श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-035
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
पैंतीसवाँ अध्याय
महर्षि शौनक तथा ब्राह्मण औरव के समक्ष भगवान् गजानन का प्राकट्य और उन्हें शमी तथा मन्दार के माहात्म्य को बतलाना
अथः पञ्चत्रिंशोऽध्यायः
बालचरिते शमीमन्दारप्रशंसा

ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर उन दोनों ब्राह्मण औरव तथा महर्षि शौनक को दुखी देखकर हाथ में पाश धारण करने वाले, दस भुजा वाले भगवान् विनायक उनपर प्रसन्न हुए और वे महातेजस्वी उनके समक्ष प्रकट हुए ॥ १ ॥ वे किरीट, कुण्डल, माला, बाजूबन्द तथा कटिसूत्र धारण किये हुए थे। उन्होंने सर्प का यज्ञोपवीत धारण कर रखा था। वे सिंह पर विराजमान थे और अग्नि के समान तेजस्वी प्रतीत हो रहे थे ॥ २ ॥ करोड़ों सूर्यों के समान आभावाले उस परम स्वरूप को देखकर वे दोनों हाथ जोड़कर उन विनायकदेव को प्रणामकर उनकी स्तुति करने लगे ॥ ३ ॥

॥ तावुचतुः ॥
विश्वस्य बीजं परमस्य पाता नानाविधानन्दकरः स्वकानाम् ।
निजार्चनेनादृतचेतसां त्वं विघ्नप्रहर्ता गुरुकार्यकर्ता ॥ ४ ॥
परात्परस्त्वं परमार्थभूतो वेदान्तवेद्यो हृदयातिगोपी (हृदयेतिगुप्तः) ।
सर्वश्रुतीनां च न गोचरोऽसि नमाव इत्थं निजदैवतं त्वाम् ॥ ५ ॥
न पद्मयोनिर्न हरो हरिश्च हरिः षडास्यो न सहस्रमूर्द्धा ।
मायाविनस्ते न विदुः स्वरूपं कथं न शक्यं परिनिश्चितुं तत् ॥ ६ ॥
तवानुकम्पा महती यदा स्याद् विभुञ्जतः कर्म शुभाशुभं स्वम् ।
कायेन वाचा मनसा नमे त्वां जीवंश्च मुक्तो नर उच्यते सः ॥ ७ ॥
त्वं भावतुष्टो विदधासि कामान् नानाविधाकारतयाऽखिलानाम् ।
संसृत्यकूपारविमुक्तिहेतुरतो विभुं त्वां शरणं प्रपद्ये ॥ ८ ॥

वे दोनों बोले — आप इस समस्त जगत् के बीज, इसके परम रक्षक और अपने भक्तों को नाना प्रकार से आनन्द प्रदान करने वाले हैं। आप अपने प्रति आदर भाव रखने वाले भक्तों के पूजन से प्रसन्न होकर उनके सभी प्रकार के विघ्नों का विनाश कर देते हैं और उनके महान् से भी महान् कार्यों को सम्पन्न कर देते हैं ॥ ४ ॥ आप पर से परे हैं, परमार्थस्वरूप हैं, वेदान्त के द्वारा वेद्य हैं, हृदय में स्थित रहने पर भी उससे परे हैं। आप सभी श्रुतियों से भी अगोचर हैं, इस प्रकार के स्वरूपवाले अपने अभीष्टदेव आपको हम प्रणाम करते हैं ॥ ५ ॥ न तो पद्मयोनि ब्रह्मा, न शंकर, न विष्णु, न इन्द्र, न षडानन और न सहस्र सिरवाले शेषनाग ही आपके मायावी स्वरूप को यथार्थरूप में जान पाते हैं, तो हम आपके उस स्वरूप को इदमित्थं के रूप में कैसे निश्चित कर सकते हैं ? ॥ ६ ॥ आपकी महान् कृपा जिस व्यक्ति पर होती है, वह अपने प्रारब्धानुसार शुभाशुभ कर्मों का भोग करता हुआ तथा शरीर, वाणी एवं मन से आपको प्रणिपात करता हुआ जीवनकाल में ही मुक्त कहा जाता है ॥ ७ ॥ आप अपने भक्तों के भक्तिभाव से सन्तुष्ट होकर भाँति-भाँति के रूपों में अवतीर्ण होकर उन सभी की समस्त कामना पूर्ण करते हैं। आप इस संसार सागर से मुक्ति दिलाने वाले हैं। अतः आप विभु की हम शरण ग्रहण करते हैं ॥ ८ ॥

