October 4, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-038 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ अड़तीसवाँ अध्याय रानी कीर्ति के पुत्र को महर्षि गृत्समद द्वारा गणेशजी के ‘दुण्ढिराज’ नामक चतुरक्षर मन्त्र का उपदेश, ढुण्डिराज गणेश का माहात्म्य, काशीविश्वनाथ तथा गंगाजी की महिमा, भस्मासुरपुत्र दुरासद द्वारा शंकरजी की आराधना और वरप्राप्ति अथः अष्टतत्रिंशोऽध्यायः बालचरिते दुरासदवरप्राप्तिवर्णनं कीर्ति बोली — हे ब्रह्मन् ! आपने शमी की महिमा का भलीभाँति बड़े आदर के साथ वर्णन किया और मन्दार के माहात्म्य को भी बतलाया, उससे मेरे मन में बड़ी प्रसन्नता हो रही है। हे मुनीश्वर ! आपने मेरे इस पुत्र को जीवन प्रदान किया है और इसे गणेशजी के षडक्षरमन्त्र का उपदेश भी दिया है, किंतु अभी छोटा बालक होने के कारण यह उस मन्त्र का उच्चारण करने में समर्थ नहीं हो पायेगा ॥ १-२ ॥ अतः हे मुने! आप इसे इस समय ऐसा मन्त्र प्रदान कीजिये, जो सरलता से उच्चारण किये जाने योग्य हो, गणेशजी को भलीभाँति प्रसन्न करने वाला हो और अपने राज्य को प्राप्त कराने वाला हो, साथ ही वह मन्त्र ऐसा हो कि जिसका जप करने में बालक भी समर्थ हो ॥ ३ ॥ गृत्समद बोले — [हे देवि !] भगवान् गजानन के चरणकमलों में लगी हुई तुम्हारी बुद्धि को मैंने भलीभाँति समझ लिया है, अतः मैं गणेशजी का सुख प्रदान करने वाला स्वयं का मन्त्र इसे प्रदान करूँगा ॥ ४ ॥ जिन भगवान् विनायक का चार अक्षरों वाला [ढुण्डिराज] नाम सम्पूर्ण जगत् का कारणभूत है, जो [ढुण्डिराज] शुभ तथा अशुभ कर्मों के साक्षी हैं, दुष्ट दैत्यों का विनाश करने वाले हैं, सभी धर्मो की रक्षा करने वाले हैं, काशी के राजा दिवोदास का उपकार करने वाले हैं, जो वाराणसी में द्विज का रूप धारण करके विराजमान हैं, जिन्होंने भगवान् विश्वनाथ के लिये अविमुक्तक्षेत्र में निवास करने के लिये प्रयत्न किया था, जो सर्वान्तर्यामी हैं, विश्वेश्वर द्वारा जिनकी स्तुति की गयी हैं, संसार का पालन करने के लिये जो जनार्दन भगवान् विष्णु द्वारा स्तुत हैं, सृष्टि करने के लिये पितामह ब्रह्माजी द्वारा जिनकी पूजा की जाती है और जिनका ध्यान किया जाता है, सम्पूर्ण जगत् के विनाश के लिये जो भगवान् शिव द्वारा पूजित होते हैं, पुलोमा की पुत्री शची के स्वामी देवराज इन्द्र के द्वारा दैत्यों का संहार करने के लिये तथा देवताओं के राज्यसुख की प्राप्ति के लिये अत्यन्त भक्तिपूर्वक जिनका पूजन किया गया है; सूर्य, वरुण, चन्द्रमा, यम, अग्नि तथा वायुदेव ने भी अपने-अपने अभ्युदय की प्राप्ति के लिये जिनका पूजन किया है, साथ ही देवगुरु बृहस्पति तथा दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने भी अपने उत्कर्ष के लिये जिनकी पूजा की है, जिन ढुण्डिराज गणेश की आराधना शेषनाग ने पृथ्वी को धारण करने की शक्ति