श्रीमद्भागवतमहापुराण – एकादशः स्कन्ध – अध्याय १२
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
बारहवाँ अध्याय
सत्सङ्ग की महिमा और कर्म तथा कर्मत्याग की विधि

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — प्रिय उद्धव ! जगत् में जितनी आसक्तियाँ हैं, उन्हें सत्सङ्ग नष्ट कर देता है । यहीं कारण है कि सत्सङ्ग जिस प्रकार मुझे वश में कर लेता है, वैसा साधन न योग है न सांख्य, न धर्मपालन और न स्वाध्याय । तपस्या, त्याग, इष्टापूर्त और दक्षिणा से भी मैं वैसा प्रसन्न नहीं होता । कहाँ तक कहूँ व्रत, यज्ञ, वेद, तीर्थ और यम-नियम भी सत्सङ्ग के समान मुझे वश में करने में समर्थ नहीं हैं ॥ १-२ ॥ निष्पाप उद्धवजी ! यह एक युग की नहीं, सभी युगों की एक-सी बात हैं । सत्सङ्ग के द्वारा ही दैत्य-राक्षस, पशु-पक्षी, गन्धर्व-अप्सरा, नाग-सिद्ध, चारण-गुह्यक और विद्याधरों को मेरी प्राप्ति हुई है । मनुष्यों में वैश्य, शूद्र, स्त्री और अन्त्यज आदि रजोगुणी-तमोगुणी प्रकृति के बहुत-से जीवों ने मेरा परमपद प्राप्त किया है । वृत्रासुर, प्रह्लाद, वृषपर्वा, बलि, बाणासुर, मयदानव, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान, जाम्बवान्, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार वैश्य, धर्मव्याध, कुब्जा, व्रज की गोपियाँ, यज्ञपत्नियां और दूसरे लोग भी सत्सङ्ग के प्रभाव से ही मुझे प्राप्त कर सके हैं ॥ ३-६ ॥

उन लोगों ने न तो वेदों का स्वाध्याय किया था और न विधिपूर्वक महापुरुषों की उपासना की थी । इसी प्रकार उन्होंने कृच्छ्रचान्द्रायण आदि व्रत और कोई तपस्या भी नहीं की थी । बस, केवल सत्सङ्ग के प्रभाव से ही वे मुझे प्राप्त हो गये ॥ ७ ॥ गोपियाँ, गायें, यमलार्जुन आदि वृक्ष, व्रज के हरिन आदि पशु, कालिय आदि नाग — ये तो साधन-साध्य के सम्बन्ध में सर्वथा ही मूढ़-बुद्धि थे । इतने ही नहीं, ऐसे-ऐसे और भी बहुत हो गये हैं, जिन्होंने केवल प्रेमपूर्ण भाव के द्वारा ही अनायास मेरी प्राप्ति कर ली और कृतकृत्य हो गये ॥ ८ ॥ उद्धव ! बड़े-बड़े प्रयत्नशील साधक योग, सांख्य, दान, व्रत, तपस्या, यज्ञ, श्रुतियों की व्याख्या, स्वाध्याय और संन्यास — आदि साधनों के द्वारा मुझे नहीं प्राप्त कर सकते; परन्तु सत्सङ्ग के द्वारा तो मैं अत्यन्त सुलभ हो जाता हूँ ॥ ९ ॥ उद्धव ! जिस समय अक्रूरजी भैया बलरामजी के साथ मुझे व्रज से मथुरा ले आये, उस समय गोपियों का हृदय गाढ़ प्रेम के कारण मेरे अनुराग के रंग में रँगा हुआ था । मेरे वियोग की तीव्र व्याधि से वे व्याकुल हो रही थी और मेरे अतिरिक्त कोई भी दूसरी वस्तु उन्हें सुखकारक नहीं जान पड़ती थी ॥ १० ॥

