श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-015
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
पन्द्रहवाँ अध्याय
काशीनरेश द्वारा अपनी सभा में विनायक के अद्भुत कर्मों का वर्णन, ज्वालामुख, व्याघ्रमुख तथा दारुण नामक राक्षसों का काशीपुरी को दग्ध करना, बालक विनायक के द्वारा तीनों असुरों का वध तथा काशीपुरी को पूर्ववत् बना देना और राजा द्वारा विनायक की स्तुति
अथः पञ्चदशोऽध्यायः
बालचरिते नगरीमोक्षणं

ब्रह्माजी बोले — दूसरे दिन काशीनरेश बालक विनायक को साथ लेकर अपने मित्रों एवं मन्त्रियों से समन्वित होकर लोगों के साथ सभामण्डप में आये ॥ १ ॥ उन्होंने गुणों से सुसम्पन्न महान् आशयवाले उन सर्वश्रेष्ठ विनायक को आगे करके उन सभी से बालक के बहुत से गुणों का वर्णन किया ॥ २ ॥

राजा बोले — ‘मैं अपने पुत्र के विवाह को सम्पन्न कराने के लिये महर्षि कश्यप के पास उन्हें बुलाने के लिये गया, तब उन्होंने अपने पुत्र इन विनायक को मेरे साथ भेज दिया। इनके साथ जब मैंने यहाँ के लिये प्रस्थान किया ही था कि अनेक अद्भुत प्रकार के राक्षस तथा एक-पर-एक अनेक अरिष्ट उपस्थित हुए, जिन्हें न पहले कभी देखा गया था और न जिनके विषय में सुना ही गया था ॥ ३-४ ॥ सर्वप्रथम इन्होंने राक्षसों के अधिपति धूम्राक्ष का वध किया। तदनन्तर उसके जघन तथा मनु नामक दो पुत्रों [-को नरान्तक के पास फेंक दिया] और फिर [ उनके सहयोगी] पाँच सौ राक्षसों का संहार किया ॥ ५ ॥

नगर में पहुँचने पर इन्होंने बालक का रूप धारण करके वहाँ आये हुए विघण्ट तथा दन्तुर नामक राक्षसों का वध किया। जो महाबली विधूल नामक उड़ाना चाहता था, उसे तथा पतंग नामक राक्षस का भी राक्षस आँधी-तूफान के रूप में होकर इन्हें आकाश में इन्होंने वहाँ नगर में संहार किया। वहाँ राजद्वार पर स्थित तथा पाषाणरूपधारी कूट नामक राक्षस को भी इन्होंने मार डाला। काम तथा क्रोध नामक राक्षसों का भी इन्होंने वध किया, ये दोनों गधे का रूप धारण करके आये थे। इन्होंने हाथी का रूप धारणकर आये हुए कुण्ड नामक निशाचर को मारा ॥ ६-८ ॥ अन्य भी जो अरिष्ट आयेंगे, उन्हें ये विनायक नष्ट कर डालेंगे। इस समय आप लोग ब्राह्मणों के साथ मन्त्रणा करके मेरे पुत्र के विवाह के विषय में निश्चय करें। देवताओं की स्थापना, हरिद्रालेपन, मण्डप की स्थापना तथा विवाह के लिये सामग्री एकत्र करने के सम्बन्ध में ज्योतिषशास्त्र के विद्वानों से परामर्श करना चाहिये’ ॥ ९-१० ॥

ब्रह्माजी बोले — उनके इस प्रकार के वचनों को सुनकर मन्त्रियों ने राजा से कहा — ‘हे नृपश्रेष्ठ ! हमको यह निश्चित रूप से प्रतीत होता है कि जबतक यह बालक नगर में रहेगा, तबतक विवाह नहीं हो सकेगा; क्योंकि इसके यहाँ रहने पर दिन-प्रतिदिन महान् उत्पात होते रहेंगे ॥ ११-१२ ॥  हे राजन्! आप पन्द्रह दिन के बाद अथवा एक मास बीत जाने पर पुत्र का विवाह करें।’ राजा के द्वारा ‘ठीक है’ ऐसा कहे जाने पर वे सभी अपने-अपने घर को चले गये ॥ १३ ॥

