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भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १० से १३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(मध्यमपर्व — द्वितीय भाग)
अध्याय – १० से १३
वास्तु-मंडल के निर्माण एवं वास्तु-पूजन की संक्षिप्त विधि

सूतजी कहते हैं — ब्राह्मणों ! अब मैं वास्तु मण्डल का संक्षित वर्णन कर रहा हूँ । पहले भूमि पर अङ्कुरों का रोपण करके भूमि की परीक्षा कर ले । तदनन्तर उत्तम भूमि के मध्य में वास्तु-मण्डल का निर्माण करे ।
वास्तु-मण्डल के देवता पैंतालीस हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं –om, ॐ(१) शिखी, (२) पर्जन्य, (३) जयन्त, (४) कुलिशायुध, (५) सूर्य, (६) सत्य, (७) वृष, (८) आकाश, (९) वायु, (१०) पुषा, (११) वितथ, (१२) गुहा, (१३) यम, (१४) गन्धर्व, (१५) मृगराज, (१६) मृग, (१७) पितृगण, (१८) दौवारिक, (१९) सुग्रीव, (२०) पुष्पदन्त, (२१) वरुण, (२२) असुर, (२३) पशु, (२४) पाश, (२५) रोग, (२६) अहि, (२७) मोक्ष, (२८) भल्लाट, (२९) सोम, (३०) सर्प, (३१) अदिति, (३२) दिति, (३३) अप्, (३४) सावित्र, (३५) जय, (३६) रूद्र, (३७) अर्यमा, (३८) सविता, (३९) विवस्वान्, (४०) विबुधाधिप, (४१) मित्र, (४२) राजयक्ष्मा, (४३) पृथ्वीधर, (४४) आपवत्स तथा (४५) ब्रह्मा इन पैंतालीस देवताओं के साथ ही वास्तु-मण्डल के बाहर ईशानकोण में चर की, अग्निकोण में विदारी, नैर्ऋत्यकोण में पूतना तथा वायव्यकोण में पापराक्षसी की स्थापना करनी चाहिये । मण्डल के पूर्व दिशा में स्कन्द, दक्षिण में अर्यमा, पश्चिम में जृम्भक तथा उत्तर में पिलिपिच्छ की स्थापना करनी चाहिये । इस प्रकार वास्तु-मण्डल में तिरपन (५३) देवी-देवताओं की स्थापना होती है । इन सभी का अलग-अलग मन्त्रों से पूजन करना चाहिये । मण्डल के बाहर की पूर्वादि दस दिशाओं में दस दिक्पाल देवताओं — इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति,वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा तथा अनन्त की भी यथास्थान पूजा कर उन्हें बलि (नैवेद्य) निवेदित करनी चाहिये । वास्तु-मण्डल की रेखाएँ श्वेत वर्ण से तथा मध्य में कमल लाल वर्ण से अनुरञ्जित करना चाहिये । शिखी आदि पैंतालिस देवताओं के कोष्ठकों को रक्तादि रंगों से अनुरञ्जित करना चाहिये । गृह, देवमन्दिर, महाकुप आदि के निर्माण में तथा देव-प्रतिष्ठा आदि में वास्तु-मण्डल का निर्माणकर वास्तुमण्डलस्थ देवताओं का आवाहन कर उनका पूजन आदि करना चाहिये । पवित्र स्थान पर लिपी-पुती डेढ़ हाथ के प्रमाण की भूमि पर पूर्व से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण दस-दस रेखाएँ खींचे । इससे इक्यासी कोष्ठक के वास्तुपद-चक्र का निर्माण होगा । इसी प्रकार ९-९ रेखाएँ खींचने से चौंसठ (६४) पद का वास्तुचक्र बनता है । वास्तुमण्डल में जिन देवताओं का उल्लेख किया गया है, उनका ध्यान और पूजन अलग-अलग मन्त्र से किया जाता है । उल्लिखित देवताओं की तुष्टि के लिये विधि के अनुसार स्थापना तथा पुजा करके हवन-कार्य सम्पन्न करना चाहिये । तदनन्तर ब्राह्मणों को सुवर्ण आदि दक्षिणा देकर संतुष्ट करना चाहिये ।

