June 7, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीराधा-षडक्षरी महाविद्या की उपासना षडक्षरी महाविद्या-उपासनाके अन्तर्गत श्रीराधा-सम्बन्धी मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधान और कवच आदि का यथाक्रम विवरण नारदपंचरात्र के द्वितीय रात्रि विभाग में तीसरे, चौथे और पाँचवें अध्याय में उपलब्ध होता है । श्रीशंकरजी का नारद के प्रति कथन है कि ‘श्रीराधा| [श्रीकृष्ण के] प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हैं ।’ ‘प्राणाधिष्ठात्री या देवी राधारूपा च सा मुने।। (नारदपंचरात्र २ । ३।५५) जो कार्य बहुत काल तक श्रीकृष्ण की आराधना करने के बाद सिद्ध होता है, वह श्रीराधा की उपासना से स्वल्पकाल में ही सम्पन्न हो जाता है । श्रीनारद ने शंकरजी से पूछा कि ‘षडक्षरी महाविद्या की उपासना किन-किनने की थी ?’ शंकरजी ने कहा कि ‘यह षडक्षरी महाविद्या वेदों में भी सुदुर्लभ है; इसके सम्बन्ध में कुछ भी कहने का हरि द्वारा निषेध किया गया है । पार्वती के भी पूछने पर मैंने कुछ नहीं कहा; मेरे और परमात्मा श्रीकृष्ण के लिये यह प्राणतुल्य है; सर्वसिद्धिप्रद और भक्ति-मुक्ति देनेवाली है । षडक्षरी महाविद्या वेदेषु च सुदुर्लभा । निषिद्धा हरिणा पूर्वं वक्तुमेव हि नारद ॥ पार्वत्या परिपृष्टेन मया नोक्ता पुरा मुने । अस्माकं प्राणतुल्या च कृष्णस्य परमात्मनः ॥ (नारदपंचरात्र २।३।७६-७७) ‘श्रीकृष्ण इस षडक्षरी महाविद्या का नित्य भक्तिपूर्वक जप करते हैं । यह परम दुर्लभ मन्त्र है – ‘षडक्षरी महाविद्यां नित्यं भक्त्या जपेद्धरिः ।’ (नारदपंचरात्र २।५।४) ‘षडक्षरी महाविद्या कामधेनुस्वरूपिणी है । इसकी उपासना से बल, पुत्र, लक्ष्मी तथा दास्यभक्ति और गोलोक में ईप्सित स्थान की प्राप्ति होती है । ‘रां ओं आं यं स्वाहा’ — यही षडक्षरी महाविद्या का बीजमन्त्र है । यह राधाशक्ति की पूर्णतम जागृति का द्योतक है; मूलाधार चक्र से जाग्रत् होकर कुण्डलिनी महाशक्ति सहस्रारचक्र में अवस्थित हो जाती है – भूतवर्गात्परो वर्णो द्वितीयो दीर्घवान्मुने । चतुर्वर्गतुरीयश्च दीर्घवांश्च फलप्रदः ॥ भूतवर्गात्परो वर्णो वाणीवान् सर्वसिद्धिदः । सर्वशुद्धप्रियान्ता च तस्या बीजादिकाः स्मृताः ॥ (नारदपंचरात्र २।३।९१-९२) उपर्युक्त श्लोक का अभिप्राय यह है कि ‘भूतवर्गात्पर वर्णो द्वितीयो – ‘र’ है । भूत का अर्थ है – पाँच; इनके क वर्ग च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग और प वर्ग के बाद ‘य’ अक्षर के बाद दूसरा अक्षर ‘र’ है ।