तदनन्तर काशिराज तथा विनायक दोनों ही भोजन करने के पश्चात् सुखपूर्वक सो गये। हे मुनि व्यासजी ! जब मध्यरात्रि का समय आया और सभी लोग निद्रा में सो गये, उसी समय ज्वालामुख, व्याघ्रमुख तथा दारुण नामक तीन असुर वहाँ आये, वे पूर्व में मारे गये दैत्यों और राक्षसों के वध का बदला लेना चाहते थे ॥ १४-१५ ॥

इन तीनों में जो ज्वालामुख नामक पहला राक्षस था, वह सम्पूर्ण काशीनगरी को दग्ध कर देना चाहता था । दारुण नामक राक्षस वायुरूप होकर उसकी सहायता के लिये तैयार था। तीसरा जो व्याघ्रास्य नामक असुर था, वह वहाँ से भागनेवालों को खा जाने वाला था । इस प्रकार का पहले से ही निश्चय करके आये हुए वे राक्षस बड़े ही उच्च स्वर से चीत्कार करने लगे ॥ १६-१७ ॥ उस आवाज से तीनों लोक काँप उठे, लोग अत्यन्त संशयग्रस्त हो गये। वे कहने लगे — ‘क्या यह प्रलयकाल उपस्थित हो गया है या फिर क्या शत्रुसेना आक्रमण के लिये आ पहुँची है?’ ॥ १८ ॥

ज्वालामुख नामक महान् कायावाले उस दैत्य ने अपने नीचे के ओष्ठ को पृथ्वी पर टिका लिया और ऊपर के ओष्ठ को आकाश तक फैला लिया, बीच में नदी की भाँति जीभ को स्थापित करके वह अपने मुख से अग्नि की ज्वालाओं को प्रकट करने लगा और आकाशसहित उस काशीनगरी को दग्ध करने लगा । जिस प्रकार हनुमान् जी ने अपनी पूँछ की अग्नि से समस्त लंकानगरी को जला डाला था, वैसे ही इस ज्वालामुख नामक दुष्ट राक्षस ने अपने मुख की ज्वालाओं से काशीनगरी को दग्ध कर डाला, नगरी के वृक्ष, लताएँ, उद्यान तथा भवनों के समूह जलकर राख हो गये ॥ १९–२१ ॥ उस समय महान् कोलाहल व्याप्त हो गया। लोग मुख तथा हाथों को पीटते हुए क्रन्दन करने लगे। अपने- अपने सभी कार्यों को छोड़कर लोग दसों दिशाओं में भाग चले। नगर से जो भी बाहर जा रहा था, उसे व्याघ्रास्य नामक राक्षस खाता जा रहा था। वही उसका भोजन था, बालकों को तो वह अचार चटनी की तरह चाट जा रहा था ॥ २२-२३ ॥

कुछ लोग ढीले वस्त्रों में तो कुछ बिना वस्त्र पहने ही भाग रहे थे, कुछ स्त्रियाँ केवल उत्तरीय ओढ़े अथवा कुछ अपने पति के वस्त्रों को पहनकर ही भाग चलीं ॥ २४ ॥ वे सभी व्याघ्रास्य राक्षस के उस फैले हुए विशाल मुख को कोई गुफा समझकर जान बचाने की इच्छा से उसमें प्रविष्ट हो जा रहे थे। वे दूसरे लोगों को भी वहाँ आने के लिये बुला रहे थे। तब उस असुर ने उन सबको खा डाला ॥ २५ ॥ असमय में ही प्रलय की जैसी स्थिति हो जाने पर काशिराज अपने राज्य, धन, स्त्री, पुत्र आदि तथा अन्य सभी वस्तुओं का परित्यागकर केवल उस बालक विनायक को अपने कन्धे पर बैठाकर विभिन्न स्थानों में, घर-घर में भ्रमण करने लगे। वे अत्यन्त दुःख से संतप्त हो उठे थे तथा उस अग्नि के तेज से व्याकुल थे ॥ २६-२७ ॥

