श्रीमद्भागवतमहापुराण – नवम स्कन्ध – अध्याय १
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
पहला अध्याय
वैवस्वत मनु के पुत्र राजा सुद्युम्न की कथा

राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! आपने सब मन्वन्तरों और उनमें अनन्त शक्तिशाली भगवान् के द्वारा किये हुए ऐश्वर्यपूर्ण चरित्र का वर्णन किया और मैंने उनका श्रवण भी किया ॥ १ ॥ आपने कहा कि पिछ्ले कल्प के अन्त में द्रविड़ देश के स्वामी राजर्षि सत्यव्रत ने भगवान् की सेवासे ज्ञान प्राप्त किया और वही इस कल्प में वैवस्वत मनु हुए । आपने उनके इक्ष्वाकु आदि नरपति पुत्रों का भी वर्णन किया ॥ २-३ ॥ ब्रह्मन् ! अब आप कृपा करके उनके वंश और वंश में होनेवालों का अलग-अलग चरित्र वर्णन कीजिये । महाभाग ! हमारे हृदय में सर्वदा ही कथा सुनने की उत्सुकता बनी रहती हैं ॥ ४ ॥ वैवस्वत मनु के वंश में जो हो चुके हों, इस समय विद्यमान हों और आगे होनेवाले हो — उन सब पवित्रकीर्ति पुरुषों के पराक्रम का वर्णन कीजिये ॥ ५ ॥

सूतजी कहते हैं — शौनकादि ऋषियो ! ब्रह्मवादी ऋषियों की सभा में राजा परीक्षित् ने जब यह प्रश्न किया, तब धर्म के परम मर्मज्ञ भगवान् श्रीशुकदेवजी ने कहा ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा — परीक्षित् ! तुम मनुवंश का वर्णन संक्षेप से सुनो । विस्तार से तो सैकड़ों वर्ष में भी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥ ७ ॥ जो परम पुरुष परमात्मा छोटे-बड़े सभी प्राणियों के आत्मा हैं, प्रलय के समय केवल वही थे; यह विश्व तथा और कुछ भी नहीं था ॥ ८ ॥ महाराज ! उनकी नाभि से एक सुवर्णमय कमलकोष प्रकट हुआ । उसमें चतुर्मुख ब्रह्माजी का आविर्भाव हुआ ॥ ९ ॥ ब्रह्माजी के मन से मरीचि और मरीचि के पुत्र कश्यप हुए । उनकी धर्मपत्नी दक्षनन्दिनी अदिति से विवस्वान् (सूर्य) का जन्म हुआ ॥ १० ॥ विवस्वान् को संज्ञा नामक पत्नी से श्राद्धदेव मनु का जन्म हुआ । परीक्षित् ! परम मनस्वी राजा श्राद्धदेव ने अपनी पत्नी श्रद्धा के गर्भ से दस पुत्र उत्पन्न किये । उनके नाम थे — इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट, धृष्ट, करूष, नरिष्यन्त, पृषध्र, नभग और कवि ॥ ११-१२ ॥

वैवस्वत मनु पहले सन्तानहीन थे । उस समय सर्वसमर्थ भगवान् वसिष्ठ ने उन्हें सन्तान-प्राप्ति कराने लिये मित्रावरुण का यज्ञ कराया था ॥ १३ ॥ यज्ञ के आरम्भ में केवल दूध पीकर रहनेवाली वैवस्वत मनु की धर्मपत्नी श्रद्धा ने अपने होता के पास जाकर प्रणामपूर्वक याचना की कि मुझे कन्या ही प्राप्त हो ॥ १४ ॥ तब अध्वर्यु की प्रेरणा से होता बने हुए ब्राह्मण ने श्रद्धा के कथन का स्मरण करके एकाग्र चित्त से वषट्कार का उच्चारण करते हुए यज्ञकुण्ड में आहुति दी ॥ १५ ॥ जब होता ने इस प्रकार विपरीत कर्म किया, तब यज्ञ के फलस्वरूप पुत्र के स्थान पर इला नाम की कन्या हुई । उसे देखकर श्राद्धदेव मनु का मन कुछ विशेष प्रसन्न नहीं हुआ । उन्होंने अपने गुरु वसिष्ठजी से कहा — ॥ १६ ॥ “भगवन् ! आपलोग तो ब्रह्मवादी हैं, आपका कर्म इस प्रकार विपरीत फल देनेवाला कैसे हो गया ? अरे, यह तो बड़े दुःख की बात है । वैदिक कर्म का ऐसा विपरीत फल तो कभी नहीं होना चाहिये ॥ १५ ॥ आपलोगों का मन्त्रज्ञान तो पूर्ण है ही, इसके अतिरिक्त आपलोग जितेन्द्रिय भी हैं तथा तपस्या के कारण निष्पाप हो चुके हैं । देवताओं में असत्य की प्राप्ति के समान आपके सङ्कल्प का यह उलटा फल कैसे हुआ?’ ॥ १८ ॥

परीक्षित् ! हमारे वृद्धप्रपितामह भगवान् वसिष्ठ ने उनकी यह बात सुनकर जान लिया कि होता ने विपरीत सङ्कल्प किया है । इसलिये उन्होंने वैवस्वत मनु से कहा — ॥ १९ ॥ ‘राजन् ! तुम्हारे होता के विपरीत सङ्कल्प से ही हमारा सङ्कल्प ठीक-ठीक पूरा नहीं हुआ । फिर भी अपने तप के प्रभाव से मैं तुम्हें श्रेष्ठ पुत्र दूंगा’ ॥ २० ॥ परीक्षित् ! परम यशस्वी भगवान् वसिष्ठ ने ऐसा निश्चय करके उस इला नाम की कन्या को ही पुरुष बना देने के लिये पुरुषोत्तम भगवान् नारायण की स्तुति की ॥ २१ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि ने सन्तुष्ट होकर उन्हें मुंहमाँगा वर दिया, जिसके प्रभाव से वह कन्या ही सुद्युम्न नामक श्रेष्ठ पुत्र बन गयी ॥ २२ ॥

