्मा ने उन्हें तीक्ष्ण परशु अर्पण किया ॥ १८ ॥ कुबेर ने भगवती को एक सुवर्णमय पानपात्र तथा वरुण ने उन्हें दिव्य तथा मनोहर कमल-पुष्प प्रदान किया ॥ १९ ॥ प्रसन्न मनवाले त्वष्टा ने सैकड़ों घण्टों के समान ध्वनि करने वाली और दानवों का विनाश कर डालने वाली कौमोदकी नामक गदा उन्हें प्रदान की। साथ ही उन त्वष्टा ने जगज्जननी भगवती महालक्ष्मी को अनेक प्रकार के अस्त्र तथा अभेद्य कवच प्रदान किये और सूर्यदेव ने उन्हें अपनी किरणें प्रदान कीं ॥ २०-२१ ॥ इस प्रकार सभी आयुधों तथा आभूषणों से युक्त उन भगवती को देखकर देवतागण अत्यन्त विस्मित हुए और त्रैलोक्यमोहिनी उन कल्याणकारिणी देवी की स्तुति करने लगे ॥ २२ ॥ देवता बोले — शिवा को नमस्कार है। कल्याणी, शान्ति और पुष्टि देवी को बार-बार नमस्कार है। भगवती को नमस्कार है। देवी रुद्राणी को निरन्तर नमस्कार है ॥ २३ ॥ आप कालरात्रि, अम्बा तथा इन्द्राणी को बार-बार नमस्कार है। आप सिद्धि, बुद्धि, वृद्धि तथा वैष्णवी को बार-बार नमस्कार है ॥ २४ ॥ पृथ्वी के भीतर स्थित रहकर जो पृथ्वी को नियन्त्रित करती हैं, किंतु पृथ्वी जिन्हें नहीं जान पातीं, उन परा परमेश्वरी की मैं वन्दना करता हूँ ॥ २५ ॥ जो माया के अन्दर स्थित रहने पर भी माया के द्वारा नहीं जानी जा सकीं तथा जो माया के अन्दर विराजमान रहकर उसे प्रेरणा प्रदान करती हैं, उन जन्मरहित तथा प्रेरणा प्रदान करने वाली भगवती शिवा को हम नमस्कार करते हैं ॥ २६ ॥ हे माता! आप हमारा कल्याण करें और शत्रुओं से संत्रस्त हम देवताओं की रक्षा करें। आप अपने तेज से इस मोहग्रस्त पापी महिषासुर का वध कर डालें। यह महिषासुर दुष्ट, घोर मायावी, केवल स्त्री के द्वारा मारा जा सकने वाला, वरदान प्राप्त करने से अभिमानी, समस्त देवताओं को दुःख देनेवाला तथा अनेक रूप धारण करने वाला महादुष्ट है ॥ २७-२८ ॥ हे भक्तवत्सले ! एकमात्र आप ही सभी देवताओं की शरण हैं; दानव महिषासुर से पीड़ित हम देवताओं की आप रक्षा कीजिये। हे देवि ! आपको नमस्कार है ॥ २९ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार सब देवताओं के स्तुति करने पर समस्त सुख प्रदान करने वाली महादेवी मुसकराकर उन देवताओं से यह मंगलमय वचन कहने लगीं ॥ ३० ॥ देवी बोलीं — हे देवतागण ! आप लोग मन्दबुद्धि महिषासुर का भय त्याग दें। मैं वर पाने के कारण अभिमान में चूर तथा मोहग्रस्त उस महिषासुर को आज ही रण में मार डालूँगी ॥ ३१ ॥ व्यासजी बोले — देवताओं से ऐसा कहकर वे भगवती अत्यन्त उच्च स्वर में हँस पड़ी। [ वे बोलीं — ] इस संसार में यह बड़ी विचित्र बात है कि यह सारा जगत् ही भ्रम तथा मोह से ग्रसित है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र आदि तथा अन्य देवता भी महिषासुर से भयभीत होकर काँपने लगते हैं ॥ ३२-३३ ॥ हे श्रेष्ठ देवताओ! दैवबल बड़ा ही भयानक और दुर्जय है । काल ही सुख और दुःख का कर्ता है। यही सबका प्रभु तथा ईश्वर है। सृष्टि, पालन तथा संहार करने में समर्थ रहते हुए भी वे ब्रह्मा आदि मोह- ग्रस्त हो जाते हैं, कष्ट भोगते हैं और महिषासुर के द्वारा सताये जाते हैं ॥ ३४-३५ ॥ मुसकराकर ऐसा कहने के पश्चात् देवी अट्टहास करने लगीं। उस अट्टहास का महाभयानक गर्जन दानवों को भयभीत कर देने वाला था ॥ ३६ ॥ उस अद्भुत शब्द को सुनकर पृथ्वी काँपने लगी, सभी पर्वत चलायमान हो उठे और अगाध महासमुद्र में विक्षोभ उत्पन्न होने लगा। उस शब्द से सुमेरुपर्वत हिलने लगा और सभी दिशाएँ गूँज उठीं। उस तीव्र ध्वनि को सुनकर सभी दानव भयभीत हो गये। सभी देवता परम प्रसन्न होकर ‘आपकी जय हो’, ‘हमारी रक्षा करो’ – ऐसा उन देवी से कहने लगे ॥ ३७-३८१/२; ॥ अभिमान में चूर महिषासुर भी वह ध्वनि सुनकर क्रुद्ध हो उठा। उस ध्वनि से सशंकित महिषासुर ने दैत्यों से पूछा — यह कैसी ध्वनि है ? इस ध्वनि के उद्गम स्थल को जानने के लिये दूतगण तत्काल यहाँ से जायँ। कानों को पीड़ा पहुँचाने वाला यह अति भीषण शब्द किसने किया है ? देवता या दानव जो कोई भी इस ध्वनि को उत्पन्न करने वाला हो, उस दुष्टात्मा को पकड़कर मेरे पास ले आयें। ऐसा गर्जन करने वाले उस अभिमान के मद में उन्मत्त दुराचारी को मैं मार डालूँगा । मैं क्षीण – आयु तथा मन्दबुद्धि वाले उस दुष्ट को अभी यमपुरी पहुँचा दूँगा । देवता मुझसे पराजित होकर भयभीत हो गये हैं, अतः वे ऐसा गर्जन कर ही नहीं सकते। दानव भी ऐसा नहीं कर सकते; क्योंकि वे सब तो मेरे अधीन हैं, तो फिर यह मूर्खतापूर्ण चेष्टा किसकी हो सकती है ? अब दूतगण इस शब्द के कारण का पता लगाकर मेरे पास शीघ्र आयें। तत्पश्चात् मैं स्वयं वहाँ जाकर ऐसा व्यर्थ कर्म करने वाले उस पापी का वध कर दूँगा ॥ ३९-४४१/२ ॥ व्यासजी बोले — महिषासुर के ऐसा कहने पर वे दूत [शब्द के कारण का पता लगाते-लगाते] समस्त सुन्दर अंगोंवाली, अठारह भुजाओं वाली, दिव्य विग्रहमयी, सभी प्रकार के आभूषणों से अलंकृत, सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से सम्पन्न, उत्तम आयुध धारण करने वाली और हाथ में मधुपात्र लेकर बार-बार उसका पान करती हुई भगवती के पास पहुँच गये। उन्हें देखकर वे भयभीत हो गये और व्याकुल तथा सशंकित होकर वहाँ से भाग चले । महिषासुर के पास आकर वे उससे ध्वनि का कारण बताने लगे ॥ ४५-४७१/२ ॥ दूत बोले — हे दैत्येन्द्र ! वह कोई अनुभवी स्त्री है और देवी की भाँति दिखायी देती है। उस स्त्री के सभी अंगों में आभूषण विद्यमान हैं तथा वह सभी प्रकार के रत्नों से सुशोभित है। वह स्त्री न तो मानवी है और न तो आसुरी है । दिव्यविग्रह वाली वह स्त्री बड़ी मनोहर है। अठारह भुजाओं वाली वह श्रेष्ठ नारी नानाविध आयुध धारण करके सिंह पर विराजमान है। वही स्त्री गर्जन कर रही है। वह मदोन्मत्त दिखायी दे रही है। वह निरन्तर मद्यपान कर रही है। हमें ऐसा जान पड़ता है कि वह अभी विवाहिता नहीं है ॥ ४८–५०१/२ ॥ देवतागण आकाश में स्थित होकर प्रसन्नतापूर्वक उसकी इस प्रकार स्तुति कर रहे हैं — ‘आपकी जय हो’, ‘हमारी रक्षा करो’ और ‘शत्रुओं का वध करो’। हे प्रभो ! मैं यह नहीं जानता कि वह सुन्दरी कौन है, किसकी पत्नी है, वह सुन्दरी यहाँ किसलिये आयी हुई है और वह क्या करना चाहती है? उस स्त्री के तेज से चकाचौंध हम लोग उसे देखने में समर्थ नहीं हो सके। वह स्त्री श्रृंगार, वीर, हास्य, रौद्र और अद्भुत – इन सभी रसों से परिपूर्ण थी। इस प्रकार की अद्भुत स्वरूप वाली नारी को देखकर हम लोग बिना कुछ कहे ही आपके आज्ञानुसार लौट आये। हे राजन् ! अब इसके बाद क्या करना है ? ॥ ५१-५४१/२ ॥ महिषासुर बोला — हे वीर ! हे मन्त्रि श्रेष्ठ ! तुम मेरे आदेश से सेना साथ में लेकर जाओ और साम आदि उपायों से उस सुन्दर मुखवाली स्त्री को यहाँ ले आओ। यदि वह स्त्री साम, दान और भेद- इन तीन उपायों से भी यहाँ न आये तो उस सुन्दरी को बिना मारे ही पकड़कर मेरे पास ले आओ, यदि वह मृगनयनी प्रीतिपूर्वक आयेगी तो मैं हंस के समान भौंहों वाली उस स्त्री को प्रसन्नतापूर्वक अपनी पटरानी बनाऊँगा । मेरी इच्छा समझकर जिस प्रकार रसभंग न हो, वैसा करना। मैं उसकी रूपराशि की बात सुनकर मोहित हो गया हूँ ॥ ५५-५८१/२ ॥ व्यासजी बोले — महिषासुर की यह कोमल वाणी सुनकर वह श्रेष्ठ मन्त्री हाथी, घोड़े और रथ साथ लेकर तुरंत चल पड़ा। वहाँ पहुँचकर कुछ दूर खड़े होकर वह सचिव कोमल तथा मधुर वाणी में विनम्रतापूर्वक उस दृढ़ निश्चय वाली नारी से कहने लगा ॥ ५९-६०१/२ ॥ प्रधान बोला — हे मधुरभाषिणि! तुम कौन हो और यहाँ क्यों आयी हो ? हे महाभागे ! मेरे मुख से ऐसा कहलाकर मेरे स्वामी ने तुमसे यह बात पूछी है— ॥ ६११/२ ॥ उन्होंने समस्त देवताओं को जीत लिया है और वे मनुष्यों से अवध्य हैं। हे चारुलोचने ! ब्रह्माजी से वरदान पाने के कारण वे बहुत गर्वयुक्त रहते हैं। वे दैत्यराज महिष बड़े बलवान् हैं और अपनी इच्छा के अनुसार वे सदा विविध रूप धारण कर सकते हैं ॥ ६२-६३ ॥ सुन्दर वेष तथा मनोहर विग्रहवाली आप यहाँ आयी हुई हैं — ऐसा सुनकर मेरे प्रभु महाराज महिषासुर आपको देखना चाहते हैं। वे मनुष्य का रूप धारण करके आपके पास आयेंगे। हे सुन्दर अंगोंवाली ! आपकी जो इच्छा होगी, हम उसी को मान लेंगे ॥ ६४-६५ ॥ हे बालमृग के समान नेत्रोंवाली ! अब आप उन बुद्धिमान् राजा महिष के पास चलें और नहीं तो मैं स्वयं जाकर आपके प्रेम में लीन राजा महिष को यहाँ ले आऊँ ॥ ६६ ॥ हे देवेशि ! आपके मन में जैसी इच्छा होगी, मैं वही करूँगा। आपके रूप के विषय में सुनकर वे पूर्णरूप से आपके वशवर्ती हो गये हैं। हे करभोरु ! आप शीघ्र बताएँ; मैं उसीके अनुसार कार्य करूँगा ॥ ६७-६८ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध का ‘महिषासुर के मन्त्री का देवी से वार्तावर्णन’ नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥ Content is available only for registered users. 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