तुम जानते हो कि मैं ही उनका एकमात्र प्रियतम हूँ । जब मैं वृन्दावन में था, तब उन्होंने बहुत-सी रात्रियाँ — वे रास की रात्रियों मेरे साथ आधे क्षण के समान बिता दी थीं, परन्तु प्यारे उद्धव ! मेरे बिना वे ही रात्रियाँ उनके लिये एक-एक कल्प के समान हो गयी ॥ ११ ॥ जैसे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि समाधि में स्थित होकर तथा गङ्गा आदि बड़ी-बड़ी नदियाँ समुद्र में मिलकर अपने नाम-रूप खो देती हैं, वैसे ही वे गोपियाँ परम प्रेम के द्वारा मुझमें इतनी तन्मय हो गयी थीं कि उन्हें लोक-परलोक, शरीर और अपने कहलानेवाले पति-पुत्रादि की भी सुध-बुध नहीं रह गयी थी ॥ १२ ॥ उद्धव ! उन गोपियों में बहुत-सी तो ऐसी थीं, जो मेरे वास्तविक स्वरूप को नहीं जानती थीं । वे मुझे भगवान् न जानकर केवल प्रियतम ही समझती थीं और जारभाव से मुझसे मिलने की आकांक्षा किया करती थीं । उन साधनहीन सैकड़ों, हजारों अबलाओं ने केवल सङ्ग के प्रभाव से ही मुझ परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लिया ॥ १३ ॥ इसलिये उद्धव ! तुम श्रुति-स्मृति, विधि-निषेध, प्रवृत्ति-निवृत्ति और सुनने योग्य तथा सुने हुए विषय का भी परित्याग करके सर्वत्र मेरी ही भावना करते हुए समस्त प्राणियों के आत्मस्वरूप मुझ एक की ही शरण सम्पूर्ण रूप से ग्रहण करो; क्योंकि मेरी शरण में आ जाने से तुम सर्वथा निर्भय हो जाओगे ॥ १४-१५ ॥

उद्धवजी ने कहा — सनकादि योगेश्वरों के भी परमेश्वर प्रभो ! यों तो मैं आपका उपदेश सुन रहा हूँ, परन्तु इससे मेरे मन का सन्देह मिट नहीं रहा है । मुझे स्वधर्म का पालन करना चाहिये या सब कुछ छोड़कर आपकी शरण ग्रहण करनी चाहिये, मेरा मन इसी दुविधा में लटक रहा है । आप कृपा करके मुझे भली-भाँति समझाइये ॥ १६ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा —
प्रिय उद्धव ! जिस परमात्मा का परोक्षरूप से वर्णन किया जाता है, वे साक्षात् अपरोक्ष — प्रत्यक्ष ही हैं, क्योंकि वे ही निखिल वस्तुओं को सत्ता—स्फूर्ति—जीवन-दान करनेवाले हैं, वे ही पहले अनाहत नादस्वरूप परा वाणी नामक प्राण के साथ मूलाधारचक्र में प्रवेश करते हैं । उसके बाद मणिपूरकचक्र (नाभिस्थान) में आकर पश्यन्ती वाणी का मनोमय सूक्ष्मरूप धारण करते हैं । तदनन्तर कण्ठदेश में स्थित विशुद्ध नामक चक्र में आते हैं और वहाँ मध्यमा वाणी के रूप में व्यक्त होते हैं । फिर क्रमशः मुख में आकर ह्रस्व-दीर्घादि मात्रा, उदात्त-अनुदात्त आदि स्वर तथा ककारादि वर्णरूप स्थूल-वैखरी वाणी का रूप ग्रहण कर लेते हैं ॥ १७ ॥ अग्नि आकाश में ऊष्मा अथवा विद्युत् के रूप से अव्यक्तरूप में स्थित है । जब बलपूर्वक काष्ठ-मन्थन किया जाता है, तब वायु की सहायता से वह पहले अत्यन्त सूक्ष्म चिनगारी के रूप में प्रकट होती है और फिर आहुति देने पर प्रचण्ड रूप धारण कर लेती हैं, वैसे ही मैं भी शब्द-ब्रह्म-स्वरूप से क्रमशः परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी वाणी के रूप में प्रकट होता हूँ ॥ १८ ॥ इसी प्रकार बोलना, हाथों से काम करना, पैरों से चलना, मूत्रेन्द्रिय तथा गुदा से मल-मूत्र त्यागना, सूँघना, चखना, देखना, छूना, सुनना, मन से संकल्प-विकल्प करना, बुद्धि से समझना, अहङ्कार के द्वारा अभिमान करना, महत्तत्त्व के रूप में सबका ताना-बाना बुनना तथा सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के सारे विकार; कहाँ तक कहूँ — समस्त कर्ता, कारण और कर्म मेरी ही अभिव्यक्तियाँ हैं ॥ १९ ॥

