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श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध उत्तरार्ध – अध्याय ७४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
चौहत्तरवाँ अध्याय
भगवान् की अग्रपूजा और शिशुपाल का उद्धार

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! धर्मराज युधिष्ठिर जरासन्ध का वध और सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण की अद्भुत महिमा सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और उनसे बोले ॥ १ ॥

धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा — सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! त्रिलोकी के स्वामी ब्रह्मा, शङ्कर आदि और इन्द्रादि लोकपाल — सब आपकी आज्ञा पाने के लिये तरसते रहते हैं और यदि वह मिल जाती है तो बड़ी श्रद्धा से उसको शिरोधार्य करते हैं ॥ ३ ॥ अनन्त ! हमलोग हैं तो अत्यन्त दीन, परन्तु मानते हैं अपने को भूपति और नरपति । ऐसी स्थिति में हैं तो हम दण्ड के पात्र, परन्तु आप हमारी आज्ञा स्वीकार करते है और उसका पालन करते हैं । सर्वशक्तिमान् कमलनयन भगवान् के लिये यह मनुष्य-लीला का अभिनयमात्र है ॥ ३ ॥ जैसे उदय अथवा अस्त के कारण सूर्य के तेज में घटती या बढ़ती नहीं होती, वैसे ही किसी भी प्रकार के कर्मों से न तो आपका उल्लास होता है और न तो ह्रास ही । क्योंकि आप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद से रहित स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं ॥ ४ ॥ किसी से पराजित न होनेवाले माधव ! ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है तथा यह तू है और यह तेरा’ — इस प्रकार की विकारयुक्त भेदबुद्धि तो पशुओं की होती हैं । जो आपके अनन्य भक्त हैं, उनके चित्त में ऐसे पागलपन के विचार कभी नहीं आते । फिर आपमें तो होंगे ही कहाँ से ? (इसलिये आप जो कुछ कर रहे हैं, वह लीला-ही-लीला हैं) ॥ ५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! इस प्रकार कहकर धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण की अनुमति से यज्ञ के योग्य समय आने पर यज्ञ के कर्मों मे निपुण वेदवादी ब्राह्मणों को ऋत्विज्, आचार्य आदि के रूप में वरण किया ॥ ६ ॥ उनके नाम ये हैं — श्रीकृष्णद्वैपायनव्यासदेव, भरद्वाज, सुमन्तु, गौतम, असित, वसिष्ठ, च्यवन, कण्व, मैत्रेय, कवष, त्रित, विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिनि, क्रतु, पैल, पराशर, गर्ग, वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप, धौम्य, परशुराम, शुक्राचार्य, आसुरि, वीतिहोत्र, मधुच्छन्दा , वीरसेन और अकृतव्रण ॥ ७-९ ॥

इनके अतिरिक्त धर्मराज ने द्रोणाचार्य, भीष्मपितामह, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र और उनके दुर्योधन आदि पुत्रों और महामति विदुर आदि को भी बुलवाया ॥ १० ॥ राजन् ! राजसूय यज्ञ का दर्शन करने के लिये देश के सब राजा, उनके मन्त्री तथा कर्मचारी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र — सब-के-सब वहाँ आये ॥ ११ ॥

इसके बाद ऋत्विज् ब्राह्मणों ने सोने के हलों से यज्ञभूमि को जुतवाकर राजा युधिष्ठिर को शास्त्रानुसार यज्ञ की दीक्षा दी ॥ १२ ॥ प्राचीन काल में जैसे वरुणदेव के यज्ञ में सब-के-सब यज्ञपात्र सोने के बने हुए थे, वैसे ही युधिष्ठिर के यज्ञ में भी थे । पाण्डुनन्दन महाराज युधिष्ठिर के यज्ञ में निमन्त्रण पाकर ब्रह्माजी, शङ्करजी, इन्द्रादि लोकपाल, अपने गणों के साथ सिद्ध और गन्धर्व, विद्याधर, नाग, मुनि, यक्ष, राक्षस, पक्षी, किन्नर, चारण, बड़े-बड़े राजा और रानियाँ — ये सभी उपस्थित हुए ॥ १३-१५ ॥ सबने बिना किसी प्रकार के कौतूहल के यह बात मान ली कि राजसूय यज्ञ करना युधिष्ठिर के योग्य ही है, क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण के भक्त के लिये ऐसा करना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है । उस समय देवताओं के समान तेजस्वी याजकों ने धर्मराज युधिष्ठिर से विधिपूर्वक राजसूय यज्ञ कराया; ठीक वैसे ही, जैसे पूर्वकाल में देवताओं ने वरुण से करवाया था ॥ १६ ॥ सोमलता से रस निकालने के दिन महाराज युधिष्टिर ने अपने परम भाग्यवान् याजकों (यज्ञ करने या करानेवाला।) और यज्ञकर्म की भूल-चूक का निरीक्षण करनेवाले सदसस्पतियों (जैसे देश में कोई भी कार्य चल रहा हो तो विपक्षी पार्टी होती है जो उसका विरोध करती है। यज्ञ में भी ऐसे सदसस्पति होते थे। लेकिन उनका कार्य विरोध करना नहीं, गलती बता कर उनका सुधार करवाना होता था।) का बड़ी सावधानी से विधिपूर्वक पूजन किया ॥ १७ ॥