प्राप्त करने के लिये की है। साथ ही गन्धर्व, किन्नर, यक्ष, सिद्ध, चारण, राक्षस, ऋषिगण, पशु तथा सभी शुभ स्थावर तथा जंगम प्राणी अपने-अपने कार्यों की सिद्धि के लिये जिन विश्व के स्वामी भगवान् गणेशजी की आराधना करते हैं, वे अखिल जगत् के स्वामी ही ढुण्डिराज कहलाते हैं, वे अपार गुणों से भी परे हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि देवों ने जिनके गुणों का पार नहीं पाया है। उन भगवान् ढुण्डिराज का तुम्हारे द्वारा भक्तिभावपूर्वक शमीपत्रों से पूजन होने पर निश्चित ही तुम्हारा पुत्र शत्रुओं का नाश करने वाला और राज्य का अधिकारी बनेगा ॥ ५-१५ ॥ कीर्ति बोली — हे ब्रह्मन्! मैंने ढुण्डिराज सम्बन्धी सम्पूर्ण महिमा का श्रवण किया। वे ढुण्डिराज कौन-सा कर्म करने वाले हैं, किस प्रकार उनका प्रादुर्भाव हुआ, वे किसके अंश हैं, उनका पराक्रम कैसा है ? किसने उनका ‘दुण्ढिराज’ यह नाम रखा, पूर्वकाल में वे किसके द्वारा पूजित हुए ? हे ब्रह्मन् ! मेरे इस संशय का आप पूर्णतः निराकरण करने की कृपा करें ॥ १६-१७ ॥ मुनि बोले — हे भद्रे ! हे शुभे ! तुमने और भी अधिक जानने की इच्छा से बहुत अच्छी बात पूछी है । तुमने भक्तिभाव से इस विषय में पूछा है, अतः मैं तुम्हारे संशय को दूर करता हूँ ॥ १८ ॥ जिस प्रकार से उन ढुण्डिराज ने दुरासद नामक दैत्य तथा अनेक राक्षसों का वध किया, जिस प्रकार से वे माया से रूप धारणकर श्रेष्ठ राजा दिवोदास को मोहित करने गये थे, जिस उपाय से वे विश्वेश्वर भगवान् शिव को अविमुक्तक्षेत्र काशी में लाये थे और हे नृपांगना ! जैसे उनका ‘ढुण्डिराज’ यह नाम पड़ा था, वह सब मैं उसी प्रकार बताता हूँ, जिस प्रकार से कि मैंने स्कन्दजी के द्वारा महर्षि अगस्त्यजी के प्रति कहते हुए सुना था । हे शुभे ! उसी को तुम एकाग्रमन होकर सुनो ॥ १९-२१ ॥ स्कन्द बोले — हे ब्रह्मन् अगस्त्यजी ! आप अविमुक्त- क्षेत्रसम्बन्धी उस कथा को ध्यानपूर्वक सुनिये, जिसके सुननेमात्र से व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो जाता है ॥ २२ ॥ एक बार की बात है, भगवान् श्रीहरि ने महर्षि कश्यपजी से कहा था कि आप विविध प्रकार की प्रजाओं की सृष्टि कीजिये। तब उन्होंने तपस्या करके उसके प्रभाव से प्राणियों की मैथुनी सृष्टि की। उन्होंने इक्कीस हजार योनियों वाले अण्डज, उतने ही स्वेदज तथा उतने ही उद्भिज्ज प्राणियों की सृष्टि की। इन चार प्रकार की योनियों में मनुष्ययोनि अत्यन्त दुर्लभ है ॥ २३-२४ ॥ वह मनुष्य जन्म बड़े ही पुण्य से प्राप्त होता है, उसमें भी ब्राह्मणकुल में जन्म और भी विशेष पुण्य से प्राप्त होता है । सम्यक् रूप से धर्म का पालन और अधर्म का परित्याग करते हुए यदि उस ब्राह्मणत्व की रक्षा की जाय तो वह उस परम धाम को प्राप्त कराता है, जहाँसे फिर यहाँ पुनरागमन नहीं होता। यदि ऐसा नहीं हुआ तो प्राणी चौरासी लाख योनियों में भटकता ही रहता है ॥ २५-२६ ॥ दुराचरण करने वाले प्राणी नारकीय यातनाओं का भोग करते हैं। बहुत समय तक इसी प्रकार यातनाओं को भोगते हुए पापकर्मों के क्षीण हो जाने पर वे पुनः मृत्युलोक में आते हैं और काने, बौने तथा दरिद्री होते हैं । उन प्राणियों पर दया करने के लिये ब्रह्मा, शिव आदि देवों ने तथा महाभाग ऋषियों ने विविध प्रकार के तीर्थों तथा अत्यन्त पवित्र क्षेत्रों को बनाया है, जो प्राणियों के पापों का हरण कर लेने वाले हैं ॥ २७-२८ ॥ उन तीर्थस्थलों तथा पुण्यक्षेत्रों में देवता तथा ऋषिगण जीवों के पापों को विनष्ट करते हुए विराजमान रहते हैं, उन तीर्थों में निवास करने वाले प्राणियों के पाप नष्ट हो जाते हैं। पापों से प्राणियों की रक्षा करने के लिये देवता तथा ऋषि सदा ही उन तीर्थों में निवास करते हैं ॥ २९-३०१/२ ॥ भगवान् विश्वनाथ ने सर्वगुणसम्पन्न, सबसे श्रेष्ठ, भुक्ति तथा मुक्ति प्रदान करने वाली, मंगलमयी वाराणसी नाम की पुरी का निर्माण किया था, वह पुरी ध्यान करने वाले तथा ज्ञानी जनों को मोक्ष प्रदान करने वाली है तथा सर्वतीर्थमयी और अत्यन्त रमणीय है ॥ ३१-३२ ॥ जहाँपर तपस्या करते समय सर्वसामर्थ्यसम्पन्न भगवान् विष्णु ने [ अपने चक्र से] प्रसिद्ध चक्र-सरोवर का निर्माण किया था, जो अत्यन्त सुन्दर है और स्नानमात्र कर लेने से मुक्ति प्रदान करने वाला है। जिसका दर्शनकर भगवान् शिवजी के कन्धों में कम्पन होने से उनके कानों में पहने हुए कुण्डलों से [निकलकर] मणि उस चक्रसरोवर में गिर पड़ी थी, तभी से वह चक्रसरोवर तीर्थ ‘मणिकर्णिका’ नाम से प्रख्यात हो गया ॥ ३३-३४ ॥ तदनन्तर राजर्षि भगीरथ द्वारा आहूत की गयी भागीरथी गंगा नदी वहाँ आयीं । यहाँ मृत्यु के प्राप्त होने पर कीट-पतंगों तक की मुक्ति होती है ॥ ३५ ॥ गंगाजी का तीन बार मात्र नाम ले लेने से वे काशीवास का फल प्रदान करने वाली हो जाती हैं । [ वास्तव में] वहाँकी लताएँ, झाड़ियाँ, तृण तथा वृक्ष भी धन्य ही हैं, अन्य स्थानों के नहीं। गंगा में रहने वाले कछुए तथा मत्स्य भी मृत्यु के पश्चात् [रूपवान् ] पृथ्वी के कैलास (काशी)- को छोड़कर उस धाम में जाते हैं, जहाँ रूपातीत भगवान् शिव नाना रूप धारणकर स्थित रहते हैं ॥ ३६-३७ ॥ वे गिरिजापति भगवान् शंकर ही सूर्य, चन्द्रमा, विष्णु, ब्रह्मा, विनायक तथा शक्तिस्वरूपा दुर्गा हैं और वे ही इस जगत् के कारणस्वरूप हैं ॥ ३८ ॥ प्रलयकाल में वे काशीपुरी को अपने त्रिशूल के अग्रभाग में धारण किये रहते हैं। वे एक ही परमेश्वर शिव लोगों पर अनुग्रह करने के लिये पाँच स्वरूपों (शिव, विष्णु, दुर्गा, गणेश तथा सूर्य) – में हो जाते हैं ॥ ३९ ॥ भक्तगण जिस-जिस स्वरूप का ध्यान करते हैं, भगवान् शंकर तत्क्षण ही वैसा स्वरूप धारण कर लेते हैं। इन पाँचों देवों में जो भेद मानता है, वह मनुष्य अवीची नामवाले नरकों को प्राप्त होता है ॥ ४० ॥ जो व्यक्ति एक ओर तो इन पंचदेवों में से किसी एक की स्तुति करता है और दूसरी ओर किसी देव की निन्दा करता है, वह बहुत वर्षों तक इक्कीस नरकों में पड़ा रहता है ॥ ४१ ॥ भस्मासुर नामक राक्षस का दुरासद नाम का एक प्रसिद्ध पुत्र था। उसने शुक्राचार्यजी के पास जाकर भगवान् शंकर की पंचाक्षरी विद्या (‘नमः शिवाय’ मन्त्र) प्राप्त किया ॥ ४२ ॥ एक हजार दिव्य वर्षों तक वह एक पैर के अँगूठे पर निराहार रहकर खड़ा रहा। वह सूखे काष्ठ के समान हो गया था। उसके सारे शरीर में दीमकों ने बाँबी बना ली थी, उसका शरीर अस्थिमात्र ही शेष रह गया था। उसके केवल नेत्रमात्र ही दीखते थे। इसी अवस्था में वह मन्त्रजप किया करता था। उसकी कठिन साधना से प्रसन्न होकर भगवान् शंकर उसे दर्शन देने के लिये वहाँ आये ॥ ४३-४४ ॥ उनकी दस भुजाएँ थीं। पाँच मुख थे। वे रुण्डों की माला से सुशोभित थे। हाथ में डमरू तथा त्रिशूल धारण किये हुए थे। जटाजूट से विभूषित थे। उन्होंने सिर पर गंगा को धारण कर रखा था। उनके तीन नेत्र थे । सम्पूर्ण शरीर में चिताभस्म का लेपन किया हुआ था, वे नन्दी वृषभ पर आरूढ़ थे, उनकी ध्वजा में वृष का चिह्न अंकित था। माथे पर विराजमान चन्द्ररेखा से वे सुशोभित थे। उन्होंने अपर्णा पार्वतीजी को अपनी गोद में बिठा रखा था। इस प्रकार के स्वरूपवाले वे भगवान् शंकर कृपा करते हुए उस दैत्यश्रेष्ठ दुरासद से बोले — ॥ ४५-४६१/२ ॥ शिवजी बोले — उठो, उठो, तुम्हारा कल्याण हो । तपस्या के द्वारा तुमने महान् कष्ट सहन किया है। मैं तुम्हें तुम्हारा अभीष्ट मनोरथ प्रदान करूँगा । जो भी बात तुम्हारे मन में स्थित हो, उसे माँग लो ॥ ४७१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — तब अपनी आँखों को खोलकर उस दैत्य दुरासद ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और वह उन वरदायी भगवान् महेश्वर की स्तुति करने लगा। प्रणम्य परितुष्टाव वरदं तं महेश्वरम् । त्वं जगत् कारणं देव परमानन्दविग्रहः ॥ ४९ ॥ क्षराक्षरातीततनुर्गुणत्रयविकारकृत् । गुणातीतो ज्ञानमयो व्यक्ताव्यक्तविधानवित् ॥ ५० ॥ मुनिध्येयतनुः सर्वभक्तानुग्रहकारकः । ब्रह्माण्डानामनन्तानां हेतुः श्रेयस्करः सताम् ॥ ५१ ॥ अखण्डानन्दपूर्णस्त्वममोघफलदायकः । सर्वाधारः सर्वसहः सर्वशक्त्युपबृंहितः ॥ ५२ ॥ पृथिवीवायुसलिलवह्नितेजः स्वरूपवान् । अद्य धन्यं तपो नेत्रे पितरौ जन्म ते यतः ॥ ५३ ॥ दृष्ट स्वरूपं साक्षान्मे गतं पापं लयं परम् । योगिहृच्छ्रुतिवाचो यो गोचरो न कदाचन । इदानीं वरये देव तन्मे त्वं दातुमर्हसि ॥ ५४ ॥ हे देव! आप सम्पूर्ण जगत् के कारणस्वरूप हैं, आप परम आनन्दस्वरूप हैं। आप क्षर तथा अक्षर से अतीत शरीरवाले, सत्त्वादि तीनों गुणों में विकार उत्पन्न करने वाले, गुणातीत, ज्ञानमय और व्यक्त तथा अव्यक्त के विधान के ज्ञाता हैं ॥ ४८-५० ॥ आपका विग्रह मुनियों के द्वारा ध्यान किये जाने योग्य है, आप सभी भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हैं। आप अनन्त ब्रह्माण्डों के कारणभूत हैं, सत्पुरुषों को श्रेय प्रदान करने वाले हैं। आप अखण्ड आनन्द से परिपूर्ण, अमोघ फल प्रदान करने वाले, सर्वाधार, सब कुछ सहन करने वाले और सभी शक्तियों से सम्पन्न हैं ॥ ५१-५२ ॥ आप पृथिवी, वायु, जल, अग्नि तथा आकाश- स्वरूप हैं । आज मेरी तपस्या धन्य हो गयी, मेरे नेत्र धन्य हो गये, मेरे माता-पिता धन्य हो गये, मेरा जन्म लेना सफल हो गया, जो कि मुझे आपका साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ है। आज मेरे सम्पूर्ण पाप नितान्त रूप से लय को प्राप्त हो गये हैं। योगियों के हृदय के लिये भी अगम्य और वेद- वाणी के लिये भी सर्वथा अगोचर आपके स्वरूप का आज मुझे दर्शन प्राप्त हुआ है । हे भगवन् ! इस समय मैं आपसे वर माँगता हूँ, उसे आप देने की कृपा करें ॥ ५३-५४ ॥ शिवजी बोले — मैं तुम्हारे द्वारा की गयी स्तुति, तपस्या और प्रेम से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम निःसंकोच होकर वर माँगो, मैं तुम्हें वह सब अत्यन्त दुर्लभ वर शीघ्र ही प्रदान करूँगा ॥ ५५ ॥ मुनि बोले — तब उस दुरासद दैत्य ने प्रसन्न हुए भगवान् सदाशिव से निर्भय होने का वरदान माँगा और उसने कहा — जरायुज, अण्डज, स्वेदज तथा उद्भिज्ज – इन चारों प्रकार की योनियों वाले प्राणियों के द्वारा मेरी मृत्यु न हो । इसी के साथ ही यक्ष, राक्षस, पिशाच, देव, दानव, किन्नर, मुनि, मानव, गन्धर्व, सर्प, वनेचर प्राणियों से भी मेरी मृत्यु न हो । हे महाभाग ! युद्धस्थल में मेरे स्वरूप को देखकर सभी देवता भयभीत हो जायँ और मुझे देवलोक का राज्य प्राप्त हो। मुझे आपके चरणों का नित्य स्मरण रहे और आपमें मेरी अखण्ड भक्ति बनी रहे ॥ ५६-५९ ॥ शिवजी बोले — एकमात्र शक्ति को छोड़कर मैं तुम्हें सभी देवताओं से अभय प्रदान करता हूँ । शक्ति के तेज से उत्पन्न कोई वीर तुम्हें जीतकर पुनः जीवित कर देगा ॥ ६० ॥ वह तुम्हारे सिर पर अपना चरण नित्य रखा रहेगा । जब वह तुम्हारे सिरपर रखा हुआ अपना पैर हटा लेगा, तब तुम अपने पराक्रम से तथा अपने तेज से पुनः त्रिलोकी को जीत लोगे। तुम्हें मेरी दृढ़ भक्ति प्राप्त होगी और तुम्हें निरन्तर मेरा स्मरण बना रहेगा ॥ ६१-६२ ॥ गृत्समद बोले — दुरासद को इस प्रकार के वरों को प्रदानकर भगवान् शिव अन्तर्धान हो गये । प्रसन्नता से भरा हुआ वह दुरासद भी अपने घर चला आया । जो इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह अपनी समस्त कामनाओं को प्राप्त कर लेता है ॥ ६३ ॥ ॥ इंस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘[दुरासद की] शिवाराधना का वर्णन’ नामक अड़तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३८ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe