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शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 35
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
पैंतीसवाँ अध्याय
दक्ष द्वारा यज्ञ की रक्षा के लिये भगवान् विष्णु से प्रार्थना, भगवान् का शिवद्रोहजनित संकट को टालने में अपनी असमर्थता बताते हुए दक्ष को समझाना तथा सेनासहित वीरभद्र का आगमन

दक्ष बोले — हे देवदेव ! हे हरे ! हे विष्णो ! हे दीनबन्धो ! हे कृपानिधे ! आपको मेरी और मेरे यज्ञ की रक्षा करनी चाहिये । आप ही यज्ञ के रक्षक, यज्ञ करनेवाले और यज्ञस्वरूप हैं । हे प्रभो ! आपको ऐसी कृपा करनी चाहिये, जिससे यज्ञ का विनाश न हो ॥ १-२ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे मुनीश्वर ! इस प्रकार आदरपूर्वक प्रार्थना करके भय से व्याकुल चित्तवाले दक्ष उनके चरणों में गिर पड़े । तब दुखी मनवाले दक्ष को उठाकर और उन दुर्बुद्धि की बात को सुनकर विष्णु ने शिव का स्मरण किया ॥ ३-४ ॥ अपने प्रभु एवं महान् ऐश्वर्य से युक्त परमेश्वर शिव का स्मरण करके शिवतत्त्व के ज्ञाता श्रीहरि दक्ष को सम्बोधित करते हुए कहने लगे — ॥ ५ ॥

हरि बोले — हे दक्ष ! मैं आपको यथार्थ बात बता रहा हूँ, मेरी बात सुनिये, यह आपके लिये सर्वथा हितकर तथा महामन्त्र की तरह सुखदायक है ॥ ६ ॥ हे दक्ष ! शिवतत्त्व को न जानने के कारण आपने सबके अधिपति परमात्मा शंकर की अवहेलना की है ॥ ७ ॥ ईश्वर की अवहेलना से सारा कार्य न केवल सर्वथा निष्फल हो जाता है, अपितु पग-पग पर विपत्ति भी आती है । जहाँ अपूज्य लोगों की पूजा होती है और पूजनीय की पूजा नहीं होती, वहाँ दरिद्रता, मृत्यु एवं भय — ये तीन अवश्य होंगे ॥ ८-९ ॥ इसलिये सम्पूर्ण प्रयत्न से तुम्हें भगवान् वृषभध्वज का सम्मान करना चाहिये । महेश्वर का अपमान करने से ही [आपके ऊपर] महान् भय उपस्थित हुआ है ॥ १० ॥ हम सब लोग प्रभु होते हुए भी आज आपकी दुर्नीति के कारण कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं । मैं सत्य कह रहा हूँ ॥ ११ ॥

ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] विष्णु का यह वचन सुनकर दक्ष चिन्ता में पड़ गये । उनका मुख तथा उनके चेहरे का रंग फीका पड़ गया और वे चुप होकर पृथिवी पर खड़े रह गये ॥ १२ ॥ इसी समय रुद्र के भेजे हुए गणनायक वीरभद्र अपनी सेना के साथ यज्ञस्थल में जा पहुँचे ॥ १३ ॥ कुछ गण भूपृष्ठपर आ गये, कुछ आकाश में स्थित हो गये और कुछ गण दिशाओं तथा विदिशाओं को व्याप्त करके खड़े हो गये । शिव की आज्ञा से वे रुद्र के समान पराक्रमवाले, शूर, निर्भीक तथा वीरों में श्रेष्ठ असंख्य गण सिंहनाद करते हुए वहाँ पहुँच गये ॥ १४-१५ ॥

उस घोर नाद से तीनों लोक गूंज उठे । आकाश धूल से भर गया और दिशाएँ अन्धकार से आवृत हो गयीं । सातों द्वीपों से युक्त पृथिवी भय से अत्यन्त व्याकुल होकर पर्वत और वनोंसहित काँपने लगी तथा सभी समुद्र विक्षुब्ध हो उठे ॥ १६-१७ ॥ समस्त लोकों का विनाश करनेवाले इस प्रकार के उस विशाल सैन्यदल को देखकर समस्त देवता आदि चकित रह गये ॥ १८ ॥ इस सैन्य-उद्योग को देखकर मुख से रक्त का वमन करते हुए वे दक्ष पत्नीसहित विष्णु के चरणों में दण्ड की भाँति गिर पड़े और इस प्रकार कहने लगे — ॥ १९ ॥