अब सभासद् लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सबसे पहले किसकी पूजा — अग्रपूजा होनी चाहिये । जितनी मति, उतने मत । इसलिये सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका । ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा — ॥ १८ ॥ यदुवंशशिरोमणि भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं । क्योंकि यही समस्त देवताओं के रूप में हैं; और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएँ हैं, उन सबके रूप में भी ये ही हैं ॥ १९ ॥ यह सारा विश्व श्रीकृष्ण का ही रूप है । समस्त यज्ञ भी श्रीकृष्णस्वरूप ही हैं । भगवान श्रीकृष्ण ही अग्नि, आहुति और मन्त्रों के रूप में हैं । ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग — ये दोनों भी श्रीकृष्ण की प्राप्ति के ही हेतु हैं ॥ २० ॥ सभासदो ! मैं कहाँ तक वर्णन करूँ, भगवान् श्रीकृष्ण वह एकरस अद्वितीय ब्रह्म हैं, जिसमें सजातीय, विजातीय और स्वगत भेद — नाममात्र का भी नहीं है । यह सम्पूर्ण जगत् उन्हीं का स्वरूप है । वे अपने-आप में ही स्थित और जन्म, अस्तित्व, वृद्धि आदि — छः भाव-विकारों से रहित हैं । वे अपने आत्मस्वरूप सङ्कल्प से ही जगत् की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं ॥ २१ ॥ सारा जगत् श्रीकृष्ण के ही अनुग्रह से अनेकों प्रकार के कर्म का अनुष्ठान करता हुआ धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थों का सम्पादन करता है ॥ २२ ॥ इसलिये सबसे महान् भगवान् श्रीकृष्ण की ही अग्रपूजा होनी चाहिये । इनकी पूजा करने से समस्त प्राणियों की तथा अपनी भी पूजा हो जाती है ॥ २३ ॥ जो अपने दान-धर्म को अनन्त भाव से युक्त करना चाहता हो, उसे चाहिये कि समस्त प्राणियों और पदार्थों के अन्तरात्मा, भेदभावरहित, परम शान्त और परिपूर्ण भगवान् श्रीकृष्ण को ही दान करे ॥ २४ ॥

परीक्षित् ! सहदेव भगवान् की महिमा और उनके प्रभाव को जानते थे । इतना कहकर वे चुप हो गये । उस सयम धर्मराज युधिष्ठिर की यज्ञसभा में जितने सत्पुरुष उपस्थित थे, सबने एक स्वर से ‘बहुत ठीक, बहुत ठीक’ कहकर सहदेव की बात का समर्थन किया ॥ २५ ॥ धर्मराज युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों की यह आज्ञा सुनकर तथा सभासदों का अभिप्राय जानकर बड़े आनन्द से, प्रेमोद्रेक से विह्वल होकर भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा की ॥ २६ ॥ अपनी पत्नी, भाई, मन्त्री और कुटुम्बियों के साथ धर्मराज युधिष्ठिर ने बड़े प्रेम और आनन्द से भगवान् के पाँव पखारे तथा उनके चरणकमलों का लोकपावन जल अपने सिर पर धारण किया ॥ २७ ॥ उन्होंने भगवान् को पीले-पीले रेशमी वस्त्र और बहुमूल्य आभूषण समर्पित किये । उस समय उनके नेत्र प्रेम और आनन्द के आँसुओं से इस प्रकार भर गये कि वे भगवान् को भली-भाँति देख भी नहीं सकते थे ॥ २८ ॥ यज्ञसभा में उपस्थित सभी लोग भगवान् श्रीकृष्ण को इस प्रकार पूजित, सत्कृत देखकर हाथ जोड़े हुए ‘नमो नमः ! जय-जय !’ इस प्रकार के नारे लगाकर उन्हें नमस्कार करने लगे । उस समय आकाश से स्वयं ही पुष्पों की वर्षा होने लगी ॥ २९ ॥

