श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-017
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
सत्रहवाँ अध्याय
काशिराज तथा गजाननभक्त मुनि भ्रूशुण्डी को विनायक द्वारा अपने यथार्थ स्वरूप का दर्शन कराना, विनायक के ‘आशापूरक’ नाम की प्रसिद्धि
अथः सप्तदशोऽध्यायः
बालचरित

ब्रह्माजी बोले — सर्वज्ञ होने पर भी विनायकदेव ने मुनि भ्रूशुण्डी के आश्रम से वापस आये हुए नृपश्रेष्ठ काशिराज से मेघ के समान गम्भीर वाणी में बड़े ही आदरपूर्वक वहाँ पूछा — ॥ १ ॥

वहाँ जाकर आपने क्या कहा और उन्होंने क्या उत्तर दिया ? हे राजन् ! मुझे वह सब विस्तार से बताइये । वह सब सुनकर मैं आपको युक्ति प्रदान करूँगा ॥ २ ॥

राजा बोले — उन भ्रूशुण्डीजी को मैंने आपकी कही हुई बात बतायी और स्वयं भी मैंने उनसे यहाँ आने के लिये बहुत प्रार्थना की। इसपर वे मुनि बोले — ‘आप कौन हैं, तथा वे विनायक कौन हैं ? ॥ ३ ॥ यदि वे विनायक मेरे उपास्यदेव के अनुरूप स्वरूप वाले होंगे तो मैं अवश्य उनके दर्शन के लिये जाऊँगा।’ इस प्रकार उनके द्वारा मना कर दिये जाने पर जब मैं किस प्रकार लम्बे मार्ग को तय करूंगा, इस प्रकार की चिन्ता कर ही रहा था तो उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखकर आँखें बन्द करने को कहा और फिर मुझे मेरे घर प्रेषित कर दिया। क्षणभर के बाद जब मैंने आँखें खोलीं तो हे देव! मैंने अपने को आपके समक्ष अपने घर में स्थित पाया। उन मुनि भ्रूशुण्डीजी के आश्रम – मण्डल का स्मरणकर मेरे चित्त में महान् हर्ष हो रहा है। राजा के इस प्रकार के वचन को सुनकर विनायकदेव हँस पड़े ॥ ४–६१/२

विनायक बोले — हे नृपश्रेष्ठ! इस समय आप थक गये हैं, फिर भी पुनः उन भ्रूशुण्डी के आश्रम में जाइये। मेरा ‘गजानन’ यह नाम सुनते ही वे मुनि यहाँ अवश्य आ जायँगे। उन सर्वस्वरूप धारण करने वाले विनायकदेव के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर उन काशिराज ने [फिर से] अपने को महर्षि भ्रूशुण्डी के आश्रम में स्थित देखा। काशिराज को पुनः आया हुआ देखकर महर्षि भ्रूशुण्डी अपने मन में यह तर्क-वितर्क करने लगे कि ये राजा पुनः यहाँ क्यों आये हैं अथवा ये अब क्या कहेंगे ? तदनन्तर राजा उन मुनिश्रेष्ठ भ्रूशुण्डीजी को प्रणाम बोले — ॥ ७–१० ॥

हे विप्र ! आपके स्वामी ‘गजानन’ ने आपको बुलाया है। ‘गजानन’ यह नाम सुनते ही वे अत्यन्त प्रफुल्लित हो उठे और मूर्च्छित – से हो गये ॥ ११ ॥ उनके शरीर में रोमांच हो आया और आनन्द में निमग्न होने के कारण उनके नेत्रों से आनन्दाश्रु बहने लगे । ‘यदि मेरे पंख होते तो मैं उड़कर वहाँ चला जाता ‘ ॥ १२ ॥

इस प्रकार की उत्कण्ठा वाले वे विप्र भ्रूशुण्डी राजा के साथ चल पड़े। कभी भी इधर-उधर नहीं चलने वाले वे भ्रूशुण्डीमुनि जब चलने लगे तो अचल पृथ्वी भी चलायमान हो उठी। वे पृथ्वीदेवी काँपते हुए उनके पास आकर उन मुनि से कहने लगीं — ‘हे मुनिश्रेष्ठ ! आप मेरी रक्षा करें।’ तब मुनि बोले — ‘हे धरे ! तुम्हें मुझसे कोई भय नहीं है’ ॥ १३-१४ ॥ अपने स्वामी गजानन का दर्शन करने के लिये मैं शीघ्रता से जा रहा हूँ, उन पृथ्वीदेवी से ऐसा कहकर वे श्रेष्ठ द्विज आगे जाने के लिये चल दिये ॥ १५ ॥ तीसरा पग आगे बढ़ाने के बाद उन्होंने [राजा को ] वह काशीपुरी दिखलायी, अपनी नगरी काशी को देखकर राजा हर्षित होकर उन मुनिश्रेष्ठ से बोले — ॥ १६ ॥

आपकी कृपा से अत्यन्त वेगपूर्वक चलने से हम शीघ्र ही काशीनगरी में पहुँच गये हैं । हे मुने! आप-जैसे तपस्वी तथा जपपरायण जनों की महिमा अत्यन्त दुर्ज्ञेय है ॥ १७ ॥

