October 5, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-039 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ उनतालीसवाँ अध्याय भस्मासुरपुत्र दुरासद द्वारा भूमण्डल तथा देवलोक में विजय प्राप्त करना, भस्मासु रका शिव से वरदान प्राप्त करना, मोहिनीरूप भगवान् विष्णु की युक्ति से उसका भस्म होना, अविमुक्तक्षेत्र काशीपुरी में आना, दुरासद के अत्याचारों का वर्णन अथः एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः बालचरिते दुरासदोपाख्यानं मुनि गृत्समद बोले — तदनन्तर भगवान् शिव के द्वारा प्राप्त वरदान से अभिमान को प्राप्त वह दैत्यराज दुरासद अपनी महिमा को सहन नहीं कर पाया और मोहित-सा हो गया। वह सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतने की इच्छा रखता था। [इसके निमित्त] वह अश्व पर आरूढ़ हुआ। उसने अपने केशों को बाँध रखा था। कानों में कुण्डल धारण करने से वह सुशोभित हो रहा था ॥ १-२ ॥ उसने एक हाथ में तलवार तथा दूसरे हाथ में धनुष ले रखा था और कन्धे पर दो तूणीर धारण किये थे । अत्यन्त मूल्यवान् रत्नों तथा मुक्तामणियों की माला वह धारण किये हुए था। उसके माथे पर कस्तूरी का तिलक था। वह दिव्य वस्त्रों को पहने हुए था, मनोहर कंचुक ओढ़ रखा था। उसका मुख ताम्बूल से सुशोभित हो रहा था, उसके साथ उसके दो अमात्य भी थे, जिन्होंने अपनी भुजाओं की शक्ति के बल पर अनेक वीरों पर विजय पायी थी। दैत्य दुरासद के दोनों पार्श्व में सेनासहित वे दोनों चल रहे थे ॥ ३-५ ॥ उसकी चतुरंगिणी सेना थी, जो सम्पूर्ण पृथिवी पर विजय प्राप्त करने के लिये उद्यत थी। उस सेना के चलने से उड़ी हुई धूलि से आकाश आच्छादित हो गया था। वह सेना समुद्र के समान विस्तारवाली थी ॥ ६ ॥ जो-जो भी वीर धन आदि में अपने को बढ़ा-चढ़ा समझता था, उसपर वह विजय प्राप्त कर लेता था और उससे हजारों की मात्रा में रत्न तथा द्रव्य ग्रहण कर लेता था। दैत्य उसे राज्यच्युत करके उसके स्थान पर अपने विश्वासपात्र महाबली लोगों को स्थापित कर देता था । उस बलवान् राजा दुरासद ने सभी राजाओं को वश में करके उनके पदों पर अपने लोगों को स्थापित कर दिया था ॥ ७-८ ॥ जो राजा हथियार डालकर और कर प्रदान कर उसकी शरण में आ गये थे, उन्हें उसने किसी पदपर स्थापित कर दिया था। जो अत्यन्त डरपोक थे और अपना राज्य छोड़कर भाग चले थे, उन्हें उस दुरासद ने दूतों द्वारा अपने अधीन कर लिया था। इस प्रकार सम्पूर्ण भूमण्डल को जीतकर उस दैत्य दुरासद ने इन्द्र को भी जीतने की इच्छा की ॥ ९-१० ॥ तदनन्तर अपनी सेना के साथ वह दैत्य इन्द्र द्वारा परिपालित नगरी अमरावती पर जा पहुँचा। उस दैत्यराज दुरासद के वरदान के सामर्थ्य को जानकर देवराज इन्द्र सभी देवताओं तथा अपने कुटुम्बसहित वहाँ से पलायनकर हिमालय की गुफा में छिप गये। उसी समय भगवान् विष्णु भी अपने लोक को छोड़कर क्षीरसागर में चले गये ॥ ११-१२ ॥ वे भगवान् मधुसूदन देवी महालक्ष्मी की गोद में सिर रखकर शयन करने लगे । त्रिशूलधारी भगवान् शिव कैलासशिखर का परित्यागकर काशी में चले गये ॥ १३ ॥ उन्हीं भगवान् शिव के साथ बुद्धिमान् चतुर्मुख ब्रह्मा भी चले गये। जो-जो देवता अपना पद छोड़कर जाते थे, वहाँ-वहाँ पर वह दैत्यराज दुरासद अपने बलशाली परममित्र दूत को नियुक्त कर देता था इस प्रकार वह महाबली दुरासद अपने बल पर समस्त देवताओं को जीतकर कैवर्तकों के देश अश्मकपुर में निवास करने लगा, वह अश्मकपुर लोक में सर्वत्र ‘मुकुन्दपुर’ इस नाम से विख्यात था ॥ १४–१६ ॥ उसी मुकुन्दपुर में प्राचीन काल में महान् बलशाली भस्मासुर नामक दैत्य निवास करता था। भगवान् शंकर ने उसे महान् आश्चर्यजनक यह वर दे रखा था कि तुम जिसके सिर पर हाथ रखोगे, वह उसी क्षण मृत्यु को प्राप्त हो जायगा ॥ १७ ॥ इस प्रकार के वरदान को प्राप्त किया वह दुष्ट दैत्य भस्मासुर दुर्भावना से प्रेरित होकर उस वरदान की परीक्षा करने के लिये वरदान देनेवाले भगवान् शिव के ही सिर पर हाथ रखने के लिये गया। तब पार्वतीपति भगवान् शिव वहाँ से पलायित हो गये। उस समय सर्वसामर्थ्यशाली चक्रपाणि भगवान् विष्णु ने दैत्य भस्मासुर को देख लिया, तब वे सुन्दर मोहिनी (स्त्री)- का रूप धारणकर उसके पास गये ॥ १८-२० ॥ वे बोले — हे नरोत्तम! यदि तुम मेरी बात पर विश्वास करोगे तो मैं तुम्हारी अर्धांगिनी बन जाऊँगी। तब अत्यन्त हर्षित हो भस्मासुर ने अपनी स्वीकृति दे दी। तदनन्तर मोहिनीरूपधारी वे भगवान् विष्णु नृत्य करने लगे और उस मोहिनी के कहने पर वह दैत्य भस्मासुर भी नाचने लगा। मोहिनी जिस-जिस प्रकार के हाव-भाव को दिखाने लगी, वह भी वैसा ही करने लगा ॥ २१-२२ ॥ तदनन्तर मोहिनी ने अपने सिर पर हाथ रखा, तो उस भस्मासुर ने भी अपने सिर पर हाथ रखा, उसी क्षण वह दैत्य भस्मासुर भस्म हो गया। उस दुष्ट चेष्टावाले भस्मासुर का अन्त करने वाले भगवान् विष्णु उस नगर में मुकुन्द नाम से स्थित हो गये। उन्हीं मुकुन्द के नाम से वह नगर ‘मुकुन्दपुर’ नाम से विख्यात हो गया। वह नगर वहाँ अनुष्ठान करने वाले मनुष्यों के लिये शीघ्र ही परमसिद्धि प्रदान करने वाला हो गया ॥ २३-२४ ॥ वे मोहिनी भक्तिपूर्वक की गयी उपासना से मनुष्यों की सभी अभिलाषाएँ पूर्ण करती हैं। वहीं पर स्थित होकर भस्मासुर का पुत्र वह दुरासद गर्वपूर्वक तीनों लोकों पर शासन करता था ॥ २५ ॥ वह दुरासद अपने मन्त्रियों से बड़े ही गर्वपूर्वक बोला — देखो, कैसे मैंने अपने पराक्रम के बल पर असुरों के शत्रु देवताओं पर विजय प्राप्त की ! ॥ २६ ॥ इस पर वे मन्त्री बोले — आपने अविमुक्तक्षेत्र पर तो विजय प्राप्त नहीं की, वह भारतवर्ष का दसवाँ खण्ड है। उसके समान कहीं कोई क्षेत्र नहीं है। जहाँ भगवान् शंकर विराजमान रहते हैं और सभी देवोंद्वारा वहाँ उनकी सेवा की जाती है। जबतक आप उस काशीपुरी को नहीं जीत लेते, तबतक आपका पौरुष व्यर्थ ही है ॥ २७-२८ ॥ मन्त्रियों का ऐसा वचन सुनकर युद्धप्रिय वह दुरासद बड़ा ही प्रसन्न हुआ और बोला, ‘मैं शीघ्र ही सैनिकों को लेकर उस काशीपुरी में जाता हूँ’ ॥ २९ ॥ तदनन्तर वह श्रेष्ठ विमान पर आरूढ़ होकर क्षणभर में ही काशीपुरी की ओर चल पड़ा। उस दैत्य के काशीपुरी में प्रवेश करते ही उस पुरी में सर्वत्र हाहाकार होने लगा ॥ ३० ॥ उस नगरी में जो देवता थे, वे सभी अन्तर्धान हो गये। भगवान् शिव ने अपना भक्त होने के कारण उसपर कोई कोप नहीं किया ॥ ३१ ॥ ‘कुछ समय तक के लिये मैंने तुम्हें अपना राज्य दे दिया’ – ऐसा कहकर भगवान् शिव सपरिवार केदारक्षेत्र में चले गये और तब हे शुभे ! क्षेत्रसंन्यास का नियम लिये हुए महर्षि जैगीषव्य को छोड़कर सभी मुनि भी काशी से पलायित हो गये ॥ ३२१/२ ॥ तदनन्तर उस मोहग्रस्त दुरासद ने वहाँ की मूर्तियों को तोड़ डाला । वह मन्दबुद्धि वहाँ के मन्दिरों को तोड़कर प्रसन्न होता था । यदि कोई किसी देवता का स्मरण-ध्यान करता था, तो वह उसे प्रताड़ित कर नगर से बाहर कर देता था। न कहीं स्वाहाकार होता था, न वषट्कार अर्थात् ऋषियों का पूजन, न कहीं पितरों का तर्पण -पूजन होता था, न कहीं वेद का अध्ययन होता था और न कहीं भी शास्त्राध्ययन ही हो पाता था ॥ ३३-३५ ॥ न तो कहीं पुराण आदि की कथा होती थी, न देवताओंका पूजन होता था, न कोई व्रत-नियम हो पाता था और न तीर्थ आदि की परिक्रमा ही हो पाती थी। उस काशी में दुष्टबुद्धि दुरासद के राज्य करते समय कर्मकाण्ड के विधि-विधानों का लोप हो जाने पर धर्ममार्ग भी विलुप्त हो गया। हे कीर्ते ! धर्माचरण के विनष्ट हो जाने पर सभी देवता क्षुधा से पीड़ित हो गये ॥ ३६-३७ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘दुरासद के उपाख्यानमें” उनतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३९ ॥ Content is available only for registered users. 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