वास्तु-यागादि में एक विस्तृत मण्डल के अन्तर्गत योनि तथा मेखला से समन्वित एक कुण्ड और वास्तु-वेदी का विधि के अनुसार निर्माण करना चाहिये । मण्डल के ईशानकोण में कलश स्थापित कर गणेशजी का एवं कुण्ड के मध्य में विष्णु, दिक्पाल और ब्रह्मा आदि का तत्तद् मन्त्रों से पूजन करना चाहिये । प्राणायाम करके भूतशुद्धि करे । तदनन्तर वास्तुपुरुष का ध्यान इस प्रकार करे —

“श्वेतं चतुर्भुजं शान्तं कुण्डलाद्यैरलंकृतम् ।
पुस्तकं चाक्षमालां च वराभयकरं परम् ॥
पितृवैश्वानरोपेतं कुटिलभ्रूपशोभितम् ।
करालवदनं चैव आजानुकरलम्बितम् ॥ (मध्यमपर्व २ । ११ । ११-१२)

‘वास्तुदेवता श्वेतवर्ण के चार भुजावाले शान्तस्वरूप और कुण्डलों से अलंकृत हैं । हाथ में पुस्तक अक्षमाला, वरद एवं अभयमुद्रा धारण किये हुए हैं । पितरों और वैश्वानर से युक्त हैं तथा कुटिल भ्रू से सुशोभित हैं । उनका मुख भयंकर है । हाथ जानुपर्यन्त लम्बे हैं ।’

ऐसे वास्तुपुरुष का विधि के अनुसार पूजन कर उन्हें स्नान कराये । वास्तुदेवता के पूजन का मुख्य मन्त्र निम्नानुसार है —

“वास्तोष्पते प्रति जानीह्यस्मान्त्स्वावेशो अनमीवो भवानः । यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्व शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे ॥” (ऋ० ७ । ५४। १)
‘हे वास्तुदेव ! हम आपके सच्चे उपासक हैं, इस पर आप पूर्ण विश्वास करें और हमारी स्तुति-प्रार्थनाओं को सुनकर हम सभी उपासकों को आधि-व्याधि-मुक्त कर दें तथा जो हम अपने धन-ऐश्वर्य की कामना करते हैं, आप उसे भी परिपूर्ण कर दें, साथ ही इस वास्तुक्षेत्र या गृह में निवास करनेवाले हमारे स्त्री-पुत्रादि-परिवार-परिजनों के लिये कल्याणकारक हों एवं हमारे अधीनस्थ गौ, अश्वादि सभी चतुष्पद प्राणियों का भी कल्याण करे।’

पूजा की जितनी सामग्री है, उसे प्रोक्षण द्वारा शुद्ध कर ले । आसन की शुद्धि कर गणेश, सूर्य, इन्द्र और आधारशक्तिरूप पृथ्वी तथा ब्रह्मा का पूजन करे । तदनन्तर हाथ में श्वेत चन्दन-युक्त श्वेत पुष्प लेकर विष्णुरूप वास्तुपुरुष का ध्यान कर उन्हें आसन, पाद्य, अर्घ्य, मधुपर्क आदि प्रदान करे और विविध उपचारों से उनकी पूजा करे ।विद्वान् ब्राह्मण को चाहिये कि कुण्ड और वास्तुवेदी के मध्य में कलश की स्थापना करे । कलश में पर्वत के शिखर, गजशाला, वल्मीक, नदी-संगम, चौराहे तथा कुश के मूल की — यह सात प्रकार की मिट्टी छोड़े । साथ ही उसमें इन्द्रवल्ली (पारिजात), विष्णुक्रान्ता (कृष्ण शङ्खपुष्पी, अमृती (आमलकी), त्रपुष (खीरा), मालती, चम्पक तथा ऊर्वारुक (ककड़ी) — इन वनस्पतियों को छोड़े । पारिभद्र (नीम)— के पत्रों से कलश के कण्ठ का परिवेष्टन करे और कलश के मुख में फणाकाररूप में पञ्च-पल्लवों की स्थापना करे । उसके ऊपर श्रीफल, बीजपूर, नारिकेल, दाड़िम, धात्री तथा जम्बूफल रखे । कलश में सुवर्णादि पञ्चरत्न छोड़े । गन्ध-पुष्पादि पञ्चोपचारों से कलश का पूजन करे । कलश में वरुण का आवाहन करे । कलश का स्पर्श करते हुए उसमें समस्त समुद्रों, तीर्थों, गङ्गादि नदियों तथा पवित्र जलाशयों आदि के पवित्र जल की भावना कर उनका आवाहन करे । कलश-स्थापन के अनन्तर तिल, चावल, मध्वाज्य तथा दही, दूध आदि से यथाविधि वास्तु-होम करे । वास्तु-हवन के समय वास्तु-देवता के मन्त्र का जप करे । अनन्तर वास्तु-मण्डल के समस्त देवताओं को पायसान्न, कृशरान्न आदि पृथक्-पृथक् क्रमशः बलि निवेदित करे । सभी देवताओं को उन्हीं के अनुरूप पताका भी प्रदान करे । अपनी सामर्थ्य के अनुसार मन्त्र-जप और वास्तु-पुरुष-स्तव का पाठ करे ।
भगवान् शंकर ने भगवान् विष्णुस्वरुप वास्तोष्पति की ‘ब्रह्मस्तव’ नाम की विष्णु-स्तुति को इस प्रकार कहा –