गणेश बोले — हे ब्राह्मणो! मैं आप लोगों की परम भक्ति से, परम तप से तथा आप दोनों द्वारा की गयी इस श्रेष्ठ स्तुति से अत्यन्त प्रसन्न हूँ । आपलोग वर माँगें ॥ ९ ॥ कुत्सित योनि से मुक्ति प्रदान करने वाले इस मेरे स्तोत्र का जो तीनों सन्ध्याकालों में तीन बार पाठ करेगा, वह सभी प्रकार के मनोरथों को प्राप्त कर लेगा ॥ १० ॥ उसका छः मास तक पाठ करने से विद्या की प्राप्ति होती है और नित्य पाठ करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। जो इसका पाँच बार पाठ करता है, वह मनुष्य आयु तथा आरोग्य को प्राप्त करता है ॥ ११ ॥

ब्रह्माजी बोले — गणेशजी का वचन सुनकर वे दोनों बड़े आदर के साथ उनके चरणों में गिर पड़े [और उनमें शौनकजी बोले] — हे देव! [इन] ब्राह्मण औरव की एक शमीका नाम की शुभ पुत्री थी । इन्होंने [मुझ] शौनक के शिष्य तथा धौम्य ऋषि के पुत्र बुद्धिमान् मन्दार के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया था । मन्दार वेदशास्त्रों का ज्ञाता था ॥ १२-१३ ॥ उन दोनों ने एक बार मार्ग में महर्षि भ्रूशुण्डी को देखकर उनका अज्ञानपूर्वक उपहास कर दिया था । महर्षि ने उनके उपहास को अपनी अवहेलना जानकर अत्यन्त क्रुद्ध होकर उन दोनों को शाप दे दिया ॥ १४ ॥ उनके शाप से वे दोनों मन्दार तथा शमीका वृक्ष की योनि को प्राप्त हो गये। उन दोनों के माता-पिता शोक में निमग्न होकर अत्यन्त दुखी हैं ॥ १५ ॥ हे देव! हम दोनों भी बहुत दुखी हैं, अतः हम सभीके लिये जो प्रिय हो, आप वैसा करने की कृपा करें। हे गजानन ! आप शीघ्र ही इन दोनों को कुत्सित वृक्षयोनि से मुक्त करें ॥ १६ ॥

गजानन बोले — हे ब्राह्मणो ! मैं असम्भव वरदान कैसे दे सकता हूँ और अपने भक्त के वचन को कैसे मिथ्या बना सकता हूँ, फिर भी मैं प्रसन्न होकर यह वरदान देता हूँ कि आज से मैं निश्चित ही मन्दारवृक्ष के मूल में निवास करूँगा और यह मन्दारवृक्ष मृत्युलोक तथा स्वर्गलोक में भी अत्यन्त पूज्य होगा ॥ १७-१८ ॥ जो व्यक्ति मन्दारवृक्ष की जड़ों से मेरी मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करेगा और शमीपत्रों के द्वारा तथा दूर्वादलों से मेरा पूजन करेगा, [वह मुझे अत्यन्त प्रीति पहुँचायेगा; क्योंकि] ये तीनों संसार में अत्यन्त दुर्लभ हैं ॥ १९ ॥ हे मुनियो ! क्योंकि मैं शमी का आश्रय लेकर सदा उसमें स्थित रहता हूँ। इसी कारण मैंने इन दोनों वृक्षों को यह दुर्लभ वर दिया है ॥ २० ॥

आप दोनों के अनुरोधवश ही मैंने ऐसा किया है, महर्षि भ्रूशुण्डीजी का वचन अन्यथा नहीं हो सकता । दूर्वा के अभाव में मन्दारवृक्ष के पत्तों से और दोनों के अभाव में शमीपत्रों से मेरा पूजन विहित है ॥ २१ ॥ शमीपत्र से की गयी पूजा, दूर्वा तथा मन्दार —  दोनों से की गयी पूजा का फल प्रदान करती है, इसमें कोई विचार करने की आवश्यकता नहीं है। हे श्रेष्ठ द्विजो ! विविध प्रकार के यज्ञों, विविध तीर्थों के सेवन एवं व्रतों से तथा विविध दानों एवं नियमों के पालन से व्यक्ति वह पुण्य नहीं प्राप्त करता है, जो पुण्यफल शमीपत्रों के द्वारा मेरी पूजा करने से प्राप्त करता है ॥ २२-२३ ॥ श्रेष्ठ मुनियो ! मैं न तो धन-वैभव से, न सुवर्ण राशियों से, न विविध प्रकार के अन्न के दानों से, न वस्त्रों से, न विविध पुष्पों के अर्पण करने से, न मणिसमूहों से, न मोतियों से वैसा सन्तुष्ट होता हूँ, जैसा कि शमीपत्रों के पूजन से, ब्राह्मणों के पूजन से और निरन्तर मन्दार पुष्पों के समूहों के पूजन से प्रसन्न होता हूँ ॥ २४ ॥

जो प्रातःकाल उठकर शमी का दर्शन करता है, उसे प्रणाम करता है और उसका पूजन करता है, वह न तो कष्ट, न रोग, न विघ्न और न बन्धन को ही प्राप्त होता है। मेरे कृपाप्रसाद से वह स्त्री, पुत्र, धन, पशु तथा अन्य भी सभी कामनाओं को प्राप्त कर लेता है, मेरी शरण ग्रहण करने से वह अन्त में मुक्ति प्राप्त करता है ॥ २५-२६ ॥ मन्दार के पुष्पों से पूजन का भी यही फल बताया गया है । मन्दार की मूर्ति बनाकर जिस घर में मेरा पूजन किया जायगा, वहाँ मैं स्वयं विद्यमान रहूँगा और वहाँ न कभी अलक्ष्मी का प्रवेश होगा, न कोई विघ्न होंगे, न किसी की अपमृत्यु होगी, न कोई ज्वर से ग्रस्त होगा और न तो अग्नि तथा चोर का कोई भय ही कभी रहेगा ॥ २७-२८ ॥ ब्राह्मण वेदवेदांगादि शास्त्रों का ज्ञाता हो जायगा, क्षत्रिय सर्वत्र विजय प्राप्त करेगा, वैश्य समृद्धि से सम्पन्न हो जायगा और शूद्र उत्तम गति प्राप्त करेगा ॥ २९ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार कहने के अनन्तर वे देव गणेश उसी समय मन्दार वृक्ष के मूल में स्थित हो गये। इसी प्रकार वे देवाधिदेव विनायक शमीवृक्ष के मूल में भी प्रतिष्ठित हो गये। ब्राह्मण औरव भी पत्नीसहित तपस्या में स्थित हो गये । उन्होंने शमीवृक्ष के नीचे तपस्या की और वे अन्त में उत्तम लोक को प्राप्त हुए ॥ ३०-३१ ॥ शोक को प्राप्त हुए वे औरव ब्राह्मण अपने दृढ़ योगबल के प्रभाव से उसी शमीवृक्ष के गर्भ में प्रविष्ट हो गये, तभी से वे शमीगर्भ इस नाम से विख्यात अग्नि हो गये, लोक में इसी कारण अग्निहोत्र करने वाले अग्नि उत्पन्न करने के लिये शमी की लकड़ी का मन्थन (अरणि-मन्थन) करते हैं ॥ ३२१/२

देव गजानन द्वारा उच्चरित वाणी को सुनकर महर्षि शौनक ने भी मन्दारवृक्ष के मूल से गजानन की एक सुन्दर मूर्ति बनवाकर प्रसन्नतापूर्वक मन्दारपुष्पों, शमीपत्रों तथा दूर्वादलों के द्वारा उसका पूजन किया ॥ ३३-३४ ॥ भगवान् गजानन ने प्रसन्न होकर महर्षि शौनक को अनेक वर प्रदान किये। तदनन्तर वे अपने आश्रम में चले आये और सर्वदा उस (मूर्ति) – का पूजन करने लगे ॥ ३५ ॥

गृत्समद बोले — तब से लेकर शमी भगवान् गणेशजी को अत्यन्त प्रिय हो गयी। इस प्रकार मैंने सम्पूर्ण वृत्तान्त आपको ‘बतलाया, पुनः आपसे कुछ और कहता हूँ ॥ ३६ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘गजाननकृत शमीमन्दार – प्रशंसावर्णन’ नामक पैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३५ ॥

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