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शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 50
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
पचासवाँ अध्याय
शुक्राचार्य द्वारा काशी में शुक्रेश्वर लिंग की स्थापनाकर उनकी आराधना करना, ‘मूर्त्यष्टक स्तोत्र’ से उनका स्तवन, शिवजी का प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहों के मध्य प्रतिष्ठित करना

सनत्कुमार बोले — [हे व्यास!] मृत्युंजय नामक शिवजी से जिस प्रकार शुक्राचार्य मुनि ने मृत्युनाशिनी विद्या प्राप्त की, उसे आप सुनें । पूर्वकाल में भृगुपुत्र शुक्राचार्य वाराणसीपुरी में जाकर विश्वेश्वर प्रभु का ध्यान करते हुए दीर्घकाल तक तप करते रहे ॥ १-२ ॥

शिवमहापुराण

हे वेदव्यास ! उन्होंने वहाँ परमात्मा शिव का लिंग स्थापित किया और उसके सामने एक मनोहर कूप का निर्माण करवाया । उन्होंने द्रोण-परिमाण के पंचामृत से उन देवेश को एक लाख बार स्नान करवाया और इसी प्रकार नाना प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों से भी एक लाख बार स्नान करवाया । उन्होंने देवेश का चन्दन, यक्षकर्दम (‘कर्पूरागरुकस्तूरीकङ्कोलैर्यक्षकर्दमः।’ (अमरकोश) एक प्रकार का सुगन्धित अंगलेप, जो कपूर, अगरु, कस्तूरी और कंकोल को समान मात्रा में मिलाकर बनाया जाता है।) और सुगन्धित उबटन से हजारों बार प्रीतिपूर्वक अनुलेपन किया ॥ ३-५ ॥

उन्होंने राजचम्पक, धतूरा, कनेर, कमल, मालती, कर्णिकार, कदम्ब, बकुल, उत्पल, मल्लिका, शतपत्री, सिन्धुवार, किंशुक, बन्धूकपुष्प, पुन्नाग, केशर, नागकेशर, नवमल्ली, चिबिलिक, कुन्द, मुचुकुन्द, मन्दार, बेलपत्र, द्रोण, मरुबक, वृक, ग्रन्थिपर्ण, दमनक, सुरम्य आम्रपत्र, तुलसी, देवगन्धारी, बृहत्पत्री, कुशांकुर, नन्द्यावर्त, अगस्त्य, साल, देवदारु, कचनार, कुरबक, दूर्वांकुर, कुरुण्टकइन प्रत्येक पुष्पों से तथा अनेक प्रकार के दूसरे मनोहर पल्लवों, पत्तों तथा कमलों से सावधानचित्त हो प्रीतिपूर्वक शिवजी का पूजन किया ॥ ६-११ ॥

तदनन्तर उन्होंने गीत, नृत्य, उपहार, बहुत-सी स्तुतियों, शिवसहस्रनामस्तोत्र तथा अन्य स्तुतियों से शिवजी को प्रसन्न किया । इस प्रकार शुक्राचार्य पाँच हजार वर्षपर्यन्त नाना प्रकार की अर्चनविधि से महेश्वर शिव की पूजा करते रहे ॥ १२-१३ ॥ जब उन्होंने शिवजी को वरदान के लिये थोड़ा भी उन्मुख न देखा, तब अत्यन्त कठिन दूसरा नियम धारण किया । भावनारूपी जल से इन्द्रियोंसहित चित्त के चांचल्यरूपी महान् दोष को धोकर उस चित्तरूप महारत्न को निर्मल करके शिवजी के लिये अर्पण करके शुक्राचार्य हजारों वर्षपर्यन्त तुषाग्निजन्य धूमराशि का पान करने लगे ॥ १४–१६ ॥

इस प्रकार दृढ़ मनवाला होकर घोर तप करते हुए उनको देखकर शिवजी शुक्राचार्य पर अत्यन्त प्रसन्न हो गये और हजारों सूर्यों से भी अधिक तेजवाले दाक्षायणीपति विरूपाक्ष शिवजी उस लिंग से प्रकट होकर कहने लगे — ॥ १७-१८ ॥