“विष्णुर्जिष्णुर्विभुर्यज्ञो यज्ञियो यज्ञपालकः ।
नारायणो नरो हंसो विश्वक्सेनो हुताशनः ॥
यज्ञेशः पुण्डरीकाक्षः कृष्णः सूर्यः सुरार्चितः ।
आदिदेवो जगत्कर्ता मण्डलेशो महीधरः ॥
पद्मनाभो हृषीकेशो दाता दामोदरो हरिः ।
त्रिविक्रमस्त्रिलोकेशो ब्रह्मणः प्रीतिवर्धनः ॥
भक्तप्रियोऽच्युतः सत्यः सत्यवाक्यो ध्रुवः शुचिः ।
संन्यासी शास्त्रतत्त्वज्ञस्त्रिपञ्चाशद् गुणात्मकः ॥
विदारी विनयः शान्तस्तपस्वी वैद्युतप्रभः ।
यज्ञस्त्वं हि वषट्कारस्त्वमोंकारस्त्वमग्नयः ॥
त्वं स्वधा त्वं हि स्वाहा त्वं सुधा च पुरुषोत्तमः ।
नमो देवादिदौवाय विष्णवे शाश्वताय च ।
अनन्तायाप्रमेयाय नमस्ते गरुडध्वज ॥
ब्रह्मस्तवमिमं प्रोक्तं महादेवेन भाषितम् ।
प्रयत्नाद् यः पठेन्नित्यममृतत्वं स गच्छति ॥
ध्यायन्ति ये नित्यमनन्तमच्युतं हृत्पद्ममध्ये स्वयमाव्यवस्थितम् ।
उपासकानां प्रभुमेकमीश्वरं ते यान्ति सिद्धिं परमां तु वैष्णीवीम् ॥
(मध्यमपर्व २ । १२ । १५६-१६३)