मेरे द्वारा मूर्खता के कारण यह क्यों लाया गया, यह तो सभी अरिष्टों का जनक है, सब कुछ हरण करने वाला तथा अपशकुनों का कारण है ॥ २८ ॥ यह जीवित नहीं बचेगा तो मैं महर्षि कश्यप तथा अदिति को क्या जवाब दूँगा ? इसने पहले तो सभी बड़े- बड़े अरिष्टों को दूर कर दिया था, किंतु इस समय यह चुप क्यों बैठा है, मैं इसका कारण नहीं जान पा रहा हूँ। इस प्रकार से शोक करते हुए काशिराज बालक विनायक को लेकर ऊँचे दुर्ग में चढ़ गये ॥ २९-३० ॥ किंतु वहाँ भी वायु की सहायता से वह अग्नि आ पहुँची। तब राजा के सेवकों ने आग बुझाने के लिये घड़ों एवं चर्म से बने (मशक) पात्रों से जल छिड़कना शुरू किया ॥ ३१ ॥ राजा की रानियाँ लोकलाज छोड़कर अपने बच्चों को साथ लेकर दुर्ग से बाहर निकल पड़ीं। तदनन्तर विह्वल होकर काशिराज भी दुर्ग से नीचे उतर आये ॥ ३२ ॥

अश्व, खच्चर तथा उनमें सवार वीर सैनिक, रथ, हाथी तथा उनमें सवार वीर सैनिक, पैदल सैनिक और नगर के सभी लोग अपना-अपना गोधन लेकर नगर से बाहर चले गये। उस महाविनाश के समय सभी लोगों के पलायन कर जाने पर काशिराज विनायक को तथा विनायक काशिराज को खोजने लगे ॥ ३३-३४ ॥ नगर के सभी लोगों के उस व्याघ्रमुख असुर के मुखके  अन्दर चले जाने पर भी उस असुर ने अपना मुख तबतक बन्द नहीं किया, जबतक कि अनन्त गुणों से सम्पन्न महान् आत्मावाले वे विनायकदेव उसके मुख के अन्दर प्रविष्ट नहीं हो गये। सूर्य के उदय हो जाने पर देव विनायक ने व्याघ्र के समान मुखवाले उस असुर को, ज्वालामुख असुरद्वारा दग्ध किये काशीनगर को तथा व्याघ्रमुख नामक असुर के उस मुख को देखा, जो काशीपुरी के समस्त लोगों से भरा हुआ था ॥ ३५-३६ ॥

अग्नि की ज्वाला को अपने समीप आते देख बालक विनायक बलपूर्वक उस व्याघ्र नामक असुर के मुख में प्रविष्ट हो गये। अपने मुख में विनायक के प्रविष्ट होते ही उस असुर ने सभी को मार डालने की इच्छा से विशाल गुफा के समान अपने मुख को बन्द कर लिया ॥ ३७१/२

बालक विनायक ने उसके मुख को फाड़ डालने के लिये तत्क्षण ही अपने आकार को बहुत बड़ा बना लिया और उस असुर की देह को फाड़ डाला। उस व्याघ्रास्य असुर की देह ने पृथ्वी तथा आकाश को ढक लिया। उस असुर की देह के फटने से चट-चट की वैसी ही आवाज हुई, जैसे बाँस के फटने से होती है ॥ ३८-३९ ॥ वह असुर दो टुकड़ों में बँट गया और शीघ्र ही वह प्राणों से रहित हो गया। विनायक ने उसकी देह के एक टुकड़े को आकाश में फेंक दिया, हवा के द्वारा उड़ाया जाता हुआ वह टुकड़ा दूर देश में जा गिरा। उस आधे खण्ड के नीचे गिरने से [वहाँ का] घनघोर वन चूर-चूर हो गया ॥ ४०-४१ ॥