दक्ष बोले — हे विष्णो ! हे महाप्रभो ! आपके बल से ही मैंने इस महान् यज्ञ को आरम्भ किया है, सत्कर्म की सिद्धि के लिये आप ही प्रमाण माने गये हैं ॥ २० ॥ हे विष्णो ! आप कर्मों के साक्षी तथा यज्ञों के प्रतिपालक हैं । हे महाप्रभो ! आप वेदसारसर्वस्व, धर्म और ब्रह्मा के रक्षक हैं । अतः हे प्रभो ! आपको मेरे इस यज्ञ की रक्षा करनी चाहिये । आपके अतिरिक्त दूसरा कौन समर्थ है; क्योंकि आप सबके प्रभु हैं ॥ २१-२२ ॥

ब्रह्माजी बोले — तब दक्ष की अत्यन्त दीनतापूर्ण बात सुनकर भगवान् विष्णु शिवतत्त्व से विमुख उन दक्ष को बोध प्रदान करते हुए कहने लगे — ॥ २३ ॥

विष्णु बोले — हे दक्ष ! मुझे आपके यज्ञ की रक्षा अवश्य करनी चाहिये; धर्म के परिपालन-विषयक जो मेरी सत्य प्रतिज्ञा है, वह [सर्वत्र] विख्यात है ॥ २४ ॥ आपने जो कहा है, वह सत्य है, उसका व्यतिक्रम कैसे हो सकता है । परंतु दक्ष ! मैं जो कहता हूँ, उसे आप सुनिये । आप इस समय क्रूरतापूर्ण बुद्धि को त्याग दीजिये ॥ २५॥ हे दक्ष ! देवताओं के क्षेत्र नैमिषारण्य में जो अद्भुत घटना घटित हुई थी, क्या उसका स्मरण आपको नहीं हो रहा है ? आप कुबुद्धि के कारण उसे भूल गये ? ॥ २६ ॥ रुद्र के कोप से आपकी रक्षा करने में यहाँ कौन समर्थ है ? हे दक्ष ! आपकी रक्षा किसको अभिमत नहीं है ? परंतु जो आपकी रक्षा करने को उद्यत होता है, वह दुर्बुद्धि है ॥ २७ ॥

हे दुर्मते ! क्या कर्म है और क्या अकर्म है, इसे आप नहीं समझ पा रहे हैं । केवल कर्म ही [सब कुछ करनेमें] सर्वदा समर्थ नहीं हो सकता ॥ २८ ॥ जिसके सहयोग से कर्म में कुछ करने का सामर्थ्य आता है, उसीको आप स्वकर्म समझिये । भगवान् शिव के बिना दूसरा कोई कर्म में कल्याण करने की शक्ति देनेवाला नहीं है । जो शान्त होकर ईश्वर में मन लगाकर भक्तिपूर्वक कार्य करता है, उसीको भगवान् शिव उस कर्म का फल देते हैं ॥ २९-३० ॥ जो मनुष्य केवल ज्ञान का सहारा लेकर अनीश्वरवादी हो जाते हैं, वे सौ करोड़ कल्पों तक नरक में ही पड़े रहते हैं । केवल कर्मपरायण रहनेवाले लोग प्रत्येक जन्म में कर्ममय पाशों से बँधते हैं और नरकों की यातना भोगते हैं ॥ ३१-३२ ॥ ये रुद्रगणों के स्वामी, शत्रुमर्दन तथा रुद्र की क्रोधाग्नि से उत्पन्न वीरभद्र यज्ञभूमि में आ गये हैं ॥ ३३ ॥ ये हमलोगों के विनाश के लिये आये हैं, इसमें संशय नहीं है । चाहे कुछ भी हो, वास्तव में इनके लिये कुछ भी अशक्य नहीं है ॥ ३४ ॥

