January 30, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – तृतीय स्कन्ध – अध्याय ११ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ग्यारहवाँ अध्याय मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन श्रीमैत्रेयजी कहते हैं — विदुरजी ! पृथ्वी आदि कार्यवर्ग का जो सूक्ष्मतम अंश है — जिसका और विभाग नहीं हो सकता, तथा जो कार्यरूप को प्राप्त नहीं हुआ है और जिसका अन्य परमाणुओं के साथ संयोग भी नहीं हुआ है, उसे परमाणु कहते हैं । इन अनेक परमाणुओं के परस्पर मिलने से ही मनुष्यों को भ्रमवश उनके समुदायरूप एक अवयवी की प्रतीति होती हैं ॥ १ ॥ यह परमाणु जिसका सूक्ष्मतम अंश है, अपने सामान्य स्वरूप में स्थित उस पृथ्वी आदि कार्यों की एकता (समुदाय अथवा समग्ररूप) का नाम परम महान् है । इस समय उसमें न तो प्रलयादि अवस्थाभेद की स्फूर्ति होती है, न नवीन-प्राचीन आदि कालभेद का भान होता हैं और न घट-पटादि वस्तुभेद की ही कल्पना होती हैं ॥ २ ॥ साधुश्रेष्ठ ! इस प्रकार यह वस्तु के सूक्ष्मतम और महत्तम स्वरूप का विचार हुआ । इसके सादृश्य से परमाणु आदि अवस्थाओं में व्याप्त होकर व्यक्त पदार्थों को भोगनेवाले सृष्टि आदि में समर्थ, अव्यक्तस्वरूप भगवान् काल की भी सूक्ष्मता और स्थूलता का अनुमान किया जा सकता है ॥ ३ ॥ जो काल प्रपञ्च की परमाणु-जैसी सूक्ष्म अवस्था में व्याप्त रहता है, वह अत्यन्त सूक्ष्म है, और जो सृष्टि से लेकर प्रलयपर्यन्त उसकी सभी अवस्थाओं का भोग करता है, वह परम महान् हैं ॥ ४ ॥ दो परमाणु मिलकर एक ‘अणु’ होता है और तीन अणुओं के मिलने से एक ‘त्रसरेणु’ होता है, जो झरोखे में से होकर आयी हुई सूर्य की किरणों के प्रकाश में आकाश में उड़ता देखा जाता है ॥ ५ ॥ ऐसे तीन प्रसरेणुओं को पार करने में सूर्य को जितना समय लगता है, उसे ‘त्रुटि’ कहते हैं । इससे सौगुना काल ‘वेध’ कहलाता है और तीन वेध का एक ‘लव’ होता है ॥ ६ ॥ तीन लव का एक ‘निमेष’ और तीन निमेष को एक क्षण’ कहते हैं । पाँच क्षण की एक ‘काष्ठा’ होती है और पन्द्रह काष्ठा का एक ‘लघु’ ॥ ५ ॥ पन्द्रह लघु की एक ‘नाडिका’ (दण्ड) कही जाती है, दो नाडिका का एक ‘मुहूर्त’ होता है और दिन के घटने-बढ़ने के अनुसार (दिन एवं रात्रि की दोनों सन्धियों के दो मुहूर्तों को छोड़कर) छः या सात नाडिका का एक ‘प्रहर’ होता है । यह ‘याम’ कहलाता है, जो मनुष्य के दिन या रात का चौथा भाग होता है ॥ ८ ॥ छः पल ताँबे का एक ऐसा बरतन बनाया जाय जिसमें एक प्रस्थ जल आ सके और चार माशे सोने की चार अंगुल लम्बी सलाई बनवाकर उसके द्वारा उस बरतन के पैंदे में छेद करके उसे जल में छोड़ दिया जाये । जितने समय में एक प्रस्थ जल उस बरतन में भर जाय, वह बरतन जल में डूब जाय, उतने समय को एक ‘नाडिका” कहते हैं ॥ ९ ॥ विदुरजी ! चार-चार पहर के मनुष्य के ‘दिन’ और ‘रात’ होते हैं और पंद्रह दिन-रात का एक ‘पक्ष’ होता हैं, जो शुक्ल और कृष्ण भेद से दो प्रकार का माना गया है ॥ १० । इन दोनों पक्षों को मिलाकर एक ‘मास’ होता हैं, जो पितरों का एक दिन-रात है । दो मास का एक ‘ऋतु’ और छः मास का एक ‘अयन होता है । अयन ‘दक्षिणायन’ और ‘उत्तरायण’ भेद से दो प्रकार का है ॥ ११ ॥ ये दोनों अयन मिलकर देवताओं के एक दिन-रात होते हैं तथा मनुष्यलोक में ये ‘वर्ष’ या बारह मास कहे जाते हैं । ऐसे सौ वर्ष को मनुष्य की परम आयु बतायी गयी है ॥ १३ ॥ चन्द्रमा आदि ग्रह, अश्विनी आदि नक्षत्र और समस्त तारामण्डल के अधिष्ठाता कालस्वरूप भगवान् सूर्य परमाणु से लेकर संवत्सरपर्यन्त काल में द्वादश राशिरूप सम्पूर्ण भुवनकोश की निरन्तर परिक्रमा किया करते हैं ॥ १३ ॥ सूर्य, बृहस्पति, सवन, चन्द्रमा और नक्षत्रसम्बन्धी महीनों के भेद से यह वर्ष ही संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर और वत्सर कहा जाता हैं ॥ १४ ॥ विदुरजी ! इन पाँच प्रकार के वर्षों की प्रवृत्ति करनेवाले भगवान् सूर्य को तुम उपहारादि समर्पित करके पूजा करो । ये सूर्यदेव पञ्चभूतों में से तेजःस्वरूप हैं और अपनी कालशक्ति से बीजादि पदार्थों के अङ्कुर उत्पन्न करने की शक्ति को अनेक प्रकार से कार्योन्मुख करते हैं । ये पुरुषों की मोहनिवृत्ति के लिये उनकी आयु का क्षय करते हुए आकाश में विचरते रहते हैं तथा ये ही सकाम-पुरुष को यज्ञादि कर्मों से प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि मङ्गलमय फलों का विस्तार करते हैं ॥ १५ ॥ विदुरजी ने कहा — मुनिवर ! आपने देवता, पितर और मनुष्यों की परमायु का वर्णन तो किया । अब जो सनकादि ज्ञानी मुनिजन त्रिलोकी से बाहर कल्प से भी अधिक काल तक रहनेवाले हैं, उनकी भी आयु का वर्णन कीजिये ॥ १६ ॥ आप भगवान् काल की गति भलीभाँति जानते हैं, क्योंकि ज्ञानीलोग अपनी योगसिद्ध दिव्य दृष्टि से सारे संसार को देख लेते हैं ॥ १७ ॥ मैत्रेयजी ने कहा — विदुरजी ! सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलि — ये चार युग अपनी सन्ध्या और सन्ध्यांशों के सहित देवताओं के बारह सहस्र वर्ष तक रहते हैं, ऐसा बतलाया गया है ॥ १८ ॥ इन सत्यादि चारों युगों में क्रमशः चार, तीन, दो और एक सहस्र दिव्य वर्ष होते हैं और प्रत्येक में जितने सहस्र वर्ष होते हैं उससे दुगुने सौ वर्ष उनकी सन्ध्या और सन्ध्यांशों में होते हैं अर्थात् सत्ययुग में ४००० दिव्य वर्ष युग के और ८०० सन्ध्या एवं सन्ध्यांश के – इस प्रकार ४८०० वर्ष होते हैं । इसी प्रकार त्रेता में ३६००, द्वापर में २४०० और कलियुग में १२०० दिव्य वर्ष होते हैं । मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं का एक दिन होता है, अत: देवताओं का एक वर्ष मनुष्यों के ३६० वर्षों के बराबर हुआ । इस प्रकार मानवीय मान से कलियुग में ४३२००० वर्ष हुए तथा इससे दुगुने द्वापर में, तिगुने त्रेता में और चौगुने सत्ययुग में होते हैं। ॥ १९ ॥ युग के आदि में सन्ध्या होती है और अन्त में सन्ध्यांश । इनकी वर्ष-गणना सैकड़ों की संख्या में बतलायी गयी है । इनके बीच को जो मान होता है, उसे कालवेताओं ने युग कहा है । प्रत्येक युग में एक-एक विशेष धर्म का विधान पाया जाता है ॥ २० ॥ सत्ययुग के मनुष्यों में धर्म अपने चारों चरणों से रहता है; फिर अन्य युगों में अधर्म वृद्धि होने से उसका एक-एक चरण क्षीण होता जाता है ॥ २१ ॥ प्यारे विदुरजी ! त्रिलोकी से बाहर महर्लोक से ब्रह्मलोकपर्यन्त यहाँ की एक सहस्र चतुर्युगी का एक दिन होता है और इतनी ही बड़ी रात्रि होती है, जिसमें जगत्कर्ता ब्रह्माजी शयन करते हैं ॥ २२ ॥ उस रात्रि का अन्त होने पर इस लोक का कल्प आरम्भ होता है, उसका क्रम जबतक ब्रह्माजी का दिन रहता है तबतक चलता रहता है । उस एक कल्प में चौदह मनु हो जाते हैं ॥ २३ ॥ प्रत्येक मनु इकहत्तर चतुर्युगी से कुछ अधिक काल (७१ ६/१४ चतुर्युगी) तक अपना अधिकार भोगता है । प्रत्येक मन्वन्तर में भिन्न-भिन्न मनुवंशी राजालोग, सप्तर्षि, देवगण, इन्द्र और उनके अनुयायी गन्धर्वादि साथ-साथ ही अपना अधिकार भोगते हैं ॥ २४ ॥ यह ब्रह्माजी की प्रतिदिन की सृष्टि है, जिसमें तीनों लोकों की रचना होती है । उसमें अपने-अपने कर्मानुसार पशु-पक्षी, मनुष्य, पितर और देवताओं की उत्पत्ति होती हैं ॥ २५ ॥ इन मन्वन्तरों में भगवान् सत्त्वगुण का आश्रय ले, अपनी मनु आदि मूर्तियों के द्वारा पौरुष प्रकट करते हुए इस विश्व का पालन करते हैं ॥ २६ ॥ कालक्रम से जब ब्रह्माजी का दिन बीत जाता है, तब वे तमोगुण के सम्पर्क को स्वीकार कर अपने सृष्टिरचनारूप पौरुष को स्थगित करके निचेष्टभाव से स्थित हो जाते हैं ॥ २७ ॥ उस समय सारा विश्व उन्हीं में लीन हो जाता है । जब सूर्य और चन्द्रमादि से रहित वह प्रलयरात्रि आती हैं, तब वे भूः, भुवः, स्वः — तीनों लोक उन्हीं ब्रह्माजी के शरीर में छिप जाते हैं ॥ २८ ॥ उस अवसरपर तीनों लोक शेषजी के मुख से निकली हुई अग्निरूप भगवान् की शक्ति से जलने लगते हैं । इसलिये उसके ताप से व्याकुल होकर भृगु आदि मुनीश्वरगण महर्लोक से जनलोक को चले जाते हैं ॥ २९ ॥ इतने में ही सातों समुद्र प्रलयकाल के प्रचण्ड पवन से उमड़कर अपनी उछलती हुई उत्ताल तरङ्गों से त्रिलोकी को डुबो देते हैं ॥ ३० ॥ तब उस जल के भीतर भगवान् शेषशायी योगनिद्रा ले नेत्र मूंदकर शयन करते हैं । उस समय जनलोकनिवासी मुनिगण उनकी स्तुति किया करते हैं ॥ ३१ ॥ इस प्रकार काल की गति से एक-एक सहस्र चतुर्युग के रूप में प्रतीत होनेवाले दिन-रात के हेर-फेर से ब्रह्माजी की सौ वर्ष की परमायु भी बीती हुई-सी दिखायी देती हैं ॥ ३३ ॥ ब्रह्माजी की आयु के आधे भाग को परार्ध कहते हैं । अबतक पहला परार्ध तो बीत चुका है, दूसरा चल रहा है ॥ ३३ ॥ पूर्व परार्ध के आरम्भ में ब्राह्म नामक महान् कल्प हुआ था । उसमें ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई थी । पण्डितजन इन्हें शब्दब्रह्म कहते हैं ॥ ३४ ॥ उसी परार्ध के अन्त में जो कल्प हुआ था, उसे पाद्मकल्प कहते हैं । इसमें भगवान् के नाभिसरोवर से सर्वलोकमय कमल प्रकट हुआ था ॥ ३५ ॥ विदुरजी ! इस समय जो कल्प चल रहा है, वह दूसरे परार्ध का आरम्भक बतलाया जाता है । यह वाराहकल्प नाम से विख्यात हैं, इसमें भगवान् ने सुकररूप धारण किया था ॥ ३६ ॥ यह दो परार्ध का काल अव्यक्त, अनन्त, अनादि, विश्वात्मा श्रीहरि का एक निमेष माना जाता है ॥ ३७ ॥ यह परमाणु से लेकर द्विपरार्धपर्यन्त फैला हुआ काल सर्वसमर्थ होनेपर भी सर्वात्मा श्रीहरि पर किसी प्रकार की प्रभुता नहीं रखता । यह तो देहादि में अभिमान रखनेवाले जीवों का ही शासन करने में समर्थ हैं ॥ ३८ ॥ प्रकृति, महत्तत्त्व, अहङ्कार और पञ्चतन्मात्र — इन आठ प्रकृतियों के सहित दस इन्द्रियाँ, मन और पञ्चभूत — इन सोलह विकारों से मिलकर बना हुआ यह ब्रह्माण्डकोश भीतर से पचास करोड़ योजन विस्तारवाला है । तथा इसके बाहर चारों ओर उत्तरोत्तर दस-दस गुने सात आवरण हैं । उन सबके सहित यह जिसमें परमाणु के समान पड़ा हुआ दीखता है और जिसमें ऐसी करोड़ों ब्रह्माण्डराशियाँ हैं, वह इन प्रधानादि समस्त कारणों का कारण अक्षर ब्रह्म कहलाता है और यही पुराणपुरुष परमात्मा श्रीविष्णुभगवान् का श्रेष्ठ धाम (स्वरूप) है ॥ ३९-४१ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे एकादशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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