महाराज ! एक बार राजा सुद्युम्न शिकार खेलने के लिये सिन्धुदेश के घोड़े पर सवार होकर कुछ मन्त्रियों के साथ वन में गये ॥ २३ ॥ वीर सुद्युम्न कवच पहनकर और हाथ में सुन्दर धनुष एवं अत्यन्त अद्भुत बाण लेकर हरिनों का पीछा करते हुए उत्तर दिशा में बहुत आगे बढ़ गये ॥ २४ । अन्त में सुद्युम्न मेरुपर्वत की तलहटी के एक वन में चले गये । उस वन में भगवान् शङ्कर पार्वती के साथ विहार करते रहते हैं ॥ २५ ॥ उसमें प्रवेश करते ही वीरवर सुद्युम्न ने देखा कि मैं स्त्री हो गया हूँ और घोड़ा घोड़ी हो गया है ॥ २६ ॥ परीक्षित् ! साथ ही उनके सब अनुचरों ने भी अपने को स्त्रीरूप में देखा । वे सब एक-दूसरे का मुँह देखने लगे, उनका चित्त बहुत उदास हो गया ॥ २७ ॥

राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! उस भूखण्ड में ऐसा विचित्र गुण कैसे आ गया ? किसने उसे ऐसा बना दिया था ? आप कृपा कर हमारे इस प्रश्न का उत्तर दीजिये । क्योंकि हमें बड़ा कौतूहल हो रहा है ॥ २८ ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा — परीक्षित् ! एक दिन भगवान् शङ्कर का दर्शन करने के लिये बड़े-बड़े व्रतधारी ऋषि अपने तेज से दिशाओं का अन्धकार मिटाते हुए उस वन में गये ॥ २९ ॥ उस समय अम्बिका देवी वस्त्रहीन थीं । ऋषियों को सहसा आया देख वे अत्यन्त लज्जित हो गयीं । झटपट उन्होंने भगवान् शङ्कर की गोद से उठकर वस्त्र धारण कर लिया ॥ ३० ॥ ऋषियों ने भी देखा कि भगवान् गौरी-शङ्कर इस समय विहार कर रहे हैं, इसलिये वहाँ से लौटकर वे भगवान् नर-नारायण के आश्रम पर चले गये ॥ ३१ ॥ उसी समय भगवान् शङ्कर ने अपनी प्रिया भगवती अम्बिका को प्रसन्न करने के लिये कहा कि ‘मेरे सिवा जो भी पुरुष इस स्थान में प्रवेश करेगा, वही स्त्री हो जायेगा’ ॥ ३२ ॥ परीक्षित् ! तभी पुरुष उस स्थान में प्रवेश नहीं करते । अब सुद्युम्न स्त्री हो गये थे । इसलिये वे अपने स्त्री बने हुए अनुचरों के साथ एक वन से दूसरे वन में विचरने लगे ॥ ३३ ॥

उसी समय शक्तिशाली बुध ने देखा कि मेरे आश्रम के पास ही वहुत-सी स्त्रियों से घिरी हुई एक सुन्दरी स्त्री विचर रही है । उन्होंने इच्छा की कि यह मुझे प्राप्त हो जाय ॥ ३४ ॥ उस सुन्दरी स्त्री ने भी चन्द्रकुमार बुध को पति बनाना चाहा । इसपर बुध ने उसके गर्भ से पुरूरवा नाम का पुत्र उत्पन्न किया ॥ ३५ ॥ इस प्रकार मनुपुत्र राजा सुद्युम्न स्त्री हो गये । ऐसा सुनते हैं कि उन्होंने उस अवस्था में अपने कुलपुरोहित वसिष्ठजी का स्मरण किया ॥ ३६ ॥ सुद्युम्न की यह दशा देखकर वसिष्ठजी के हृदय में कृपावश अत्यन्त पीड़ा हुई । उन्होंने सुद्युम्न को पुनः पुरुष बना देने के लिये भगवान् शङ्कर की आराधना की ॥ ३७ ॥ भगवान् शङ्कर वसिष्ठजी पर प्रसन्न हुए । परीक्षित् ! उन्होंने उनकी अभिलाषा पूर्ण करने के लिये अपनी वाणी को सत्य रखते हुए ही यह बात कही — ॥ ३८ ॥ वसिष्ठ ! तुम्हारा यह यजमान एक महीने तक पुरुष रहेगा और एक महीने तक स्त्री । इस व्यवस्था से सुद्युम्न इच्छानुसार पृथ्वी का पालन करे ॥ ३९ ॥ इस प्रकार वसिष्ठजी के अनुग्रह से व्यवस्थापूर्वक अभीष्ट पुरुषत्व लाभ करके सुद्युम्न पृथ्वी का पालन करने लगे । परन्तु प्रजा उनका अभिनन्दन नहीं करती थी ॥ ४० ॥ उनके तीन पुत्र हुए — उत्कल, गय और विमल । परीक्षित् ! वे सब दक्षिणापथ के राज्ञा हुए ॥ ४१ ॥ बहुत दिनों के बाद वृद्धावस्था आने पर प्रतिष्ठान नगरी के अधिपति सुद्युम्न ने अपने पुत्र पुरूरवा को राज्य दे दिया और स्वयं तपस्या करने के लिये वन की यात्रा की ॥ ४२ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे प्रथमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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