महान् सामर्थ्यशाली ये हम सबको अवश्य जलाकर ही शान्तचित्त होंगे, इसमें संशय नहीं है ॥ ३५ ॥ मैं भ्रम से महादेवजी की शपथ का उल्लंघन करके जो यहाँ रुक गया, उसके कारण आपके साथ मुझे भी दुःख सहना पड़ेगा । हे दक्ष ! आज मुझमें इनको रोक सकने की शक्ति नहीं है । क्योंकि शपथ का उल्लंघन करने से मैं शिवद्रोही हो गया हूँ ॥ ३६-३७ ॥ भगवान् शिव से द्रोह करनेवाले को त्रिकाल में भी सुख नहीं मिलता है, अतः आज आपके साथ मुझे भी अवश्य दुःख प्राप्त हुआ है । मेरा सुदर्शन नामक चक्र भी इनपर प्रभाव नहीं डाल पायेगा; क्योंकि यह शैवचक्र [केवल] अशैवों का लय करनेवाला है ॥ ३८-३९ ॥

वीरभद्र पर इस चक्र से प्रहार करते ही बिना उनका वध किये ही यह शैवचक्र शीघ्र ही शिवजी के पास चला जायगा । यह शैवचक्र शिव की शपथ का उल्लंघन करनेवाले मेरे पास मुझपर सहसा बिना प्रहार किये हुए ही अबतक स्थित है, यही उनकी महान् कृपा है ॥ ४०-४१ ॥ अब यह चक्र निश्चित रूप से मेरे पास नहीं रहेगा और अग्नि की लपटों से व्याप्त होकर इस समय शीघ्र ही चला जायगा । हमलोगों के द्वारा शीघ्रता से आदरपूर्वक पूजा किये जाने पर भी महान् क्रोध से भरे हुए ये वीरभद्र हमारी रक्षा नहीं करेंगे ॥ ४२-४३ ॥ हाय ! यह बड़े दुःख की बात है कि असमय में ही हमलोगों के लिये प्रलय आ गया है । इस समय आपका और हमारा विनाश उपस्थित हो गया है ॥ ४४ ॥

इस समय त्रिलोकी में हमारी रक्षा करनेवाला कोई नहीं है, भला शंकर के द्रोही को शरण देनेवाला संसार में कौन होगा ? शरीर का नाश हो जानेपर भी [शिवद्रोह के कारण] उन्हें यम की यातनाएँ प्राप्त होती हैं । बहुत दुःख देनेवाली उन यातनाओं को सहा नहीं जा सकता ॥ ४५-४६ ॥ शिवद्रोही को देखकर यमराज स्वयं दाँत पीसते हुए सन्तप्त तैलपूर्ण कड़ाहों में डाल देते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है । शपथ के बाद मैं शीघ्र ही जाने को उद्यत था, किंतु दुष्ट के संसर्गरूपी पाप के कारण ही नहीं गया ॥ ४७-४८ ॥ यदि इस समय हमलोग भागने का प्रयास भी करें, तो कर्षण करनेवाले शिवभक्त वीरभद्र अपने शस्त्रों से हमें खींच लेंगे; क्योंकि स्वर्ग, पृथिवी, पाताल में जहाँ कहीं भी वीरभद्र के शस्त्रों का जाना असम्भव नहीं है ॥ ४९-५० ॥

त्रिशूलधारी श्रीरुद्र के जितने भी गण यहाँ हैं, उन सबकी ऐसी ही शक्ति है । पूर्व समय में काशी में कालभैरव ने अपने नख के अग्रभाग से लीलापूर्वक ब्रह्माजी के पाँचवें सिर को काट दिया था ॥ ५१-५२ ॥ ऐसा कहकर अत्यन्त व्याकुल मुखकमलवाले विष्णु चुपचाप बैठ गये, उसी समय वीरभद्र भी यज्ञमण्डप में आ पहुँचे । विष्णु ऐसा कह ही रहे थे कि वीरभद्र के साथ [विशाल] सैन्यसमूह भी आ गया, जिसे देवता आदि ने देखा ॥ ५३-५४ ॥

 

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में सती-उपाख्यान में विष्णु का वचनवर्णन नामक पैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३५ ॥

 

 

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