महेश्वर बोले — हे तपोनिधे ! हे महाभाग ! हे महामुने ! हे भृगुपुत्र ! मैं आपके इस तप से विशेषरूप से प्रसन्न हूँ । हे भार्गव ! आप अपना मनोभिलषित समस्त वर माँगिये, मैं प्रसन्न होकर आपकी सभी कामनाएँ पूर्ण करूँगा । आपके लिये कुछ भी अदेय नहीं है ॥ १९-२० ॥

सनत्कुमार बोले — शिवजी के इस अत्यन्त सुख देनेवाले श्रेष्ठ वचन को सुनकर शुक्राचार्य हर्षित हो गये और आनन्दसमुद्र में निमग्न हो गये ॥ २१ ॥ कमल के समान नेत्रवाले तथा हर्षातिरेक से रोमांचित विग्रहवाले शुक्राचार्य ने प्रसन्नतापूर्वक शिवजी को प्रणाम किया और प्रफुल्लित नेत्रोंवाला होकर सिर पर अंजलि लगाकर जय-जयकार करते हुए बड़ी प्रसन्नता से वे अष्टमूर्ति शिवजी की स्तुति करने लगे — ॥ २२-२३ ॥

॥ भार्गव उवाच ॥
त्वं भाभिराभिरभिभूय तमस्समस्तमस्तं नयस्यभिमतानि निशाचराणाम् ।
देदीप्यसे दिवमणे गगने हिताय लोकत्रयस्य जगदीश्वर तन्नमस्ते ॥ २४ ॥
लोकेऽतिवेलमतिवेलमहामहोभिर्निर्भासि कौ च गगनेऽखिललोकनेत्रः ।
विद्राविताखिलतमास्सुतमो हिमांशो पीयूष पूरपरिपूरितः तन्नमस्ते ॥ २५ ॥
त्वं पावने पथि सदागतिरप्युपास्यः कस्त्वां विना भुवनजीवन जीवतीह ।
स्तब्धप्रभंजनविवर्द्धि तसर्वजंतोः संतोषिता हि कुलसर्वगः वै नमस्ते ॥ २६ ॥
विश्वेकपावक न तावकपावकैकशक्तेर्ऋते मृतवतामृतदिव्यकार्यम् ।
प्राणिष्यदो जगदहो जगदंतरात्मंस्त्वं पावकः प्रतिपदं शमदो नमस्ते ॥ २७ ॥
पानीयरूप परमेश जगत्पवित्र चित्रविचित्रसुचरित्रकरोऽसि नूनम् ।
विश्वं पवित्रममलं किल विश्वनाथ पानीयगाहनत एतदतो नतोऽस्मि ॥ २८ ॥
आकाशरूपबहिरंतरुतावकाशदानाद्विकस्वरमिहेश्वर विश्वमेतत् ।
त्वत्तस्सदा सदय संश्वसिति स्वभावात्संकोचमेति भक्तोऽस्मि नतस्ततस्त्वाम् ॥ २९ ॥
विश्वंभरात्मक बिभर्षि विभोत्र विश्वं को विश्वनाथ भवतोऽन्यतमस्तमोरिः ।
स त्वं विनाशय तमो तम चाहिभूषस्तव्यात्परः परपरं प्रणतस्ततस्त्वाम् ॥ ३० ॥
आत्मस्वरूप तव रूपपरंपराभिराभिस्ततं हर चराचररूपमेतत् ।
सर्वांतरात्मनिलयप्रतिरूपरूप नित्यं नतोऽस्मि परमात्मजनोऽष्टमूर्ते ॥ ३१ ॥
इत्यष्टमूर्तिभिरिमाभिरबंधबंधो युक्तौ करोषि खलु विश्वजनीनमूर्त्ते ।
एतत्ततं सुविततं प्रणतप्रणीत सर्वार्थसार्थपरमार्थ ततो नतोऽस्मि ॥ ३२ ॥