ऐसा कहने के अनन्तर वे नृपश्रेष्ठ काशिराज शीघ्र ही उन मुनि को अपने भवन में ले गये । राजा ने उन्हें सुवर्ण के आसन पर विराजमानकर पाद्य, अर्घ्य तथा विष्टर आदि द्वारा महान् भक्ति से उनकी पूजा की ॥ १८१/२

ऋषि बोले —  हे राजन्! आपने मेरे साथ छल किया है, मैं यहाँ गजानन को कहीं नहीं देख रहा हूँ । शीघ्र ही उन्हें दिखाओ, नहीं तो मैं आपको शाप देकर अपने आश्रम चला जाऊँगा ॥ १९१/२

राजा बोले — वे गजानन बालरूप होकर बालकों के साथ खेल खेल रहे हैं, जैसे कोई वीर धूल से धूसरित होकर सुशोभित होता है, वैसे ही विनायक भी सुशोभित हो रहे हैं। तब उन भ्रूण्डीमुनि ने विनायकदेव को देखा, वे अपनी सूँड़ से सुशोभित हो रहे थे। करोड़ों सूर्यों के समान उनकी आभा थी, वे दो भुजाओं और दो दाँतोंवाले थे। तदनन्तर मुनि कुपित होकर राजा से बोले — ‘मैं इन्हें कैसे नमस्कार कर सकता हूँ? ॥ २०–२२ ॥ हे राजन्! उस महान् पुरुष को धिक्कार है, जो कि अपने से छोटे को नमस्कार करता है । हाथी के गण्डस्थल को विदीर्ण करने वाला सिंह क्या कभी घास को खाता है ? ‘ ॥ २३ ॥

ब्रह्माजी बोले — उन बालक विनायक ने जब मुनि भ्रूशुण्डी के वचनों को सुना तो लीला के लिये शरीर धारण किये हुए प्रभु कौतूहल से समन्वित हो गये और मुनि से बोले — ॥ २४ ॥

विनायक बोले — हे मुनि भ्रूशुण्डी ! आपके वे स्वामी किस स्वरूप के हैं, इस समय आप मुझे बतायें ॥ २४१/२

मुनि बोले — मेरे वे स्वामी दिव्य वस्त्र धारण करने वाले हैं, उनकी दस भुजाएँ हैं, उनके कण्ठदेश में मोतियों की माला सुशोभित रहती है । वे अपनी सिद्धि तथा बुद्धि नामक पत्नियों से समन्वित रहते हैं । उनके कानों में कुण्डल सुशोभित रहते हैं। उनका मुख सूँड़ से युक्त है, उनके कान लम्बे हैं। वे सिन्दूर से अनुलेपित रहते हैं। उनकी विशाल नाभि शेषनाग से सुशोभित रहती है, उनके चरणों से नूपुरों की ध्वनि होती रहती है। वे महान् मुकुट से शोभा को प्राप्त होते हैं, उनके दस हाथों में दस आयुध विद्यमान रहते हैं। उनके एक दाँत है, उनके मस्तक पर चन्द्रमा विराजमान हैं। उनके कटिदेश में घण्टियाँ विराजित रहती हैं, उनका वाहन छोटी-छोटी मयूर है और देवतागण उनकी चरणपादुकाओं की वन्दना  करते रहते हैं ॥ २५-२८ ॥

ब्रह्माजी बोले — उनका इस प्रकार का वचन सुनकर बालक विनायक ने उसी प्रकार का स्वरूप धारण कर लिया, वे कमल के आसन पर विराजमान थे और सृष्टि, रक्षा तथा संहार करने वाले थे ॥ २९ ॥ मुनि भ्रूशुण्डी अपने उपास्यदेव उन गजानन का दर्शनकर अत्यधिक प्रेम के वशीभूत हो गये, उन्हें प्रणाम करने की भी सुध-बुध नहीं रही, वे जमीन पर लोट गये । उनके शरीर में रोमांच हो आया, परमानन्द में निमग्न हो वे नाचने लगे। जब उन्हें शरीर का भान हुआ, तब उन्होंने यथाविधि उन्हें प्रणाम किया ॥ ३०-३१ ॥

पृथक्-पृथक् उपचार-द्रव्यों से उन्होंने पूजा की। [ आराध्य और आराधक का दर्शनकर] राजा बोले — आज मेरे पूर्वजन्म में किये गये महान् पुण्यफल का उदय हो गया। आज मैंने देव विनायक के भक्त होने के अद्भुत सुख का अनुभव किया है । तदनन्तर काशिराज ने उन विनायकदेव तथा मुनिवर भ्रूशुण्डीजी का यथाविधि अभिवन्दन-पूजन किया ॥ ३२-३३ ॥ ऊँचे आसनों पर विराजमान वे दोनों परस्पर में वार्तालाप करने लगे। परमात्मा देव विनायक ने अपनी दसों भुजाओं से मुनि भ्रूशुण्डी का आलिंगन किया और अत्यन्त हर्ष प्रकट किया। उन दोनों को इस प्रकार से प्रेमवश गद्गद देखकर काशिराज की भी आँखों से आँसू निकल पड़े ॥ ३४१/२

