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भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६
ॐ श्रीपरमात्मने नम :
श्रीगणेशाय नम:
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
ग्रहस्थाश्रम में धन एवं स्त्री की महत्ता, धन-सम्पादन करने की आवश्यकता तथा समान कुल में विवाह-सम्बन्ध की प्रशंसा

राजा शतानीक ने सुमन्तु मुनि से पूछा – भगवन ! स्त्रियों के लक्षणों को तो मैंने सुना, अब उनके सद्वृत्त (सदाचार) – को भी मैं सुनना चाहता हूँ, उसे आप बतलाने की कृपा करें।
सुमन्तु मुनि बोले – महाबाहु शतानीक ! ब्रह्माजी ने ऋषियों को स्त्रियों के सद्वृत्त भी बतलाये हैं, उन्हें मैं आपको सुनाता हूँ, आप ध्यान-पूर्वक सुनें । जब ऋषियों ने स्त्रियों के सद्वृत्त के विषय में ब्रह्माजी से प्रश्न किया तब ब्रह्माजी कहने लगे – मुनीश्वरों ! सर्वप्रथम गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने वाला व्यक्ति यथा-विधि विद्याध्ययन करके सत्कर्मों द्वारा धन का उपार्जन करे, तदनन्तर सुन्दर लक्षणों से युक्त और सुशील कन्या से शास्त्रोक्त विधि से विवाह करे। धन के बिना गृहस्थाश्रम केवल विडम्बना है। इसलिए धन-सम्पादन करने के अनन्तर ही गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहिये। मनुष्य के लिए घोर नरक की यातना सहनी अच्छी है, किंतु घर में क्षुधा से तड़पते हुए स्त्री-पुत्रों को देखना अच्छा नहीं है। फटे और मैले-कुचैले वस्त्र पहने, अति दीन और भूखे स्त्री-पुत्रों को देखकर जिनका हृदय विदीर्ण नहीं होता, वे वज्र के समान अति कठोर हैं। उनके जीवन को धिक्कार हैं, उनके लिये तो मृत्यु ही परम उत्सव है अर्थात् ऐसे पुरुष का मर जाना ही श्रेष्ठ है। अतः स्त्री-ग्रहण करने वाले अर्थ-हीन पुरुष के त्रिवर्ग- (धर्म, अर्थ, काम) की सिद्धि कहाँ सम्भव है ? वह स्त्री-सुख न प्राप्त कर यातना ही भोगता है। जैसे स्त्री के बिना गृहस्थाश्रम नही हो सकता, उसी प्रकार धन-विहीन व्यक्तियों को भी गृहस्थ बनने का अधिकार नहीं है । कुछ लोग संतान को ही त्रिवर्ग का साधन मानते है, ऐसा समझते ही धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति होती है, ऐसा समझते है; परंतु नीति-विशारदों का यह अभिमत है कि धन और उत्तम स्त्री – ये दोनों त्रिवर्ग-साधन के हेतु है । धर्म भी दो प्रकार का कहा गया है – इष्ट धर्म और पूर्त धर्म। यज्ञादि करना इष्ट धर्म है और वापी, कूप, तालाब आदि बनवाना पूर्त धर्म है। ये दोनों धन से ही सम्पन्न होते हैं।om, ॐ
दरिद्री के बन्धु भी उससे लज्जा करते है और धनाढ्य के अनेक बन्धु हो जाते है। धन ही त्रिवर्ग का मूल है। धनवान् में विद्या, कुल, शील अनेक उत्तम गुण आ जाते हैं और निर्धन में विद्यमान् होते हुए भी ये गुण नष्ट हो जाते हैं। शास्त्र, शिल्प, कला और अन्य भी जितने कर्म है, उन सबका तथा धर्म का साधन भी धन ही है । धन के बिना पुरुष का जन्म अजागल-स्तनवत् व्यर्थ ही है।
पूर्वजन्म में किये गये पुण्यों से ही इस जन्म में प्रभूत धन की प्राप्ति होती है और धन से पुण्य होता है। इसलिए धन और पुण्य का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है अर्थात् ये एक दुसरे के कारक हैं । पुण्य से धनार्जन होता है और धन से पुण्यार्जन होता है –
Content is available only for registered users. Please login or register — इसलिए विद्वान् मनुष्य को इसी रीति से त्रिवर्ग-साधन करना चाहिये। स्त्री-रहित तथा निर्धन पुरुष का त्रिवर्ग-साधन में अधिकार नहीं हैं। अतः भार्या-ग्रहण से पूर्व उत्तम रीति से अर्थार्जन अवश्य कर लेना चाहिये। न्यायोपार्जित धन की प्राप्ति होने पर दार-परिग्रह करना चाहिये। अपने कुल के अनुरूप, धन, क्रिया आदि से प्रसिद्ध, अनिन्दित, सुन्दर तथा धर्म की साधनभूता कन्या को प्राप्त करना चाहिये। जब तक विवाह नहीं होता है, तब तक पुरुष अर्ध-शरीर ही होता है। इसलिए यथा-क्रम उचित अवसर प्राप्त हो जाने पर विवाह करना चाहिये । जैसे एक पहिये का रथ अथवा एक पंख-वाला पक्षी किसी कार्य में सफल नहीं हो पाता, वैसे ही स्त्री-हीन पुरुष भी प्रायः सभी धर्मकृत्यों में असफल ही रहता है –
Content is available only for registered users. Please login or register पत्नी-परिग्रह से धर्म तथा अर्थ दोनों में बहुत लाभ होता है और इससे आपस में प्रीति उत्पन्न होती है, सत्प्रीति से काम-रूपी तृतीय पुरुषार्थ भी प्राप्त हो जाता है, ऐसा विद्वानों का कहना है। विवाह-सम्बन्ध तीन प्रकार का होता है – नीच कुल में, सामान कुल में और उत्तम कुल में। नीच कुल में विवाह करने से निन्दा होती है। उत्तम कुल वाले के साथ विवाह करने से वे अनादर करते हैं। अपने से बड़े लोगों के साथ बनाया गया विवाह-सम्बन्ध, नीच के साथ बनाये गये विवाह-सम्बन्ध के प्रायः समान ही होता है। इस कारण अपने समान कुल में ही विवाह करना चाहिये। मनस्वी लोग विजातीय सम्बन्ध भी ठीक नहीं मानते। यह वैसा ही सम्बन्ध होता है जैसे कोयल और शुक का । जिस सम्बन्ध में प्रतिदिन स्नेह की अभिवृद्धि होती रहती है और विपत्ति-सम्पत्ति के समय भी प्राण तक भी देने में विचार न किया जाय, वह सम्बन्ध उत्तम कहलाता है। परंतु यह बात उनमे ही होती है जो कुल, शील, विद्या और धन आदि में समान होते है । मनुष्यों के स्नेह और कृतज्ञता की परीक्षा विपत्ति में ही होती है। इसलिए विवाह और परामर्श समान के साथ ही करना चाहिये, अपने से बड़े तथा छोटे के साथ नहीं । इसीमें अच्छी मित्रता रहती है।

(अध्याय – ६)

See Also :-

1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १-२

2. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय 3

3. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४

4. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५

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