भार्गव बोले — हे जगदीश्वर ! आप अपने तेज से समस्त अन्धकार को दूरकर रात में विचरण करनेवाले राक्षसों के मनोरथों को नष्ट कर देते हैं । हे दिनमणे ! आप त्रिलोकी का हित करने के लिये आकाश में सूर्यरूप से प्रकाशित हो रहे हैं; ऐसे आपको नमस्कार है ॥ २४ ॥ हे हिमांशो ! आप पृथ्वी तथा आकाश में समस्त प्राणियों के नेत्र बनकर चन्द्ररूप से विराजमान हैं और लोक में व्याप्त अन्धकार का नाश करनेवाले एवं अमृत की किरणों से युक्त हैं । हे अमृतमय ! आपको नमस्कार है ॥ २५ ॥ हे भुवनजीवन ! आप पावनपथ-योगमार्ग का आश्रय लेनेवालों की सदा गति तथा उपास्यदेव हैं । इस जगत् में आपके बिना कौन जीवित रह सकता है । आप वायुरूप से समस्त प्राणियों का वर्धन करनेवाले और सर्पकुलों को सन्तुष्ट करनेवाले हैं । हे सर्वव्यापिन् ! आपको नमस्कार है ॥ २६ ॥

हे विश्व के एकमात्र पावनकर्ता ! हे शरणागतरक्षक ! यदि आपकी एकमात्र पावक (पवित्र करनेवाली एवं दाहिका) शक्ति न रहे, तो मरनेवालों को मोक्ष प्रदान कौन करे ? हे जगदन्तरात्मन् ! आप ही समस्त प्राणियों के भीतर वैश्वानर नामक पावक (अग्निरूप) हैं और उन्हें पग-पग पर शान्ति प्रदान करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है ॥ २७ ॥

हे जलरूप ! हे परमेश ! हे जगत्पवित्र ! आप निश्चय ही विचित्र उत्तम चरित्र करनेवाले हैं । हे विश्वनाथ ! आपका यह अमल पानीय रूप अवगाहनमात्र से विश्व को पवित्र करनेवाला है, अतः आपको नमस्कार करता हूँ ॥ २८ ॥ हे आकाशरूप ! हे ईश्वर ! यह संसार बाहर एवं भीतर से अवकाश देने के ही कारण विकसित है, हे दयामय ! आपसे ही यह संसार स्वभावतः सदा श्वास लेता है और आपसे ही यह संकोच को प्राप्त होता है, अतः आपको प्रणाम करता हूँ ॥ २९ ॥

हे विश्वम्भरात्मक [पृथ्वीरूप] ! हे विभो ! आप ही इस जगत् का भरण-पोषण करते हैं । हे विश्वनाथ ! आपके अतिरिक्त दूसरा कौन अन्धकार का विनाशक है । हे अहिभूषण ! मेरे अज्ञानरूपी अन्धकार को आप दूर करें, आप स्तवनीय पुरुषों में सबसे श्रेष्ठ हैं, अतः आप परात्पर को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ३० ॥ हे आत्मस्वरूप ! हे हर ! आपकी इन रूपपरम्पराओं से यह सारा चराचर जगत् विस्तार को प्राप्त हुआ है । सबकी अन्तरात्मा में निवास करनेवाले हे प्रतिरूप ! हे अष्टमूर्ते ! मैं भी आपका जन हूँ, मैं आपको नित्य नमस्कार करता हूँ ॥ ३१ ॥

हे दीनबन्धो ! हे विश्वजनीनमूर्ते ! हे प्रणतप्रणीत (शरणागतों के रक्षक) ! हे सर्वार्थसार्थपरमार्थ ! आप इन अष्टमूर्तियों से युक्त हैं और यह विस्तृत जगत् आपसे व्याप्त है, अतः मैं आपको प्रणाम करता हूँ ॥ ३२ ॥

सनत्कुमार बोले — भार्गव ने इस प्रकार अष्टमूर्ति-स्तुति के आठ श्लोकों से शिवजी की स्तुतिकर भूमि में सिर झुकाकर उनको बार-बार प्रणाम किया ॥ ३३ ॥ अत्यन्त तेजस्वी भार्गव से इस प्रकार स्तुत महादेवजी प्रणाम करते हुए उन ब्राह्मण को अपनी भुजाओं से पकड़कर तथा पृथ्वी से उठाकर अपने दाँतों की कान्ति से दिगन्तर को प्रकाशित करते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी में अत्यन्त प्रेमपूर्वक कहने लगे — ॥ ३४-३५ ॥

महादेवजी बोले — हे विप्रवर्य ! हे कवे ! हे तात ! आप मेरे पवित्र भक्त हैं, आपके द्वारा की गयी उग्र तपस्या. लिंगप्रतिष्ठाजन्य पुण्य. लिंगाराधन. अपने पवित्र एवं निश्चल चित्त के समर्पण तथा अविमुक्त — जैसे महाक्षेत्र में किये गये पवित्राचरण से मैं आपको दयापूर्वक देखता हूँ, आपके लिये कुछ भी अदेय नहीं है ॥ ३६-३८ ॥

आप इसी शरीर से मेरी उदररूपी गुफा में प्रविष्ट हो पुनः लिंगेन्द्रिय मार्ग से निकलकर पुत्रभाव को प्राप्त होंगे ॥ ३९ ॥ अब मैं अपने पार्षदों के लिये भी दुर्लभ वर आपको प्रदान करता हूँ, जिसे मैंने ब्रह्मा तथा विष्णु से भी गुप्त रखा है ॥ ४० ॥

मृतसंजीवनी नामक जो मेरी निर्मल विद्या है, उसका निर्माण मैंने स्वयं अपने महान् तपोबल से किया है ॥ ४१ ॥ हे महाशुचे ! उस मन्त्ररूपा विद्या को मैं आपको प्रदान करता हूँ । हे शुचितपोनिधे ! आपमें उस विद्या की प्राप्ति की योग्यता है । आप जिस किसी को उद्देश्य करके विद्येश्वर भगवान् शिव की इस श्रेष्ठ विद्या का आवर्तन करेंगे, वह अवश्य ही जीवित हो जायगा, यह सत्य है ॥ ४२-४३ ॥

आपका देदीप्यमान तेज आकाशमण्डल में सूर्य तथा अग्नि से बढ़कर होगा, आप प्रकाशमान होंगे और श्रेष्ठ ग्रह होंगे । जो स्त्री या पुरुष आपके सम्मुख यात्रा करेगा, आपकी दृष्टि पड़नेमात्र से उनका सारा कार्य नष्ट हो जायगा और हे सुव्रत ! मनुष्यों के समस्त विवाह आदि धर्मकार्य आपके उदयकाल में ही फलप्रद होंगे ॥ ४४–४६ ॥

सम्पूर्ण नन्दा तिथियाँ (प्रतिपदा, षष्ठी तथा एकादशी) आपके संयोग से शुभ होंगी । आपके भक्त अत्यन्त पराक्रमी तथा अधिक सन्तानों से युक्त होंगे ॥ ४७ ॥ आपके द्वारा स्थापित किये गये इस लिंग का नाम शुक्रेश्वर होगा । जो मनुष्य इसकी अर्चना करेंगे, उनकी कार्यसिद्धि होगी ॥ ४८ ॥

वर्षभर प्रतिदिन नक्तव्रतपरायण जो लोग प्रति शुक्रवार को शुक्रकूप में स्नान एवं तर्पणकर इन शुक्रेश शिव की पूजा करेंगे, उसका फल सुनिये — उनका वीर्य कभी निष्फल नहीं जायगा, वे पुत्रवान् एवं अति वीर्यवान् होंगे । वे सभी लोग पुरुषत्व एवं सौभाग्य से सम्पन्न, विद्यायुक्त तथा सुखी होंगे, इसमें संशय नहीं है ॥ ४९-५१ ॥

इस प्रकार वर देकर शिवजी उसी लिंग में लीन हो गये और शुक्राचार्य भी प्रसन्नचित्त होकर अपने स्थान को चले गये । हे व्यासजी ! शुक्र ने जिस प्रकार अपने तपोबल से मृत्युंजय नाम की विद्या प्राप्त की, उसे मैंने कह दिया, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ५२-५३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में मृतसंजीवनीविद्याप्राप्तिवर्णन नामक पचासवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५० ॥

 

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