परीक्षित् ! अपने आसन पर बैठा हुआ शिशुपाल यह सब देख-सुन रहा था । भगवान् श्रीकृष्ण के गुण सुनकर उसे क्रोध हो आया और वह उठकर खड़ा हो गया । वह भरी सभा में हाथ उठाकर बड़ी असहिष्णुता, किन्तु निर्भयता के साथ भगवान् को सुना सुनाकर अत्यन्त कठोर बातें कहने लगा — ॥ ३० ॥ ‘सभासदो ! श्रुतियों का यह कहना सर्वथा सत्य है कि काल ही ईश्वर हैं । लाख चेष्टा करने पर भी वह अपना काम करा ही लेता है — इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमने देख लिया कि यहाँ बच्चों और मूर्खों की बात से बड़े-बड़े वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्धों की बुद्धि भी चकरा गयी है ॥ ३१ ॥ पर में मानता हूँ कि आपलोग अग्रपूजा के योग्य पात्र का निर्णय करने में सर्वथा समर्थ हैं । इसलिये सदसस्पतियो ! आपलोग बालक सहदेव की यह बात ठीक न मानें कि ‘कृष्ण ही अग्रपूजा के योग्य हैं’ ॥ ३२ ॥ यहाँ बड़े-बड़े तपस्वी, विद्वान्, व्रतधारी, ज्ञान के द्वारा अपने समस्त पाप-तापों को शान्त करनेवाले, परम ज्ञानी परमर्षि, ब्रह्मनिष्ठ आदि उपस्थित हैं — जिनकी पूजा बड़े-बड़े लोकपाल भी करते हैं ॥ ३३ ॥

यज्ञ की भूल-चूक बतलानेवाले उन सदसस्पतियों को छोड़कर यह कुल-कलङ्क ग्वाला भला, अग्रपूजा का अधिकारी कैसे हो सकता है ? क्या कौआ कभी यज्ञ के पुरोडाश का अधिकारी हो सकता है ? ॥ ३४ ॥ न इसका कोई वर्ण हैं । और न तो आश्रम । कुल भी इसका ऊँचा नहीं है । सारे धर्मों से यह बाहर है । वेद और लोक-मर्यादाओं का उल्लङ्घन करके मनमाना आचरण करता है । इसमें कोई गुण भी नहीं है । ऐसी स्थिति में यह अग्रपूजा का पात्र कैसे हो सकता है ? ॥ ३५ ॥ आपलोग जानते हैं कि राजा ययाति ने इसके वंश को शाप दे रखा है । इसलिये सत्पुरुषों ने इस वंश का ही बहिष्कार कर दिया है । ये सब सर्वदा व्यर्थ मधुपान में आसक्त रहते हैं । फिर ये अग्रपूजा के योग्य कैसे हो सकते हैं ? ॥ ३६ ॥ इन सबने ब्रह्मर्षियों के द्वारा सेवित मथुरा आदि देशों का परित्याग कर दिया और ब्रह्मवर्चस् के विरोधी (वेदचर्चारहित) समुद्र में किला बनाकर रहने लगे । वहाँ से जब ये बाहर निकलते हैं, तो डाकुओं की तरह सारी प्रजा को सताते हैं ॥ ३५ ॥

परीक्षित् ! सच पूछो तो शिशुपाल का सारा शुभ नष्ट हो चुका था । इससे उसने और भी बहुत सी कड़ी-कड़ी बातें भगवान् श्रीकृष्ण को सुनायीं । परन्तु जैसे सिंह कभी सियार की ‘हुआँ-हुआँ’ पर ध्यान नहीं देता, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्ण चुप रहे, उन्होंने उसकी बातों का कुछ भी उत्तर न दिया ॥ ३८ ॥ परन्तु सभासदों के लिये भगवान् की निन्दा सुनना असह्य था । उनमें से कई अपने-अपने कान बंद करके क्रोध से शिशुपाल को गाली देते हुए बाहर चले गये ॥ ३९ ॥ परीक्षित् ! जो भगवान् की या भगवत्परायण भक्तों की निन्दा सुनकर वहाँ से हट नहीं जाता, वह अपने शुभकर्मों से च्युत हो जाता है और उसकी अधोगति होती है ॥ ४० ॥

