April 23, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध पूर्वार्ध – अध्याय ३१ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय इकतीसवाँ अध्याय गोपिकागीत गोपियाँ विरहावेश में गाने लगीं — ‘प्यारे ! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों से भी व्रज की महिमा बढ़ गयी हैं । तभी तो सौन्दर्य और मृदुलता की देवी लक्ष्मीजी अपना निवासस्थान वैकुण्ठ छोड़कर यहाँ नित्य-निरन्तर निवास करने लगी हैं, इसकी सेवा करने लगी हैं । परन्तु प्रियतम ! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं, वन-वन में भटककर तुम्हें ढूँढ़ रही हैं ॥ १ ॥ हमारे प्रेमपूर्ण हृदय के स्वामी ! हम तुम्हारी बिना मोल की दासी हैं । तुम शरत्कालीन जलाशय में सुन्दर-से-सुन्दर सरसिज (कमल) की कर्णिका के सौन्दर्य को चुरानेवाले नेत्रों से हमें घायल कर चुके हो । हमारे मनोरथ पूर्ण करनेवाले प्राणेश्वर ! क्या नेत्रों से मारना वध नहीं है ? अस्त्रों से हत्या करना ही वध है ? ॥ २ ॥ पुरुषशिरोमणे ! यमुनाजी के विषैले जल से होनेवाली मृत्यु अजगर के रूप में खानेवाले अघासुर इन्द्र की वर्षा, आँधी, बिजली, दावानल, वृषभासुर और व्योमासुर आदि से एवं भिन्न-भिन्न अवसरों पर सब प्रकार के भयों से तुमने बार-बार हमलोगों की रक्षा की है ॥ ३ ॥ तुम केवल यशोदानन्दन ही नहीं हों; समस्त शरीरधारियों के हृदय में रहनेवाले उनके साक्षी हो, अन्तर्यामी हो । सखे ! ब्रह्माजी की प्रार्थना से विश्व की रक्षा करने के लिये तुम यदुवंश में अवतीर्ण हुए हो ॥ ४ ॥ अपने प्रेमियों की अभिलाषा पूर्ण करनेवालों में अग्रगण्य यदुवंशशिरोमणे ! जो लोग जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे करकमल अपनी छत्रछाया में लेकर अभय कर देते हैं । हमारे प्रियतम ! सबकी लालसा-अभिलाषाओं को पूर्ण करनेवाला वही करकमल, जिससे तुमने लक्ष्मीजी का हाथ पकड़ा हैं, हमारे सिर पर रख दो ॥ ५ ॥ व्रजवासियो के दुःख दूर करनेवाले वीरशिरोमणि श्यामसुन्दर ! तुम्हारी मन्द-मन्द मुसकान की एक उज्ज्वल रेखा ही तुम्हारे प्रेमीजनों के सारे मान-मद को चूर-चूर कर देने के लिये पर्याप्त है । हमारे प्यारे सखा ! हमसे रूठो मत, प्रेम करो । हम तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणों पर निछावर हैं । हम अबलाओं को अपना वह परम सुन्दर साँवला-साँवला मुखकमल दिखलाओ ॥ ६ ॥ तुम्हारे चरणकमल शरणागत प्राणियों के सारे पापों को नष्ट कर देते हैं । वे समस्त सौन्दर्य, माधुर्य की खान हैं और स्वयं लक्ष्मीजी उनकी सेवा करती रहती हैं । तुम उन्हीं. चरणों से हमारे बछडों के पीछे-पीछे चलते हो और हमारे लिये उन्हें साँप के फणों तक पर रखने में भी तुमने सङ्कोच नहीं किया । हमारा हृदय तुम्हारी विरह-व्यथा की आग से जल रहा है । तुम्हारी मिलने की आकांक्षा हमें सता रही है । तुम अपने वे ही चरण हमारे वक्षःस्थल पर रखकर हमारे हृदय की ज्वाला को शान्त कर दो ॥ ७ ॥ कमलनयन ! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर हैं ! उसका एक-एक पद, एक-एक शब्द, एक-एक अक्षर मधुरातिमधुर है । बड़े-बड़े विद्वान् उसमें रम जाते हैं । उसपर अपना सर्वस्व निछावर कर देते हैं । तुम्हारी उसी वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हो रही हैं । दानवीर ! अब तुम अपना दिव्य अमृत से भी मधुर अधर-रस पिलाकर हमें जीवन-दान दो, छका दो ॥ ८ ॥ प्रभो ! तुम्हारी लीलाकथा भी अमृतस्वरूप है । विरह से सताये हुए लोगों के लिये तो वह जीवन सर्वस्व ही हैं । बड़े-बड़े ज्ञानी महात्माओं–भक्त कवियों ने इसका गान किया है, वह सारे पाप-ताप तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवणमात्र से परम मङ्गल–परम कल्याण का दान भी करती हैं । वह परम सुन्दर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी है । जो तुम्हारी उस लीला-कथा का गान करते हैं, वास्तव में भूलोक में वे ही सबसे बड़े दाता हैं ॥ ९ ॥ प्यारे ! एक दिन वह था, जब तुम्हारी प्रेमभरी हँसी और चितवन तथा तुम्हारी तरह-तरह की क्रीड़ाओं का ध्यान करके हम आनन्द में मग्न हो जाया करती थीं । उनका ध्यान भी परम मङ्गलदायक है, उसके बाद तुम मिले । तुमने एकान्त में हृदयस्पर्शी ठिठोलियाँ कीं, प्रेम की बातें कहीं । हमारे कपटी मित्र ! अब वे सब बातें याद आकर हमारे मन को क्षुब्ध किये देती हैं ॥ १० ॥ हमारे प्यारे स्वामी ! तुम्हारे चरण कमल से भी सुकोमल और सुन्दर हैं । जब तुम गौओं को चराने के लिये व्रज से निकलते हो तब यह सोचकर कि तुम्हारे वे युगल चरण कंकड़, तिनके और कुश-काँटे गड़ जाने से कष्ट पाते होंगे, हमारा मन बेचैन हो जाता हैं । हमें बड़ा दुःख होता है ॥ ११ ॥ दिन ढलने पर जब तुम वन से घर लौटते हो, तो हम देखती हैं कि तुम्हारे मुखकमल पर नीली-नीली अलकें लटक रही हैं और गौओं के खुर से उड़-उड़कर घनी धूल पड़ी हुई हैं । हमारे वीर प्रियतम ! तुम अपना वह सौन्दर्य हमें दिखा-दिखाकर हमारे हृदय में मिलन क्री आकाङ्क्षा प्रेम उत्पन्न करते हों ॥ १२ ॥ प्रियतम ! एकमात्र तुम्हीं हमारे सारे दुःखको मिटानेवाले हो । तुम्हारे चरणकमल शरणागत भक्तों की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करनेवाले हैं । स्वयं लक्ष्मीजी इनकी सेवा करती है और पृथ्वी के तो वे भूषण ही हैं । आपत्ति के समय एकमात्र उन्हीं का चिन्तन करना उचित हैं, जिससे सारी आपत्तियां कट जाती हैं । कुञ्जविहारी ! तुम अपने वे परम कल्याणस्वरूप चरणकमल हमारे वक्षःस्थल पर रखकर हृदय की व्यथा शान्त कर दो ॥ १३ ॥ वीरशिरोमणे ! तुम्हारा अधरामृत मिलन के सुख को — आकाङ्क्षा को बढ़ानेवाला है । वह विरहजन्य समस्त शोक-सन्ताप को नष्ट कर देता है । यह गानेवाली बाँसुरी भली-भाँति उसे चूमती रहती हैं । जिन्होंने एक बार उसे पी लिया, उन लोगों को फिर दूसरों और दूसरों की आसक्तियों का स्मरण भी नहीं होता । हमारे वीर ! अपना वहीं अधरामृत हमें वितरण करो, पिलाओ ॥ १४ ॥ प्यारे ! दिन के समय जब तुम वन में विहार करने के लिये चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारे लिये एक-एक क्षण युग के समान हो जाता है और जब तुम सन्ध्या के समय लौटते हो तथा घुँघराली अलकों से युक्त तुम्हारा परम सुन्दर मुखारविन्द हम देखती हैं, उस समय पलकों को गिरना हमारे लिये भार हो जाता है और ऐसा जान पड़ता है कि इन नेत्रों के पलकों को बनानेवाला विधाता मूर्ख है ॥ १५ ॥ प्यारे श्यामसुन्दर ! हमें अपने पति-पुत्र, भाई-बन्धु और कुल-परिवार का त्याग कर, उनकी इच्छा और आज्ञाओं का उल्लङ्घन करके तुम्हारे पास आयी हैं । हम तुम्हारी एक-एक चाल जानती हैं, सङ्केत समझती हैं और तुम्हारे मधुर गान की गति समझकर, उसी से मोहित होकर यहाँ आयी हैं । कपटी ! इस प्रकार रात्रि के समय आयी हुई युवतियों को तुम्हारे सिवा और कौन छोड़ सकता है ॥ १६ ॥ प्यारे ! एकान्त में तुम मिलन की आकाङ्क्षा, प्रेम-भाव को जगानेवाली बातें करते थे । ठिठोली करके हमें छेड़ते थे । तुम प्रेमभरी चितवन से हमारी ओर देखकर मुसकरा देते थे और हम देखती थीं तुम्हारा यह विशाल वक्षःस्थल, जिस पर लक्ष्मीजी नित्य-निरन्तर निवास करती हैं । तब से अब तक निरन्तर हमारी लालसा बढ़ती ही जा रही है और हमारा मन अधिकाधिक मुग्ध होता जा रहा हैं ॥ १७ ॥ प्यारे ! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति व्रजवनवासियों के सम्पूर्ण दुःख-ताप को नष्ट करनेवाली और विश्व का पूर्ण मङ्गल करने के लिये है । हमारा हृदय तुम्हारे प्रति लालसा से भर रहा है । कुछ थोड़ी सी ऐसी ओषधि दो, जो तुम्हारे निजजनों के हृदयरोग को सर्वथा निर्मूल कर दे ॥ १८ ॥ तुम्हारे चरण कमल से भी सुकुमार हैं । उन्हें हम अपने कठोर स्तनों पर भी डरते डरते बहुत धीरे से रखती हैं कि कहीं उन्हें चोट न लग जाय । उन्हीं चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे-छिपे भटक रहे हो ! क्या कंकड़, पत्थर आदि क़ी चोट लगने से उनमें पीड़ा नहीं होती, हमें तो इसकी सम्भावनामात्र से ही चक्कर आ रहा है । हम अचेत होती जा रही हैं । श्रीकृष्ण ! श्यामसुन्दर ! प्राणनाथ ! हमारा जीवन तुम्हारे लिये है, हम तुम्हारे लिये जी रही हैं, हम तुम्हारी हैं ॥ १९ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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