January 5, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ५६ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय ५६ दूर्वा की उत्पत्ति एवं दूर्वाष्टमी व्रत का विधान भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को अत्यन्त पवित्र दूर्वाष्टमी व्रत होता है । जो पुरुष इस पुण्य दूर्वाष्टमी का श्रद्धापूर्वक व्रत करता है, उसके वंश का क्षय नहीं होता । दूर्वा के अङ्कुरों की तरह उसके कुल की वृद्धि होती रहती है । महाराज युधिष्ठिर ने पूछा — लोकनाथ ! यह दूर्वा कहाँ से उत्पन्न हुई ? कैसे चिरायु हुई तथा यह क्यों पवित्र मानी गयी और लोक में वन्द्य तथा पूज्य कैसे हुई ? इसे भी बताने की कृपा करे । भगवान् श्रीकृष्ण बोले — देवताओं के द्वारा अमृत की प्राप्ति के लिये क्षीर-सागर के मथे जाने पर भगवान् विष्णु ने अपनी जंघा पर हाथ से पकड़कर मन्दराचल को धारण किया था । मन्दराचल के वेग से भ्रमण करने के कारण रगड़ से विष्णु भगवान् के जो रोम उखड़कर समुद्र में गिरे थे, पुनः समुद्र की लहरों द्वारा उछाले गये वे ही रोम हरित वर्ण के सुन्दर एवं शुभ दूर्वा के रूप में उत्पन्न हुए । उसी दूर्वा पर देवताओं ने मन्थन से उत्पन्न अमृत का कुम्भ रखा, उससे जो अमृत के बिन्दु गिरे, उनके स्पर्श से वह दूर्वा अजर-अमर हो गयी । वह देवताओं के लिये पवित्र तथा वन्द्य हुई । देवताओं ने भाद्रपद शुक्ला अष्टमी को गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, खर्जूर, नारिकेल, द्राक्षा, कपित्थ, नारंग, आम्र, बीजपूर, दाड़िम आदि फलों तथा दही, अक्षत, माला आदि से निम्न मन्त्रों द्वारा उसका पूजन किया — “त्वं दूर्वेऽमृतजन्मासि वन्दिता च सुरासुरैः । सौभाग्यं संततिं कृत्वा सर्वकार्यकरी भव ।। यथा शाखाप्रशाखाभिर्विस्तृतासि महीतले । तथा ममापि संतानं देहि त्वमजरामरे ।। (उत्तरपर्व ५६ । १२-१३) देवताओ के साथ ही उनकी पत्नियाँ तथा अप्सराओं ने भी उसका पूजन किया । मर्त्यलोक में वेदवती, सीता, दमयन्ती आदि स्त्रियों के द्वारा भी सौभाग्यदायिनी यह दूर्वा पूजित (वन्दित) हुई और सभी ने अपना-अपना अभीष्ट प्राप्त किया । जो भी नारी स्नानकर शुद्ध वस्त्र धारण कर दूर्वा का पूजन कर तिलपिष्ट, गोधूम और सप्तधान्य आदि का दानकर ब्राह्मण को भोजन कराती है और श्रद्धा से इस पुण्य तथा संतानकारक दुर्वाष्टमी व्रत को करती है वह पुत्र, सौभाग्य-धन आदि सभी पदार्थों को प्राप्तकर बहुत काल तक संसार में सुख भोगकर अन्त में अपने पतिसहित स्वर्ग में जाती है और प्रलयपर्यन्त वहाँ निवास करती है तथा देवताओं के द्वारा आनन्दित होती है । (अध्याय ५६) Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe