September 30, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-025 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ पच्चीसवाँ अध्याय कुमार सनक तथा सनन्दन द्वारा की गयी विनायक-स्तुति, उनके द्वारा काशी में गणेशकुण्ड का निर्माण तथा मन्दिर बनाकर उसमें वरदविनायक नामक विनायक – मूर्ति की प्रतिष्ठा, भक्ति की महिमा अथः पञ्चविंशतितमोऽध्यायः बालचरिते भक्तिप्रशंसा कथनं सनक-सनन्दन बोले — आप सभी कारणों के कारण और कारणों से अतीत हैं। आप ब्रह्मस्वरूप, ब्रह्माण्ड के कारण, व्यापक और [पर से भी] परे हैं ॥ १ ॥ हे अनघ ! आप ही विश्व की रचना करते हैं, इसका पालन-पोषण करते हैं और आप ही इसका संहरण करने वाले हैं। आप विविध स्वरूपों वाले हैं और रूपरहित भी हैं। आप विविध प्रकार के मायाबल से समन्वित हैं । आप ही पृथ्वी आदि पंचमहाभूत, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस हैं। आप चराचरस्वरूप हैं, अतः आपकी स्तुति करने में कौन समर्थ है ? ॥ २-३ ॥ आपके यथार्थ स्वरूप को न जानने के कारण वेद ‘नेति-नेति’ कहकर आपको पुकारते हैं। हम दोनों भी आपकी माया से विमोहित होने के कारण आपके श्रेष्ठ स्वरूप को जानने में समर्थ नहीं हो सके ॥ ४ ॥ हे विभो ! अनेक रूप धारण करने वाले आपकी महिमा को हम नहीं जानते हैं । हे प्रभो ! इस समय हम आपके चरणों का दर्शन करके कृतकृत्य हो गये हैं । आप अपनी अनन्त शक्तियों के द्वारा नाना अवतारों को धारणकर पृथ्वी के भार का हरण करते हैं ॥ ५१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — उन दोनों के द्वारा की गयी इस प्रकार की स्तुति को सुनकर मायावी और अत्यन्त कौतुकी बालरूपी वे विनायक प्रसन्न होकर उनसे बोले — आप दोनों मेरी कृपा से तत्त्व का ज्ञान रखने वाले और सर्वज्ञ हो जाओगे ॥ ६-७ ॥ इस प्रकार का वर प्रदानकर वे विनायकदेव वहीं अन्तर्धान हो गये । तदनन्तर उन दोनों कुमारों सनक तथा सनन्दन ने भलीभाँति विनायक की अतुलनीय मूर्ति का निर्माणकर तथा रत्नों एवं सुवर्ण से निर्मित एक अद्वितीय मन्दिर बनाकर उसमें उस मूर्ति की स्थापना की ॥ ८-९ ॥ उन्होंने उस मूर्ति का ‘वरदविनायक’ यह नाम रखा। उन दोनों ने वहीँ पर ‘गणेशकुण्ड’ नाम से एक सरोवर भी बनवाया ॥ १० ॥ इस गणेशकुण्ड में स्नानकर जो वरदविनायक की पूजा करता है । वह सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त करता है और अनेक भोगों का भोग करता है ॥ ११ ॥ वह पुत्र-पौत्रों, विद्या, आयु, महान् यश, धन, धान्य, कीर्ति और शाश्वत तत्त्वज्ञान को प्राप्त करता है । अन्त में वह विनायक के धाम को प्राप्त करता है, इसमें कोई संशय नहीं है ॥ १२१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — उसी समय गन्धर्वों, यक्षों तथा अप्सराओं के साथ सभी देवता वहाँ आये और उन देवेश वरदविनायक का दर्शन तथा पूजनकर वहीं क्षणभर में अन्तर्धान हो गये। वे दोनों कुमार सनक तथा सनन्दन भी अत्यन्त आश्चर्यान्वित होते हुए उत्तम देवलोक को चले गये ॥ १३-१४ ॥ काशिराज भी अपने अमात्यों तथा प्रजाजनों के साथ वहाँ आये और उन्होंने विविध द्रव्यों, अलंकारों, विविध उत्तरीयों तथा अधोवस्त्रों, अनेक प्रकार के पक्वान्नों, नानाविध फलों, रत्नों, मोतियों, पुष्पों तथा बहुत प्रकार की दक्षिणाओं के द्वारा ब्राह्मणों के साथ मन्त्रोच्चारपूर्वक परम भक्ति से उन वरदविनायक का पूजन किया । तदनन्तर उन्होंने वस्त्रों तथा स्वर्णाभूषणों से ब्राह्मणों का पूजन किया ॥ १५-१७ ॥ आशीर्वाद ग्रहणकर वे पुनः अपने नगर को आये। राजा के समान ही उन मन्त्रियों आदि ने भी उन वरदविनायक का पूजन किया। उन्होंने भी उसी प्रकार ब्राह्मणों का भी पूजनकर उनसे उत्तम आशीर्वाद ग्रहण किया। तदनन्तर प्रजाजनों ने भी यथाशक्ति उन विनायक का पूजन किया ॥ १८-१९ ॥ सभी ने प्रसन्नमन होकर नगर में प्रवेश किया। [हे व्यासजी!] इस प्रकार मैंने विनायक द्वारा की गयी चेष्टाओं को पूर्णरूप से आपको बतलाया, इसका श्रवण करने से सभी पापों का विनाश तथा पुण्य की प्राप्ति होती है। अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ २०१/२ ॥ मुनि व्यासजी बोले — [हे ब्रह्मन्!] मैंने न्यायोचित वृत्ति वाले शुक्ल नामक ब्राह्मण के चरित्र का श्रवण किया। वे अपने घर में धातु के किसी भी पात्र के न होने के कारण धातु के स्पर्श से रहित थे। उनके घर में देव विनायक गये । उन्होंने गीले भात को बहने से रोकने के लिये अपने दसों हाथों से उसे उठाकर जल के साथ ग्रहण करके अपनी थकान दूर की और पूर्ण संतृप्त होकर उनकी दरिद्रता दूर कर दी ॥ २१-२२१/२ ॥ उन्होंने उन शुक्ल ब्राह्मण को इन्द्र के भवन से भी श्रेष्ठ भवन प्रदान किया और जो सम्पदाएँ अलकाधिपति कुबेर के पास नहीं थीं, उन्हें उनको प्रदान किया । मकरध्वज कामदेव के पास भी जो सौन्दर्य नहीं था, वह उन्हें प्रदान किया । चतुर्मुख ब्रह्माजी के पास भी जो ज्ञान नहीं था, वह उन्हें दिया । हे ब्रह्मन् ! इसमें क्या कारण है, उसे मुझको आप बतानेकी कृपा करें ? ॥ २३–२५ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे व्यासजी ! आपने बहुत अच्छी बात पूछी है; क्योंकि परमेश्वर विनायकदेव की कथा को भक्तिपूर्वक सुनने से वह प्रश्न करने वाले, सुनने वाले तथा बताने वाले कथावाचक को भी पवित्र कर देती है ॥ २६ ॥ हे मुने! आपने जो कुछ पूछा है, उसे बताने के लिये मेरा मन भी उत्सुक हो रहा है। भक्तिभाव से प्राप्त होने वाले विनायकदेव के चरित्र को मैं सम्यक् रूप से आपको बताऊँगा। वे विनायकदेव सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्वत्र व्याप्त तथा सभी के चित्त की वृत्ति को जानने वाले हैं। वे देव भक्ति द्वारा ही प्रसन्न होते हैं; क्योंकि भक्तिभाव ही उनकी सन्तुष्टि का कारण है ॥ २७-२८ ॥ भक्तिपूर्वक समर्पित किये गये पत्र, जल, मनोहर पुष्प से भी वे परम प्रसन्न होकर स्वयं अपने को ही भक्त को समर्पित कर देते हैं ॥ २९ ॥ दम्भपूर्वक, अवहेलनापूर्वक अथवा दूसरे को देखकर लज्जापूर्वक समर्पित की गयी महान् सम्पत्ति अथवा महान् वस्तु या विविध रत्न, स्वर्ण, चाँदी या मोती आदि सब व्यर्थ होता है, केवल शमीपत्र मात्र समर्पित करने वाले व्याध को उन्होंने अपना सालोक्य प्रदान कर दिया । हृदय में दृढ़ भक्तिभाव रखकर किसी प्रसंगवश अनायास उपलब्ध पत्र – पुष्पादि अर्पित करनेसे भी वे प्रसन्न हो जाते हैं, अतः भक्ति श्रेष्ठ है ॥ ३०-३२ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘बालचरित के अन्तर्गत सनक-सनन्दन द्वारा की गयी विनायक-स्तुति एवं भक्ति की प्रशंसा का वर्णन’ नामक पच्चीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥ Content is available only for registered users. 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