‘दीर्घवान्’ शब्द का तात्पर्य है ‘आं’ । ‘र’ और ‘ आं’ के मिलाने पर ‘रां’ बना । ‘चतुर्वर्गतुरीयः का तात्पर्य है ‘मोक्षदः’ । इसका अभिप्राय ‘ओम्’ है । ‘दीर्घवान् का अभिप्राय’ आं’ है । भूतवर्गात्परो वर्ण:’ का तात्पर्य ‘य’ से है । ‘वाणीवान् ‘यं’ का द्योतक है । ‘सर्व-शुद्धप्रियान्ता’ का तात्पर्य ‘स्वाहा’ है । इस तरह षडक्षरी महाविद्यामन्त्र का रूप‘रां ओं आं यं स्वाहा ।’ सिद्ध हुआ । इस मन्त्रानुष्ठान में श्रीकृष्ण की प्राणप्रियतमा रासेश्वरी राधा का देवतारूप में ध्यान इस प्रकार किया जाता है — श्वेतचम्पकवर्णाभां चन्द्रकोटिसमप्रभाम् । बिभ्रतीं कवरीभारं मालतीमाल्यभूषितम् ॥ ३ ॥ वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषितम् । ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां भक्तानुग्रहकारिकाम् ॥ ४ ॥ ब्रह्मस्वरूपां परमां कृष्णरामां मनोहराम् । कृष्णप्राणाधिकां देवीं कृष्णवक्षःस्थलस्थिताम् ॥ ५ ॥ कृष्णस्तुतां कृष्णकान्तां शान्तां सर्वप्रदां सतीम् । निर्लिप्तां निर्गुणां नित्यां सत्यां शुद्धां सनातनीम् ॥ ६ ॥ गोलोकवासिनीं गोप्त्रीं विधात्रीं धातुरेव ताम् । वृन्दां वृन्दावनचरीं वृन्दावनविनोदिनीम् ॥ ७ ॥ तुलस्यधिष्ठातृदेवीं गङ्गार्चितपदाम्बुजाम् । सर्वसिद्धिप्रदां सिद्धां सिद्धेशीं सिद्धयोगिनीम् ॥ ८ ॥ सुयज्ञयज्ञाधिष्ठात्रीं सुयज्ञाय महात्मने । वरदात्रीं च वरदां सर्वसम्पत्प्रदां सताम् ॥ ९ ॥ गोपीभिः सुप्रियाभिश्च सेवितां श्वेतचामरैः । रत्नसिंहासनस्थां च रत्नदर्पणधारिणीम् ॥ १० ॥ क्रीडापङ्कजहस्ताभ्यां परां कृष्णप्रियां भजे । ‘भगवती श्रीराधा का वर्ण श्वेत चम्पा की आभा के समान है । वे करोड़ों चन्द्रमा की प्रभा से संयुक्त हैं. उनकी कवरी — काले-काले केशों का जूड़ा मालती की माला से विभूषित है । उन्होंने वह्निपरिशुद्ध — अग्नि के तपाये हुए पवित्र रेशमी वस्त्रों को धारण किया है । वे रत्न-भूषणों से अलंकृत हैं । मन्द-मन्द मुसकरा रही हैं और उनकी मुखमुद्रा प्रसन्न है । वे भक्तों पर अनुग्रह करनेवाली हैं । वे ब्रह्मस्वरूपिणी हैं, परमेश्वरी हैं, श्रीकृष्ण की रमणी हैं, परम सुन्दरी हैं । वे श्रीकृष्ण के लिये प्राण से भी अधिक प्रिय हैं । वे देवी हैं, श्रीकृष्णवक्षोविलासिनी हैं । श्रीकृष्ण सदा उनकी स्तुति करते हैं । वे गोलोक में निवास करती हैं । वे गोप्त्री—रक्षिका हैं, विधाता की सृष्टि करनेवाली हैं, वृन्दा हैं, वृन्दावन में विचरण करती हैं, वृन्दावन में केलि करती रहती हैं । वे तुलसी की अधिष्ठात्री देवी हैं । श्रीगंगा उनके चरणकमल की अर्चना करती हैं, वे समस्त सिद्धि प्रदान करनेवाली हैं, सिद्ध हैं, सिद्धेश्वरी हैं, सिद्धयोगिनी हैं । वे सयज्ञ के यज्ञ की अधिष्ठात्री देवी हैं, सुयज्ञ को वरदान देनेवाली हैं । वे वरदात्री हैं और सज्जनों को समस्त सम्पत्ति देती हैं । श्वेत चँवर के द्वारा प्रिय गोपियाँ उनकी सेवा में लगी रहती हैं । वे रत्न-सिंहासन पर स्थित हैं, अपने दोनों हाथों में क्रीड़ा के लिये कमल धारण करती हैं । ऐसी कष्णप्रिया परमेश्वरी राधा का मैं ध्यान करता हूँ ।’ (नारदपंचरात्र २।४। ३-११) ध्यान के पश्चात् हाथ धोकर पुष्प समर्पण करना चाहिये । स्तोत्र पढ़ना चाहिये — नारायणि महामाये विष्णुमाये सनातनि ॥ प्राणाधिदेवि कृष्णस्य मामुद्धर भवार्णवात् । संसारसागरे घोरे भीतं मां शरणागतम् ॥ प्रपन्नं पतितं मातर्मामुद्धर हरिप्रिये । असंख्ययोनिभ्रमणादज्ञानान्धतमोऽन्वितम् ॥ ज्वलभिर्ज्ञानदीपैश्च मां सुवर्म प्रदर्शय । सर्वेभ्योऽपि विनिर्मुक्तं कुरु राधे सुरेश्वरि ॥ मां भक्तमनुरक्तं च कातरं यमताडनात् । त्वत्पादपद्मयुगले पाद्मपद्मालयार्चिते ॥ देहि मह्यं परां भक्तिं कृष्णेन परिसेविते । स्निग्धदूर्वाङ्करैः शुक्लपुष्पैः कुसुमचन्दनैः ॥ (नारदपंचरात्र २।४। १५-२०) ‘हे नारायणि ! विष्णुमाये ! महामाये ! सनातनi ! श्रीकृष्ण के लिये प्राण से भी अधिक प्रिय देवि ! संसारसागर से मेरा उद्धार कीजिये । मैं इस बोर संसारसागर तट में पतित होकर भयभीत हो गया हूँ मैं शरणागत हूँ । हे माँ ! श्रीकृष्ण की प्राण प्रियतमे ! आप मेरा उद्धार कीजिये । असंख्य योनियों में जन्म लेकर भ्रमण करते करते अज्ञान-अन्धकार से मैं युक्त हूँ । आप देदीप्यमान नदी के आलोक में मेरा पथ-प्रदर्शन कीजिये । मैं यम की ताड़ना से दुखी हूँ । मैं आपका भक्त हूँ । आपके चरणकमल में अनुरक्त हूँ । मुझे सारे विघ्नों से मुक्त कर दीजिये । ब्रह्माजी तथा लक्ष्मीजी (आदि उपासक) आपके चरणकमलों की अर्चना करते हैं । कोमल दूर्वादल और श्वेतपुष्य तथा चन्दन आदि से स्वयं श्रीकृष्ण भी आपकी पूजा करते हैं, आप अपने चरणों में मुझे परा-उत्तम भक्ति प्रदान कीजिये ।’ ॥ पुष्पांजलि-प्रणाम ॥ यथोपलब्ध सामग्री से षोडशोपचार पूजन करना चाहिये । इसके बाद तीन पुष्पांजलि समर्पित करनी चाहिये । तत्पश्चात् दासीवर्ग — मालती, माधवी, रत्नमालावती, चम्पावती, मधुमती, सुशीला, वनमालिका, चन्द्रावली, चन्द्रमुखी, पद्मा, पद्ममुखी, कमला, कालिका, कृष्णप्रिया, विद्याधरी तथा वटुवर्ग — सानन्द, परमानन्द, सुमित्र, सन्तनु आदि की यथाक्रम पाद्यादि उपचारोंसे पूजाकर प्रणाम करना चाहिये । इसके बाद षडक्षरी महाविद्या मन्त्र — ‘रां ओं आं यं स्वाहा ।’ का जप करना चाहिये । जप पूर्ण कर लेने के बाद स्तोत्र और राधा-कवच का पाठ करना चाहिये । ॥ स्तोत्र ॥ राधा रासेश्वरी रम्या रामा च परमात्मनः ॥ रासोद्भवा कृष्णकान्ता कृष्णवक्षःस्थलस्थिता । कृष्णप्राणाधिदेवी च महाविष्णोः प्रसूरपि । सर्वाद्या विष्णुमाया च सत्या नित्या सनातनी । ब्रह्मस्वरूपा परमा निर्लिप्ता निर्गुणा परा ॥ वृन्दा वृन्दावने सा च विरजातटवासिनी । गोलोकवासिनी गोपी गोपीशा गोपमातृका ॥ सानन्दा परमानन्दा नन्दनन्दनकामिनी । वृषभानुसुता शान्ता कान्ता पूर्णतमा च सा ॥ काम्या कलावती कन्या तीर्थपूता सती शुभा । (नारदपंचरात्र २।४। ४८-५३) श्रीराधा के इन सैंतीस नामों से युक्त स्तोत्र का पाठ करने वाला इस लोक में अचल लक्ष्मी और परलोक में हरि के चरणों में भक्ति प्राप्त करता है । ॥ कवच ॥ स्तोत्र पाठ के पश्चात् कवच का पाठ करना चाहिये । यह राधा-कवच है । इसका दूसरा नाम ‘परमानन्दसन्दोह’ कवच है । भगवान् श्रीकृष्ण ने इस ‘परमानन्दसन्दोह’ कवच को रत्नपुट में रखकर कण्ठ में धारण किया है । ये नित्य षडक्षरी महाविद्या मन्त्र का जप करते हैं । इस कवच के ऋषि नारायण हैं, श्रीकृष्ण की दास्यभक्ति में इसका विनियोग होता है — अथ श्रीराधा भक्तिज्ञान कवचम् सर्वाद्या में शिरः पातु केशं केशवकामिनी । भालं भगवती पातु लोला लोचनयुग्मकम् ॥ नासां नारायणी पातु सानन्दा चाधरोष्ठकम् । जिह्वां पातु जगन्माता दन्तं दामोदरप्रिया ॥ कपोलयुग्मं कृष्णेशा कण्ठं कृष्णप्रियाऽवतु । कर्णयुग्मं सदा पातु कालिन्दीकूलवासिनी ॥ वसुन्धरेशा वक्षो मे परमा सा पयोधरम् । पद्मनाभप्रिया नाभिं जठरं जाह्नवीश्वरी ॥ नित्या नितम्बयुग्मं मे कङ्कालं कृष्णसेविता । परात्परा पातु पृष्ठं सुश्रोणी श्रोणिकायुगम् ॥ परमाद्या पादयुग्मं नखरांश्च नरोत्तमा । सर्वाङ्गं मे सदा पातु सर्वेशा सर्वमङ्गला ॥ पातु रासेश्वरी राधा स्वप्ने जागरणे च माम् । जले स्थले चान्तरिक्षे सेविता जलशायिनी ॥ प्राच्यां मे सततं पातु परिपूर्णतमप्रिया । वह्नीश्वरी वह्निकोणे दक्षिणे दुःखनाशिनी ॥ नैऋत्ये सततं पातु नरकार्णवतारिणी । वारुणे वनमालीशा वायव्यां वायुपूजिता ॥ कौबेरे मां सदा पातु कूर्मेण परिसेविता । ईशान्यामीश्वरी पातु शतशृङ्गनिवासिनी ॥ वने वनचरी पातु वृन्दावनविनोदिनी । सर्वत्र सततं पातु सर्वेशा विरजेश्वरी ॥ प्रथमे पूजिता या च कृष्णेन परमात्मना । षडक्षर्या विद्यया च सा मां रक्षतु कातरम् ॥ (नारदपंचरात्र २ । ५। २४-३५) षडक्षरी विद्या की उपासना सिद्धिप्रदा और अमोघफलदा है । इसके द्वारा भगवती श्रीराधा का पुण्यचिन्तन होता है । त्रैलोक्यपावनीं राधां सन्तोऽसेवन्त नित्यशः । यत्पादपद्ये भक्त्यार्थ्यं नित्यं कृष्णो ददाति च ॥ (नारदपंचरात्र २।६। ११) ‘श्रीराधा के चिन्तन से तीनों लोक पावन होते हैं । श्रीकृष्ण भक्तिपूर्वक उनके चरण-कमल में अर्घ्य समर्पित करते हैं । संत उनका निर्मल मन से नित्यप्रति भजन करते हैं ।’ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe