March 21, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – षष्ठ स्कन्ध – अध्याय १० ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय दसवाँ अध्याय देवताओं द्वारा दधीचि ऋषि की अस्थियों से वज्र-निर्माण और वृत्रासुर की सेना पर आक्रमण श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! विश्व के जीवनदाता श्रीहरि इन्द्र को इस प्रकार आदेश देकर देवताओं के सामने वहीं-के-वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ १ ॥ अब देवताओं ने उदारशिरोमणि अथर्ववेदी दधीचि ऋषि के पास जाकर भगवान् के आज्ञानुसार याचना की । देवताओं की याचना सुनकर दधीचि ऋषि को बड़ा आनन्द हुआ । उन्होंने हँसकर देवताओं से कहा — ॥ २ ॥ ‘देवताओ ! आपलोगों को सम्भवतः यह बात नहीं मालूम है कि मरते समय प्राणियों को बड़ा कष्ट होता है । उन्हें जब तक चेत रहता है, बड़ी असह्य पीड़ा सहनी पड़ती हैं और अन्त में वे मूर्च्छित हो जाते हैं ॥ ३ ॥ जो जीव जगत् में जीवित रहना चाहते हैं, उनके लिये शरीर बहुत ही अनमोल, प्रियतम एवं अभीष्ट वस्तु हैं । ऐसी स्थिति में स्वयं विष्णु भगवान् भी यदि जीव से उसका शरीर माँगें तो कौन उसे देने का साहस करेगा ॥ ४ ॥ देवताओं ने कहा — ब्रह्मन् ! आप-जैसे उदार और प्राणियों पर दया करनेवाले महापुरुष, जिनके कर्मों की बड़े-बड़े यशस्वी महानुभाव भी प्रशंसा करते हैं, प्राणियों की भलाई के लिये कौन-सी वस्तु निछावर नहीं कर सकते ॥ ५ ॥ भगवन् ! इसमें सन्देह नहीं कि माँगनेवाले लोग स्वार्थी होते हैं । उनमें देनेवाल को कठिनाई का विचार करने की बुद्धि नहीं होती । यदि उनमें इतनी समझ होती तो माँगते ही क्यों ? इसी प्रकार दाता भी माँगनेवाले की विपत्ति नहीं जानता । अन्यथा उसके मुंह से कदापि नाहीं न निकलती (इसलिये आप हमारी विपत्ति समझकर हमारी याचना पूर्ण कीजिये ।) ॥ ६ ॥ दधीचि ऋषि ने कहा — देवताओ ! मैंने आपलोगों के मुंह से धर्म की बात सुनने के लिये ही आपकी माँग के प्रति उपेक्षा दिखलायी थी । यह लीजिये, मैं अपने प्यारे शरीर को आपलोगों के लिये अभी छोड़ देता हूँ । क्योंकि एक दिन यह स्वयं ही मुझे छोड़नेवाला है ॥ ७ ॥ देवशिरोमणियो ! जो मनुष्य इस विनाशी शरीर से दुःखी प्राणियों पर दया करके मुख्यतः धर्म और गौणतः यश को सम्पादन नहीं करता, वह जड़ पेड़-पौधों से भी गया-बीता है ॥ ८ ॥ बड़े-बड़े महात्माओं ने इस अविनाशी धर्म की उपासना की है । उसका स्वरूप बस, इतना ही है कि मनुष्य किसी भी प्राणी के दुःख में दुःख का अनुभव करे और सुख में सुख का ॥ ९ ॥ जगत् के धन, जन और शरीर आदि पदार्थ क्षण-भङ्गुर हैं । ये अपने किसी काम नहीं आते, अन्त में दूसरों के ही काम आयेंगे । ओह ! यह कैसी कृपणता है, कितने दुःख की बात है कि यह मरणधर्मा मनुष्य इनके द्वारा दूसरों का उपकार नहीं कर लेता ॥ १० ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! अथर्ववेदी महर्षि दधीचि ने ऐसा निश्चय करके अपने को परब्रह्म परमात्मा श्रीभगवान् में लीन करके अपना स्थूल शरीर त्याग दिया ॥ ११ ॥ उनके इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि संयत थे, दृष्टि तत्त्वमयी थी, उनके सारे बन्धन कट चुके थे । अतः जब वे भगवान् से अत्यन्त युक्त होकर स्थित हो गये, तब उन्हें इस बात का पता ही न चला कि मेरा शरीर छूट गया ॥ १२ ॥ भगवान् की शक्ति पाकर इन्द्र का बल-पौरुष उन्नति की सीमा पर पहुँच गया । अब विश्वकर्माजी ने दधीचि ऋषि की हड़ियों से वज्र बनाकर उन्हें दिया और वे उसे हाथ में लेकर ऐरावत हाथी पर सवार हुए । उनके साथ-साथ सभी देवतालोग तैयार हो गये । बड़े-बड़े ऋषि-मुनि देवराज इन्द्र की स्तुति करने लगे । अब उन्होंने त्रिलोकी को हर्षित करते हुए वृत्रासुर का वध करने के लिये उस पर पूरी शक्ति लगाकर धावा बोल दिया — ठीक वैसे ही जैसे भगवान् रुद्र क्रोधित होकर स्वयं काल पर ही आक्रमण कर रहे हों । परीक्षित् ! वृत्रासुर भी दैत्य-सेनापतियों की बहुत बड़ी सेना के साथ मोर्चे पर डटा हुआ था ॥ १३-१५ ॥ जो वैवस्वत मन्वन्तर इस समय चल रहा है, इसकी पहली चतुर्युगी का त्रेतायुग अभी आरम्भ ही हुआ था । उसी समय नर्मदा तट पर देवताओं का दैत्यों के साथ यह भयंकर संग्राम हुआ ॥ १६ ॥ उस समय देवराज इन्द्र हाथ में वज्र लेकर रुद्र, वसु, आदित्य, दोनों अश्विनीकुमार, पितृगण, अग्नि, मरुद्गण, ऋभुगण, साध्यगण और विश्वेदेव आदि के साथ अपनी कान्ति से शोभायमान हो रहे थे । वृत्रासुर आदि दैत्य उनको अपने सामने आया देख और भी चिढ़ गये ॥ १७-१८ ॥ तब नमुचि, शम्बर, अनर्वा, द्विमूर्धा, ऋषभ, अम्बर, हयग्रीव, शङ्कुशिरा, विप्रचित्ति, अयोमुख, पुलोमा, वृषपर्वा, प्रहेति, हेति, उत्कल, सुमाली, माली आदि हजारों दैत्य-दानव एवं यक्ष-राक्षस स्वर्ण के साज-सामान से सुसज्जित होकर देवराज इन्द्र की सेना को आगे बढ़ने से रोकने लगे । परीक्षित् ! उस समय देवताओं की सेना स्वयं मृत्यु के लिये भी अजेय थी ॥ १९-२१ ॥ वे घमण्डी असुर सिंहनाद करते हुए बड़ी सावधानी से देवसेना पर प्रहार करने लगे । उन लोगों ने गदा, परिघ, बाण, प्रास, मुद्गर, तोमर, शूल, फरसे, तलवार, शतघ्नी (तोप), भुशुण्डि आदि अस्त्र-शस्त्रों की बौछार से देवताओं को सब ओर से ढक दिया ॥ २२-२३ ॥ एक-पर-एक इतने बाण चारों ओर से आ रहे थे कि उनसे ढक जाने के कारण देवता दिखलायी भी नहीं पड़ते थे — जैसे बादलों से ढक जाने पर आकाश के तारे नहीं दिखायी देते ॥ २४ ॥ परीक्षित् ! वह शस्त्रों और अस्त्रों की वर्षा देवसैनिकों को छू तक न सकी । उन्होंने अपने हस्तलाघव से आकाश में ही उनके हजार-हजार टुकड़े कर दिये ॥ २५ ॥ जब असुरों ेक अस्त्र-शस्त्र समाप्त हो गये, तब वे देवताओं की सेना पर पर्वतों के शिखर, वृक्ष और पत्थर बरसाने लगे । परन्तु देवताओं ने उन्हें पहले ही भाँति काट गिराया ॥ २६ ॥ परीक्षित् ! जब वृत्रासुर के अनुयायी असुरों ने देखा कि उनके असंख्य अस्त्र-शस्त्र भी देव-सेना का कुछ न बिगाड़ सके — यहाँतक कि वृक्षों, चट्टानों और पहाड़ो के बड़े-बड़े शिखरों से भी उनके शरीर पर खरोंच तक नहीं आयीं, सब-के-सब सकुशल हैं — तब तो वे बहुत डर गये । दैत्यलोग देवताओं को पराजित करने के लिये जो-जो प्रयत्न करते, वे सब-के-सब निष्फल हो जाते — ठीक वैसे ही, जैसे भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित भक्तों पर क्षुद्र मनुष्यों के कठोर और अमङ्गलमय दुर्वचनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता ॥ २७-२८ ॥ भगवद्विमुख असुर अपना प्रयत्न व्यर्थ देखकर उत्साहरहित हो गये । उनका वीरता का घमंड जाता रहा । अब वे अपने सरदार वृत्रासुर को युद्धभूमि में ही छोड़कर भाग खड़े हुए; क्योंकि देवताओं ने उनका सारा बल-पौरुष छीन लिया था ॥ २९ ॥ जब धीर-वीर वृत्रासुर ने देखा कि मेरे अनुयायी असुर भाग रहे हैं और अत्यन्त भयभीत होकर मेरी सेना भी तहस-नहस और तितर-बितर हो रही है, तब वह हँसकर कहने लगा ॥ ३० ॥ वीरशिरोमणि वृत्रासुर ने समयानुसार वीरोचित वाणी से विप्रचित्ति, नमुचि, पुलोमा, मय, अनर्वा, शम्बर आदि दैत्यों को सम्बोधित करके कहा — ‘असुरो ! भागो मत, मेरी एक बात सुन लो ॥ ३१ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि जो पैदा हुआ है, उसे एक-न-एक दिन अवश्य मरना पड़ेगा । इस जगत् में विधाता ने मृत्यु से बचने का कोई उपाय नहीं बताया है । ऐसी स्थिति में यदि मृत्यु के द्वारा स्वर्गादि लोक और सुयश भी मिल रहा हो तो ऐसा कौन बुद्धिमान् हैं, जो उस उत्तम मृत्यु को न अपनायेगा ॥ ३२ ॥ संसार में दो प्रकार की मृत्यु परम दुर्लभ और श्रेष्ठ मानी गयी है — एक तो योगी पुरूष का अपने प्राणों को वश में करके व्रह्मचिन्तन के द्वारा शरीर का परित्याग और दूसरा युद्धभुमि में सेना के आगे रहकर बिना पीठ दिखाये जूझ मरना (तुमलोग भला, ऐसा शुभ अवसर क्यों खो रहे हो)’ ॥ ३३ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे दशमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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