गजानन बोले — आपकी श्रद्धा-निष्ठा मुझे ज्ञात है, इस विषय में काशिराज ने भी मुझे बता दिया था। आपकी भावना के अनुसार ही मैंने यह दस भुजाओं से मण्डित विग्रह धारण किया। हे मुने! अन्य दूसरे लोग भी जिस-जिस भाव से मेरा ध्यान कर मेरा भजन करते हैं, मैं उनकी भावना के अनुसार वैसा ही रूप धारण करता हूँ और जो अनन्य भाव से विश्वासपूर्वक मेरी भक्ति करते हैं, उन्हें मैं उनका मनोभिलषित फल प्रदान करता हूँ ॥ ३५-३७ ॥ दुराचारी राक्षसों के भय से भयभीत देवी पृथ्वी सत्यलोक में ब्रह्माजी की शरण में गयी थीं, तब ब्रह्माजी ने मुझे दुष्टों के वध के लिये प्रेरित किया था । देवमाता अदिति को दिये गये वरदान के कारण मैं महर्षि कश्यप के पुत्र के रूप में ‘कश्यपनन्दन’ नाम से अवतरित हुआ। मैं पृथ्वी भार को दूर करूँगा और इन्द्र आदि देवताओं को उनका अपना पूर्व स्थान प्रदान करूँगा और दैत्यों का अनेक बार विनाश करूँगा। [हे मुने!] आपकी अत्यन्त उत्कट साधना को देखकर ही मैंने इस प्रकार का स्वरूप धारण किया है। मैं देवान्तक राक्षस को उसके भाई सहित मारकर अपने धाम को चला जाऊँगा ॥ ३८-४०१/२

ऋषि बोले — हे प्रभो ! आपके सभी लोगों को सुख प्रदान करने वाले; सभी प्रकार के क्लेशों का हरण करने वाले,सभी देवताओं द्वारा वन्द्य तथा मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले युगल चरणों का दर्शनकर और आपको साक्षात् अपने समक्ष पाकर आज मैं कृतकृत्य हो गया हूँ, पवित्र हो गया हूँ ॥ ४१-४२ ॥ हे विश्वात्मन्! मुझे वर प्रदान करें, जिससे कि मैं तृप्त हो जाऊँ । हे विघ्नरक्षक ! जब-जब भी मैं आपके इस स्वरूप का ध्यान करूँगा, तब-तब हे करुणानिधान ! आप मुझे प्रत्यक्ष दर्शन दीजियेगा तथा आपका ‘आशापूरक’ अर्थात् आशा को पूर्ण करने वाला यह नाम प्रसिद्धि को प्राप्त हो जाय ॥ ४३-४४ ॥

गजानन बोले — जब-जब आप मेरे दर्शनों की अभिलाषा रखेंगे, तब-तब मैं आपके पास उपस्थित हो जाऊँगा और आपने बड़े ही भक्तिभावपूर्वक जो मेरा ‘आशापूरक’ नाम रखा है, यह भी प्रसिद्धि को प्राप्त हो जायगा ॥ ४५ ॥

ब्रह्माजी बोले — इन वरों को प्राप्तकर मुनि भ्रूशुण्डी ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उन्हें प्रणाम किया। उन मुनि के द्वारा प्रणाम करने पर गजानन ने उन द्विज के मस्तक पर धीरे से हाथ रखा और पुनः उनसे कहा — ‘हे ब्रह्मन् ! जो-जो भी आपका अभीष्ट होगा, वह सब निश्चित रूप से पूर्ण होगा। हे मुने! आपको कभी भी मेरा विस्मरण नहीं होगा’ ॥ ४६-४७१/२

ब्रह्माजी बोले — इतना कहने के अनन्तर वे विनायक बालक का रूप धारणकर पुनः बालक्रीडा करने लगे। वे मुनि भ्रूशुण्डी भी पद्मासन लगाकर उनके ध्यान में स्थित हो गये। उस समय वहाँ लोग विनायक की वैसी अद्भुत लीला देखकर परम आश्चर्य में पड़ गये ॥ ४८-४९ ॥

परमात्मा विनायक के बालरूप में किये गये चरित्र को देखकर काशिराज बोल उठे — ‘ इस संसार में मेरा जन्म लेना धन्य हो गया; क्योंकि मैंने ब्रह्मा आदि देवों के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ गजानन के इस स्वरूप का प्रत्यक्ष दर्शन किया है’ ॥ ५०१/२

तदनन्तर अत्यन्त प्रसन्न मनवाले काशिराज उन बालक विनायक का हाथ पकड़कर उन्हें भवन के अन्दर ले गये । उन्हें स्वादिष्ट अन्न का भोजन कराया और पूर्व की भाँति शयन कराया। हे मुने ! उनसे अनुमति लेकर स्वयं राजा भी सो गये ॥ ५१-५२ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में बालचरित के अन्तर्गत ‘मुनि (भ्रूशुण्डी) – को वर प्रदान कर वर्णन’ नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥

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