यह सबको जीवित करनेवाला परमेश्वर ही इस त्रिगुणमय ब्रह्माण्ड-कमल का कारण है । यह आदि-पुरुष पहले एक और अव्यक्त था । जैसे उपजाऊ खेत में बोया हुआ बीज शाखा-पत्र-पुष्पादि अनेक रूप धारण कर लेता है, वैसे ही कालगति से माया का आश्रय लेकर शक्ति-विभाजन के द्वारा परमेश्वर ही अनेक रूपों में प्रतीत होने लगता है ॥ २० ॥ जैसे तागों के ताने-बाने में वस्त्र ओतप्रोत रहता है, वैसे ही यह सारा विश्व परमात्मा में ही ओतप्रोत हैं । जैसे सूत के बिना वस्त्र का अस्तित्व नहीं है, किन्तु सूत वस्त्र के बिना भी रह सकता है, वैसे ही इस जगत् के न रहने पर भी परमात्मा रहता है; किन्तु यह जगत् परमात्मस्वरूप ही है — परमात्मा के बिना इसका कोई अस्तित्व नहीं है । यह संसार वृक्ष अनादि और प्रवाहरूप से नित्य है । इसका स्वरूप ही है — कर्म की परम्परा तथा इस वृक्ष के फल-फूल है — मोक्ष और भोग ॥ २१ ॥

इस संसार-वृक्ष के दो बीज हैं — पाप और पुण्य । असंख्य वासनाएँ जड़ें हैं और तीन गुण तने हैं । पाँच भूत इसकी मोटी-मोटी प्रधान शाखाएँ हैं और शब्दादि पाँच विषय रस हैं, ग्यारह इन्द्रियाँ शाखा हैं तथा जीव और ईश्वर – दो पक्षी इसमें घोंसला बनाकर निवास करते हैं । इस वृक्ष में वात, पित्त और कफरूप तीन तरह की छाल है । इसमें दो तरह के फल लगते है — सुख और दुःख । यह विशाल वृक्ष सूर्यमण्डल तक फैला हुआ है । (इस सूर्यमण्डल का भेदन कर जानेवाले मुक्त पुरुष फिर संसार-चक्र में नहीं पड़ते) ॥ २२ ॥ जो गृहस्थ शब्द-रूप-रस आदि विषयों में फँसे हुए हैं, वे कामना से भरे हुए होने के कारण गीध के समान हैं । वे इस वृक्ष का दुःखरूप फल भोगते हैं, क्योंकि वे अनेक प्रकार के कर्मों के बन्धन में फंसे रहते हैं । जो अरण्यवासी परमहंस विषयों से विरक्त है, वे इस वृक्ष में राजहंस के समान हैं और वे इसका सुखरूप फल भोगते हैं । प्रिय उद्धव ! वास्तव में मैं एक ही हूँ । यह मेरा जो अनेकों प्रकार का रूप है, वह तो केवल मायामय है । जो इस बात को गुरुओं के द्वारा समझ लेता है, वही वास्तव में समस्त वेदों का रहस्य जानता है ॥ २३ ॥ अतः उद्धव ! तुम इस प्रकार गुरुदेव की उपासनारूप अनन्य भक्ति के द्वारा अपने ज्ञान की कुल्हाड़ी को तीखी कर लो और उसके द्वारा धैर्य एवं सावधानी से जीवभाव को काट डालो । फिर परमात्मस्वरूप होकर उस वृत्तिरूप अस्त्र को भी छोड़ दो और अपने अखण्ड स्वरूप में ही स्थित हो रहो ॥ २४ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां एकादशस्कन्धे द्वादशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.