इसका जो प्रयत्नपूर्वक निरन्तर पाठ करता है, उसे अमरता प्राप्त हो जाती है और जो हृत्कमल के मध्य निवास करनेवाले भगवान् अच्युत-विष्णु का ध्यान करता है, वह वैष्णवी सिद्धि प्राप्त करता है । यज्ञकर्म की पूर्णता में आचार्य को पयस्विनी गौ तथा सुवर्ण दक्षिणा में दे, अन्य ब्राह्मणों को भी सुवर्ण प्रदान करे । प्राजापत्य और स्विष्टकृत्  प्रत्येक कर्म ठीक-ठीक रीति से ही करना चाहिये, तभी फलदायक होता है । किन्तु मनुष्य से त्रुटि या अशुद्धि हो जाना स्वाभाविक है । अतः यह आहुति उस त्रुटि वा अशुद्धि की पूर्ति के प्रायश्चित् स्वरुप से है । निर्धारित संख्या में अभीष्ट मन्त्र से आहुतियां देने के पश्चात् मिष्ठान्न, खीर, हलुआ, आदि पदार्थों से आहुति देनी चाहिये — “ॐ यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं, यद्वान्यूनमिहाकरम् । अग्निष्टत् स्विष्टकृद् विद्यात्सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे । अग्नये स्विष्टकृते सुुहुतहुते, सर्वप्रायश्चित्ताहुुतीनां कामानां, समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्द्धय स्वाहा । इदं अग्नये स्विष्टकृते इदं न मम॥” -आश्व. गृ.सू. १.१०)हवन करे । आचार्य और ऋत्विज् मिलकर यजमान पर कलश के जल से अभिषेक करे । पूर्णाहुति देकर भगवान् सूर्य को अर्घ्य प्रदान करे । ब्राह्मणों की आज्ञा लेकर यजमान घर में प्रवेश करे, अनन्तर ब्राह्मण-भोजन कराये । दीन, अन्ध और कृपणों का अपनी शक्ति के अनुसार सम्मान करे । फिर अपने बन्धु-बान्धवों के साथ स्वयं भोजन करे । उस दिन भोजन में दूध, कसैले पदार्थ, भुने हुए शाक तथा करेला आदि निषिद्ध पदार्थों का उपयोग न करे । शाल्यन्न, मुली, कटहल, आम, मधु, घी, गुड, सेंधा नमक के साथ मातुलुंग (बिजौरा नींबू), बदरीफल, धात्रीफल एवं तिल और मरिच आदि से बने पदार्थ भोजन में प्रशस्त कहे गये हैं ।
(अध्याय १०-१३)
* (जिस भूमिपर मनुष्यादि प्राणी निवास करते हैं, उसे वास्तु कहा जाता है । इसके गृह, देवप्रासाद, ग्राम, नगर, पुर, दुर्ग आदि अनेक भेद हैं । इस पर वास्तुराजवल्लभ, समराङ्गणसूत्रधार, बृहत्संहिता, शिल्परत्न, गृहरत्नभूषण, हयशीर्षपाञ्चरात्र तथा कपिलपाञ्चरात्र आदि ग्रन्थों में इसपर पूर्णविचार किया गया है । पुराणों में मत्स्य, अग्नि तथा विष्णुधर्मोत्तर पुराण में भी यह महत्त्वपूर्ण विषय आया है । वास्तु के आविर्भाव के विषय में मत्स्यपुराण में आया है कि अन्धकासुर के वध के समय भगवान् शंकर के ललाट से जो स्वेदबिन्दु गिरे उनसे एक भयंकर आकृतिवाला पुरुष प्रकट हुआ । जब वह त्रिलोकी का भक्षण करने के लिये उद्यत हुआ, तब शंकर आदि देवताओं ने उसे पृथ्वी पर सुलाकर वास्तुदेवता (वास्तुपुरुष)-के रूप में प्रतिष्ठित किया और उसके शरी रमें सभी देवताओं ने वास किया । इसीलिये वह वास्तुदेवता कहलाया । देवताओं ने उसे पूजित होने का वर भी प्रदान किया । वास्तुदेवता की पूजा के लिये वास्तुप्रतिमा तथा वास्तुचक्र बनाया जाता है । वास्तुचक्र प्रायः ४९ से लेकर एक सहस्र पदात्मक होता है । भिन्न-भिन्न अवसरों पर भिन्न-भिन्न वास्तुचक्रों का निर्माण कर उनमें देवताओं का आवाहन-स्थापन एवं पूजन किया जाता है । चौंसठ पदात्मक तथा इक्यासी पदात्मक वास्तुचक्र के पूजन की परम्परा विशेषरूप से प्रचलित है । इस सभी वास्तुचक्र के भेदों में प्रायः इन्द्रादि दस दिक्पालों के साथ शिखी आदि पैंतालीस देवताओं का पूजन किया जाता है तथा उन्हें पायसान्न बलि प्रदान की जाती है । वास्तुकलश में वास्तुदेवता (वास्तोष्पति) -की पूजा कर उनसे सर्वविधि शान्ति एवं कल्याण की प्रार्थना की जाती है ।)

See Also :-

1.  भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६
2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १९ से २१
3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १ से २
4. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय ३ से ५

5. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय ६
6. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय ७ से ८
7. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय ९

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