September 26, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-019 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ उन्नीसवाँ अध्याय विनायक की बाललीला के प्रसंग में दैत्य नरान्तक द्वारा दो दैत्यों कूप तथा कन्दर को काशीनगरी में भेजना, कूप का कुआँ और मेढक बनकर तथा कन्दर का बालक बनकर विनायक को मारने का प्रयत्न करना, विनायक द्वारा लीलापूर्वक दोनों का परस्पर वध कराना अथः एकोनविंशतितमोऽध्यायः कूपकन्दरवध ब्रह्माजी बोले — महादैत्य नरान्तक ने बालक विनायक के द्वारा ब्राह्मण का वेष धारण किये हुए ज्योतिषी असुर के वध का समाचार सुनकर कूपक नामक असुर तथा ब्रह्मा के द्वारा वर प्राप्त किये हुए पराक्रमी कन्दरासुर को बहुत-से वस्त्र तथा विविध प्रकार के रत्नों की भेंट देकर काशिराज के नगर में भेजा ॥ १-२ ॥ दैत्य नरान्तक बोला — तुम दोनों शीघ्र ही शुभ मुहूर्त में उस बालक विनायक के वध के लिये जाओ । उसके द्वारा विविध उपायों से मारे गये असुरों का तुम लोग बलपूर्वक बदला लो ॥ ३ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार उससे आज्ञाप्राप्त वे दोनों कूप और कन्दर नामक असुर चतुरंगिणी सेना लेकर दो कोश की दूरी पर चले गये ॥ ४ ॥ पुनः वहाँ से सेना को लौटाकर बड़ी प्रसन्नता के साथ वे आगे बढ़े। दोनों मार्ग में विचार करने लगे, तदनन्तर कूप ने कन्दर से कहा — ‘मैं कुआँ बन जाऊँगा और तुम बालक बन जाना, तब तुम खेलते-खेलते उस विनायक को प्रयत्न करके मेरे अन्दर अर्थात् कुएँ में ढकेल देना। मैं मेढक बनकर तत्क्षण ही उसे खा जाऊँगा ॥ ५-६ ॥ इस बहुत बड़े कार्य को करके हम दोनों अन्तर्धान हो जायँगे।’ इस प्रकार का मन में निश्चय करके वे काशिराज के महान् नगर काशी में पहुँचे। वहाँ पहुँचकर कूप नामक असुर ने काशिराज के आँगन में एक विशाल कुएँ का रूप धारण कर लिया और कन्दर नामक असुर छोटा बालक बन गया और बालकों के साथ खेलने की इच्छा करने लगा ॥ ७-८ ॥ काशिराज ने जब अत्यन्त निर्मल जलवाले उस कुएँ को देखा तो वे बड़े प्रसन्न हो गये। फिर उन्होंने कुएँ के अन्दर झाँका तो उन्हें वहाँ एक मेढक दिखायी दिया । वह मेढक सुन्दर वाणी में ध्वनि कर रहा था। उसका वर्ण पीला था और वह देखने में अत्यन्त भयानक था। इधर बालकों के बीच में स्थित, बालक बने कन्दर नामक असुर ने उन विनायक से कहा — ॥ ९-१० ॥ हे महाबाहो! बाहर चलो, और उस सुन्दर कुएँ को देखो। तब उसी समय उन्होंने बालकों के साथ बाहर आकर उस कुएँ को देखा। उस अत्यन्त रमणीय कुएँ को देखकर बालक विनायक अन्य बालकों के साथ विविध भावों के प्रदर्शन का खेल तथा छुपने और पकड़ने का खेल खेलने लगे ॥ ११-१२ ॥ मध्याह्नकाल में वे सभी बालक जल के अन्दर उतरकर आपस में जल-फेंकने की क्रीडा करने लगे, फिर वे जल में डुबकी लगाने, फिर बाहर निकलने तथा दूसरे को डुबकी लगवाने और बाहर निकालने का खेल खेलने लगे ॥ १३ ॥ वे दूर से दौड़ते हुए आकर छलाँग लगाते हुए जल में कूदने लगे, वहाँपर इस प्रकार के खेल खेलकर वे सभी बालक अपने-अपने घर जाने के लिये तैयार हुए ॥ १४ ॥ उसी समय बालक विनायक ने जल के अन्दर अपनी परछायीं देखी। वे तैरना जानते हुए भी जल में तैरते हुए सभी बालकों को देखते हुए बाहर ही खड़े रहे। इसी बीच दुष्ट असुर कन्दर ने उन्हें जल के अन्दर ढकेल दिया। उस जल को अगाध जानकर वे लीलापूर्वक जल का आलोडन करने लगे। वे आधे मुहूर्त तक जल के अन्दर रहते और फिर आधे मुहूर्त तक जल के बाहर रहते ॥ १५–१७ ॥ तदनन्तर वे जल में डूबने की लीला करने लगे और एक सामान्य शिशु की भाँति डूबने से बचने के लिये पैरों तथा करकमलों को बार-बार इधर-उधर फेंकने लगे ॥ १८ ॥ यह देखकर सभी बालक इधर-उधर भाग-दौड़ करने लगे। तभी बालक विनायक ने उस असुर कन्दर के पैरों को दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया और वे प्रयत्नपूर्वक उसे उस कुएँ के अन्दर तक खींच ले गये। बालक विनायक ने उस असुर कन्दर को बलपूर्वक पानी के अन्दर डुबोया तो वह ‘छोड़ो-छोड़ो’ ऐसा कहने लगा। विनायक ने भी उससे कहा — ‘तुम भी मुझे छोड़ो – छोड़ो’ ॥ १९-२० ॥ वे दोनों समान बलवाले थे, कभी डूबते थे तो कभी ऊपर आ जाते थे। हिरण्यकशिपु तथा भगवान् लक्ष्मीनृसिंह के समान ही दोनों अपराजेय थे। बहुत समय तक असुर तथा बालक विनायक दोनों उस कुएँ के अन्दर ही रह गये तो यह देखकर सभी बालक आर्त स्वर में रोने लगे और कहने लगे कि बालक विनायक की मृत्यु हो गयी है। उस प्रकार के अपशकुन के शब्द को सुनकर नगर की स्त्रियाँ, वृद्ध तथा बालक वहाँ आ पहुँचे । काशिराज भी विलाप करने लगे और बोले — ‘अब क्या किया जाय ? ‘ ॥ २१–२३ ॥ कोई कहने लगा — ‘अगाध जल वाले कुएँ में वह बालक विनायक जीवित कैसे रहेगा ? दूसरा कहने लगा कि यदि इसे शीघ्र ही जल से बाहर निकाल लिया जाय तो, इसके बचने का निश्चित ही कोई उपाय किया जा सकता है’, इसपर राजा बोले कि ‘निश्चित ही जो कोई जो कुछ भी माँगेगा, उसे वह अवश्य ही दिया जायगा, इतना ही नहीं मैं अपना जीवन भी दे दूँगा ॥ २४-२५ ॥ आप लोग इस बालक को पूरा बल लगाकर वेगपूर्वक बाहर निकालिये।’ राजा के द्वारा कहे गये इस प्रकार के वचनों को सुनकर तीन व्यक्ति कुएँ के अन्दर प्रविष्ट हो गये। वे तीनों दैत्य द्वारा की गयी माया के प्रभाव से जल में डूब गये। यह देखकर अन्य किसी ने उस कुएँ में जाने का मन नहीं बनाया। तब राजा बालक विनायक के लिये शोक करने लगे ॥ २६-२७ ॥ राजा बोले — मैंने ऐसा कौन-सा दुष्कर्म किया था, जिससे कि मुझे इस प्रकार का दुःख भोगना पड़ रहा है। इस बालक को मैं अपने सुख के लिये क्यों लाया, यह तो दुःखदायी हो गया है ॥ २८ ॥ मैं उसके माता-पिता को तथा लोगों को अब अपना मुख कैसे दिखलाऊँगा, इस (कलंक) – का परिमार्जन कैसे हो सकता है ? इस बालक ने तो अभी तक के आये हुए अतिप्रबल अरिष्टों को दूर कर दिया था, फिर आज यह किस प्रकार इस अरिष्ट के वशीभूत हो गया ! विधाता की चेष्टा को जाना नहीं जा सकता ॥ २९-३० ॥ सभी स्त्री, बाल, वृद्ध जब इस प्रकार शोक कर ही रहे थे कि उसी बीच कुएँ के अन्दर स्थित मेढक का रूप धारण किया हुआ वह दैत्य अपना मुख खोलकर वहीं स्थित हो गया। उसी समय जब वे बालक विनायक ऊपर आये तो दैत्य कन्दर ने उन्हें धक्का देकर फिर कुएँ में गिरा दिया, बालक विनायक ने भी कन्दर को धक्का देकर कुएँ में गिरा दिया, वह दुष्ट कन्दर सीधे जाकर उस कूप नामक दैत्य के मुख के अन्दर गिरा ॥ ३१-३२ ॥ कूप नामक दैत्य ने उस कन्दर को उसी प्रकार निगल लिया, जैसे एक बड़ा मत्स्य छोटे मत्स्य को निगल जाता है। मैंने बालक विनायक को निगल लिया है, ऐसा समझकर उस कुएँ का रूप धारण किये कूप नामक असुर ने अपना वास्तविक रूप प्रकट कर लिया ॥ ३३ ॥ तदनन्तर वह कूप नामक असुर अपने यश से अर्जित गगनचुम्बी आत्मप्रशंसा का स्वयं गान करने लगा कि आज मैं सभी दैत्यों के ऋण से उऋण हो गया हूँ ॥ ३४ ॥ इसके साथ ही बालक विनायक को बलहीन भी मानकर वह मन-ही-मन प्रसन्नता से भर उठा। उसी समय कन्दर नामक असुर अत्यन्त क्रुद्ध होकर उस कूप के विशाल उदर को चीरकर बाहर निकल आया। यह देखकर बालक विनायक शीघ्र ही क्षणभर में अन्तर्हित हो गये । मेरा उदर इसने फाड़ डाला, यह समझकर कूप ने भी अत्यन्त क्रुद्ध होकर उसके गले में तब तक काटा, जब तक उसके प्राण नहीं निकल गये, इस प्रकार आपस में ही अत्यन्त व्याकुल होकर एक-दूसरे का वध कर देने से वे दोनों दैत्य भूमिपर गिर पड़े ॥ ३५-३७ ॥ उन दोनों के परस्पर हाथ तथा पैरों के मसलने से काशी नगरी का कितना ही हिस्सा चूर-चूर हो गया । जिस प्रकार सुन्द और उपसुन्द दोनों दैत्य आपस में ही युद्ध करते हुए मर गये थे, वैसे ही वे कूप तथा कन्दर नामक असुर भी परस्पर युद्ध करते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए, राजसेवकों ने मरे हुए उन दोनों असुरों को खींचकर नगर से बाहर फेंक दिया ॥ ३८-३९ ॥ उसी क्षण राजा के प्रांगण में स्थित वह कुआँ विलीन हो गया और लोगों ने देखा कि बालक विनायक सभी बालकों के साथ पूर्ववत् क्रीडा कर रहे हैं ॥ ४० ॥ उस समय सभी बालक, राजा तथा अन्य सभी लोग आश्चर्यान्वित हो गये। कुछ लोग आपस में कहने लगे कि जो कपटपूर्ण व्यवहार करता है, वह निःसन्देह स्वयं भी उसी प्रकार समूल विनष्ट हो जाता है, जैसे दीपक बुझाने के लिये आया हुआ पतिंगा स्वयं भस्म हो जाता है ॥ ४१-४२ ॥ साक्षात् काल भी इस बालक विनायक के एक रोम को भी हिलाने में समर्थ नहीं है, इस अवतारी पुरुष के सामर्थ्य को हम लोगों ने भलीभाँति परख लिया है। कामदेव भगवान् शंकर पर विजय प्राप्त करने गया, लेकिन स्वयं ही भस्म हो गया। ये सब बातें सुनकर काशिराज भी कहने लगे कि यह सत्य है, सत्य है ॥ ४३-४४ ॥ तदनन्तर काशिराज ने ब्राह्मणों को दान दिया और उनकी पूजाकर उन्हें विदा किया। बालक विनायक को प्रणाम करके सभी लोग अपने-अपने घरों को गये ॥ ४५ ॥ कुछ लोग काशिराज द्वारा भलीभाँति पूजित उस बालक विनायक का आलिंगन कर अपने घरों को गये । उस समय देवता पुष्प बरसाने लगे तथा लोग विनायक की स्तुति करने लगे ॥ ४६ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे ब्रह्मन् व्यासजी ! हे मुने ! इस प्रकार यह निश्चित होता है कि कर्तव्य और अकर्तव्य, वायु का वेग, माया का स्वरूप, पुरुष का भाग्य तथा राक्षस का आचरण-ठीक से जाना नहीं जा सकता है, ऐसे ही परमात्मा के अवतार के गुणों को भी जाना नहीं जा सकता है ॥ ४७ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में बालचरित के अन्तर्गत ‘कूप और कन्दर के वध का वर्णन’ नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥ Content is available only for registered users. 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