शरीर का दूसरा जो खण्ड वहीं रह गया, वह बालकों के लिये आनन्ददायी क्रीडागृह बन गया। तब उस खण्ड में स्थित लोग जग उठे और वे दूसरों को भी जगाने लगे। तदनन्तर बालक विनायक ने सम्पूर्ण अग्नि को पी डाला और ज्वालासुर के साथ ही महाकाय विदारण (दारुण) असुर को, अपने पैर के आघात से चूर्ण-चूर्ण कर डाला ॥ ४२-४३ ॥ इस प्रकार उन दुष्ट दैत्यों का वध करने के अनन्तर बालक विनायक ने अपनी योगमाया के बल से मरे हुए सभी लोगों को जीवित कर दिया और दग्ध काशीनगरी को पूर्ववत् ज्यों-का-त्यों बना दिया । तदनन्तर उन विनायक ने शीघ्र ही सिंह के समान गर्जना की। तब सभी लोगों ने तथा काशिराज ने प्रसन्नतापूर्वक उनकी स्तुति की ॥ ४४-४५ ॥

हे गुणों के अधीश्वर ! आप अनन्तशक्तिसम्पन्न हैं, आपको नमस्कार है, अरिष्टों का विनाश करने वाले ! आपको नमस्कार है, सृष्टिकर्ता को नमस्कार है। विश्व की रक्षा करने वाले को नमस्कार है । विघ्नों का समूल उच्छेद करने वाले को नमस्कार है। ज्ञान प्रदान करने वाले को नमस्कार है, अज्ञान को दूर करने वाले आपको नमस्कार है। हे जगत् के स्वामी! हे लीलावतार! हे देव ! आपने अपनी लीला के द्वारा असमय में उत्पन्न प्रलयाग्नि से तथा दैत्यों से हमारी रक्षा की है ॥ ४६-४७ ॥ इस प्रकार की महाबलशाली अग्नि का पान करने की सामर्थ्य और किसमें है? पृथ्वी के समान मुख वाले उस व्याघ्रमुख नाम वाले महान् राक्षस को आपके अतिरिक्त और कौन मार सकता है ? मरे हुओं को आपके अतिरिक्त जीवन प्रदान करने का साहस और दूसरा कौन कर सकता है, हे देव ! आप ही माता हैं, आप ही पिता हैं और आप ही रक्षा करने वाले हैं ॥ ४८-४९ ॥ मेरा महान् भाग्य है और यहाँके लोगोंका भी महान् भाग्य है, जो कि आपकी सन्निधि हमें प्राप्त हुई है । ऐसा कहकर वे काशिराज अश्व पर तथा वे विनायक सिंह के यान पर आरूढ़ होकर चल पड़े ॥ ५० ॥

प्रसन्नतापूर्वक अपने भवन में पहुँचकर राजा ने तथा विनायक ने सन्ध्यावन्दन आदि नित्य कर्म सम्पन्न किया । सहस्रों की संख्या में अन्य वे सभी वीर भी अपने-अपने वाहनों में आरूढ़ होकर अपने-अपने घर गये। सभी पुरवासी अत्यन्त प्रसन्न हो गये। उस समय बाजे बजने लगे और बन्दीजन राजा की स्तुति करने लगे ॥ ५१-५२ ॥ तदनन्तर काशिराज ने ब्राह्मणों को विविध प्रकार के दान दिये । स्वस्तिवाचन कराकर शीघ्र ही देवताओं का तथा उन विनायक का पूजन किया। लोगों ने विनायक को अनेक प्रकार की भेंट प्रदान की । विनायक ने भी उन उपहारों को स्वेच्छानुसार ब्राह्मणों में वितरित कर दिया ॥ ५३-५४ ॥ राजा ने अमात्यों को तथा वीरों को वस्त्र प्रदान किये। राजा ने उन सभी को विदा करके विनायक के साथ भोजन करने के अनन्तर सुखपूर्वक शयन किया ॥ ५५ ॥

जो व्यक्ति विनायक द्वारा करायी गयी काशीपुरी की मुक्ति के वर्णन को श्रद्धाभक्ति से श्रवण करता है, वह अपनी सभी अभीष्ट कामनाओं को प्राप्त कर लेता है और कहीं भी अरिष्टों से बाधित नहीं होता ॥ ५६ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में बालचरित के अन्तर्गत ‘ज्वालास्य आदि राक्षसों का वध करके नगरी को मुक्त कराने का वर्णन’ नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥

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