November 1, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-092 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ बानबेवाँ अध्याय चार वर्ष की अवस्था वाले बालक गुणेश के द्वारा दैत्य कर्दमासुर का वध, गुणेश द्वारा माता पार्वती को अपने मुख के भीतर समस्त विश्व का दर्शन कराना, माता द्वारा गुणेश की स्तुति अथः द्विनवतितमोऽध्यायः विश्वरूपदर्शनं ब्रह्माजी बोले — [ हे व्यासजी!] तदनन्तर किसी दिन की बात है, जिस समय प्रातःकाल चार वर्ष की अवस्था वाले बालक गुणेश सोये हुए थे और देवी पार्वती शीघ्रतापूर्वक स्नान करके शिवलिंग पूजा कर रही थीं ॥ १ ॥ वे अपने बायें हाथ में भगवान् शिव का पार्थिव लिंग रखकर उस श्रेष्ठ लिंग की दाहिने हाथ से पूजा कर रही थीं। उसी समय बालक गुणेश जग गये और रोने लगे तथा स्तनपान कराने का हठ करने लगे ॥ २ ॥ तब माता ने ‘क्षणभर रुक जाओ – क्षणभर रुक जाओ’ – इस प्रकार कहते हुए उन्हें रोका तो रुष्ट होकर बालक गुणेश ने अपने हाथ के प्रहार से माता के हाथ में रखे पार्थिव लिंग को नीचे गिरा दिया ॥ ३ ॥ माता ने भी अत्यन्त रुष्ट होकर बालक को हाथ से मारा। तब बालक गुणेश ने भी क्रुद्ध होते हुए पुनः समीप में आकर माता की अंगुलि में जोर से दाँत से काट लिया ॥ ४ ॥ ‘मुझे छोड़ो-मुझे छोड़ो’ — यह कहते हुए वे बोलीं — ‘मेरे प्राण निकल जायँगे।’ तब दाँत काटी हुई अंगुलि को छोड़कर बालक गुणेश दूर भाग गये ॥ ५ ॥ माता पार्वती की अँगुलि से बहुत-सा रक्त भूमि पर उसी प्रकार गिर पड़ा, जैसे कि जोर से चोट करने पर मदार के वृक्ष से दूध निकलकर गिरने लगता है ॥ ६ ॥ तब माता पार्वती एक छड़ी लेकर पुत्र गणेश को मारने के लिये दौड़ीं। उन्होंने दौड़कर बालक को पकड़ लिया। उस समय उन्होंने बालक को भगवान् शिव के स्वरूप वाला देखा ॥ ७ ॥ उनके पाँच मुख थे, दस भुजाएँ थीं, तीन नेत्र थे, वे शेषनाग से सुशोभित थे। उन्होंने त्रिशूल, डमरु, भस्म तथा रुण्डों की माला धारण की हुई थी । वे हस्तिचर्म तथा व्याघ्रचर्म पहने हुए थे और उनके मस्तक पर चन्द्रमा सुशोभित था ॥ ८१/२ ॥ यह देखकर पार्वती लज्जित हो गयीं। उन्होंने छड़ी को फेंक दिया और वे शिवा मुख नीचे कर खड़ी हो गयीं ॥ ९ ॥ उस समय वे न तो आगे बढ़ सकीं और न वापस भवन को जाने में ही समर्थ हो पा रही थीं। उनकी चिन्ता को समझकर भगवान् गुणेश [शिवरूप को त्यागकर ] पुनः बालक के स्वरूप में हो गये ॥ १० ॥ वे मुनिबालक का रूप बनाकर मुनिबालकों के साथ खेल खेलने लगे। जब देवी पार्वती उन्हें देखने उनके पीछे गयीं तो उनके बीच उन्होंने अपने पुत्र को नहीं देखा ॥ ११ ॥ उन्होंने उन मुनिबालकों से पूछा — मेरा बालक कहाँ चला गया ? मेरी अँगुलि में दाँत काटकर वह चंचल बालक भाग रहा है ॥ १२ ॥ वे मुनिपुत्र उनसे बोले — आपका पुत्र यहाँ से चला गया है। तब उन्हें खोज ने पार्वती आगे-आगे बढ़ने लगीं। उनके बालों की चोटी खुल गयी थी, खोजने के परिश्रम से वे पसीने से लथपथ हो गयी थीं, इधर-उधर दौड़ती हुई उन पार्वती के वस्त्र तथा आँचल अपने स्थान से खिसक गये थे । माता का इस प्रकार का परिश्रम देखकर वे गुणेश अपना पहले वाला बालकरूप धारणकर माता के पास आये, तब देवी गिरिजा ने अपने हाथों से उन्हें दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया । अपने आँचल से उन्हें बाँधकर वे प्रसन्नचित्त हो अपने भवन को गयीं ॥ १३-१५१/२ ॥ वे उनसे गुस्से से बोलीं — अब तुम ठीक से मेरे हाथ में आ गये हो । हे अपस्मार से आक्रान्त व्यक्ति से भी अधिक अस्थिर बालक ! मैं इस समय तुम्हें बहुत अधिक मारूँगी, अथवा भगवान् शंकर से तुम्हारी शिकायत करूँगी, वे ही तुम्हें मारेंगे ॥ १६-१७ ॥ माता के इस प्रकार के वचनों को सुनकर बालक गुणेश भूमि पर लोट गये और फिर अपने को बन्धन से मुक्त देखकर पुनः तेजी से भाग चले ॥ १८ ॥ तब पार्वती अत्यन्त विह्वल तथा दुःखित होकर उनके पीछे फिर दौड़ पड़ीं। इसी समय कर्दमासुर नामक एक दुष्ट दानव वहाँ आया । वह ब्राह्मण का रूप धारण किये हुए था, उसने माला पहनी हुई थी, वह अपने दाहिने हाथ में जल से भरा हुआ कमण्डलु लिये हुए था । उसका सारा शरीर भस्म से पुता हुआ था ॥ १९-२० ॥ वह अरुणोदयकालीन सूर्य की अरुणिम आभा समान वस्त्र पहने हुए था। वह अत्यन्त मायावी था । वह बालक से इस प्रकार का वचन कहने लगा — तुम किस कारण से भाग रहे हो, मैं शीघ्र ही तुम्हारे भय का निवारण कर दूँगा, इसमें कोई संशय नहीं है। मैं तुम्हें ऐसे स्थान पर ले जाऊँगा, जहाँ तुम्हारी माता तुम्हें किसी प्रकार भी जान नहीं पायेंगी। वहाँ न तो काल का कोई भय होगा और न अणुमात्र भी अन्य कोई भय होगा ॥ २१-२२१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — तब भयभीत बालक गुणेश उससे बोले —आप वैसा ही करें, जिससे कि मेरे माता-पिता मुझे न देख सकें। मैं आपकी शरण में आया हूँ। इस प्रकार कहते हुए वे गुणेश बालस्वभाववश ज्यों ही उसके समीप में गये, त्यों ही वह दुष्ट कर्दमासुर उस कोमल बालक को उसी प्रकार निगल गया, जिस प्रकार कि पके हुए केले के टुकड़े को निगल लिया जाता है ॥ २३–२५ ॥ इधर पार्वती भूमि पर बालक गुणेश के चरणकमलों के चिह्न देखती हुई आगे बढ़ती गयीं। उन्होंने सामने एक ब्राह्मण को देखा तो उससे उन्होंने अपने बालक के विषय में पूछा — हे स्वामिन्! क्या आपने मेरे पुत्र को यहाँ से जाते हुए देखा है? हे विप्र ! ये देखिये, भूमि पर पड़े हुए ये चरणकमलों के चिह्न उसी के हैं । हे द्विज! यहाँ से दौड़ता हुआ वह न जाने कहाँ गायब हो गया?॥ २६-२७१/२ ॥ तब बालक के वियोग से दुखी उन पार्वती से वह ब्राह्मण कहने लगा ॥ २८ ॥ द्विज बोला — हे अनघे ! हे माता ! आपके बालक से हमारा क्या प्रयोजन है ? हे माता ! हम तो सब प्रकार से उदासीन रहने वाले और ईश्वर के ध्यान में दत्तचित्त रहने वाले हैं । फिर भी आप पूछ रही हैं तो हम कहते हैं कि हे शैलपुत्री! हमने आपके पुत्र को कहीं भी नहीं देखा है, हे देवि ! क्या आपने अपने बालक को हमारे अधीन किया हुआ था ? ॥ २९-३० ॥ ब्रह्माजी बोले — उसके इस प्रकार से कहने पर उन शैलपुत्री को अत्यन्त दुःखित देखकर निर्विकार गुणेश्वर उस कर्दमासुर के मुख से बाहर प्रकट हो गये ॥ ३१ ॥ तब देवी पार्वती अपने पुत्र को पाकर उस विप्रदेहधारी कर्दमासुर से बोलीं — आप झूठ क्यों बोलते हैं? आपके निकट ही यह पुत्र देखा गया है, निश्चित ही आपने ही इसे गायब किया है । सन्तों का यह स्वभाव होता है कि वे प्राणों पर संकट आ जाने पर भी कभी भी मिथ्या वचन नहीं बोलते ॥ ३२१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — पार्वती के इन वचनों को सुनकर वह दैत्य विशाल शरीर वाला हो गया, उसका मस्तक आकाश को छू रहा था। उसी समय वह दैत्य बालक गुणेश को लेकर वहाँ से निकल गया । तब विलाप करती हुई वे शिवा पुत्र के पीछे-पीछे चल दीं ॥ ३३-३४ ॥ तब बार-बार शोक करती हुई माता के दुःख को देखकर गुणेश ने उस दैत्य से भी बड़ा अपना शरीर बना लिया। उन्होंने अपने चरणों के प्रहार से उसके शरीर को सौ टुकड़ों में विदीर्ण कर डाला। गिरते हुए भी उस दैत्य के विशाल शरीर ने अनेकों वृक्षों को चूर-चूर कर दिया ॥ ३५-३६ ॥ इस प्रकार से उस दानव का वध करने के अनन्तर बालक गुणेश माता के आगे खड़े हो गये। उसी समय मुनिगण, देवता तथा उन मुनियों की पत्नियाँ भी वहाँ आ पहुँचीं। वे सब देवी पार्वती से बोले — इस बालक पर कितने ही विघ्न आ रहे हैं, परंतु हे सुरेश्वरि ! आपके पुण्यप्रताप के कारण वे सभी विनष्ट हो जा रहे हैं ॥ ३७-३८ ॥ तदनन्तर उन सभी के द्वारा पूजित उस बालक गुणेश को अपनी गोद में लेकर देवी पार्वती उन मुनिजनों और मुनिपत्नियों के साथ मन में अत्यन्त हर्षित होते हुए अपने भवन को गयीं। देवी शिवा ने अपनी गोद से उतारकर बालक गुणेश को आँगन में उसी प्रकार रखा, जिस प्रकार कि प्राचीनकाल में देवताओं पर विजय प्राप्तकर गरुड़ ने [कुशों के ऊपर] अमृत को रखा था ॥ ३९-४० ॥ [तदनन्तर सहसा किंचित्] मूर्च्छा को प्राप्त कर वे बालक गुणेश धरती पर बार-बार लोट लगाने लगे और अपने मुखकमल को फैलाकर बार-बार जँभाई लेने लगे। अभी-अभी इसे क्या हो गया है — ऐसा कहते हुए पार्वती दौड़कर उनके समीप गयीं तो उन्होंने उन विश्वरूपी गुणेश के मुख के भीतर सम्पूर्ण विश्व को देखा ॥ ४१-४२ ॥ उन्होंने वहाँ सात द्वीपों वाली पृथ्वी, नगरों, ग्रामों, वनों खानों, पर्वतों, समुद्रों, ब्रह्मा, सूर्य, शेषनाग, विष्णु, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, मुनिजन, पक्षीसमूह, नदी, वापी, तड़ाग, चौदह मनुओं, आठ वसुओं, चन्द्रमा, सूर्य, अग्नि, तारासमूह, चेतन तथा अचेतन सभी प्राणियों, सात पातालों तथा इक्कीस स्वर्गों को भी देखा ॥ ४३–४५ ॥ इस प्रकार तीनों लोकों का मुख के अन्दर दर्शनकर उस समय देवी पार्वती को मूर्च्छा आ गयी। वे अपनी दोनों आँखों को बन्दकर दो मुहूर्त तक भ्रमित-सी होती रहीं ॥ ४६ ॥ उन्होंने मन-ही-मन भगवान् शिव का स्मरण किया, इससे वे सचेत हो गयीं, तब उन्होंने पहले की भाँति ही अपने सामने स्थित हुए बालक गुणेश को देखा। उन गुणेश के कृपाप्रसाद से प्रसन्न मन वाली वे देवी पार्वती गुणेश की स्तुति करने लगीं ॥ ४७१/२ ॥ पार्वती बोलीं — [हे प्रभो!] आप ही परमात्मा हैं और आप ही चराचर जगत् के गुरु हैं। आप चिदात्मा, आनन्दघन, शाश्वत, नित्य तथा अनित्य स्वरूपवाले हैं। मैंने आपकी कुक्षि में चौदहों भुवनों को देखा है। इसके साथ ही सभी देवताओं, यक्षों, राक्षसों, सभी नदियों, वृक्षसमूहों — इस प्रकार से सम्पूर्ण चराचर जगत् का दर्शन किया है, जिसका वर्णन करना मेरे लिये सम्भव नहीं है। यह देखकर मैं उस समय भ्रान्त होकर भूमि पर गिर पड़ी, फिर जब मैंने भगवान् शिव का स्मरण किया, तभी मैं सचेत हो पायी, तब मैंने एक सामान्य बालक की भाँति ही बालकरूप में आपको देखा ॥ ४८–५१ ॥ ब्रह्माजी बोले — वे इस प्रकार स्तुति कर ही रही थीं कि उसी समय उन्होंने अपनी माया प्रकट कर दी। तब देवी पार्वती ने प्यार से पुचकारते हुए उन्हें अपनी गोद में ले लिया और स्तनपान कराया ॥ ५२ ॥ तदुपरान्त भवन में प्रवेशकर गिरिजा अपने घर के कार्यों में संलग्न हो गयीं। सभी मुनिगण तथा मुनिपत्नियाँ भी अपने-अपने घरों को चले गये। इस आख्यान का श्रवणकर मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है ॥ ५३ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘विश्वरूपदर्शन’ नामक बानबेवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९२ ॥ Content is available only for registered users. 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