परीक्षित् । अब शिशुपाल को मार डालने के लिये पाण्डव, मत्स्य, केकय और सृञ्जयवंशी नरपति क्रोधित होकर हाथों में हथियार ले उठ खड़े हुए ॥ ४१ ॥ परन्तु शिशुपाल को इससे कोई घबड़ाहट न हुई । उसने बिना किसी प्रकार का आगा-पीछा सोचे अपनी ढाल-तलवार उठा ली और वह भरी सभा में श्रीकृष्ण के पक्षपाती राजाओं को ललकारने लगा ॥ ४२ ॥ उन लोगों को लड़ते-झगड़ते देख भगवान् श्रीकृष्ण उठ खड़े हुए । उन्होने अपने पक्षपाती राजाओं को शान्त किया और स्वयं क्रोध करके अपने ऊपर झपटते हुए शिशुपाल का सिर छुरे के समान तीखी धारवाले चक्र से काट लिया ॥ ४३ ॥ शिशुपाल के मारे जाने पर वहाँ बड़ा कोलाहल मच गया । उसके अनुयायी नरपत अपने-अपने प्राण बचाने के लिये वहाँ से भाग खड़े हुए ॥ ४४ ॥ जैसे आकाश से गिरा हुआ लूक धरती में समा जाता है, वैसे ही सब प्राणियों के देखते-देखते शिशुपाल के शरीर से एक ज्योति निकलकर भगवान् श्रीकृष्ण में समा गयी ॥ ४५ ॥ परीक्षित् ! शिशुपाल के अन्तःकरण में लगातार तीन जन्म से वैरभाव की अभिवृद्धि हो रही थी और इस प्रकार, वैरभाव से ही सही, ध्यान करते-करते वह तन्मय हो गया — पार्षद हो गया । सच है — मृत्यु के बाद होनेवाली गति में भाव ही कारण है ॥ ४६ ॥ शिशुपाल की सद्गति होने के बाद चक्रवतीं धर्मराज युधिष्ठिर ने सदस्यों और ऋत्विजों को पुष्कल दक्षिणा दी तथा सबका सत्कार करके विधिपूर्वक यज्ञान्त-स्नान-अवभृथ-स्नान किया ॥ ४७ ॥

परीक्षित् ! इस प्रकार योगेश्वरेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ पूर्ण किया और अपने सगे-सम्बधी और सुहृदों की प्रार्थना से कुछ महीनों तक वहीं रहे ॥ ४८ ॥ इसके बाद राजा युधिष्ठिर की इच्छा न होने पर भी सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण ने उनसे अनुमति ले ली और अपनी रानियों तथा मन्त्रियों के साथ इन्द्रप्रस्थ से द्वारकापुरी की यात्रा की ॥ ४९ ॥ परीक्षित् ! मैं यह उपाख्यान तुम्हें बहुत विस्तार से (सातवें स्कन्धमें) सुना चुका हूँ कि वैकुण्ठवासी जय और विजय को सनकादि ऋषियों के शाप से बार-बार जन्म लेना पड़ा था ॥ ५० ॥ महाराज युधिष्ठिर राजसूय का यज्ञान्त-स्नान करके ब्राह्मण और क्षत्रियों की सभा में देवराज इन्द्र के समान शोभायमान होने लगे ॥ ५१ ॥ राजा युधिष्ठिर ने देवता, मनुष्य और आकाशचारियों का यथायोग्य सत्कार किया तथा वे भगवान् श्रीकृष्ण एवं राजसूय यज्ञ की प्रशंसा करते हुए बड़े आनन्द से अपने-अपने लोक को चले गये ॥ ५२ ॥ परीक्षित् ! सब तो सुखी हुए, परन्तु दुर्योधन से पाण्डवों की यह उज्ज्वल राज्यलक्ष्मी का उत्कर्ष सहन न हुआ । क्योंकि वह स्वभाव से ही पापी, कलहप्रेमी और कुरुकुल का नाश करने के लिये एक महान् रोग था ॥ ५३ ॥

परीक्षित् ! जो पुरुष भगवान् श्रीकृष्ण की इस लीला का — शिशुपालवध, जरासन्धवध, बंदी राजाओं की मुक्ति और यज्ञानुष्ठान का कीर्तन करेगा, वह समस्त पापों से छूट जायगा ॥ ५४ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे चतुःसप्ततित्तमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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